सवालीराम

सवाल: छिपकली दीवार पर कैसे चिपक जाती है और टूटने के बाद उसकी नई पूंछ कैसे आ जाती है?

जवाब: जीवों को ज़िंदा रहने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ता है। खुद के लिए भोजन की तलाश और दूसरों का भोजन बन जाने से अपने आप को बचाना हर जीवित के लिए आवश्यक है। शत्रुओं से बचने के लिए इनमें अलग-अलग प्रकार के बचाव के साधन देखे जाते हैं। जैसे बिच्छू या मधुमक्खी का डंक, गुलाब के कांटे, गिरगिट का रंग बदलना..... बहुत ही अलग-अलग तरह के तरीके पाए जाते हैं प्राणियों-पौधों में। छिपकली का पूंछ को छोड़कर भागना व पूंछ के टूटे हुए टुकड़ें का हिलते रहना ऐसा ही एक तरीका है।

छिपकली में एक अद्भुत क्षमता होती है कि जब भी कभी उसे अपने किसी शत्रु की पकड़ में आ जाती है, तो वह अपनी पूंछ छोड़कर भाग जाती है। कटी हुई पूंछ कुछ देर तक तड़पती-छटपटाती रहती है, जिससे शत्रु का ध्यान उसमें लग जाता है। तब तक छिपकली किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाती है।

किसी शत्रु को इस तरह से चकमा देने वाली छिपकली की पूंछ में एक विशेषता होती है। उसकी पूंछ की हड्डी और रीढ़ की हड्डी के बीच का जोड़ बहुत कमज़ोर होता है। इसलिए थोड़ा-सा दबाव पड़ने पर या छिपकली की अपनी कोशिश से वह आसानी से टूट जाता है। जिससे पूंछ शरीर से अलग हो जाती है। अलग हुए इस टुकड़े में तंत्रिकाओं के बचे हुए हिस्से एक साथ उत्तेजित हो जाते हैं, जिसकी वजह से कटा हुआ सिरा कुछ सेकेंड तक  छटपटाता रहता है।

पूंछ के टूट कर पीछे रह जाने पर पीछा करने वाला शत्रु कुछ क्षण के लिए हतप्रभ रह जाता है। उसे समझ नहीं आता कि वह पूंछ को पकड़े या आगे  भाग रही छिपकली को। टूटी हुई पूंछ छटपटाते रहने के कारण शत्रु और भी ज़्यादा भ्रमित हो जाता है। चूंकि पूंछ दूर नहीं भागती, सामान्य तौर पर शत्रु का पहला आक्रमण उसी पर होता है। इतना समय छिपकली के भागने के लिए पर्याप्त होता है। हां, पर इन सब के बावजूद कुछ शत्रु छिपकली को पकड़ ही लेते हैं।

एक बात और, छिपकली की पूंछ छुड़वाना सरल काम नहीं है। छोटे-मोटे खतरों पर वह अपनी पूंछ नहीं छोड़ती, जब उसे लगता है कि अब पकड़ी जाएगी और पकड़ने पर मार दी जाएगी तभी वह अपनी पूंछ छोड़ती है। कुछ दिनों में छिपकली की पूंछ दुबारा  निकल आती है। किन्तु यह पहली पूंछ से कुछ मायने में फर्क होती है। नई पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती; हड्डियों के बजाय इसमें उपास्थी (कार्टिलेज) से बनी एक नली होती है जो इस पूंछ को आकार देती है। इसकी लंबाई-चौड़ाई भी पहले वाली पूंछ से कुछ कम होती है।

एक और बात पर तुम शायद गौर किया होगा। छिपकली की पूंछ टूट जाने के बाद भी खून नहीं निकलता। असल में छिपकली की पूंछ में खून की नलियां होती ही नहीं हैं! खून की नलियां जहां पूंछ शुरू होती है वहीं तक रहती हैं। इसीलिए पूंछ टूट जाने पर भी उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचता और खून भी नहीं निकलता।

हां, तो अब सवाल के दूसरे हिस्से का जवाब देखते हैं कि छिपकली दीवार पर कैसे चिपक जाती है? दरअसल सीधी-सपाट या खुरदरी ज़मीन पर चलना तो हम सभी जानते हें, पर खड़ी दीवारों या कांच जैसी चिकनी सतहों पर चलना या फिर छत पर उल्टे लटककर रेंगना तो छिपकली के ही बस की बात है।

