युवाल नोआ हरारी
भौंचक्केपन के उस युग में आप कैसे रहते हैं, जब पुराने किस्से ध्वस्त हो चुके हैं और उनकी जगह लेने के लिए कोई नया किस्सा सामने नहीं आया है?
नव-जाति अभूतपूर्व क्रान्तियों का सामना कर रही है, हमारे सारे पुराने किस्से चूरचूर हो रहे हैं, और उनकी जगह लेने के लिए कोई नया किस्सा अभी तक सामने नहीं आया है। इस तरह के अभूतपूर्व रूपान्तरणों और मूलगामी अनिश्चितताओं से भरी दुनिया के प्रति हम स्वयं को और अपने बच्चों को किस तरह तैयार कर सकते हैं? आज का जन्मा शिशु 2050 में तीस के आसपास होगा। अगर सब कुछ ठीक-ठाक से चलता रहा, तो वह बच्चा 2100 में भी जीवित बना रहेगा, और हो सकता है कि तब वह इक्कीसवीं सदी का सक्रिय नागरिक हो। हमें अपने इस बच्चे को ऐसा क्या पढ़ाना चाहिए जो 2050 या बाइसवीं सदी की दुनिया में उसके जीवित बने रहने और फलने-फूलने में मदद कर सके? उसको रोज़गार हासिल करने के लिए, अपने आसपास के घटनाक्रमों को समझने के लिए, और जीवन की भूलभुलैया के बीच अपना रास्ता बनाने के लिए किस तरह की दक्षताओं की ज़रूरत है?
दुर्भाग्य से, चूँकि कोई नहीं जानता कि 2100 को तो छोड़ ही दें, 2050 में भी दुनिया की क्या शक्ल होगी, हम इन सवालों के जवाब भी नहीं जानते। निश्चय ही, मनुष्य भविष्य का पूर्वानुमान कभी भी ठीक-ठीक ढंग से नहीं कर सकते। लेकिन आज यह पहले से कहीं ज़्यादा मुश्किल हो गया है, क्योंकि जैसे ही प्रौद्योगिकी हमें शरीरों, मस्तिष्कों और दिमागों को नए सिरे से गढ़ने में सक्षम बना देती है, वैसे ही हम किन्हीं भी चीज़ों के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं रह जाएँगे - जिनमें वे चीज़ें भी शामिल होंगी जो पहले निश्चित और शाश्वत प्रतीत होती थीं।
एक हज़ार साल पहले, 1018 में, भविष्य के बारे में ऐसी बहुत-सी चीज़ें थीं जिनके बारे में लोग जानते नहीं थे, लेकिन तब भी उनको इस बात का यकीन हुआ करता था कि मानव-समाज के बुनियादी लक्षणों में कोई बदलाव आने वाला नहीं है। अगर आप 1018 में चीन में रहते थे, तो आप जानते थे कि 1050 तक सांग साम्राज्य ध्वस्त हो जा सकता है, उत्तर दिशा से खितान आक्रमण कर सकते हैं, और महामारी लाखों लोगों की जान ले सकती है। लेकिन यह बात आपके सामने स्पष्ट थी कि 1050 में भी ज़्यादातर लोग किसानों या बुनकरों के रूप में काम कर रहे होंगे, हुक्मरान तब भी अपनी फौजों और नौकरशाहियों में भर्ती करने के लिए इन्सानों पर निर्भर होंगे, पुरुषों का स्त्रियों पर वर्चस्व बना रहेगा, आयु-सीमा तब भी चालीस के आसपास होगी, और मनुष्य की काया ठीक ऐसी-की-ऐसी होगी। इसलिए, 1018 में गरीब चीनी अभिभावक अपने बच्चों को चावल रोपने और सिल्क बुनने की विधियाँ सिखाते थे, और सम्पन्नतर अभिभावक अपने लड़कों को कन्फ्यूसियाई क्लासिक्स पढ़ने, चित्र-लिपि लिखने, या घोड़े पर सवार होकर युद्ध करने की विधियाँ सिखाते थे - और अपनी लड़कियों को विनम्र तथा आज्ञाकारी गृहणियाँ बनने की शिक्षा देते थे। यह बात ज़ाहिर-सी थी कि इन दक्षताओं की ज़रूरत 1050 में भी पड़ने वाली थी।
इसके बरक्स, आज हमें इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि 2050 में चीन या बाकी दुनिया किस तरह की दिखेगी। हम नहीं जानते कि लोग आजीविका के लिए क्या करेंगे, हम नहीं जानते कि सेनाएँ या नौकरशाहियाँ किस तरह काम करेंगी, और हम नहीं जानते कि लैंगिक रिश्ते किस तरह के होंगे। कुछ लोग शायद आज की तुलना में ज़्यादा लम्बा जीवन जिएँगे, और जैवइंजीनियरी और सीधे मस्तिष्क-कम्प्यूटर इंटरफेसों की वजह से स्वयं इन्सानी काया में अभूतपूर्व क्रान्ति होगी। इसलिए आज बच्चे जो कुछ भी सीखते हैं 2050 तक उसमें से ज़्यादातर के अप्रासंगिक हो जाने की सम्भावना है।
