मनोहर नोतानी

. . . . . आसमान कमोबेश ही था जैसा आज है। अलबत्ता उसमें छितरी विभिन् न गैसें ज़रूर अजीब थीं। ऑक्सीजन न होकर वायुमंडल में मीथेन थी, हाइड्रोजन थी और थी अमोनिया की कुछ वाष्प।

जीवन की उत्पत्ति संबंधी अनुसंधान से जुडे वैज्ञानिकों के एक तबके के मुताबिक.....आज से करीब तीन सौ करोड़ साल पहले. . . . .आसमान कमोबेश वैसा ही था जैसा आज है। अलबत्ता उसमें छितरी विभिन्न गैसें फिज़ा में समा रही थीं। ज़हरीली न होकर वायुमंडल में मीथेन थी, हाइड्रोजन थी और थी अमोनिया की कुछ वाष्प।

लेकिन जिंदगी नदारद थी। अपना ग्रह (पृथ्वी) चारों ओर से एक उथले निष्प्राण समुंदर से घिरा था। इधर-उधर बिखरे उजाड़-वीरान द्वीपों के अलावा कहीं कोई ज़मीन न थी। महाद्वीपों के होने का तो कोई सवाल ही न था। लेकिन चारों ओर का नज़ारा शांत भी न था। बहुत उथल-पुथल थी। हुंकारते हुए ज्वालामुखी लावा-ही-लावा उगल रहे थे। बुदबुदाते गरम-गरम सोतों से भाप और ज़हरीली गैसें फिज़ा में समा रही थीं। जब तब एक झंझा उठती और हमारी धरती को झिझोड़ती रहत। रह-रहकर बिजली चमकती और सारा नज़ारा रोशन हो उठता। विद्युतीय आवेश ने वातावरण की तमाम गैसों में हड़कंप मचा रखा था। और नतीजतन वे कभी आपस में, तो कभी पानी के साथ रासायनिक क्रियाएं करने लगतीं। फलस्वरूप नए-नए अणु बन रहे थे जिन्हें आगे चलकर अमीनो अम्ल व न्यूक्लियोटाइड्स का नाम दिया गया। इसके पहले ये अणु इस धरती पर न थे, और यही थे आगे आने वाले हमारे जीवन का कच्चा माल।

धीरे-धीरे और और और अमीनों अम्ल और न्यूक्लियोटाइड्स बनते गए और जमा होते गए। और उनका बना एक खूब गाढ़ा शोरबा। फिर उस गाढ़े शोरबे में हाज़िर बड़, और बड़े अणु अस्तित्व में आए।

दरअसल विकास के संसार में अहम चीज़ें होने, घटने में लाखों करोड़ों बरसों का समय लग जाता है। और विकास के उस आदि काल में लाखों करोड़ों सालों के दौरान घटे अणुओं के बेहतरतीब टकराव के कारण नाना प्रकार के अणु रचे गए। इनमें से कुछ तो सर्पिल थे, तो कुछ एकदम गोलाकार। और कई तो थे लंबी-लंबी चोटियों वाले।

अंतत: इन तमाम अणुओं में अकस्मात ही उभर आया एक ऐसा जादुई अणु जिसमें प्रतिभा थी हूबहू अपनी ही नकल बनाने की। इस जादुगई अणु में आपस में गुंथी न्यक्लियोटाइड्स की दो लंबी लड़ियां थीं। एक दूसरे से अलग होने पर इन दो लड़ियों में से प्रत्येक ने अन्य न्यक्लियोटाइड्स को अपनी ओर खींचा और ऐसे बन गई इनकी दो नकलें। यानी प्रजनन की शुरुआत हो चुकी थी - एक अणु की जगह थे अब दो अणु।

आगे चलकर पुनरुत्पादन की यह प्रक्रिया कइयों बार दोहराई गई और जल्द ही उस वक्त की हमारी युवा धरती पर फैले समंदर में डोलने लगी उस मूल जनक अणु की संतानें। और यही थे जीवने के पहले-पहले रूप।

आगे जो कारोड़ों साल गुज़रे उनमें अपनी ही मूरत बना सकने वाले इन शुरुआती अणुओं का विकसस हुआ। आखिरकार विकास का यह सफर तय करते-करते इस धरती पर तमाम जीव छा गए, जिन्हें हम आज अपने चारों ओर पाते हैं - कीटाणु, पौधे, चूहे, मानव इत्यादि। इनमें से हरेक जीव कोशिकाओं से मिलकर बना है और कोशिकाओं का निर्माण एक ही तरह के कच्चे माल से हुआ है - अमीनों अम्ल व न्यक्लियोटाइड्स। हरेक ज़िंदा कोशिका के केंद्र में बसा है उस प्रथम अणु का वंशज जिसे हम आज डी.एन.ए. कहकर पुकारते हैं।


*यह लेख राबर्ट शैपिरों की किताब ‘ओरिजिन्स’ पर आधारित है