सन् 1856 में ऑस्ट्रिया (आज के चेकोस्लोवाकिया) के ब्रून नगर के एक पादरी ने अपनी मॉनेस्ट्री के बगीचे में मटर के बीज बोए। अगले दस साल तक वह पादरी मटर के पौधों पर पर-परागण व स्व-परागण के प्रयोग करता रहा। उसने देखा कि मटर के पौधों के विभिन्न गुण - जैसे फूल का रंग, बीज का आकार आदि - संयोग से नहीं, बल्कि स्पष्ट गणितीय नियमों से अगली पीढ़ियों में प्रसारित होते (पहुंचते) हैं। यानी जीवन के वंशानुक्रम में नियमबद्धता है। उसने यह भी देखा कि प्रत्येक गुण को नियंत्रित करने वाले दो घटक होते हैं। इनमें से एक घटक मादा से प्राप्त होता है और दूसरा घटक नर से। ये घटक निषेचन (फर्टिलाईजेशन) की प्रक्रिया द्वारा बीज में पहुंचते हैं। इनमें से एक घटक क्रियाशील या प्रभावशाली होता है और दूसरा अप्रभावी। अप्रभावी घटक हमेशा के लिए निष्क्रिय नहीं होता है बल्कि उसका प्रभाव आगे आने वाली पीढ़ियों पर पड़ता है। जब उस पादरी ने दुनिया को अपने निष्कर्षों के बारे में बताया तब किसी ने उनके महत्व को नहीं समझा। पैंतीस साल तक उसके अध्ययनों पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन आज हम जानते हैं कि इन अध्ययनों ने आनुवंशिकता के बुनियादी नियम स्थापित किए। उस पादरी का नाम था ग्रेगर मेंडल।

ग्रेगर( जोहान ) मेंडल का जन्म ऑस्ट्रिया के हाइंसडॉफ गांव में 11 जुलाई, 1822 को हुआ। पढ़ाई के बाद उसने ब्रून की ऑगस्टिनियन मॉनेस्ट्री में प्रवेश किया। यहां वह अपनी मृत्यु तक रहा। मॉनेस्ट्री का वातावरण काफी उन्मुक्त था। यहां वह धार्मिक शिक्षा के साथ वनस्पति शास्त्र की ओर भी आकर्षित हुआ।

बचपन में मेंडल ने अपने पिता से कलम लगाने (ग्राफ्टिंग) की कला सीखी थी। उसने इस विषय के बारे में और गहराई में जाकर पता करने की सोची। मॉनेस्ट्री के अपने बगीचे के एक कोने में उसने फूलों में पर-परागण के प्रयोग किए। उसने पाया कि वर्णसंकरों (हाइब्रिड) की कुछ प्रजातियों में आश्चर्यजनक नियमितता के साथ वही गुण बार-बार उभर आता है। उसने इसका कारण जानने की कोशिश की। इसके लिए उसने चूहों पर प्रयोग किए और ढेरों किताबें छान मारी।

उसने पाया कि उसके पहले पर परागण के कुछ प्रयोग ज़रूर हुए थे परंतु उनके परिणामों में कोई नियमबद्धता नहीं थी। इन प्रयोगों में कहीं भी वर्णसंकरों को क्रमबद्ध तरीके से पीढ़ी दर पीढ़ी पर-परागित नहीं किया गया था और न ही प्रत्येक पीढ़ी के पौधों के गुणों का कोई लेखा जोखा रखा गया था। अब मेंडल ने तय किया कि वह इन प्रयोगों को व्यापक रूप से करेगा।

