बी.एल. जायसवाल
एक संस्मरण
“मुझे पूरा पाठ खतम करने में जहां सिर्फ एक पीरियड लगता वहीं गुरूजी उतने समय में सिर्फ एक पैरा पढ़ाते थे। जब मैंने गुरूजी के पढ़ाने के तरीके पर गौर किया तो पाया कि जहां मेरी कक्षा में सिर्फ मैं बोलता था वहीं गुरूजी की कक्षा में बच्चों की हिस्सेदारी थी।”
बी.ए. की डिग्री लेने के बाद मैं सन् 1961 में शासकीय माध्यमिक शाला, रायपुर में शिक्षक बना। तब मैं नौवीं कक्षा में हिन्दी पढ़ाता था। उन दिनों मैं एकदम फटाफट पाठ पढ़ा डालता था। कक्षा में घुसकर जो रेलगाड़ी छूटती तो एक पाठ एक बार में पूरा कर लेता। फिर दूसरा, फिर तीसरा.....बस पढ़ता जाता, समझाता जाता और पाठ खत्म हो जाता। एक बार जो बोलना शुरू करता तो पाठ खत्म करके ही रहता।
एक दिन मैंने अपने गुरुजी श्री टीकाराम मालवीय से कहा, “मैंने तो कोर्स पूरा कर लिया है।”
वे बोले, “अच्छा चलो, मैं देखता हूं तुम्हारी क्लास को।”
बड़े गुरुजी क्लास में आए और एक पाठ पढ़ाने लगे। वे एक पैरा पढ़कर बच्चों के साथ उसकी चर्चा करने लगे। हर एक शब्द का अर्थ, उत्पत्ति, उससे जुड़े मुहावरों आदि पर बातचीत करने लगे। संधि-विच्छेद की बात भी उन्होंने बहुत बढ़िया ढंग से प्रस्तुत की। सीधे-सीधे यह बताने की बजाय कि ‘अ’ और ‘उ’ मिलकर ‘ओ’ बनाते हैं, वे यह बात करते कि अलग-अलग स्वर बनते कैसे हैं और उनके उच्चारण में पर्क क्यों आता है? जीभ के तालू से छूने से कौन-से व्यंजन बनते हैं (ट, ठ, ड़, ढ), होंठ जोड़ने से कौन-से व्यंजन बनते हैं (प, फ, भ) आदि।
बड़े गुरुजी को ज्ञान ज़्यादा तो था ही, पर वे अपने ज्ञान को छात्रों पर थोपते नहीं चलते थे। वे सब बच्चों से पूछते जाते कि वे क्या समझ रहे हैं। एक-एक प्रश्न को 6-6 बच्चों से पूछते थे और उन्हीं से सारी बारीकियां पूछ-पूछ कर ही निकलवा लेते थे।
इस तरह एक पैरा पढ़ाने में एक पीरियड चला गया। मैं तो इतनी देर में पूरा पाठ निपटा डालता।
उस दिन मैंने यह अनुभव किया कि मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं बी.ए. पास था और बड़े गुरुजी सिर्फ सातवीं कक्षा तक पढ़े थे। उन्हें पढ़ाते देखकर मैंने यह अनुभव किया कि तरीका होता है पढ़ाने का, जिसमें चलते-फिरते ही कोर्स पूरा हो जाता है। और, एक दूसरा तरीका होता है, जिसमें समय लगता है और शिक्षक का यतन लगता है। अब जब मैं प्रधान पाठक बना हूं तो मैं भी ध्यान देता हूं कि कक्षाओं में जो पढ़ाई चल रही है, उसमें क्या सिर्फ शिक्षक की ही आवाज़ सुनाई दे रही है और बच्चे कुछ नहीं बोल रहे?
टीकाराम जी से आज भी उनके शिक्षण-कार्य के संस्मरणों पर बात करें तो मन पर बहुत असर पड़ता है। वे सन् 1965 में सेवा निवृत्त हुए थे और आज 88 साल के हैं। आज भी वे बताते हैं, “मैं यह देखता था। कि मैं छात्रों में जो गिजा डाल रहा हूं वो उनको हजम हो जाएगी या नहीं? छात्र अपनी-अपनी बुद्धि के कण ले के आते हैं इसलिए मैं भी शिक्षा देने के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखता था। यदि देखता कि बच्चे नहीं समझ रहे हैं तो अपनी पढ़ाने की पद्धति को, उसके क्रम को, बदल देता था।”
टीकाराम जी होशंगाबाद के पास रायपुर गांव के निवासी हैं। अपने सुन्दर अक्षरों की लिखाई, सुन्दर मूर्तियां बनाने की कला, रामलीला के निर्देशन व दशरथ व जनक आदि के करूण अभिनय के लिए भी बहुत याद किये जाते हैं। 1919 में सातवीं पास करने के बाद उन्होंने अपनी खुद की दिलचस्पी से पढ़ना-लिखना जारी रखा। साहित्य रत्न, मानस, गीता, कुरान व बाइबल की परीक्षाएं पास कीं। खण्डवा बी.टी.आई. से तीन साल का शिक्षण प्रशिक्षण कोर्स पूरा किया। और आजीवन पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का क्रम बनाए रखा। वे आज भी बिना चश्मे के पढ़ पाते हैं1 शारीरिक रूप से भी उसनी सक्रियता लोगों को हैरत में डाल देती है। तीन-चार साल पहले तक वे कई किलोमीटर न सिर्फ पैदल आ जा सकते थे बल्कि तेज़ साइकिल भी चलाया करते थे।
(बी.एल. जायसवाल - होशंगाबाद ज़िले के जासलपुर गांव में शासकीय माध्यमिक शाला में प्रधान पाठक)