वर्तमान में, बहुत सारे स्कूल सूचना को ठूँसने पर ध्यान देते हैं। अतीत में यह चीज़ मानी रखती थी, क्योंकि सूचना दुर्लभ थी, और मौजूद सूचना के धीमे रिसाव तक को बार-बार सेंसरशिप के सहारे अवरुद्ध कर दिया जाता था। उदाहरण के लिए, अगर आप 1800 में मैक्सिको के किसी छोटे-से देहाती नगर में रहते थे, तो उससे व्यापक दुनिया के बारे में ज़्यादा कुछ जान पाना आपके लिए मुश्किल था। वहाँ कोई रेडियो, टेलिविज़न, दैनिक अखबार या सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था। अगर आप साक्षर भी होते और किसी निजी पुस्तकालय तक आपकी पहुँच होती, तब भी सिवा उपन्यासों और मज़हबी पोथियों के वहाँ पढ़ने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था। स्पेनी साम्राज्य स्थानीय स्तर पर मुद्रित तमाम मज़मूनों को बुरी तरह सेंसर कर दिया करता था, और सिर्फ अच्छी तरह से जाँचे-परखे गए थोड़े-से प्रकाशनों को बाहर से आयातित करने की छूट देता था। ज़्यादातर यही बात तब भी सही होती अगर आप रूस, हिन्दुस्तान, तुर्की या चीन के किसी देहाती नगर में रह रहे होते। जब आधुनिक स्कूल आए, जिनने हर बच्चे को पढ़ने और लिखने की तथा भूगोल, इतिहास और जीवविज्ञान के बुनियादी तथ्यों की शिक्षा देने की शुरुआत की, तो उनने अपरिमित सुधार का प्रतिनिधित्व किया।
इसके बरक्स, इक्कीसवीं सदी में हम सूचना की विपुल मात्रा से घिरे हुए हैं, और अब सेंसर भी उसको अवरुद्ध करने की कोशिश नहीं करते। इसकी बजाय, वे गलत सूचनाएँ फैलाने और अप्रासंगिकताओं के सहारे हमारा ध्यान भटकाने में व्यस्त हैं। अगर आप मैक्सिको के किसी देहाती नगर में रहते हैं और आपके पास स्मार्टफोन है, तो आप अपने जीवन का बहुत सारा वक्त विकीपीडिया पढ़ते हुए, टेड टॉक्स देखते हुए, और फ्री ऑनलाइन कोर्स लेते हुए बिता सकते हैं। कोई भी सरकार उस सूचना को छिपाने की उम्मीद नहीं कर सकती जो वह नहीं चाहती। दूसरी ओर, यह खतरनाक रूप से आसान है कि वे जनता को परस्पर विरोधी रिपोर्टों और ध्यान भटकाने वाली सूचनाओं से पाट दें। सारी दुनिया के लोग अलेप्पो की गोलीबारी के बारे में या आर्कटिक के पिघलते हिमशिखरों के बारे में ताज़ातरीन जानकारी से मात्र एक बटन दबाने भर की दूरी पर हैं, लेकिन इन सबके बारे में इतनी परस्पर विरोधी जानकारियाँ हैं कि यह समझ पाना मुश्किल है कि किस पर भरोसा किया जाए। इसके अलावा, असंख्य दूसरी चीज़ें भी एक बटन दबाने भर की दूरी पर हैं, जो आपकी एकाग्रता को मुश्किल बना देती हैं, और जब राजनीति या विज्ञान बहुत पेचीदा लगने लगते हैं, तो वहाँ से ध्यान हटाकर किन्हीं मज़ेदार कैट वीडियो, सेलिब्रिटी गॉसिप, या पोर्नोग्राफी देखने का लोभ जागने लगता है।
इस तरह की एक दुनिया में, किसी अध्यापक को अपने छात्रों को और अधिक जानकारी देने की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती। यह जानकारी उनके पास पहले से ही भरपूर मात्रा में होती है। इसकी बजाय, लोगों को सूचना की सार्थक व्याख्या करने की, महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण के बीच फर्क करने की, और इस सबसे ऊपर सूचना के ढेरों अंशों को आपस में मिलाकर दुनिया की व्यापक तस्वीर गढ़ने की ज़रूरत है।