पौधे व गुणों का चुनाव 
सबसे पहले तो उसे पौधे चुनने की समस्या आई। क्योंकि इस काम के लिए उसे प्रजाति के विशुद्ध प्रजनन वाले पौधे चाहिए थे। (देखिए बॉक्स) दूसरी महत्वपूर्ण जरूरत थी पौधों को हवा व कीड़ों द्वारा लाए गए बाहरी पराग से बचाना। वरना वंशानुक्रम में चयनित गुणों में बाहरी गुण भी मिल जाएंगे और प्रयोग असफल हो जाएगा। काफी छानबीन के बाद उसने इन प्रयोगों के लिए फलीदार पौधों को उपयुक्त पाया और इन्हीं की एक प्रजाति, बगीचे में उगाई जाने वाली मटर को चुना क्योंकि इसमें स्व-परागण होता है और यह बाहरी परागण से आसानी से बचा रहता है।

पहले तो मेंडल ने इस मटर की 34 किस्मों के बीजों को दो साल तक उगाया। और फिर उनमें से 22 को अपने प्रयोग के अनुकूल पाया। उसने पौधों व मटर के दानों के गुणों का सात समूहों में बांटाः

  1. बीज का आकार - गोल या झुर्सदार
  2. मटर का रंग - पीला या गहरा हरा
  3. मटर के छिलके का रंग - स्लेटी या सफेद
  4. पकी फली का आकार - दानों के बीच फूली या सिकुड़ी हुई
  5. कच्ची फली का रंग - हरा या गहरा पीला
  6. तने पर फूलों की स्थिति - अक्षवर्ती या शिखरस्थ
  7. तने की लंबाई - लंबा या छोटा

अब मेंडल अपने प्रयोगों के लिए तैयार था। उसने गोल और शुदार बीजों से मटर उगाए। जैसे ही झुर्सदार मटर की बेलों में कलियां आई उसने उनके पुंकेसर (स्टेमन) तोड़ डाले, ताकि उनमें स्व-परागण नहीं हो पाए। अतिरिक्त । सावधानी के लिए उसने कलियों पर थैलियां भी बांधीं। फिर उसने गोल 

गुणों का चुनाव

प्रयोग के लिए पौधों का चुनाव करते समय मेंडल ने अपने सामने दो प्रमुख उद्देश्य रखे - पहला कि पौधों के गुणों में विभिन्नता काफी स्पष्ट होनी चाहिए और दूसरा कि इनका परागण नियंत्रित करना आसान होना चाहिए। इस आधार पर उसने मटर को अपने प्रयोग के लिए उपयुक्त पाया।

चयनित गुण वंशानुगत ही हों यह निश्चित करने के लिए उसने उनका कई पीढ़ियों तक चयन किया। अगर सफेद फूल वाली मटर को सफेद फूल वाली ही दूसरी मटर से निषेचित किया जाए तो वंशजों के फूल भी सफेद ही होने चाहिए। इस आधार पर उसने सफेद फूल वाले पौधों को सफेद फूल वाले दूसरे पौधे से निषेचित किया। कई बार इस तरह से प्रयोग करने पर भी अगर गुण बरकरार रहता है तो उसने इस गुण को विशुद्ध प्रजनन वाले गुण माना। यानी ऐसे गुण जो आनुवंशिक कारणों से निर्धारित होते हैं न कि किसी और अन्य कारक से। इसी तरह उसने अन्य गुणों का भी चुनाव किया। जैसे कि लंबे तने व छोटे तने, गोल दानों वाली मटर एवं झुदार दानों वाली मटर, हरी मटर और पीली मटर आदि।

बीज वाले मटर के पौधों के फूलों से परागकण इकट्ठे किए, और इन्हें झुर्रादार पौधों के वर्तिकाग्र (स्टिग्मा) पर छिड़का। इस प्रकार मेंडल ने उक्त सातों गुणों पर यही प्रयोग किए। उसने पहले प्रयोग में 70 पौधों में 287 परागण किए।

प्रभावी वे अप्रभावी गुण 
जब फलियां पक गईं तो अपने प्रयोगों के नतीजे देखकर वह खुद हैरान रह गया। उसने पाया कि झुर्र्रीदार बीजों वाले पौधों की फलियों के सभी दाने गोल थे। अब उसने बीजों को दो श्रेणियों में रखा। एक तो प्रभावी गुण -- जो उभरकर सामने आया, जैसे कि गोल मटर या पीला रंग; और दूसरा दबा हुआ या अप्रभावी गुण - जैसे कि झुर्रीदार बीज या हरा रंग, जो दब। गया था। योजनाबद्ध प्रयोग से उसे इस बात का पता था कि सातों समूहों के बीजों में पर-परागण द्वारा कौन सा गुण उभरा और कौन-सा दबा।

