सात्यकी भट्टाचार्य, अभिषेक धर
पिछले अंक में ‘क्यों करें प्रयोग...’ शीर्षक के तहत विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में आजकल डाले जा रहे ‘तथाकथित’ प्रयोगों पर कुछ सवाल खड़े किए गए थे। पानी की तश्तरी में रखी एक जलती हुई मोमबत्ती पर गिलास उलटाकर रखने से गिलास में पानी चढ़ने का क्या वही कारण है जो आमतौर पर किताबों में लिखा होता है? इसी मसले पर प्रस्तुत है कुद तहकीकात।
स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में एक प्रयोग आम है जिससे यह दिखाने की आशा की जाती है कि हवा में 80 प्रतिशत नाइट्रोजन और 20 प्रतिशत ऑक्सीजन मौजूद होती है। प्रयोग में एक पानी से भरी ट्रे में एक मोमबत्ती लगाई जाती है। मोमबत्ती को जलाकर उस पर एक बीकर उलटकर रखा जाता है। कुछ समय बाद मोमबत्ती बुझ जाती है और बीकर में पानी का स्तर चढ़ जाता है। पाठ्य-पुस्तकों में इस अवलोकन को यूं समझाया जाता है कि बीकर के अंदर की पूरी ऑक्सीजन खर्च हो जाती है तब मोमबत्ती बुझ जाती है। और फिर ऑक्सीजन के खर्च होने से बने आंशिक निर्वात को भरने के लिए पानी बीकर में ऊपर चढ़ता है। माना जाता है कि जितना पानी चढ़ता है उसका आयतन शुरू में मौजूद हवा के कुल आयतन का 20 प्रतिशत है।
महाराष्ट्र में उच्चतर माध्यमिक स्कूल के एक शिक्षक के इसी प्रयोग के अवलोकन कुछ इस प्रकार थे। जब एक की जगह दो मोमबत्तियां लगाई जाती हैं तो बीकर में पानी का स्तर और चढ़ता हे और अगर तीन मोमबत्तियां जलाई जाएं तो जलस्तर में बढ़ोत्तरी और अधिक होती है। हमने कोशिश करके देखी और पाया कि ठीक यही होता है। दो मोमबत्तिया इस्तेमाल करने पर जलस्तर में बढ़ोत्तरी एक मोमबत्ती की तुलनामें काफी ज़्यादा होती है। ज़ाहिर है यह अवलोकन किताब में दिए स्पष्टीकरण से मेल नहीं खाता है। क्योंकि अगर पानी ऑक्सीजन के खर्च हो जाने के कारण उसकी जगह लेने के लिए ऊपर चढ़ता हैतो दो मोमबत्तिया जलने से पानी के स्तर पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए। और किसी भी स्थिति में जलस्तर के 20 प्रतिशत के ऊपर तो जाना ही नहीं चाहिए।
हमने सोचा कि पहले यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि पानी का स्तर चढ़ता ही क्यों है। ताकि हम शिक्षक साथी के अवलोकन का संतोषजनक स्पष्टीकरण दे पाएं। किताब में दिया स्पष्टीकरण सही नहीं हो सकता क्योंकि जलने में खर्च हुई ऑक्सीजन के हर अणु के बदले कार्बन डाइऑक्सीजन का एक अणु बनता है। यानी जितना आयतन ऑक्सीजन खर्च हुई उतने ही आयतन कार्बन डाइऑक्सीजन बनी। तो पानी का तल बदलना ही नहीं चाहिए। सच तो यह है कि मोमबत्ती के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड के साथ ही आप भी बनती है। यानी जो बना उसका आयतन, खर्च हुई ऑक्सीजन के आयतन से ज़्यादा हुआ।
तो पानी चढ़ने के पीछे राज़ क्या है? हमने इन संभावनाओं को टटोला:
अनुमान - 1: जो कार्बन डाइऑक्साइड बनती है वह पानी में घुल जाती है। हो सकता हे कि तापमान अधिक होने के कारण बीकर के अंदर का दबाव भी काफी बढ़ा हुआ हो। जिससे अधिक दबाव पर घुलनशीलता बढ़ जाने के कारण कार्बन डाइऑक्साइड का काफी सारा हिस्सा तुरन्त पानी में घुल जाता है। और उसकी जगह लेने के लिए पानी ऊपर चढ़ आता है।
अनुमान - 2: जब मोमबत्ती जलती है तो उसके आपसपास की हवा विरल हो जाती है। इसलिए जब उस पर बीकर उलटाकर रखा जाता है तो उसमें फंसी हवा पहले से ही विरल होती है और बीकर के अंदर का दबाव कम होता है। इससे पानी का स्तर चढ़ता है।
अनुमान - 3: मोम के जलने से, पानी में अतिघुलनशील, कुछ और गैसें भी बन सकती हैं।
इन संभावनाओं को जांचने के लिए हमने कुछ प्रयोग किए। मोमबत्ती की जगह हमने माचिस की तीली का उपयोग किया। इससे मोम जलने से बनी गैसों से अलग बन सकती थी। जिससे हमारे अनुमान -3 की जांच हो जाती। बाद में हमने सारे प्रयोग माचिस की तीलियों से ही किए। क्योंकि मोमबत्ती कितनी जगह घेर रही है, यह पता लगाकर उसे घटाना नहीं पड़ता। यानी प्रयोग में कितनी हवा खर्च होती है, यह नापना भी आसान हो जाता है। फिर तीलियों से हमें सुविधा भी हुई। दरअसल आखिरी प्रयोग तो मोमबत्तियों से करना संभव ही नहीं था।
तीलियां या तो लोहे के गुटकों के ऊपर रखी जाती थीं या उन्हें गुटकों के बीच फंसा दिया जाता था।
शुरूआती प्रयोग
हमने मानक प्रयोग 1, 2 और 3 तीलियों से किया। तीनों स्थितियों में जलस्तर में बढ़ोत्तरी इस प्रकार थी:
- तीली - 2.5 से.मी.
