डॉ. किशोर पंवार

पौधे और जंतुओं में जो सम्बंध सबसे स्पष्ट रूप से नज़र आता है वह है चराई। इसे शाकाहार भी कहते हैं। जंतुओं और पेड़-पौधों में यह सबसे महत्वपूर्ण अंतर्सम्बंध है। चराई को पारंपरिक तौर पर जंतुओं के फायदे और पौधों के नुकसान के रूप में देखा जाता है। शाकाहार वस्तुत: एक विशेष प्रकार का शिकार ही है। इस लिहाज़ से गाय, बकरी की तरह हम भी पौधों के शिकारी ही हैं।
जंतुओं और पौधों के इस अंतर्सम्बंध में सबसे खास बात यह है कि वे अपने शिकारी से दूर भागकर बच नहीं सकते। वे तो अपनी जगह खड़े रहकर ही शिकारी से बचने के कुछ चतुर उपाय अपनाते हैं। तरह-तरह के ऐसे उपायों को ही हम अनुकूलन कहते हैंै।
पौधों में चराई-कुतराई से अपने आप को बचाने के लिए कई तरह के उपाय विकसित हुए हैं। और यह सब एक-दूसरे को अपने कौशल से पराजित कर देने का ही खेल है - एक ऐसा जीवंत खेल जिसमें शिकार और शिकारी दोनों अपने-अपने पैंतरे बदलते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप दोनों में जो परिवर्तन होते हैं वह सह-विकास कहलाता है। नतीजतन कुछ पौधे और जंतु कालांतर में ‘एक दूजे के लिए’ बन जाते हैं - जैसे अंजीर और ब्लास्टोफेगा कीट। कुछ अन्य प्रकरणों में कभी शिकारी चतुर नज़र आता है तो कभी शिकार।

परंतु आज चर्चा का विषय यह है कि पौधे अपने आप को चराई से कैसे बचाते हैं? कुछ पौधे भौतिक तरीकों (जैसे कांटों) की मदद से ऐसा कर पाते हैं तो कुछ रासायनिक तरीके अपनाते हैं। ये दूसरे प्रकार के पौधे ऐसे रसायन उत्पन्न करते हैं जो शाकाहारियों के स्वाद को बिगाड़ देते हैं या उनके लिए विषैले होते हैं। इन्हें द्वितीयक चयापचयी पदार्थ कहते हैं। जैसे टैनिन, अल्केलॉइड्स और ग्लायकोसाइड्स। दालचीनी और लौंग में पाया जाने वाला विशेष पदार्थ फिनाइल प्रोपेन, पेपरमिंट एवं केटनिप जैसे टरपींस, दर्द निवारक एवं शामक दवाओं के घटक मॉर्फीन तथा कैफीन द्वितीयक चयापचयी पदार्थ ही हैं। जिन पौधों में ऐसे पदार्थ बहुतायत में पाए जाते हैं, शाकाहारी उनसे दूर ही रहते हैं। द्वितीयक चयापचयी पदार्थों की उत्पत्ति के सम्बंध में दो मत दिए गए हैं।
पहला मत मुलर ने 1970 में दिया था। उनके मतानुसार ये व्यर्थ पदार्थ हैं। हम जानते हैं कि उत्सर्जन चयापचय का एक आवश्यक हिस्सा है और पौधों में यह कार्य जंतुओं की अपेक्षा थोड़े अलग तरीकों से होता है। पौधे जंतुओं की तरह व्यर्थ पदार्थों का त्याग मल-मूत्र के रूप में नहीं करते क्योंकि उनमें उत्सर्जन तंत्र नहीं पाया जाता। मुलर के मतानुसार ऐसे व्यर्थ पदार्थों से निजात पाने के लिए कई तरीके विकसित हुए हैं। जैसे कार्बनिक पदार्थों को वाष्पशील पदार्थों के रूप में त्यागना। एक तरीका यह है कि इन ज़हरीले व्यर्थ पदार्थों को कम हानिकारक पदार्थों में बदलकर अपने शरीर के कुछ हिस्सों में जमा करके रखना। ऐसा करके पौधे इन व्यर्थ पदार्थों का उपयोग अपने फायदे के लिए कई तरीकों से कर सकते हैं।

