‘स्वाति नक्षत्र में जब बारिश होती है - और इसकी एक बूंद सीप के अंदर चली जाए तो मोती बन जाती है।’
लेकिन क्या मोती बनने के लिए हर बार इंतज़ार करना पड़ता है स्वाति नक्षत्र का, सीप को - कि उस बारिश की कोई बूंद वो लपके और मोती बने। कुछ ऐसा ही लगता है न इस कहावत से। वैसे आइए देखते हैं इस मिथक के पीछे के सच को।
दुनिया में बहुत सारे ऐसे जंतु हैं जो कवच जैसी रचना के अंदर रहते हैं। इन्हीं में से एक है सीप। यों तो सीप भी कई किस्म की होती हैं लेकिन हमें तो मोती का बनना देखना है इसलिए किस्मों की ज़िक्र न करते हुए सिर्फ सीप कहेंगे।
जहां भी रेत दिखे, थोड़ा हाथ से उसे इधर-उधर करो, कोई न कोई सीप दिख ही जाएगी। सीप का कवच या खोल दो हिस्सों में बंटा रहता है। दोनों हिस्से एक-दूसरे से इलास्टिक जैसी लचीली मांसपेशियों से जुड़े रहते हैं। इस कवच की तीन परतें होती हैं। ऊपर की खुरदुरी और नीचे की चिकनी-सी, चकमती हुई। इन दोनों के बीच कैल्शियम के कण की एक परत होती है। वैसे हमारे काम की परत सबसे नीचे की है चिकनी, चमकीली।
अगर आपको कहीं से कोई मोती मिल जाए तो उसे इस चिकनी वाली परत के पास रख कर देखो। दोनों का रंग कितना मिलता जुलता है न! यही परत होती है मोती की जन्मदाता।
दरअसल सीप के अंदर का जीव बहुत ही गिलगिला लिजलिजा-सा होता है। जब रेत का कोई कण उसके कवच के अंदर पहुंच जाता है तो उसे बड़ी कसमसाहट होती है क्यों कि रेत का कण तो उसे लिए बहुत ही कठोर होता है, सोचो जब आपके कपड़ों के अंदर कीड़ा घुस जाता हे तो कैसा लगता है? तो बस इसी परेशानी से बचने के लिए सीप की भीतरी चिकनी सतह का पदार्थ उस रेत के कण के चारों ओर इकट्ठा होना शुरू हो जाता है और उस रेत के कण को घेर लेता है। इस तरह एक चिकना-सा आकार बन जाता है, सीप के अंदरूनी हिस्से जैसे ही रंग वाला। यही होता है मोती।
प्राकृतिक रूप से बने मोती गोल हों यह ज़रूरी नहीं है। जिस आकार में रेत के कण चारों ओर पदार्थ इकट्ठा होता है वैसा ही आकार मिलता है मोती को।