पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।
कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।
एक हालिया रास्ता
आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।
बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।
बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।
PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।
कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।
एक हालिया रास्ता
आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।
बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।
बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।
PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।
निर्णायक चरण
बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।
अन्य तरीके
प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)
बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।
अन्य तरीके
प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)