- तीलियां - 3.1से.मी.
- तीलियां - 4.2से.मी.
सिर्फ एक तीली जलाने पर शुरू में हवा का आयतन 240 घन से.मी. था और बाद में 184 घन से.मी. यानी लगभग 23ऽ हवा की जगह पानी ने ले ली।
प्रयोग -1 (अनुमान -1 की जांच)
अ: हमने शुरूआती प्रयोग को गर्म पानी और 4 तीलियों के साथ दोहराया चूंकि तापमान बढ़ाने पर पानी में किसी भी गैस की घुलनशीलता घटती जाती है, इसलिए हमारी अपेक्षा थी कि जलस्तर में बढ़ोत्तरी पहले से कम होगी। हमने यह देखा कि पानी का स्तर पहले कुछ ऊपर चढ़कर एक जगह रुका रहा और फिर धीरे-धीरे वहीं तक चढ़ गया जहां तक ठंडे पानी वाले प्रयोग में चढ़ा था। इससे कोई भी स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है।
ब: हमने कार्बन डॉइऑक्साइड से भरी एक परखनली को पानी पर उलटा करके रखा। परखनली में पानी का स्तर लगभग 0.5 से.मी. ऊपर चढ़ा। परखनली की लम्बाई 13.5 से.मी. थी। इससे तो ऐसा लगता है कि साधारण स्थितियों में कार्बन डॉइऑक्साइड की पानी में घुलनशीलता बहुत ही कम है। पर हम यह बात पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि परखनली कार्बन डॉइऑक्साइड से पूरी भरी थी। क्योंकि गैस पानी में इकट्ठी करने की बजाय सीधे ही परखनली में इकट्ठी की गई थी।
स: हमने शुरूआती प्रयोग से चार तीलियों और पानी में कार्बन डॉइऑक्साइड से संतृत्प घोल (सोड़ा) के साथ फिर किया। इस स्थिति में चूंकि घोल पहले ही कार्बन डॉइऑक्साइड से संतृत्प था इसलिए जलने पर बनी कार्बन डॉइऑक्साइड उसमें घुल नहीं सकती थी। यानी इस स्थिति में पानी (घाल) का स्तर बिल्कुल भी नहीं चढ़ना चाहिए। पर हमने देखा कि यहां भी घोल का स्तर उतना ही चढ़ा जितना सादे पानी में चढ़ता था। इससे तो यह स्पष्ट हो गया कि अनुमान -1 की संभावना है ही नहीं।
प्रयाग -2 (अनुमान -2 की जांच)
पहली जांच
पहला चरण : हमने कुछ देर तक दो तीलियां जलार्इं। अनुमान -2 के मुताबिक इससे तिलियों के इर्द-गिर्द विरल हवा का एक क्षेत्र निर्मित हो जाएगा।
दूसरा चरण : फिर हमने तीलियं बुझा दीं।
तीसरा चरण: और तुरन्त ही बीकर को पलटाकर पानी पर उलटा रख दिया। हमारी अपेक्षा थी कि ऐसा करने पर विरल हवा बीकर में कैद हो जाएगी और पहले की तरह ही पानी ऊपर चढ़ेगा। उतना ही जितना सामान्यत: चढ़ता आया था
दूसरी जांच
जब हमने बीकर को जलती हुई तीलियों के ऊपर कुछ देर पकड़े रखा और फिर पानी पर रखा तो चित्र में दिखाए अनुसार पानी का स्तर चढ़ जाता है। यानी दुसरा अनुमान सही हो भी सकता है।
तीसरी जांच
हमने एक बीकर को गर्म किया ताकि अंदर की हवा गर्म और विरल हो जाए और फिर उसे पानी पर पलटकर रखा। पानी का स्तर नहीं चढ़ा यह अवलोकन हमारे दूसरे के खिलाफ है।
अनुमान -3 के लिए तर्क :
यहां तक आकर हमने अपने तीसरे अनुमान के बारे में सोचना शुरू किया। पर यह तो बिलकुल भी संभव नहीं लगता था क्योंकि मोम के जलने पर सिर्फ कार्बन डॉइऑक्साइड और पानी ही बनता है। हां, माचिस की तीली के जलने की रासायनिक क्रिया हमें पता नहीं थी।
आखिरी प्रयोग:
फिर हमें एक ऐसा प्रयोग सूझा जिससे हम ज़्यादा निर्णायक तरीके से अपने दूसरे अनुमान की जांच कर सकते थे। चित्र में बने प्रयोग के साजो-सामान पर गौर कीलिए। यहां हमने बीकर को पानी पर ऐसे पलटाकर रखा है कि उसके अंदर पहले से एक ताज़ी (बिना जली हुई) तीली है। अब अगर कोई जुगत लगाकर इस तीली को जलाया जा सके तो अंदर की हवा गर्म होकर फैल जाएगी। इससे बुलबुलों के ज़रिए काफी हवा बाहर आ जाएगी। हमने इस प्रयोग को इस तरह से किया:
