पाठ्य-पुस्तकों में ध्वनि एक ऊर्जा के रूप में शुरू होती है और फिर अनुनाद में जाकर फंस जाती है। इस पूरे चक्कर में मूल बात तो रह जाती है कि ध्वनि है क्या और कैसे पैदा होती है? ऐसे में पाठ्य-पुस्तक के इस बोरियतपन से निकलने की कोशिश की जाए तो कैसे?
ऐसे ही प्रयास में लगे एक शिक्षक के नोट्स - जिसे उसने तैयार किया ध्वनि को पढ़ाए जाने के पारंपरिक तरीके के विकल्प  बतौर। और जो परिणाम सामने आया काफी मजेदार है।

छठवीं की पाठ्य-पुस्तक में ध्वनि की इकाई इस प्रकार शुरू होती है।
‘ध्वनि भी एक प्रकार की ऊर्जा है। यह कान द्वारा महसूस की जाती है। जब चीजें कंपन करती हैं तो ध्वनि पैदा होती है। वे ध्वनि तरंगें जिनकी आवृत्ति 20 से 20,000 कम्पन प्रति सैकंड हैं, उन्हें हमारे कान सुन सकते हैं। आवाज़ सिर्फ ठोस, द्रव या गैस जैसे माध्यम से ही गुजर सकती है। वह निर्वात में नहीं चल सकती।''

ध्वनि का यह अध्याय इसके बाद तीन गतिविधियों का विवरण देता है--- वाद्य यंत्रों के बारे में, संगीत व शोर के बारे में और ध्वनि प्रदूषण के बारे में, और फिर अचानक अध्याय में ध्वनि की गति के बारे में चर्चा आ जाती है। इस अध्याय का अन्त इस प्रकार होता है;

 "मनुष्य ध्वनि का उपयोग भाषा द्वारा दूसरों तक पहुंचने के लिए करता है। संगीत उसे आनन्द और खुशी देता है। जानवरों को उनके द्वारा निकाली आवाजों द्वारा पहचाना जाता है। ध्वनि यंत्र ‘सोनार' (साउंड नेविगेशन एंड रेंजिंग) हमें समुद्र की गहराई मापने व उन गहराईयों पर मिलने वाली चीजों को खोजने में मदद देता है।"

आप भी भ्रमित हुए? मैंने तो जब यह अध्याय पढ़ा था तो चकरा गया था। मैं सोच रहा था कि आखिर इसके बारे में छात्रों को क्या पढ़ाऊं। क्या मैं पाठ को सिर्फ ज़ोर से पढ़ कर सुना दूं और यह अपेक्षा करूं कि मैं जो भी कहूं उसे याद कर लें? सचमुच पाठ के अंत में दिए गए स्वमूल्यांकन के अभ्यासों से तो यही लगता है। वहां दिए सवालों में से कुछ का नमूना यहां प्रस्तुत है:

'आवाज का पता . . . . . . . से चलता है।'
'....... से लेकर ...... कम्पन प्रति सैकंड तक मनुष्य के कानों को सुनाई देते हैं।”
‘आवाज कैसे उत्पन्न होती है?"
‘हवा में ध्वनि का वेग कितना है?"
‘ध्वनि के दो उपयोग बताइए।"

मैंने सातवीं और आठवीं की किताबें भी देखीं। वे बहुत फर्क नहीं थीं, इसी सामग्री को उनमें भी दोहराया गया है।
सातवीं कक्षा की किताब अनुदैर्घ्य और अनुप्रस्थ तरंगों के बारे में बात करती है। इसमें मनुष्य के कान का भी चित्र बना हुआ है। किताब ऐसा गलत आभास भी देती है कि श्रवण तंत्रिका, हड्डियों के कंपन की संवेदनाएं ‘मध्य कर्ण' में ग्रहण करती है। आठवीं कक्षा की किताब प्रतिध्वनि व गुंजन का उल्लेख करती है और फिर वापस वाद्य यंत्रों और शोर की ओर लौट जाती है।

