नीतू यादव

हमारा पुस्तकालय गौरा गाँव में एक छोटे-से कमरे में संचालित होता है। यह ढेर सारी किताबों और डिज़ाइनर सूचना पटलों से लैस तो नहीं है, पर हमारी कोशिश होती है कि हम एक पुस्तकालय के लिए ज़रूरी सभी सामग्री इस छोटे-से पुस्तकालय में ला पाएँ। हमारे पुस्तकालय में 5 से 21 वर्ष तक के 108 बच्चे दर्ज हैं, और 15 से 35 बच्चे प्रतिदिन मौजूद होते ही हैं। इस पुस्तकालय में 100-120 किताबें हैं। अपने इस संग्रह को हम हर दो-तीन माह में बदलते रहते हैं।

कहानियों का सस्वर-वाचन, तत्पश्चात् आर्ट-क्राफ्ट गतिविधियाँ, स्वतंत्र रूप से किताबें पढ़ना और घर ले जाकर पढ़ने के लिए किताबें इशू करवाना इस पुस्तकालय की नियमित गतिविधियाँ हैं।

पुस्तकालय आने वाले बच्चों में से कुछ बच्चे तो पूरा समय रुकते, कुछ बस किताबें इशू करवाने ही आते और कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो न तो किताब इशू करवाते और न ही कहानी सुनते पर थोड़ी देर के लिए आते ज़रूर। अगर कोई खेल खिलाया जाता तो उसमें ज़रूर शामिल होते और उपस्थिति रजिस्टर में अपना नाम लिखकर चले जाते।

जो बच्चे रोज़ लाइब्रेरी आ रहे थे, पर किसी भी रूप में किताबों व अन्य पठन-पाठन चर्चाओं में शामिल नहीं हो रहे थे, उनके लिए मन में हमेशा एक दुविधा रहती। मैं हमेशा यही सोचती कि ऐसा क्या करूँ कि ये बच्चे किसी तरह तो इन गतिविधियों से जुड़ पाएँ।

डिस्प्ले की भूमिका  
एक दिन यूँ हुआ कि हमने पुस्तकालय में अखबार लाना शुरू किया और बच्चों को जानकारी देने के लिए उसे सूचना बोर्ड पर लगा दिया। संयोग से उस दिन गाँव के स्कूल की खबर अखबार के पहले ही पेज पर छपी थी। सब उस बारे में जानना चाह रहे थे, फोटो देखकर हर एक बच्चा यही बोल रह था कि यह तो अपने गाँव की बात है। उस खबर की कटिंग हमने नोटिस-बोर्ड पर लगा दी। हर बच्चा जो पुस्तकालय आता, उसे ज़रूर देखता। इसमें वे बच्चे भी शामिल थे जो किसी और गतिविधि में शामिल नहीं होते थे।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमने डिस्प्ले को महत्व देना शुरू कर दिया। नई किताबों की सूची, किस बच्चे ने कितनी किताबें पढ़ीं -- उसका विवरण एवं बच्चों द्वारा बनाए गए चित्रों और कागज़ के खिलौनों को हमने सूचना बोर्ड पर प्रदर्शित करना शुरू कर दिया।
बच्चे अपने नाम और अपने बनाए चित्रों को देखकर खुश होते और वे बच्चे जो किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होते थे, डिस्प्ले को देखकर कुछ देर वहाँ रुकते और मुझसे या अन्य बच्चों से गतिविधियों के बारे में जानकारी लेते। कुछ ही दिनों में यह समझ आने लगा कि पुस्तकालय में डिस्प्ले की एक खास भूमिका है।

निखिल ने, जो न शामिल होने वाले बच्चों में से है, एक दिन एक किताब ली और अपना नाम बच्चों की सूची में लिख दिया और नाम के आगे उसने ‘10 किताब’ लिख दिया। जब पूछा, ‘‘किताब तो पढ़ी नहीं फिर कैसे?’’ तो कहने लगा, ‘‘तीन दिन में मैं पढ़ लूँगा।’’ इस तरह की प्रतिक्रिया देखकर लगा कि वाकई में सामग्री को प्रदर्शित करना एक महत्वपूर्ण गतिविधि है जो बच्चों को पुस्तकालय से जोड़ने के लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। तब से हमने डिस्प्ले पर केन्द्रित होकर काम करना शुरू किया और लगातार अवलोकन करते रहे। बासु और मैं मिलकर डिस्प्ले तैयार करने लगे। शुरुआत में हमारे डिस्प्ले प्राय: सूचनात्मक और बच्चों के कामों की प्रदर्शनीनुमा होते थे, जिनका ज़िक्र मैं पहले कर चुकी हूँ। जैसे-जैसे समझ बनती गई, हमने इन में परिवर्तन किए और नयापन लाने के प्रयास किए।