छिपकली के पंजों की बनावट ऐसी होती है कि वह बहुत चिकनी सतह पर भी चिपकी रह सकती है। उसके पंजे की हर अंगुली की निचली सतह पर सोलह से इक्कीस शल्क होते हैं। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर ये शल्क खपरैलनुमा धारियों की तरह दिखते हैं।

प्रत्येक शल्क पर बाल के समान लगभग 1,50,000 अत्यंत बारीक रचनाएं होती हैं और हर-एक बालनुमा रचना खुद 2000 हिस्सों में बंटी होती है, जिसके प्रत्येक हिस्से का छोर गोल तश्तरीनुमा आकार लिए होता है। आप अंदाज़ा लगाइए कि ये रचनाएं कितनी बारीक होती होंगी? वास्तव में ये इतनी बारीक होती हैं कि कांच की सतह जिसे हम चिकना समझते हैं, इनके लिए खुरदरी ही नहीं, बहुत अधिक खुरदरी होती है। इनके आकार का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया से सकता है कि अगर इन्हें एक-दूसरे से सटाकर रखा जाए तो एक सेंटीमीटर में ऐसी 50,000 तश्तरीनुमा रचनाएं समा सकती हैं। और छिपकली जब दीवार पर चल रही होती है तो लगभग 10 करोड़ तश्तरीनुमा रचनाओं के किनारे दीवार की सतह से सटे होते हैं!

  1. छिपकली की एक अंगुली और उस पर खूब सारे खपरैलनुमा शल्क।
  2. प्रत्येक शल्क पर पाई जाने वाली लाखों बालनुमा रचनाएं इसमें पहले चित्र के एक छोटे से हिस्से को बड़ा करके दिखाया गया है।
  3. दूसरे चित्र की हर बालनुमा रचना खुद 2000 हिस्सों में बंटी होती है। ऐसे हर हिस्से का छोर तश्तरीनुमा दिखता है। पंजों पर बनी यही करोड़ों अत्यन्त बारीक तश्तरियां ही असली राज़ है - छिपकली के दिवार पर चिपके रहने और छत पर उल्टा लटककर चलने का।

इसीलिए हमें चिकनी दिखने वाली सतहों पर भी छिपकली बिना फिसले आराम से चल सकती है। छिपकली की विभिन्न जातियों में शल्क तथा उनकी अन्य रचनाओं की संख्याओं में थोड़ा-बहुत फर्क ज़रूर हो सकता है।

सचेत न रहे तो वो भी फंस सकती है

सवाल : मकड़ी अपने जाल में खुद क्यों नहीं फंसती?

जवाब : मकड़ी अपने जाल में खुद क्यों नहीं फंसती इस सवाल पर बात करने से पहले ज़रा यह तो देख लें कि मकड़ी जाला क्यों बुनती है और उसे बुनती कैसे है।

मकड़ी के शरीर में कई रेशम ग्रंथियां होती हैं जो लगातार एक नस-लसा पदार्थ बनाती हैं। यह लसलसा पदार्थ मकड़ी के शरीर के पिछले हिससे में स्थित नली जैसी रचनाओं से बाहर निकलता है। प्रत्येक मकड़ी में एक सौ से लेकर हज़ार तक नलियां होती हैं। अलग-अलग रेशम ग्रंथियों को इस्तेमाल करके मकड़ी अपने मनमाफिक तरह-तरह के धागे बना सकती है - चिपचिपे, साधारण या और किसी तरह के। ऐसा इसलिए संभव बनता है क्योंकि अलग-अलग तरह की रेशम ग्रंथियों से पैदा होने वाले पदार्थ एक-दूसरे से फर्क होते हैं। इसलिए जिस तरह की ज़रूरत हो, मकड़ी उसके मुताबिक ज़रूरी रेशम ग्रंथियों को सक्रिय बनाकर उसमें बनने वाला पदार्थ नलियों से बाहर निकालने लगती है।

मकड़ी के आठों पंजों के आगे ऐसी दो अंगुलियों जैसी रचना दिखती है। इसी की वजह से मकड़ी चिपचिपे धागे पर भी आसानी से चल पाती है। बीच का हुक रेशमी धागे को कसकर दबाकर पकड़ने के लिए होता है।

इन नलियों से बहुत-सी बारीक धागे निकलते हैं। इन पतले धागों को एक-दूसरे में गूंथकर मकड़ी एक मज़बूत धागा बनाती है। फिर इस धागे से मकड़ी अपना जाला बुनती है। मकड़ी के जाल के महीन धागे वास्तव में कई अत्यंत पतले-पतले धागों के आपस में गुंथने से बना एक धागा है। यानी कि मकड़ी के जाल का एक महीन-सा दिखने वाला धागा उससे भी पतले कई रेशों से बना होता है। तुम यकीन नहीं करोगे पर एक मिलीमीटर में मकड़ी के 10,000 धागे समा सकते हैं।