इन पाठ्य पुस्तकों से काफी देर तक जूझने, भिड़ने के बाद मैंने स्वतः ही अपने नोट्स तैयार किए, जिन्हें मैं अब कक्षा में इस्तेमाल करता हूं।
अपने इन नोट्स को मैं आपके सामने रख रहा हूं - शायद इस उम्मीद में कि अन्य छात्र (व शिक्षक भी) इन्हें उपयोगी व समझने लायक पाएंगे।

ध्वनि उत्पन्न करना
सबसे पहली चीज जो मैं अपनी कक्षा में करता हूं वह है बच्चों से अलग-अलग तरह की आवाज़ निकलवाना। मैं उन्हें ताली बजाने को कहता हूं, फिर एक हाथ की उंगलियों को दूसरे हाथ की हथेली पर मारने को कहता हूं। हम चॉक के अलग अलग टुकड़ों को अलग-अलग कोण पर रखकर उनसे लिखते हैं और हर बार निकलने वाली ध्वनि को सुनते हैं।

फिर हम उन दूसरी तरह की आवाजों के बारे में सोचते हैं जो हमारे आस-पास पैदा होती रहती हैं। इतना सब करने के बाद हमें पता लग जाता है कि ध्वनि ऊंची या धीमी हो सकती है, और बारीक अथवा मोटी भी।

जब हम बात करते हैं तो आवाज कैसे निकलती है? मैं एक छात्रा को दूसरी को गला छूने के लिए कहता हूं, जब वह बोल रही हो। वह आवाज़ निकलते समय गले के हिलने को महसूस कर सकती है। विद्यार्थी यह समझ पाते हैं कि ये कंपन ही किसी न किसी तरह से  आवाज पैदा करते हैं। मैं लकड़ी या प्लास्टिक का एक पैमाना लेता हूँ। और उसे हवा में घुमाता हूं। इससे ‘वुश्श...' की आवाज़ निकलती है। मैं उसको मेज के एक कोने पर रख कर कंपित करता हूं और हमें ‘ट्वांग....' की आवाज़ आती है।

मैं बच्चों से पूछता हूं कि पुरुषों की आवाज़ औरतों से कैसे फर्क होती है - क्या उनमें धीमे या जोर से बोलने का अंतर होता है, या फिर तीखेपन और मोटेपन का?
जब सब आवाजें निकालने में तल्लीन होते हैं तो मैं उन्हें ढोलकों, बाँसुरियों आदि उन सभी वाद्य यन्त्रों के बारे में सोचने को कहता। हूं जिन्हें उन्होंने देखा है। इस सब में आवाज़ कहां से आती है?

हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सिर्फ हवा को इधर-उधर धकेलने से ही आवाज़ उत्पन्न हो सकती है। लेकिन इसे कुछ दम-खम से करना पड़ता है। हवा में सिर्फ हाथ हिलाने से आवाज़ नहीं पैदा होतीमैं बच्चों को मनुष्य के गले के अन्दर स्थित, कंठ अथवा स्वर यंत्र का चित्र दिखाता हूं और उन्हें समझाता हूं कि फेफड़ों से बाहर आने वाली हवा कैसे इसमें से होकर गुजरती है। मैं उन्हें थोड़ा विस्तार से बताता हूं कि कंठ में पाई जाने वाली परतें इतनी तेज़ी से हिलती हैं। ताकि हवा अलग-अलग तरह से बाहर आए और अलग-अलग आवाजें पैदा हों।

फिर हमें यह सोचते हैं कि वर्ण माला के अलग-अलग अक्षर और उनकी ध्वनियां किस प्रकार उत्पन्न होती हैं। किस प्रकार हमारी जीभ, मुंह और दांत एक खास स्थिति में होते हैं, कोई विशेष आवाज़ निकालने के लिए। मैं उन्हें एक तालिका बनाने को कहता हूं - जिसमें हर व्यंजन और स्वर के लिए तीनों अंगों की विभिन्न स्थितियों को भरना होता है।
मैं बच्चो से इस बारे में भी सोचने के लिए कहता हूं कि जो आवाजें उत्पन्न होती हैं वे हवा में से चल कर हमारे कानों तक कैसे पहुंच जाती हैं।