इस दौर में हमने अलग-अलग तरह से डिस्प्ले लगाना शुरू किया जिनके बारे में अपने अनुभव आपके साथ साझा कर रही हूँ।

सृजनात्मक डिस्प्ले- हम कविता की कोई दो लाइनें या कोई अधूरी कहानी लगाते हैं। हर बच्चे के लिए निर्देश होता कि वह इस में एक या दो लाइन जोड़कर इसे आगे बढ़ाए। जो बच्चे पढ़ना नहीं जानते, उनको हम पढ़कर सुनाते और वे जो भी बताते, उसे जोड़ देते। इस गतिविधि के ज़रिए हमने कुछ कविताएँ और कहानियाँ संकलित भी कीं।

रीडिंग डिस्प्ले- इसमें कभी चुटकुले, कभी पहेलियाँ तो कभी कोई खास कविता लगाई जाती है। यह सामग्री हम अलग-अलग जगहों से इकट्ठा करते हैं जो अक्सर पुस्तकालय की किताबों में नहीं पाई जाती। इसे पढ़ने के बहाने वे बच्चे जो सिर्फ किताबों का लेन-देन करते हैं, कुछ समय पुस्तकालय में रुकते हैं। इस प्रदर्शनी का अधिकतम हिस्सा बच्चे ही अतिरिक्त संसाधनों से ढूँढ़कर लाते हैं या शिक्षक द्वारा चयनित किसी सामग्री को अपने चित्रों के माध्यम से आकर्षक बना देते हैं जिससे डिस्प्ले की सुन्दरता तो बढ़ती ही है, अन्य बच्चे भी आकर्षित होते हैं।

संग्रह से परिचित कराने व जुड़ाव बनाने वाले डिस्प्ले- अक्सर होता यह है कि जो किताबें थोड़ी ज़्यादा टेक्स्ट वाली हैं या ज़्यादा रंगीन नहीं होतीं, बहुत कम बच्चे उन्हें पढ़ते हैं। इसके लिए हमने किताबों के बीच से कुछ संवाद लेकर एक डिस्प्ले बनाया और यह निर्देश दिया कि ‘बताओ, ये संवाद किस कहानी के हैं और किसने किससे कहे हैं’। यह बहुत प्रभावकारी रहा। बच्चों ने ढूँढ़-ढूँढ़कर किताबें पढ़ीं और जिनको वे किताबें अच्छी लगीं, उन्होंनेे अपने दोस्तों को भी उनके बारे में बताया। इस तरह से बहुत-से सवाल तैयार किए जो ऐसी किताबों से जोड़ने वाले थे।

विषय आधारित डिस्प्ले- नीतूू सिंह के लेख लाइब्रेरी डिस्प्ले में इसके बारे में बताया गया है कि यह विशेष थीम पर आधारित होता है। आप अपने संग्रह को ध्यान में रखते हुए किसी भी तरह की थीम का चुनाव कर सकते हैं। इसमें बच्चों की रुचियों का विस्तार करने के लिए विभिन्न श्रेणियों की किताबों को प्रदर्शित कर सकते हैं। संवादात्मक बनाने के लिए हस्तकला, शिल्प-पोस्टर, चित्रों इत्यादि का उपयोग कर इन्हें और रुचिकर बनाया जा सकता है। हमने इस तरह से डिस्प्ले बनाया जिससे बच्चों को कुछ आवश्यक जानकारियाँ मिलें और वे उसके साथ संवाद भी कर सकें। जैसे विख्यात लेखक मुंशी प्रेमचंद्र की जयन्ती पर उनकी फोटो लगाते हुए, उनकी लिखी किताबों की प्रदर्शनी लगाना, साथ ही उनसे जुड़े कुछ प्रश्न लिखना, जैसे-

  • क्या आप जानते हैं ये कौन हैं?
  • क्या किसी ने इनकी लिखी कोई किताब या कहानी पढ़ी है?
  • अगर हाँ, तो कौन-सी, कहाँ और कैसी लगी?