वास्तव में, ये सदियों से पश्चिम की उदारवादी शिक्षा का आदर्श रहा है, लेकिन अब तक अधिकांश पश्चिमी स्कूल इस आदर्श को प्राप्त करने में सुस्त रहे हैं। अध्यापकों ने खुद को छूट दी कि वे आँकड़े ठूँसते रहें और वहीं वे छात्रों को ‘खुद ही सोचने’ के लिए प्रोत्साहित करते रहे। तानाशाही के भय के चलते, उदारवादी स्कूलों में महाख्यानों को लेकर विशेष रूप से दहशत रही। वे मानकर चलते रहे कि जब तक वे छात्रों को ढेरों आँकड़े और किंचित आज़ादी उपलब्ध कराते रहेंगे, तब तक छात्र दुनिया की अपनी तरह की तस्वीर रचते रहेंगे, और अगर यह पीढ़ी उन सारे आँकड़ों का संश्लेषण कर दुनिया का एक सुसंगत और अर्थपूर्ण किस्सा गढ़ने में नाकामयाब भी रहती है, तो भविष्य में एक अच्छा संश्लेषण रचने के लिए भरपूर वक्त होगा। अब हमारे पास वह वक्त नहीं बचा है। आने वाले कुछ दशकों में जो फैसले हम लेंगे, वे स्वयं जीवन के भविष्य को आकार देंगे, और ये फैसले हम अपनी मौजूदा विश्वदृष्टि के आधार पर ही ले सकते हैं। अगर इस पीढ़ी में ब्रह्माण्ड की किसी बोधगम्य दृष्टि का अभाव हुआ, तो जीवन का भविष्य बेतरतीब ढंग से तय होगा।
दबाव ज़बरदस्त है
सूचना के अलावा, ज़्यादातर स्कूल बच्चों को पूर्वनिर्धारित दक्षताएँ - जैसे कि विभेदक समीकरणों का हल निकालना, C++ में कम्प्यूटर कोड लिखना, परखनली में रसायनों की पहचान करना, या चीनी में बतियाना - उपलब्घ कराने पर बहुत ज़्यादा ध्यान देते हैं। लेकिन चूँकि हमें इस बात का कोई अनुमान नहीं है कि 2050 में रोज़गार की दुनिया कैसी होगी, इसलिए हमें वास्तव में इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि वे कौन-सी खास दक्षताएँ होंगी जिनकी लोगों को ज़रूरत पड़ेगी। हम बच्चों को यह सिखाने में भरपूर उद्यम लगा सकते हैं कि C++ में कैसे लिखा जाए या चीनी भाषा कैसे बोली जाए, लेकिन मुमकिन है कि हमें पता चले कि 2050 तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर की कोडिंग इन्सानों से बेहतर ढंग से कर सकता है, और नई गूगल ट्रांसलेट एप आपको मैंड्रियन, कैंटोनीज़ या हक्का में लगभग त्रुटिहीन वार्तालाप करने में सक्षम बना सकती है, भले ही आपको सिर्फ ‘नी हाव’ (‘हेलो, कैसे हैं’) बोलना भर आता हो।
अनेक अध्यापन-विशेषज्ञों का तर्क है कि स्कूलों को अब ‘चार Cs’ पढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए - क्रिटिकल थिंकिंग (विवेचनात्मक चिन्तन), कम्युनिकेशन (सम्प्रेषण), कोलेबोरेशन (सहकार) और क्रिएटिविटी (सृजनात्मकता)।
तब हमें क्या पढ़ाना चाहिए? अनेक अध्यापन-विशेषज्ञों का तर्क है कि स्कूलों को अब ‘चार Cs’ पढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए - क्रिटिकल थिंकिंग (विवेचनात्मक चिन्तन), कम्युनिकेशन (सम्प्रेषण), कोलेबोरेशन (सहकार) और क्रिएटिविटी (सृजनात्मकता)। और भी व्यापक तौर पर, स्कूलों को तकनीकी दक्षताओं को कम महत्व देना चाहिए और सामान्य उद्देश्यपरक जीवन सम्बन्घी दक्षताओं पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण होंगी परिवर्तन से निपटने की, नई चीज़ें सीखने की, और अज्ञात परिस्थितियों में अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रखने की काबिलियतें। 2050 की दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए आपको सिर्फ नए विचार और उत्पाद ईजाद करना भर ज़रूरी नहीं होगा - इन सबसे ऊपर आपको स्वयं को बार-बार नए सिरे से गढ़ना भी ज़रूरी होगा।
क्योंकि जैसे-जैसे परिवर्तन की गति बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे न सिर्फ अर्थव्यवस्था में, बल्कि ‘मनुष्य होने’ के अर्थ-मात्र में बदलाव आने की सम्भावना है। 1848 में ही कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो ने घोषणा कर दी थी कि ‘जो कुछ भी ठोस है वह घुलकर हवा बन जाता है’। लेकिन मार्क्स और ऐंजिल्स मुख्यत: सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के बारे में सोच रहे थे। 2048 तक शारीरिक और ज्ञानात्मक संरचनाएँ भी घुलकर हवा में, या डेटा बिट्स के बादल में बदल जाएँगी।