जैसे वे इन व्यर्थ पदार्थों को अपने आसपास के पर्यावरण में छोड़ सकते हैं। इस तरह से वे अपने प्रतिस्पर्धी पौधों की वृद्धि को रोकने में समर्थ हो पाते हैं। इन हानिकारक व्यर्थ पदार्थों के अन्य पौधों पर होने वाले ऐसे प्रभाव को एलीलोपैथिक प्रभाव कहते हैं।
एक अन्य तरीके में इन पदार्थों को पत्तियों एवं तनों में जमा करके रख लिया जाता है। इससे वे शाकाहारियों के लिए बेस्वाद या ज़हरीले हो जाते हैं। अत: शाकाहारी इनसे दूर ही रहते हैं।
द्वितीयक चयापचयी पदार्थों के बारे में दूसरा मत एरलिच और रेवन ने 1964 में दिया था। इनका मानना है  है कि ये द्वितीयक पदार्थ जानबूझ कर बनाए जाते हैं शाकाहारियों को स्वयं से दूर रखने के लिए। इस मत के अनुसार कुछ द्वितीयक चयापचयी पदार्थ उत्सर्जी पदार्थों के रूप में पौधे की आवश्यकता होते हैं किंतु ऐसे सारे पदार्थ सक्रिय रूप से चयापचय की कीमत पर पौधों द्वारा बनाए जाते हैं।

यदि पौधे द्वितीयक चयापचयी पदार्थ बनाते हैं और उनमें इस तरह की रायासनिक विविधता होती है तो इसका असर प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में दिखना चाहिए। इस मत का निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि परिवेश में से सारे जंतुओं को हटा दिया जाए तो पौधों द्वारा द्वितीयक चयापचयी पदार्थ नहीं बनाए जाने चाहिए।
पादप सुरक्षा के अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि शाकाहारियों का पौधों की फिटनेस (यानी अधिक से अधिक संतानें पैदा करने की क्षमता) पर असर पड़ता है। यदि पौधों के सुरक्षा सम्बंधी गुण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में जा सकते हैं (यानी वे आनुवंशिक हैं) तो प्राकृतिक चयन को काम करने के लिए ज़रूरी कच्चा माल उपलब्ध है।
इस दूसरे मत के अनुसार पादप सुरक्षा का सम्बंध फिटनेस से है। तो इसमें हम चार भविष्यवाणियां कर सकते हैं और उनकी जांच कर सकते हैं:
1. जो जीव ज़्यादा हानि के जोखिम में होते हैं उनमें ज़्यादा सुरक्षात्मक तरीकों का विकास होना चाहिए। और यदि सुरक्षा की कीमत ज़्यादा है तो ऐसे उपाय कम होने चाहिए।
2. पौधों के जो भाग ज़्यादा खतरे में होते हैं उनमें ज़्यादा सुरक्षात्मक तरीके उत्पन्न किए जाने चाहिए।
3. जब दुश्मन न हो तो सुरक्षा हटा ली जानी चाहिए और जब पौधों पर दुश्मनों का आक्रमण का खतरा ज़्यादा हो तो ये बढ़नी चाहिए।
4. सुरक्षात्मक उपाय बहुत महंगे होते हैं। अत: जब पौधों को इनकी ज़रूरत न हो, तब इन्हें जारी नहीं रखना चाहिए।
सुरक्षा की लागत इसलिए बढ़ती है क्योंकि उर्जा और पोषक पदार्थों की जहां सामान्य रूप से ज़रूरत होती है उन्हें वहां से हटाकर सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत करने में लगाना पड़ता है। इसे ‘दबाव-प्रेरित सुरक्षा’ कहा जाता है। उपरोक्त चारों भविष्यवाणियों के पक्ष में प्रमाण दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। यहां हम दूसरे और तीसरे बिंदु के समर्थन में मिले मज़ेदार प्रमाणों की चर्चा करेंगे।

एलीलोपैथी

एलीलोपैथी एक यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है एक जीव द्वारा छोड़े गए पदार्थ का दूसरे जीव पर हानिकारक असर। इस शब्द का सर्वप्रथम उपयोग ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर हेन्स मॉलिश ने 1937 में अपनी पुस्तक ‘दी इफेक्ट ऑफ प्लांट्स ऑन ईच-अदर’ में किया था। उन्होंने इस शब्द का उपयोग ऐसी जैव रासायनिक अंतर्क्रिया के लिए किया था जिसमें एक पादप किसी दूसरे पादप की वृद्धि में रुकावट पैदा करता है।
वैसे थियोफ्रॉस्टस ने 300 ईसा पूर्व में यह देख लिया था कि पिगवीड नामक पौधा अल्फा-अल्फा की वृद्धि पर हानिकारक असर डालता है।
चीन में पहली ईस्वीं सदी में शनाग बेन काओ ज़िंग के लेखक ने 267 ऐसे पौधों का वर्णन किया था जिनकी कीट नियंत्रण क्षमता एलीलोपैथिक असर के साथ जुड़ी थी। वनस्पति शास्त्री डी कैण्डोल ने 1832 में बताया था कि कृषि की एक समस्या (सॉइल सिकनेस) के लिए फसली पौधों द्वारा छोड़े जाने वाले रसायन जवाबदेह थे।