उसका अगला कदम था यह देखना कि इन वर्णसंकरों में दबे हुए गुणों का क्या होता है। उसने जाड़ों में फिर प्रयोग से प्राप्त बीजों को उगाकर उन पौधों को स्व-निषेचित होने दिया (यानी परागण अपने आप होने दिया)। और मटर पकने का इंतज़ार करने लगा। दूसरी पीढ़ी की इस मटर के पकने पर उसने दानों को खोला और एक बार फिर हैरान हो गया। उसने देखा कि एक ही फली में गोल व झुर्र्रीदार दोनों दाने मौजूद हैं। उसने हिसाब लगाया कि 7324 मटर के दानों में से 5474 गोल और 1850 झुर्र्रीदार थे। यानी प्रभावी व दबे हुए गुणों का अनुपात 3 : 1 ही था। सभी सातों समूहों में मुख्य और दबे हुए गुणों का अनुपात 3 : 1 ही था। उसने इन बीजों को फिर बोया और अगली पीढ़ी में देखा कि झुर्र्रीदार बीज वाली मटर से केवल झुर्र्रीदार बीज ही निकलते हैं। उसने सात पीढ़ियों तक इसे दोहराया और यही पाया। लेकिन गोल बीजों के साथ ऐसा नहीं था। हर तीन पौधों में से दो में दोनों ही किस्म के बीज दिखते थे, और एक पौधे में केवल गोल बीज मिलते थे। और इनमें 3 : 1 का अनुपात बना रहता था। शुद्ध गोले बीज हमेशा गोल बीज ही पैदा करते थे किन्तु वर्णसंकर गोल बीज दोनों किस्म के बीज पैदा करते थे, उसी 3 : 1 के अनुपात में।

प्रयोगों की अगली कड़ी में उसने दो गुणों वाली मटर को दो विपरीत गुणों वाली मटर से पर-परागित कराया - जैसे कि गोल पीले दानों वाली मटर और झुर्र्रीदार हरे दानों वाली मटर। पहली पीढ़ी में सिर्फ गोल पीले मटर हुए। इन्हें जब स्व-निषेचित होने दिया गया तो अगली पीढ़ी में चार किस्म की मटर निकली - गोल पीली झुर्सदार पीली, गोल हरी और झुर्रादार हरी। 556 मटर में इनकी संख्या थी - 31 5 गोल पीली, 101 झुर्र्रीदार पीली, 108 गोल हरी और 32 झुर्रादार हरी। और इस बार अनुपात था 9 : 3 : 3 : 1; अब उसने बेहद कठिनाई से तीन गुणों वाली दो विपरीत मटरों में पर-परागण किया - जैसे गोल पीले दानों वाली स्लेटी मटर और झुर्सदार हरे दानों वाली सफेद छिलके की मटर के बीच। उसने पाया कि अगली पीढ़ी में वर्णसंकरों की संख्या 27 हो गई यानी 3 गुना बढ़ गई।

लेकिन मेंडल को खुद इस सटीक नियमबद्ध क्रम  पर विश्वास नहीं हुआ। उसने इसकी पुष्टि के लिए विपरीत पर -निषेचन (बैक क्रॉस फर्टिलाइजेशन) का प्रयोग किया।

मेंडल का बगीचाः मेंडल ने इसी बगीचे में आनुवंशिकता संबंधी अपने प्रयोग किए थे। यह चेकोस्लोवाकिया के ब्रून शहर में स्थित है। मेंडल की याद में इस बगीचे को संजो कर रखा गया है।

