1. कई बार मकड़ी के जाले की शुरूआत हवा में लहराते हुए एक पतले धागे से होती है जिसे, मकड़ी इसी उम्मीद में लटकती है कि कोई हवा का झोंका उस धागे के सिरे को उड़ा ले जाए और वह स्वतंत्र सिरा कहीं जाकर अटक जाए।
2. जब कभी ऐसे धागे का सिरा कहीं अटक जाता है तो मकड़ी उसे खींचकर कस देती है और उस धागे पर चलते हुए एक खूब मोटा-सा धागा बुनती हुई चली जाती है। इन दोनों पौधों के बीच यह पुलनुमा धागा मोटा इसलिए रखा जाता है क्योंकि आखिरकार बड़े-से जाल का ज़्यादातर वज़न इसी धागे को संभालना है।
3. अब ढांचा खड़ा करने लिए मकड़ी एक कोने पर तीसरा धागा चिपकाकर मोटे धागे के सहारे वापस लौटती है। ऐसा करते हुए धागे को एकदम ढीला धागे के निचले सिरे पर आकर मकड़ी उसेएक और धागे के सहारे नीचे की टहनी से खींचकर चिपका देती है। इससे अंग्रेज़ी के ‘वाई’ आकार का ढांचा बन जाता है, जो एक तरह से आगे बनने वाले जाले की सीमाएं तय कर देता है। इस ‘वाई’ के बीच का बिन्दु उस ढांचे का केन्द्र बिन्दु बन जाएगा।
4-5. इसी तरह मकड़ी केन्द्र से तीन-चार और धागों के सहारे बाहर का एक घेरा-सा बना लेती है।
6. अब केन्द्र और इस धागे चिपका दिए जाते है। आमतौर पर गोले की त्रिज्या जैसे चिपके इन धागों की संख्या पचास से ज़्यादा नहीं होती। अब जाला साइकल के स्पोक-युक्त पहिए की तरह दिखने लगता है। उसके बाद मकड़ी एकदम बीच में जाकर तेज़ी से गोल-गोल घूमकर केन्द्र में एक मज़बूत-सा छल्ला बना देती है।
7. बीच से शुरू होकर बाहर की तरफ जाते हुए अब मकड़ी सर्पिलाकार आकृति में धागे अस्थाई करती है। ये सर्पिकार धागे अस्थायी होते है, क्योंकि जाला बनाने के अंतिम चरण में वह खुद इनको खा जाएगी। एकदम बाहरी ढांचे तक पहुंचने से थोड़ा पहले ही वह रुक जाती है।
8. अब तक के सब धागे सूखे ही थे, उनमें चिपचिपापन न था। पर अब पहली बार मकड़ी बार से अंदर आते-आते चिपचिपा धागा बिछाने लगती है - और पुराना सर्पिलाकार धागा खाकर खत्म करती जाती है। इस तरह चिचिपे धागों का एक घना जाल बिछाती हुई केन्द्र से थोड़ा पहले ही रुक जाती है।
और इस तरह तैयार हो जाता है उसका शिकारी जाल।