सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने सन् 1328 में यह आदेश दिया कि राजधानी दिल्ली के निवासी दक्षिण में दौलतावाद जा कर बसें। इस मशहूर घटना का ज़िक्र दो समकालीन इतिहासकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं में किया। एक थे ज़ियाउद्दीन बरनी जो मोहम्मद तुगलक के दरबारी थे। उन्होंने मोहम्मद के भतीजे सुल्तान फिरूज़ के समय में ‘तारीखे फिरूज़ शाही’ की रचना की जिसमें मोहम्मद तुगलक के ज़माने की बातें भी दर्ज़ कीं1 दूसरे इतिहासकार थे एसामी जो मोहम्मद के समय में अपने दादा के साथ दिल्ली से दौलताबाद गए थे। कई वर्षों बाद दौलतावाद तुगलक के शासन से स्वतंत्र हो गया और बाहमनी की स्वतंत्र सल्तनत का हिस्सा बना। एसामी इस सल्तनत में रहे और उन्होंने ‘फुतुह उस सलातिन’ की रचना की। इस रचना में उन्होंने भी मोहम्मद तुगलक के ज़माने की बातों का बयान किया है। बरनी और एसामी के बयान बताते हैं हमें?
ज़ियाउद्दीन बरनी लिखते हैं -
एक योजना सुल्तान के दिमाग में आई कि दौलताबाद को राजधानी बनाया जाए। यह इसलिए क्योंकि दौलताबाद उसके साम्राज्य के मध्य में है। देहली, गुजरात, लखनऊटी, तिलंग, माबर, द्वारसमुद्र तथा कम्पिला, इस शहर से लगभग समान दूरी पर स्थित हैं। इस विषय में उसने किसी से परामर्श नहीं किया। उसने आदेश दिया कि उसकी अपनी मां और राज्य के सारे बड़े अधिकारी व सेनापति, अपने सहायक व विश्वासपात्रों के साथ दौलताबाद की ओर चलें। दरबार के हाथी, घोड़े, खज़ाना और बहूमूल्य वस्तुएं दौलताबाद भेज दी जाएं। इसके पश्चात सूफी संत व आलिमों (इस्लामी ग्रंथों के अध्ययन करने वाले) तथा देहली के प्रतिष्ठित व प्रसिद्ध लोग दौलताबाद बुलाए गए। जो लोग दौलताबाद गए उन्हें सुल्तान ने खूब सारा धन इनाम में दिया।
एक साल बाद सुल्तान देहली लौटा। उसने आदेश दिया कि देहली तथा आस-पास के कस्बों के निवासियों को काफिलों में दौलताबाद भेजा जाए। देहली वालों के घर उनसे मोल ले लिए जाएं। इन घरों की कीमत खज़ाने से दौलताबाद जाने वालों को दे दी जाए। ताकि वे वहां जाकर अपने लिए घर बनवा लें।
शाही आदेशानुसार देहली तथा आसपास के निवासी दौलताबाद की ओर भेज दिए गए। देहली शहर इस प्रकार खाली हो गया। कुछ दिन तक देहली के सारे दरवाज़े बंद रहे, शहर में कुत्ते बिल्ली तक न रह पाए।
देहली के निवासी जो वर्षों से वहां रहते आ रहे थे, लंबी यात्रा के कष्ट से रास्ते में ही मर गए1 बहुत से लोग, जो कि दौलताबाद पहुंचे अपनी मातृभूमि से पिछड़ने का दुख सहन नहीं कर सके। वे वापस होने की इच्छा में ही मर गए। यद्दपि सुल्तान ने देहली से जाने वाली प्रजा को अत्यधिक इनाम दिए, वह परदेस व कष्टों को सहन न कर सकी।
इसके बाद दूसरे प्रदेशों से आलिमों, सूफियों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को लाकर देहली में बसाया। मगर इस प्रकार लोगों को लाने से देहली आबाद न हो सकी।
लगभग पांच, छह साल बाद सुल्तान ने आदेश दिया कि जो भी दिल्ली लौटना चाहता है वह लौट सकता है। कुछ लोग लौट गए मगर बहुत से परिवार दौलताबाद में ही बस गए।
इसी घटना का ज़िक्र एसामी ने अपनी किताब ‘फुतुह उस सालतिन’ में कुछ इस तरह किया है —
“सुल्तान को देहली वालों पर संदेह था और वह उनके लिए मन में विष छिपाए रहता था। उसने गुप्त रूप से एक कुत्सित योजना बनाई कि एक महीने में देहली का विनाश कर दिया जाए। उसने सूचना कराई कि - “जो कोई सुल्तान का हितैषी हो वो दौलताबाद की ओर प्रस्थान करे। जो कोई इस आज्ञा का पालन करेगा उसे अत्यधिक संपत्ति मिलेगी, जो कोई इसका पालन न करेगा उसका सिर काट डाला जाएगा।”
उसने आदेश दिया कि देहली में आग लगा दी जाए और सभी लोगों को नगर से बाहर निकाल दिया जाए। परदेवाली स्त्रियों तथा एकांतवासी सूफियों को उनके घरों से बाल पकड़कर निकाला गया। इस प्रकार वे लोग देहली से निकले।
मेरे दादा भी उसी शहर में रहते थे। उनकी उम्र 90 वर्ष थी और वे एकांतवासी संत थे। वे कभी अपने घर से बाहर नहीं निकलते थे। वे पहले पड़ाव में ही मर गए। उन्हें वहीं दफन कर दिया गया।
सभी बूढ़े, यूवक, स्त्री तथा बालक यात्रा करने के लिए विवश थे। बहुत से बालक दूध बिना मर गए। अनेकों लोगों ने प्यास के कारण प्राण त्याग दिए। उस काफिले में से अत्यधिक कठिनाई सहन करके केवल दसवां भाग ही दौलताबाद पहुंच सका। सुल्तान ने इस तरह एक बसा हुआ शहर नष्ट कर डाला।
जब देहली में कोई न रह गया तो सारे द्वार बंद कर दिए गए। सुना जाता है कि कुछ समय बाद उस नीच और अत्याचारी बादशाह ने आसपास के गांवों से लोगों को बुलाकर देहली को बसवाया। तोतों और बुलबुलों को बाग से निकालकर कौओं को बसा दिया।
न जाने सुल्तान को किस प्रकार उन निर्दोष लोगों पर संदेह उत्पन्न हो गया कि उसने उनके पूर्वजों की नींव उखाड़ डाली और आज तक उनकी संतानों के विनाश में तल्लीन है।
(मूल फारसी ग्रंथों के हिंदी अनुवाद से उद्धृत;
अनुवादक - एस.ए.ए.रिज़वी, तुगलक कालीन भारत, भाग-1)