पौधों की बहुलता और वितरण में एलीलोपैथिक पदार्थ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कई आक्रामक पौधों जैसे सेन्टेरिया मैक्यूलोसा, गार्लिक मस्टर्ड और कैज़ोरिना की सफलता में इस गुण का बड़ा हाथ है।
ऐसे पदार्थों को एलीलो-रसायन कहते हैं और ये उस पौधे के द्वितीयक चयापचयी पदार्थ होते हैं जो उसे अपने वृद्धि, विकास अथवा प्रजनन के लिए ज़रूरी नहीं होते। हानिकारक प्रभाव वाले एलीलोरसायन शाकाहारियों से बचाव में भूमिका निभाते हैं।

दबाव-प्रेरित सुरक्षा व्यवस्था का एक सुंदर उदाहरण है मीठे पानी व समुद्री जल में रहने वाले ब्रायोज़ोअन जीव (इनके परिचय के लिए बॉक्स देखें)। ये जीव अपने शिकारी द्वारा छोड़े गए संकेतों के प्रत्युत्तर में कांटें उत्पन्न करते हैं और अपनी खोल कड़ी करते हैं। यदि पर्यावरण में उनका शिकारी नहीं है तो कांटे नहीं बनते। बात थोड़ी अटपटी लगती है पर है सच।
मेम्ब्रेनिपोरा मेम्ब्रेनेसिया (Membranipora membranacea) एक समुद्री ब्रायोज़ोअन जंतु है जिसके कुदरती शिकारी न्यूडीब्रांच हैं। न्यूडीब्रांच का आक्रमण होने के 36 घंटे के अन्दर-अन्दर मेम्ब्रेनीपोरा कायटीन के बड़े-बड़े सख्त कांटें उत्पन्न कर लेता है। ब्रायोज़ोअन में कांटों के निर्माण की प्रक्रिया को शुरु करने में शिकारी से मिले इन संकेतों की भूमिका का विश्लेषण करके हारवेल नामक वैज्ञानिक ने पता लगाया है कि यह तरीका शिकारी से बचाव में कितना कारगर है।
न्यूडीब्रांच शिकारियों की उपस्थिति मात्र से मेम्ब्रेनीपोरा में कांटों का निर्माण शु डिग्री हो जाता है। और तो और, उन ब्रायोज़ोअन कालोनियों में भी कांटे बनने लगते हैं जो इनसे बहुत दूर होती हैं। माना गया है कि न्यूडीब्रांच से पानी में एक रासायनिक संकेत निकलता है जो ब्रायोज़ोअन में कांटों के निर्माण की प्रक्रिया को शु डिग्री कर देता है।
कांटों रहित कालोनी की तुलना में कांटों वाली ब्रायोज़ोअन कॉलोनी के ज़ुआइड को न्यूडीब्रांच केवल 40 प्रतिशत प्रतिदिन की दर से ही खा पाते हैं। अत: स्पष्ट है कि कांटें उत्पन्न करना एक फायदे का सौदा है। परंतु चराई से बचने के लिए उत्पन्न किए गए कांटों की कीमत चुकानी पड़ती है। यह कीमत है कम वृद्धि दर। कांटों वाली कॉलोनी की वृद्धि दर बिना कांटों वाली कॉलोनी की तुलना में 15 प्रतिशत कम हो जाती है क्योंकि जो ऊर्जा वृद्धि में लगती है वह कांटों को बनाने में खर्च हो जाती है।

सच ही है इस दुनिया में हर चीज़ की कीमत चुकानी होती है।
कई पौधों ने भी चराई/शिकारियों से बचने के लिए मोटे कांटे, छोटे कांटें और कंटकों को आज़माया है और सफल भी हुए है।
ऐसे कई प्रमाण है कि शाकाहारी जीव ऐसे पौधों को पसंद करते हैं जिन पर कांटे कम होते हैं। प्रयोगों से पता चला है कि कृत्रिम रूप से कांटों को हटा देने से चराई की दर और ऊतकों की कुल हानि बढ़ जाती है। ऐसा बबूल की कुछ प्रजातियों में देखा गया है।
यह भी पाया गया है कि जिन शाखाओं की चराई की संभावना कम होती है (जैसे ऊंची शाखाएं) वे कम कंटीली होती हैं बजाय निचली शाखाओं के जहां चराई की संभावना अपेक्षाकृत ज़्यादा होती है।