1848 में लाखों लोग गाँवों के खेतों के अपने रोज़गार खो रहे थे, और कारखानों में काम करने बड़े शहरों की ओर जा रहे थे। लेकिन बड़े शहरों में पहुँचने पर इसकी कोई सम्भावना नहीं थी कि उनको अपना लिंग बदलने या कोई छठी इन्द्रिय जोड़ने की ज़रूरत पड़ती। और अगर उनको किसी कपड़ा कारखाने में काम मिल जाता, तो वे अपने शेष कामकाजी जीवन भर उसी व्यवसाय में बने रहने की उम्मीद कर सकते थे।
2048 तक लोगों को अस्थिर लैंगिक पहचानों के साथ, और कम्प्यूटर आरोपणों द्वारा उत्पन्न नवीन ऐन्द्रिय अनुभवों के साथ साइबरस्पेस में स्थानान्तरित हो जाने की स्थिति से तालमेल बिठाना पड़ सकता है। अगर वे एक त्रिआयामी आभासी वास्तविक खेल के लिए ताज़ातरीन फैशनों के आकल्पन में कार्य और अर्थ, दोनों चीज़ें खोज लेते हैं, तो दस साल के भीतर न सिर्फ यह खास व्यवसाय, बल्कि इस स्तर की कलात्मक सृजनात्मकता की माँग करने वाले सारे काम एआई द्वारा हथिया लिए जाएँगे। इसलिए पच्चीस साल की उम्र में आप एक डेटिंग साइट पर अपना परिचय ‘लन्दन में रहने वाली और एक फैशन की दूकान पर काम करने वाली पच्चीस वर्षीय विषमलैंगिक स्त्री’ के रूप में देती हैं। पैंतीस की उम्र में आप कहती हैं कि आप ‘उम्र के सामंजस्य की प्रक्रिया से गुज़र रहे किसी लिंग-विशेष से ताल्लुक न रखने वाली एक ऐसी स्त्री हैं, जिसकी नव्य-कॉर्टिकल गतिविधियों का क्षेत्र अब मुख्यत: न्यू कॉस्मॉस आभासी दुनिया है, और जिसके जीवन की मुहिम वहाँ जाने की है जहाँ इसके पहले कोई भी फैशन डिज़ाइनर नहीं गई है’। पैंतालीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते डेटिंग और आत्मपरिभाषाएँ, दोनों बहुत पुरानी पड़ जाती हैं। आप सिर्फ एक ऐसे ऐल्गॅरिदम की प्रतीक्षा करती हैं जो आपके लिए एकदम सटीक रिश्ता खोज दे (या रच दे)। जहाँ तक फैशन डिज़ाइन की कला से अर्थ हासिल करने का सवाल है, आप ऐल्गॅरिदमों द्वारा इस कदर अटल रूप से पीछे छोड़ दी गई होंगी, कि पिछले दशक की अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों की ओर मुड़कर देखना आपको गर्व की बजाय शर्मिन्दगी से भर देगा। और पैंतालीस की उम्र में भी आपके आगे आमूल-चूल बदलाव लाने वाले कई दशक पड़े होंगे।
कृपया भविष्य की परिकल्पना को इस तरह न लें कि यह शब्दश: इसी रूप में घटित होगी। जो बदलाव हमें देखने को मिलेंगे उनका पूर्वानुमान वास्तव में कोई नहीं कर सकता। भविष्य की किसी भी परिकल्पना के सचाई से बहुत दूर होने की सम्भावना है। अगर आपके सामने कोई व्यक्ति मध्य इक्कीसवीं सदी की दुनिया का वर्णन करता है और वह वर्णन किसी विज्ञान-कथा जैसा प्रतीत होता है, तो वह सम्भवत: झूठा है। लेकिन फिर अगर कोई व्यक्ति आपके सामने मध्य इक्कीसवीं सदी की दुनिया का वर्णन करता है और वह वर्णन विज्ञान-कथा जैसा प्रतीत नहीं होता - तो वह निश्चय ही झूठा है। हम निश्चयात्मकताओं के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कह सकते, लेकिन बदलाव अपने आप में एकमात्र निश्चयात्मकता है।