समुद्र में लहरें
अगला कालखंड मैं इस बात से शुरू करता हूं कि ध्वनि एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे जाती है। कक्षा में से कोई-न-कोई आमतौर पर यह तर्क रख ही देता है कि थोड़ी-सी हवा ध्वनि को अपने साथ लेकर, बोलने वाले से सुनने वाले। तक जाती है। यानी कि यह हवा बोलने वाले से शुरू होती है और ध्वनि को अपने साथ लिए सुनने वाले तक पहुंचती है। अगर कोई इस तर्क को नहीं रखता तो मैं खुद ही। इसका सुझाव दे देता हूं। फिर हम इस तर्क पर बहस करते हैं। चर्चा में यह मान लिया जाता है कि दीवारें आवाज़ रोकती हैं।

दीवार के दूसरी तरफ हो रही बातचीत को सुनना आमतौर पर मुश्किल होता है। मैं यह पूछता हूं कि सुबह-सुबह चिड़िया की आवाज़ या रात को कुत्ते के भौंकने का शोर क्या हवा के ऐसे पैकेट में आता है। जो दरवाजे या खिड़की से अंदर आए, और फिर हमारे कान में जाए?

जो बले आवाज़ उत्पन्न करता है वह हवा को बोलने वाले से दूर धकेलता है। पर क्या वह हवा कोनों पर पहुंच कर मुड़ सकती है? मैं। उन्हें मौलवीजी की अज़ान की याद दिलाता हूं। क्या उन्हें सचमुच लगता है कि हवा के छोटे-छोटे पैकेट मौलवीजी के गले में से निकल कर उन सब तक पहुंचते हैं जिन्हें मौलवी जी की आवाज़ सुनाई दे रही है।
हम बिजली के चमकने व बादलों के गरजने के बारे में बात करते हैं। बिजली की चमक देखने के कुछ ही सैकंड बाद हम गड़गड़ाहट सुनते हैं। क्या बादल के पास से या बादल से निकली हवा इतनी तेज गति से चल कर हम तक पहुंचती है?

कंठ में काफी सारे पर्दे होते हैं, जो बहुत ही अलग-अलग तरह से हिलते हैं। इस कारण कंठ से गुजरने वाली हवा बाहर निकलते वक्त विभिन्न आवाजें पैदा करती है।

हम कुछ अंदाज़ा लगाते हैं--- बादल हमसे कितनी दूर हैं? शायद एक किलोमीटर दूर हैं। आवाज़ को हम तक पहुंचने में कितना समय लगता है? दो या तीन सैकंड। मैं उन्हें बताता हूं कि असल में आवाज़ की गति हवा में प्रति सैकंड 330 मीटर या लगभग 1200 कि. मी. प्रति घंटा है। अगर वास्तव में हवा के पैकेट ही इतनी तेज गति से चलकर आवाज़ को इधर-उधर ले जाते हैं तो हमें उनके थपेड़े महसूस होने चाहिए? क्योंकि सिर्फ 100 कि. मी. प्रति घंटे वाले तूफान की। हवा तो हमें खूब महसूस होती है।

फिर मैं समुद्र की लहरों के बारे में बात करता हूं। बहुत से छात्रों ने समुद्र देखा है और दूसरों ने फिल्मों में लहरों को देखा है। लहरों के बारे में कुछ समय बात करने के उपरान्त मैं उनसे पूछता हूं कि ये लहरें कहां से आती हैं।
एक छात्र उन तरंगों की बात करता है जो हमारे स्कूल के तालाब में पत्थर फेंकने से पैदा होती हैं। मैं पूछता हूं कि क्या समुद्र की लहरें भी ठीक इसी प्रकार की हैं। क्या बंगाल की खाड़ी के बीचों-बीच कुछ होता है जिससे पानी हिलता है। और यही हलचल कई सौ किलो मीटर दूर चल कर तट तक पहुंच जाती है? जब समुद्र में तूफान होता है तो किनारों पर लहरें ज़्यादा उछलती नहीं प्रतीत होती? मछुआरों तक को कहा जाता है कि समुद्र में न जाएं क्योंकि लहरें विशाल, और खतरनाक हैं।

फिर मैं कक्षा को वापस उसी सवाल पर लाता हूं। जब लहरें समुद्र के बीच में से किनारे तक आती हैं (मान लो कि एक हजार किलोमीटर दूर से भी) तो क्या वहां  से पानी का एक हिस्सा, एक पार्सल-सा' चल कर आता है? पानी के इस पैकेट को कितना तेज चलना होगा?