ब्रायोज़ोआ जीव

अकशेरुकी ब्रायोज़ोआ जीवों को अक्सर मॉस जंतु या पोलीज़ोआ भी कहते हैं। जैसे वनस्पति जगत में ब्रायोफायटा वर्ग होता है उसी तरह जंतुओं में ब्रायोज़ोआ होता है। वर्तमान में इनकी लगभग 5000 प्रजातियां ज्ञात हैं। इनमें से 125 की कॉलोनियां बड़ी संख्या में मिलती हैं। अधिकांश ब्रायोज़ोअन एक ही जगह चिपके रहते हैं हालांकि कुछ प्रजातियां धीरे-धीरे रेंगती भी हैं। ये प्राय: नाव के पेंदे और खंबों वगैरह पर चिपकी रहती हैं और कभी-कभी नाविकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती हैं।
ब्रायोज़ोआ मीठे और खारे दोनों प्रकार के पानी में पाए जाते हैं। एक जीनस को छोड़कर शेष सभी कॉलोनियों के रूप में पाए जाते हैं। कॉलोनियां पंखों, झाड़ियों जैसे कई रूपों में मिलती हैं। ऐसी कॉलोनी के प्रत्येक जीव को ज़ुऑइड कहते हैं और ये पूरी तरह स्वतंत्र जीव नहीं होते।
इन जीवों के शिकारियों में समुद्री स्लग, समुद्री अर्चिन, क्रस्टेशियन्स, पिस्सू और स्टार फिश प्रमुख हैं। इनसे बचाव के लिए ये कांटे उत्पन्न करते हैं।

उदाहरण के तौर पर नागफनी आपुन्शिया स्ट्रिक्टा (Opuntia stricta) को देखा जा सकता है। यह पौधा जब ऑस्ट्रेलिया के ऐसे द्वीपों पर उगता है जहां चरने वाले जानवर ज़्यादा हैं तो इसमें कांटे ज़्यादा होते हैं जबकि उन द्वीपों पर जहां शाकाहारी नहीं हैं वहां के आपुन्शिया पौधों पर कांटे कम पाए गए। जहां चराई होती थी वहां इस कैक्टस पर लगभग 85 प्रतिशत पौधे कंटीले थे। दूसरी ओर, चराई से मुक्त द्वीपों के पौधों पर कंटीले पौधों का प्रतिशत केवल 10 से 20 प्रतिशत ही था। ये अवलोकन इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि कंटीलापन चराई के दबाव से प्रेरित होता है।
हाल ही में किए गए इससे उलट प्रयोगों (यानी चरने वाले जीवों को हटा देने पर) से भी ऐसे ही प्रमाण मिले हैं। जैसे यदि हॉर्मेथोफिला स्पाइनोसा (Hormathophylla spinosa) के पौधों को चराई से मुक्त रखा जाए तो उनके कांटों की लम्बाई कम हो जाती है। न सिर्फ लम्बाई बल्कि कांटों का घनत्व भी कम होता देखा गया है। इसके विपरीत, नकली चराई एकेसिया टॉर्टिलिस (Accacia tortilis) का कंटीलापन बढ़ा भी देती है। महज़ दो वर्षों की चराई मुक्ति के फलस्वरूप एकेसिया ड्रेपेनोलोबियम में कांटों की लम्बाई में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है।

इकॉलॉजी की प्रसिद्ध शोध पत्रिका आइकॉस में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के टØमैन यंग व उनके साथियों द्वारा प्रकाशित ये दोनों उदाहरण दूसरे मत यानी ‘दबाव-प्रेरित सुरक्षा’ (ज़रूरत के अनुसार सुरक्षा व्यवस्था) का समर्थन करते हैं। खास तौर से ये दूसरी व तीसरी भविष्यवाणी पर खरे उतरते हैं।
हालांकि हमारे यहां इस तरह के अध्ययन कम ही हुए हैं किंतु मैंने अपने कॉलेज में देखा है कि सेमल के छोटे पेड़ों पर ज़्यादा कांटे होते हैं और बड़े होने पर कांटों में कमी आ जाती है। यह अवलोकन इस सिद्धांत का समर्थन करता प्रतीत होता है क्योंकि बड़े होने पर पेड़ की शाखाएं चरने वाले शाकाहारियों की पहुंच से दूर चली जाती हैं और उनका दबाव कम हो जाता है। एक अवलोकन यह भी है कि शाखा की ऊपर वाली सतह पर ज़्यादा कांटे होते हैं जबकि निचली सतह पर कम होते हैं। यह व्यवस्थित शोध का एक अच्छा विषय है जो ‘दबाव-प्रेरित सुरक्षा’ के पक्ष में भारतीय प्रमाण उपलब्ध करा सकता है। (स्रोत फीचर्स)