यह गम्भीर बदलाव शायद जीवन के बुनियादी ढाँचे को ही बदल दे, और विच्छिन्नता को इसका सबसे प्रमुख लक्षण बना दे। जीवन चिरकाल से ही दो अनुपूरक हिस्सों में बँटा रहा था : सीखने का दौर और उसके बाद काम करने का दौर। जीवन के पहले हिस्से में आप जानकारी एकत्र करते थे, दक्षताएँ विकसित करते थे, एक जीवन-दृष्टि रचते थे, और एक स्थिर पहचान गढ़ते थे। अगर आप पन्द्रह साल की उम्र में भी अपना दिन (किसी औपचारिक स्कूल में बिताने की बजाय) परिवार के धान के खेत में काम करते हुए बिताते थे, तब भी जो सबसे महत्वपूर्ण काम आप कर रहे होते थे, वह सीखने का काम होता था : चावल की खेती कैसे की जाए, किसी बड़े शहर से आए चावल के लालची सौदागर से मोल-भाव कैसे किया जाए, और ज़मीन तथा पानी को लेकर अन्य ग्रामीणों के साथ होने वाली तकरारों को कैसे सुलझाया जाए। जीवन के दूसरे हिस्से में आप दुनिया में अपना रास्ता ढूँढ़ने के लिए, आजीविका कमाने के लिए, और समाज में योगदान करने के लिए अपनी एकत्र की गई दक्षताओं पर निर्भर करते थे। बेशक, पचास की उम्र में भी आप चावल के बारे में, सौदागरों के बारे में, तकरारों के बारे में नई चीज़ें सीखना जारी रखते थे, लेकिन ये चीज़ें आपकी प्रखर दक्षताओं में छोटे-मोटे सुधार ही लाती थीं।
इक्कीसवीं सदी के मध्य तक तेज़ रफ्तार बदलाव और उन्हीं के साथ-साथ लम्बे जीवन-काल की वजह से यह पारम्परिक ढाँचा पुराना पड़ जाएगा। जीवन की सीवनें उधड़ जाएँगी, और जीवन के विभिन्न कालखण्डों के बीच निरन्तरता कम से कमतर होती जाएगी। ‘मैं कौन हूँ?’ का प्रश्न इस कदर निर्णायक और पेचीदा हो जाएगा जितना वह कभी नहीं रहा।
इससे मानसिक सन्ताप और तनाव के स्तरों के बहुत अधिक बढ़ जाने की सम्भावना है। क्योंकि बदलाव हमेशा ही सन्ताप और तनाव से भरा होता है, और एक खास उम्र के बाद ज़्यादातर लोग बदलाव चाहते ही नहीं हैं। जब आप पन्द्रह के होते हैं, आपका समूचा जीवन बदलाव होता है। आपकी काया बढ़ रही होती है, आपका दिमाग विकसित हो रहा होता है, आपके रिश्ते प्रगाढ़ हो रहे होते हैं। हर चीज़ लगातार बदल रही होती है, और हर चीज़ नई होती है। आप खुद को आविष्कृत करने में व्यस्त होते हैं। बहुत-से किशोर इससे डरे होते हैं, लेकिन इसी के साथ-साथ यह रोमांचक भी होता है। आपके सामने नई सम्भावनाएँ खुल रही होती हैं, और जीतने के लिए सारी दुनिया आपके सामने मौजूद होती है।
पचास के होते-होते, आप बदलाव नहीं चाहते, और ज़्यादातर लोग दुनिया को जीतने की कोशिश छोड़ चुके होते हैं। सब कुछ इस कदर देख-समझ लिया है कि अब ऊब होने लगी है। आपको स्थायित्व ज़्यादा ठीक लगता है। आप अपनी दक्षताओं, अपनी आजीविका, अपनी पहचान और अपनी विश्वदृष्टि में इतना अधिक निवेश कर चुके हैं कि आप एकबार फिर नए सिरे से सब कुछ शु डिग्री नहीं करना चाहते। किसी चीज़ को तैयार करने में आपने जितनी कड़ी मेहनत की होती है उतना ही मुश्किल होता है उस चीज़ पर अपनी पकड़ को ढीला करना और किसी नई चीज़ के लिए गुंजाइश देना। आप नए तजुरबों और छोटे-मोटे तालमेल बिठाने में अभी भी आनन्द लेते हैं, लेकिन ज़्यादातर लोग अपनी पचास की उम्र में अपनी पहचान और व्यक्तित्व की गहरी संरचनाओं की आमूल-चूल मरम्मत के लिए तैयार नहीं होते।
इसकी स्नायुविक वजहें होती हैं। यद्यपि वयस्क दिमाग उससे ज़्यादा लचीला और परिवर्तनशील होता है जितना कभी समझा जाता था, तब भी उसमें किशोर दिमाग जैसी नमनीयता नहीं होती। स्नायुओं को और दो स्नायुविक कोशिकाओं के बीच के तारों को नए सिरे से जोड़ना भयानक मुश्किल काम है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में स्थायित्व आपके लिए मँहगा पड़ सकता है। अगर आप किसी स्थाई पहचान, काम या विश्वदृष्टि से चिपके रहना चाहते हैं, तो आप यह जोखिम उठाते हैं कि दुनिया आपको पीछे छोड़ती हुई आपके सिर पर से गुज़र जाती है। नतीजतन, इस तथ्य के मद्देनज़र कि आयु-सीमा के बढ़ते जाने की सम्भावना है, आपको एक अज्ञानी रूढ़िवादी के रूप में दशकों गुज़ारने पड़ सकते हैं। प्रासंगिक बने रहने के लिए - सिर्फ आर्थिक रूप से ही नहीं, बल्कि सबसे ज़्यादा सामाजिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए - आपको निरन्तर सीखते रहने की और नए सिरे से गढ़ते रहने की ज़रूरत होगी, निश्चय ही पचास साल की युवावस्था में।