मैं छात्रों को कहता हूं कि अपने विचारों की जांच किसी तालाब में या फिर घर पर पानी के एक टब में करें। जब हम तालाब में एक पत्थर गिराते हैं तो क्या कुछ पानी वास्तव में वहां से चलकर तालाब के किनारे तक आता है?
अगर हम कार्क के एक टुकड़े को तालाब में डाल दें तो लहर आने पर वह कैसे हिलता है? पानी की हलचल कैसे चलती है? क्या आवाज़ भी हवा में कुछ इसी प्रकार चल सकती है?

तरंगें या लहरें बनाना
अगला कालखंड फिर मज़े और खेल का होता है। माचिस की खाली डिब्बियों और धागों से हम टेलीफोन बनाते हैं, एक दूसरे से बात करते और सुनते हैं। बच्चों को एक और समूह स्टेथोस्कोप (डॉक्टर वाला आला) बनाता है। सभी अपने दोस्तों के दिल की धड़कन सुनना चाहते हैं।
मैं पूछता हूं अब उस ‘हवा के पैकेट' के चलने वाली बात का क्या हुआ? धागे में से आवाज़ कैसे आ रही है? अगर हवा का पैकेट ही धड़कन की आवाज़ को ले जाता है। और हम किसी स्टेथोस्कोप से धड़कन सुनते हैं, तो क्या हमें अपने कानों में हवा महसूस नहीं होनी चाहिए?

मैं पूछता हूं कि फिर हम खाना चबाने से उत्पन्न हुई अपनी आवाज़ को क्यों सुन पाते हैं जबकि हमारा मुंह बंद है और सामने बैठा व्यक्ति कुछ भी नहीं सुन पाता? मैं बताता। हूं कि यह आवाज़ मुंह की हड्डियों से कानों तक पहुंचती है।
मैं यह भी जानता हूं कि मुझे उन्हें परीक्षाओं के लिए भी तैयार करना है। परीक्षकों का एक पसंदीदा प्रश्न है - “क्या चांद पर एक दूसरे से बात करना संभव है?'' मैं बच्चों से यह प्रश्न पूछता हूं। इस बारे में उनकी राय अलग-अलग है।

एक छात्र ने एक बार यह रोचक सवाल पूछा - “हमें मालूम है कि नील आर्मस्ट्रोंग ने कहा था ‘एक आदमी के लिए सिर्फ एक छोटा-सा कदम, लेकिन संपूर्ण मानव जाति के लिए एक बहुत बड़ी छलांग' तो यह बात हम ने कैसे सुनी?'' इस सवाल से रेडियो के बारे में कुछ चर्चा उठी। मैं सोच रहा था कि परीक्षक क्या कहेगा अगर मेरे विद्यार्थी लिखते हैं कि “चांद पर रेडियो का उपयोग कर के बातचीत करना संभव है।''
लेकिन छात्र यह समझ जाते हैं कि रेडियो में कुछ और होता है। पहले आवाज़ विद्युत में बदली जाती है और फिर फर्क किस्म की तरंगों के जरिए चांद से पृथ्वी तक पहुंचती है।

आखिरकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि क्योंकि चांद पर हवा नहीं है, इसलिए वहां एक दूसरे की बात सुनना संभव नहीं है। आवाज़ को चलने के लिए कुछ चाहिए, चाहे वह हवा हो या धागा।
इसी सिलसिले में एक और छात्र द्वारा स्वाभाविक रूप से दिया गया। उत्तर यह है “चांद पर हवा नहीं है। इसलिए हम एक दूसरे से बात नहीं कर पाएंगे क्योंकि हम तो मर ही चुके होंगे।''

ध्वनि यांत्रिकी
हम फिर वापस लौटते हैं ध्वनि की यात्रा के उस पहलू पर जब वो मुड़कर, खुली खिड़की के रास्ते हम तक पहुंचती है। मैं लहरों के परावर्तन के बारे में थोड़ा बहुत समझाता हूं और छात्रों से तालाब में प्रयोग करने को कहता हूं।