मकड़ी यह रेशमनुमा पदार्थ बनाती क्यों है? इस बात पर गौर करें तो दो बातें समझ में आती हैं। एक तो मकड़ी अपने अण्डों के चारों ओर एक घनी जाली बुनती है जिसमें अण्डे सुरक्षित रहते हैं। दूसरा, मकड़ी इस धागे से जाल बुनकर अपनी भोजन की समस्या को हल करती है।

अब आते हैं तुम्हारे सवाल पर कि मकड़ी अपने जाल में खुद क्यों नहीं फंसती? मकड़ी अपने जाल को बहुत करीने से जमा-जमाकर बनाती है। जैसा कि शुरूआत में ही ज़िक्र किया गया था कि मकड़ी की रेशम चिपचिपे और साधारण दोनों किस्म के धागे बनाती हैं। जाल के इन चिपचिपे धागों में उलझकर कोई भी कीड़ा-मकोड़ा फंस जाता है और फिर जाले में से निकल नहीं पाता। जब शिकार जाल में फंस जाए तो मकड़ी या तो अपने शिकार को तुरन्त निपटा देती है या फिर उसे अच्छी तरह से धागों में उलझाकर-बांधकर भविष्य के भोजन के लिए रख देती है।

यह देखा गया है कि जाल के वे धागे जो साइकिल के पहिए की तीलियों (स्पोक) की तरह बुने होते हैं वे जाल को मज़बूती देने वाले साधारण धागे होते हैं। जाल में जलेबी की तरह गोल-गोल जमाए धागे चिपचिपे होते हैं। इन चिपचिपे धागों में कीड़े-मकोड़ों के साथ-साथ, अगर सावधानी न बरते तो, मकड़ी खुद भी उलझ सकती है।

मकड़ी साधारण धागों पर तो आसानी से चल ही सकती है क्योंकि इनमें चिपचिपाहट नहीं होती। लेकिन मकड़ी तो पूरे जाल में जहां चाहे वहां आसानी से चलती हुई दिखाई देती है। फिर उन चिपचिपे धागों में खुद क्यों नहीं फंस जाती? दरअसल मकड़ी की आठों टांगों के पंजों में एकदम छोर पर दो-दो अंगुलियों की तरह की बनावट होती है। इन अंगुलियों में खास बात यह होती है कि इन पर चिपचिपे धागों की चिपचिपाहट का कोई असर नहीं पड़ता। अपनी अंगुलियों की इस खासियत के कारण मकड़ी चिपचिपे धागों पर भी आसानी से चलती है। हां; चिपचिपे धागों पर चलते समय मकड़ी अपने शरीर के बाकी हिस्सों को धागे से छूने से बचाती है। वैसे मकड़ी कोशिश यही करती है कि साइकिल के पहिए की तीलियों जैसे धागों पर बैठकर या लटककर आराम करे क्योंकि इनमें फंसने का कोई खतरा नहीं होता।

छिपकली वाला सवाल शा. कन्या हाईस्कूल, टोंक खुर्द (ज़िला-देवास) की विद्यार्थी रजनी भण्डारी ने और मकड़ी के जाले वाला सवाल रीतेश रमेश भावसार, न्यू यार्ड, इटारसी (ज़िला होशंगाबाद) ने पूछा था।

इस बार के सवाल .....

सवाल - 1 गिरगिट अपना रंग कैसे बदलता है। मनुष्य या दूसरा जानवर अपना रंग क्यों नहीं बदल सकता?

माधवी पूरोहित
कक्षा दसवीं
शास.कन्या हाई स्कूल
टोंक खुर्द, ज़िला-देवास

सवाल - 2 गूलर के फूल क्यों नहीं दिखते?

रूस्तम कुमार चव्हाण
मलोथर
तहसील इटारसी
ज़िला-होशंगाबाद

इंतज़ार कैसा

आमतौर पर मकड़ियां इंतज़ार करती हैं अपने जाल में शिकार के फंसने का - परंतु इस मकड़ी में इतना धीरज कहां! पेड़ों की टहनियों के बजाए अपने ही पैरों के बीच जाल बुन लेती है और शिकार दिखने पर झपटकर उसे अपने जाल में फंसा लेती है।