जैसे ही अजनबीयत नई सामान्य अवस्था बन जाएगी, आपके अतीत के अनुभव, साथ ही समूची मनुष्यता के अतीत के अनुभव भी, उतने भरोसेमन्द मार्गदर्शक नहीं रह जाएँगे। व्यक्तियों के रूप में इन्सान को और समग्र तौर पर मानव-जाति को उत्तरोत्तर ऐसी चीज़ों से बरतना पड़ेगा जिनका सामना पहले कभी किसी ने नहीं किया था, जैसे कि अतिशय बुद्धिमान मशीनें, यांत्रिक ढंग से गढ़ी गई कायाएँ, आपकी भावनाओं के साथ भयानक ढंग से छल-योजना कर सकने वाले ऐल्गॅरिदम, मनुष्य द्वारा तेज़ी के साथ पैदा की जा रही जलवायुपरक उथल-पुथल, और अपने व्यवसाय को हर दस साल बाद बदलने की ज़रूरत। जब आप एक पूरी तरह से अभूतपूर्व परिस्थिति का सामना कर रहे होंगे, तब आप ऐसा क्या किया करेंगे जो सही होगा? जब आप सूचना की विपुल मात्रा से भर दिए गए होंगे और जब इस सूचना को समोने और उस सबका विश्लेषण करने का कोई उपाय न होगा तो आपकी कार्रवाई का क्या रूप होगा? ऐसी दुनिया में किस तरह रहा जा सकेगा जहाँ अथाह अनिश्चयात्मकता कोई खोट नहीं, बल्कि वह इस दुनिया का एक लक्षण होगी?
इस तरह की दुनिया में जीवित बने रहने और फलने-फूलने के लिए, आपको बहुत ज़्यादा मानसिक लचीलेपन की और भावनात्मक सन्तुलन के विशाल संचय की ज़रूरत होगी। आपको बार-बार ऐसी कुछ चीज़ों को खारिज करते रहना होगा जिनसे आप सबसे अच्छी तरह परिचित हैं, अज्ञात चीज़ों के साथ आत्मीयता महसूस करनी होगी। दुर्भाग्य से, बच्चों को अज्ञात का स्वागत करने और अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रखने की शिक्षा देना, उनको भौतिकी के समीकरणों की या पहले विश्वयुद्ध की वजहों की शिक्षा देने से कहीं बहुत ज़्यादा मुश्किल काम है। आप कोई पुस्तक पढ़कर या कोई व्याख्यान सुनकर लचीलापन नहीं सीख सकते। शिक्षकों में खुद ही आम तौर से उस मानसिक लचीलेपन का अभाव है जिसकी माँग इक्कीसवीं सदी करती है, क्योंकि वे स्वयं पुरानी शिक्षा-पद्धति की पैदाइश हैं।
औद्योगिक क्रान्ति ने हमें शिक्षा का क्रमबद्ध उत्पादन (प्रोडक्शन-लाइन) का सिद्धान्त वसीयत में सौंपा है। नगर के बीच एक बड़ी पक्की इमारत होती है, जिसमें एक-जैसे बहुत-से कमरे होते हैं, और हर कमरा मेज़ों और कुर्सियों की कतार से सज्जित होता है। घण्टे की आवाज़ सुनते ही आप उन तीस और बच्चों के साथ इनमें से किसी एक कमरे में जाते हैं जो सब उसी साल पैदा हुए थे, जिस साल आपका जन्म हुआ था। हर घण्टे कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति अन्दर आता है और बोलना शु डिग्री कर देता है। इस काम के लिए उनको सरकार से पैसे मिलते हैं। उनमें से एक आपको पृथ्वी की आकृति के बारे में बताता है, दूसरा आपको इन्सान के अतीत के बारे में बताता है, तीसरा आपको मनुष्य के शरीर के बारे में बताता है। इस ढाँचे का मज़ाक उड़ाना आसान है, और लगभग हर कोई इस पर सहमत है कि इसकी अतीत की उपलब्धियाँ जो भी रही हों, लेकिन अब यह दिवालिया हो चुका है। लेकिन अब तक हमने कोई अभीष्ट या कारगर विकल्प नहीं रचा है। निश्चय ही ऐसा कोई विस्तारपरक विकल्प नहीं रचा है जिसको कैलीफोर्निया के महज़ किसी सम्पन्न नगर परिसर की बजाय मैक्सिको के ग्रामीण इलाकों में लागू किया जा सके।
मनुष्यों में सेंध