अब सब से मुश्किल हिस्सा शुरू होता है चूंकि मुझे यह समझाना है कि वास्तव में आवाज़ कैसे चलती है। मैं ब्लैक बोर्ड पर समझाता हूं कि कैसे जब ध्वनि उत्पन्न होती है तो वह हवा को धकेलती है और हवा के अणुओं को दबाती है। फिर हवा के ये अणु वापस अपनी जगह आ जाते हैं, पर ऐसा करते समय वे अपने ठीक पास के हवा के अणुओं को धकेल कर दबाते हैं। 

हवा के अणुओं के दबने (संपीडन) व फैलने के इस क्रम को ही हम तरंग या लहर का 'चलना' कहते हैं। असल में हवा के कण (अणु) अपनी जगह पर ही बस थोड़ा-सा कंपन करते हैं, वे चल कर स्रोत से सुनने वाले तक यात्रा नहीं करते।
मैं फिर उन्हें दिखाता हूं कि पानी में लहर के चलने के दौरान कैसे पानी ऊपर नीचे कंपन करता है। यह थोड़ा आसान है, क्योंकि मैं एक बड़े पानी से भरे टब में एक कॉर्क डाल कर यह बात दर्शाता हूं। यह काफी स्पष्ट है कि पानी (अणु) लहरों के साथ नहीं चल रहा, वह सिर्फ अपनी ही जगह पर कंपन कर रहा है, फिर भी लहर चलती है।

मैं उनसे फिर पूछता हूं कि क्या इन दोनों लहरों में कोई फर्क है? कुछ छात्राएं यह फर्क पहचान पाती हैं; फिर मैं उन्हें बताता हूं इन्हें अनुदैर्ध्य और अनुप्रस्थ तरंगे क्यों कहते हैं।
फिर हम विभिन्न ध्वनियों के लिए ध्वनि तरंगों के बनने की दर की गणना करते हैं। वे इस बात को जानकर थोड़ा हैरान होते हैं कि एक सैकेंड में इतनी अधिक बार कंपन हो सकते हैं। मैं उन्हें बताता हूं कि कंपन किसी भी गति से किए जा सकते हैं। लेकिन इन्सान के कान सुनाई देने वाले अंतराल के बीच की कंपन गति वाली ध्वनि ही महसूस कर सकते हैं।

वे इस बात को जानकर भी हैरान होते हैं कि हमारे कान एक सैकेंड में 20,000 बार होने वाले कंपनों तक की आवाज़ पहचान सकते हैं।
मैं उन्हें आवाज के तीखेपन की अवधारणा समझाने की कोशिश करता हूं। हम, कम तीखी यानी मोटी आवाजों जैसे गड़गड़ाहट और ज्यादा तीखी आवाजों जैसे चीख आदि के बारे में चर्चा करते हैं।

कई बार अगर विद्यार्थी विशेष तौर पर उत्साहित व जिज्ञासु लगें, तो मैं उन्हें यह भी बताता हूं कि पास आ रही (या दूर जा रही) । रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ भी कम-ज्यादा तीखी होती जाती है।

मुझे बच्चों को मनुष्य के कान के काम करने के बारे में भी बताना होता है। मैं खुद भी इसे ठीक से नहीं जानता, तो भी मुझे जितना आता है उसे ही मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता हूं। कान की यह बड़ी मांसल चीज़ जो हमें बाहर ही दिखती है बाह्य कर्ण (पिन्ना) है। इसका मुख्य काम आवाज़ को इकट्ठा करना और यह पहचानना है कि आवाज़ किस दिशा से आ रही है

फिर यह ध्वनि तरंगें कान के परदे से टकराकर उसे भी कंपित कर देती हैं। ये कंपन कान के अन्दर तीन हड्डियों से होकर भीतरी कान (कॉक्लिया) तक जाते हैं। इससे कॉक्लिया के अन्दर भरे द्रव में कंपन होने लगता है। इसी कंपन को तंत्रिका पकड़ती है और दिमाग तक ले जाती है।


यह लेख 'जंतर मंतर' पत्रिका के जुलाई-अगस्त 1997 अंक से लिया गया है। मूल लेख अंग्रेज़ी में। अनुवादः हृदयकांत दीवान।

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