इस तरह के डिस्प्ले हमने अम्बेडकर जयन्ती, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले, गैस त्रासदी व अन्य विषयों को शामिल करते हुए लगाए। इनमें अलग-अलग तरह से बच्चों की शामिलियत रहती थी। कुछ बच्चे उस विषय से जुड़ी हुई किताब पढ़ते, कुछ इनके बारे में पूछते, इनकी कोई कहानी सुनाने को कहते आदि। हमने पाया कि पुस्तकालय आने वाला प्रत्येक बच्चा इन प्रकियाओं में शामिल हो जाता है।

प्रदर्शनी बनाने से लेकर उसके क्रियान्वयन में बच्चों की बहुत सक्रिय भागीदारी होती है। डिस्प्ले लगाने से बच्चों में कई सकारात्मक बदलाव दिखे और पुस्तकालय की सुन्दरता तो बढ़ी ही, साथ ही एक जीवन्तता भी महसूस हुई। बच्चे एक-दूसरे की रचनाओं को पढ़कर खुश होते हैं और एक-दूसरे की सराहना करते हुए उत्साह भी बढ़ाते हैं।

डिस्प्ले के माध्यम से छोटे-बड़े, सभी बच्चे गैस-त्रासदी, आसिफा-काण्ड, जाति-भेद जैसेे गम्भीर मुद्दों से जुड़े। जब गैस-त्रासदी पर सामग्री प्रदर्शित की तो देव जो आठ वर्र्ष का है, कहने लगा, ‘‘ये सब भाग क्यों रहे हैं, यहाँ क्या दंगा हो गया?’’ तभी सुमित जो उसकी ही उम्र का है, कहने लगा, ‘‘देखो, फैक्ट्री से धुआँ निकल रहा है, शायद आग लगी है इसलिए भाग रहे हैं।’’ एक ओर जहाँ बच्चे अपनी रचनाओं को डिस्प्ले में देख खुश होते हैं, वहीं वे और लिखने व अन्य बच्चों को भी लिखने की प्रेरणा देते हैं। जो बच्चे कहानियाँ नहीं पढ़ते थे, वे जानकारी मिलने पर उन किताबों को ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगे।

जिन बच्चों ने डिस्प्ले में लिखी कहानियाँ पढ़ी हैं, वे उनका नाम देखते ही समूह में उन किताबों के बारे में बताते हैं। इस तरह डिस्प्ले बुक-टॉक का माध्यम भी बना। ये बच्चों के मन में तथ्यों के प्रति जिज्ञासा भी बनाते हैं और जब उन पर चर्चा होती है तो वे बड़ी गम्भीरता के साथ विषय से जुड़ते भी हैं।

डिस्प्ले एक ऐसा माध्यम बना जहाँ हम पुस्तक-संग्रह की जानकारी, बच्चों के लिए अतिरिक्त पठन सामग्री, संवेदनशील मुद्दों पर किताबें और बच्चों की कला के प्रदर्शन को बड़ी सरलता-से बच्चों के सामने प्रस्तुत कर पाए। सबसे महत्वपूर्ण बात कि इस सबके लिए डिस्प्ले एक सस्ता, सुन्दर एवं सुलभ मंच साबित हुआ।


नीतू यादव: मुस्कान संस्था, भोपाल के शिक्षा समूह में पिछले 12 वर्षों से कई कार्यक्रमों का हिस्सा रही हैं। वर्तमान में, बतौर पुस्तकालय समन्वयक काम कर रही हैं। 2017 में वे पराग द्वारा संचालित लायब्रेरी एजुकेटर कोर्स की प्रतिभागी थीं।

सभी फोटो: नीतू यादव।

सन्दर्भ:
1. लाइब्रेरी डिस्प्ले आलेख - नीतू सिंह (ख्र्कक् कोर्स बुक)
2. अवलोकन रजिस्टर -- बासु धनगर, लाइब्रेरी शिक्षिका, गौरा गाँव।