इसलिए मैक्सिको, हिन्दुस्तान या अल्बामा में कहीं किसी पुराने पड़ चुके स्कूल में अटके एक पन्द्रह-वर्षीय किशोर को जो सबसे अच्छी सलाह मैं दे सकता हूँ, वह यह है : वयस्कों पर बहुत ज़्यादा भरोसा मत करो। उनमें से ज़्यादातर के इरादे भले हैं, लेकिन वे दुनिया को नहीं समझते। अतीत में, वयस्कों का अनुसरण करना अपेक्षाकृत एक सुरक्षित दाँव हुआ करता था, क्योंकि वे दुनिया को बहुत अच्छी तरह से समझते थे, और दुनिया में बदलाव धीमी गति से आते थे। लेकिन इक्कीसवीं सदी बिलकुल अलग तरह की होने जा रही है। परिवर्तन की बढ़ती हुई रफ्तार की वजह से आप इस बारे में कभी निश्चित नहीं हो सकते कि वयस्क लोग आपसे जो कुछ कह रहे हैं वह कालातीत प्रज्ञा की बात है या कोई घिसापिटा पूर्वग्रह है।
तब फिर आप उनकी जगह किस चीज़ पर भरोसा कर सकते हैं? क्या शायद प्रौद्योगिकी पर? यह और भी ज़्यादा जोखिम-भरा दाँव है। प्रौद्योगिकी आपकी बहुत मदद कर सकती है, लेकिन अगर प्रौद्योगिकी आपके जीवन पर बहुत ज़्यादा हुकूमत हासिल कर लेती है, तो आप उसकी कार्यसूची के बन्धक बनकर रह जा सकते हैं। हज़ारों साल पहले मनुष्यों ने कृषि का आविष्कार किया था, लेकिन इस प्रौद्योगिकी ने एक बहुत छोटे-से अभिजात वर्ग को समृद्ध किया, और बहुसंख्यक इन्सानों को गुलाम बनाया। ज़्यादातर लोगों ने पाया कि वे सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक काम में जुते रहते हुए खरपतवार उखाड़ते रहते हैं, पानी से भरी बाल्टियाँ ढोते रहते हैं और सुलगती धूप में मक्के की फसल काटते रहते हैं। ये आपके साथ भी हो सकता है।
प्रौद्योगिकी बुरी नहीं है। अगर आपको मालूम है कि आप अपने जीवन में क्या चाहते हैं, तो प्रौद्योगिकी उसको हासिल करने में आपकी मदद कर सकती है। लेकिन अगर आपको नहीं मालूम कि आप अपने जीवन में क्या हासिल करना चाहते हैं, तो प्रौद्योगिकी के लिए आपके लक्ष्यों को निर्धारित करना और आपके जीवन को नियंत्रित करना बहुत आसान होगा। खास तौर से प्रौद्योगिकी जैसे-जैसे मनुष्यों को समझने के मामले में बेहतर होती जाएगी, वैसे-वैसे, बजाय इसके कि वह आपकी सेवा करे, आप खुद को उसकी सेवा में लगा हुआ पा सकते हैं। क्या आपने उन नीरस व्यक्तियों को देखा है जो अपना चेहरा अपने स्मार्टफोनों में गड़ाए सड़कों पर घूमते रहते हैं? आपको क्या लगता है, वे प्रौद्योगिकी को नियंत्रित करते हैं, या प्रौद्योगिकी उनको नियंत्रित करती है?
तब फिर क्या आपको खुद पर भरोसा करना चाहिए? यह बात सैसम स्ट्रीट पर या पुराने चाल की किसी डिज़नी फिल्म में बहुत बड़ी लगती है, लेकिन वास्तविक जीवन में यह उस तरह कारगर नहीं है। यहाँ तक कि यह बात अब डिज़नी तक को समझ में आने लगी है। रिली एंडरसॅन की तरह, ज़्यादातर लोग शायद ही खुद को जानते हैं, और जब वे ‘अपनी आवाज़ सुनने’ की कोशिश करते हैं, तो वे बहुत आसानी-से बाहरी छल योजनाओं के शिकार हो जाते हैं। हम अपने सिरों के भीतर से आती जिस आवाज़ को सुनते हैं वह कभी विश्वास के काबिल नहीं रही, क्योंकि वह, जैवरासायनिक खोटों के साथ-साथ, हमेशा सरकारी प्रचार, विचारधारात्मक मतारोपणों और वाणिज्यिक विज्ञापनों को प्रतिध्वनित करती है।
जैसे ही जैवप्रौद्योगिकी और मशीन लर्निंग उन्नत रूप ले लेंगे, वैसे ही लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं के साथ छलयोजना करना और भी आसान हो जाएगा, और तब अपने दिल की आवाज़ का अनुसरण करना पहले के किसी भी वक्त के मुकाबले ज़्यादा खतरनाक हो जाएगा। जब कोका-कोला, अमेज़ॉन, बैदू या सरकार यह समझ लेगी कि आपके दिल की डोरों को कैसे खींचा जाए और आपके मस्तिष्क के बटनों को कैसे दबाया जाए, तब क्या आप अपने और उनके विपणन विशेषज्ञों के बीच फर्क कर पाएँगे?