हमने पहले चरण में बीकर के अंदर पर हमने लेंस की मदद से सूरज की रोशनी केन्द्रित कर उसे जलाया।
जैसे ही तीली जल उठी, पानी में से हवा के बुलबुले निकले और तीली के बुझते ही पानी का तल ऊपर उठ गया।
खैर, पहले चरण के बाद संतुलन की स्थिति आती है।
अब दूसरी तीली जलाई गई। इससे कोई बुलबुले नहीं निकले। हां, पानी का स्तर कुछ नीचे ज़रूर चला गया।
हमारे हिसाब से इस अवलोकरन को यूं समझाया जा सकता है कि जब पहली तीली जली तो बीकर के अंदर की हवा गर्म होकर फैल गई। चूंकि उससे बीकर के अंदर दबाव बढ़ा इसलिए काफी सारी हवा बुलबुलों की शक्ल में बाहर निकल जाती है। तीली बुझते ही अंदर की हवा ठंडी होने लगी जिससे बीकर के अंदर हवा का दबाव कम हो गया। जिससे बीकर के अंदर पानी का स्तर चढ़ जाता है।
और फिर दूसरे चरण में हवा के गर्म होकर फैलने के कारण पानी का स्तर ही थोड़ा नीचे उतरा, परन्तु पहले चरण ही तरह बुलबुले बाहर नहीं निकले क्योंकि अंदर दबाव इतना ज़्यादा नहीं बन पाया कि हवा इस उठे हुए पानी के स्तंभ में से निकल सके। और शायद बुलबुले इसलिए भी बाहर नहीं निकले क्योंकि पहले चरण में बनी आंशिक निर्वात की स्थिति ने ट्रे और बीकर को एक-दूसरे से बिलकुल सटा दिया होगा।
इस प्रयोग से हमारे दूसरे अनुमान की ज़ोरदार पुष्टि होती है। यह प्रयोग-2 (ब) के अवलोकन से भी मेल खाता है। अनुमान-2 ही ज़्यादा मोमबत्तियां जलाने पर जलस्तर के अधिक बढ़ने के अवलोकन को भी समझा पाता है।
हमें लगता है कि कारणों से प्रयोग-2 की पहली और तीसरी जांच ने अपेक्षित परिणाम नहीं दिए, वे इस प्रकार हैं:
- बीकर पलटकर रखते-रखते विरल हवा का क्षेत्र नष्ट हो जाता है।
- चूंकि बीकर के अंदर की विरल हवा कम दाब का क्षेत्र है, इसलिए वह बहुत तेज़ी से आसपास की हवा के साथ संतुलन स्थापित कर लेता है। यह बात इससे भी साबित होती है कि तीली के बुझते ही तत्काल पानी का स्तर चढ़ता है।
अंत में, हमें लगता है कि ये सारे प्रयोग औरों द्वारा फिर किए जाने चाहिए और किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले और जांच की जानी चाहिए।
सात्यकी भट्टाचार्य, अभिषेक धर - टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, बम्बई में शोधरत।
मूल लेख अंग्रेज़ी में। अनुवाद - टुलटुल विश्वास।
माद्दे1 की किस्म - ठोस
ठोस का मतलब है ठोस। जैसे ठोस दलाएल2, ठोस एकदामात3, नताएज4, बगैरा। ठोस दलाएल ऐसे दावों के लिए लाए जाते है जो खुद कमज़ोर हों। सब से ठोस दलील अबतक लाठी ही साबित हुई है, भैंसों के लिए भी, इन्सानों के लिए भी।
ठोस एकदामात इतने ठोस होते हैं कि कभी नहीं किए जाते। बस हुकूमतें उनके ठोस वादे किया करती हैं। ठोस नतीजा यह निकलता है कि ऐसी हुकूमतें बहुत दिन नहीं रहती।
ठोस अश्या5 अपनी शक्ल नहीं बदलतीं, हां दूसरों की बदल देती हैं। पत्थर ठोस है, जैसा है वैसा ही रहता है। लेकिन किसी आदमी को लगे तो वह कैसा ठोस क्यों न हो उसमें से मायअ6 और गैस वगैरा निकलने लगते हैं। मायअ - आंसू, गैस - आहें, गालियां वगैरा।
इब्ने इंशा
1. पदार्थ, 2. दलीलें 3. कदम 4. फैसले 5. चीज़ें 6. द्रव