एक इस तरह के हतोत्साहित करने वाले उद्यम में कामयाब होने के लिए आपको अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को बेहतर समझने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत होगी। यह जानने के लिए कि आप क्या हैं, और आप जीवन से क्या चाहते हैं। यह निश्चय ही पोथी में दी गई सबसे पुरानी सलाह है : खुद को जानो। हज़ारों सालों तक दार्शनिकों और भविष्यदृष्टाओं ने लोगों से खुद को जानने की विनती की है। लेकिन यह सलाह जिस तरह इक्कीसवीं सदी में तत्काल अमल करने योग्य बन चुकी है, उतनी कभी नहीं थी, क्योंकि लाओज़ी और सुकरात के ज़माने से भिन्न, आज आप गम्भीर प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं। कोका-कोला, अमेज़ॉन, बैदू और सरकार सब-के-सब आपके भीतर सेंध लगाने (आपको हैक करने) की होड़ कर रहे हैं। आपका स्मार्टफोन नहीं, आपका कम्प्यूटर नहीं, आपका बैंक खाता नहीं - वे आपके भीतर और आपके जैविक ऑपरेटिंग सिस्टम के भीतर सेंध लगाने की होड़ कर रहे हैं। शायद आपने सुना होगा कि हम कम्प्यूटरों की हैकिंग के युग में रह रहे हैं, लेकिन यह आधी सचाई ही है। दरअसल, हम मनुष्यों को हैक किए जाने के युग में रह रहे हैं।
ऐल्गॅरिदम ठीक इस वक्त भी आप पर निगाह रखे हुए हैं। वे निगाह रखे हुए हैं कि आप कहाँ जाते हैं, क्या खरीदते हैं, किससे मिलते हैं। जल्दी ही वे आपके हर कदम पर, आपकी सारी साँसों पर, आपके दिल की सारी धड़कनों पर निगाह रखने लगेंगे। आपको ज़्यादा-से-ज़्यादा बेहतर ढंग से समझने के लिए वे बिग डेटा और मशीन लर्निंग पर भरोसा कर रहे हैं। और जैसे ही ये ऐल्गॅरिदम आपको आपसे बेहतर ढंग से जानने लगेंगे, वे आपको नियंत्रित कर सकेंगे, आपके साथ छल-योजना कर सकेंगे, और आप इसको लेकर कुछ खास नहीं कर पाएँगे। आप मैट्रिक्स के भीतर, या द टÜमेन शो के भीतर रह रहे होंगे। अन्त में, यह एक साधारण-सा अनुभवपरक मसला होगा : अगर ऐल्गॅरिदम सचमुच ही इस बात को आपसे बेहतर समझते हैं कि आपके भीतर क्या चल रहा है, तो प्रभुत्व आपके हाथ से निकलकर, उनके हाथ में चला जाएगा।
निश्चय ही, यह मुमकिन है कि सारा प्रभुत्व ऐल्गॅरिदमों के हाथ में सौंपकर और आप के तथा दुनिया के फैसले उनके ज़िम्मे सौंपकर, आप पूरी तरह प्रसन्न हों। अगर ऐसा है, तो चैन की साँस लीजिए और सफर का आनन्द उठाइए। फिर आपको इस बारे में कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। ऐल्गॅरिदम सब कुछ सँभाल लेंगे। लेकिन, अगर आप अपने अस्तित्व और अपने भावी जीवन पर कुछ नियंत्रण अपने हाथों में बचाए रखना चाहते हैं, तो आपको ऐल्गॅरिदमों से, अमेज़ॉन और सरकार से ज़्यादा तेज़ रफ्तार से दौड़ना होगा, और इसके पहले कि वे आपको जानें, आपको खुद को जानना होगा। चूँकि आपको तेज़ दौड़ना है, इसलिए अपने साथ बहुत ज़्यादा असबाब न ले जाएँ। अपने सारे भ्रम छोड़कर जाएँ। वे बहुत भारी हैं।
युवाल नोआ हरारी: ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है और अब विश्व इतिहास में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद वे हिब्रू विश्वविद्यालय, येरुस्लम में अध्यापन करते हैं। उनकी दो पुस्तकें सेपियन्स: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड और होमो डेयस : अ ब्रीफ हिस्ट्री आफ टुमॉरो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो चुकी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मदन सोनी: आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय वरिष्ठ हिन्दी लेखक व अनुवादक। इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इन्होंने उम्बर्तो एको के उपन्यास द नेम ऑफ दि रोज़, डैन ब्राउन के उपन्यास दि द विंची कोड और युवाल नोआ हरारी की किताब सेपियन्स: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड समेत अनेक पुस्तकों के अनुवाद किए हैं।
यह लेख मंजुल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित युवाल नोआ हरारी की किताब 21वीं सदी के लिए 21 सबक से साभार।