उसने दूसरी पीढ़ी की गोल पीली वर्णसंकर मटर का पहली पीढ़ी की गोल पीली मटर से पर-परागण किया। यदि उसका सिद्धांत सही था तो चार तरह की मटर पैदा होनी चाहिए - गोली पीली, गोल हरी, झुर्सदार पीली और झुर्रादार हरी। और ठीक यही हुआ भी। फलियों में कुल 31 दाने गोल पीले थे, 26 गोल हरे, 2झुर्सदार पीले और 26 मुरीदार हरे, यानी 1 : 1 : 1 : 1 के अनुपात में। अब मेंडल पूरी तरह संतुष्ट था।

वास्तव में चार्ल्स डार्विन ने भी अपने प्रयोगों में वर्णसंकरों की पीढ़ी में 3 : 1 का अनुपात पाया था। किन्तु गणित से अनभिज्ञ होने के कारण वह जो कुछ देख रहा था उसकी महत्ता नहीं समझ सका। दूसरी ओर मेंडल ने इसे तुरंत समझ लिया कि यदि प्रत्येक विशिष्ट गुण, एक स्वतंत्र आनुवंशिक कारक है तो विभिन्न संयोजनों से सभी संभावित वर्णसंकर मिलेंगे। वह इन निष्कर्षों पर पहुंचाः

  1. आनुवंशिकता स्वतंत्र इकाइयों के जोड़ों, जिन्हें अब जीन कहते हैं, में पीढ़ी दर पीढ़ी जाती है, क्योंकि वर्णसंकर में प्रभावी व दबे हुए दोनों ही गुण रहते हैं।
  2. प्रत्येक वर्णसंकर की प्रजनन कोशिकाओं में अपने दोनों ही जनक की आनुवंशिक सामग्री का आधा आधा हिस्सा होता है। (मेंडल का प्रथम नियम या पृथकता का सिद्धांत)।
  3. अनेक विपरीत गुणों वाले पौधों या प्राणियों के निषेचन (फर्टिलाइ जेशन) से पैदा हुए वर्णसंकरों में सभी गुणों के संभावित संयोजन मिलेंगे। (मेंडल का दूसरा नियम या स्वतंत्र वर्ण विन्यास का सिद्धांत)।

कोई प्रतिक्रिया नहीं 
अब तक मेंडल 10,000 वर्णसंकरों के 12,980 नमूनों पर काम कर चुका था। इसके बाद उसने ब्रून की 'नेचुरल साइंस सोसायटी' में अपने दो शोधपत्र पढ़े। परन्तु वनस्पति शास्त्र और गणित का संयोजन न तो लोगों को समझ आया, और न ही पसंद। लेकिन सोसायटी की पत्रिका के लिए उसके शोध पत्र को आमंत्रित किया गया। फिर भी कहीं कोई हलचल नहीं हुई। अंततः उसने अपने प्रयोगों के बारे में उस समय के प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री म्यूनिख विश्वविद्यालय के प्रो. कार्ल विल्हेम फॉन नागेली को लिखा - ताकि इन नियमों का कोई कारण तो मिल सके। पर प्रो. नागेली एक रूढ़िवादी वनस्पतिशास्त्री थे, जो गणित से जरा दूर ही रहते थे। एक अनजान पादरी की गणनाओं और अनुपात का उनके लिए कोई महत्व नहीं था। शायद इसीलिए कई महीनों बाद उन्होंने मंडल को जो पत्र लिखा उसमें कहा कि यह तो एक शुरुआत है, तुम हॉकवीड पौधे पर अपने प्रयोग करो और फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचो। मेंडल ने हॉकवीड पर प्रयोग किए पर यह प्रजाति उन प्रयोगों के लिए उपयुक्त नहीं थी। 

बाद में मेंडल ने फलियों पर भी प्रयोग किए। जब उसने सफेद फूल वाली फली को बैंगनी फूल वाली फली से पर-परागित किया तो पहली पीढ़ी में सभी फूल लाल रंग के निकले। दूसरी पीढ़ी में सफेद से लेकर बैंगनी तक के कई रंगों के फूल निकले। इन प्रयोगों के आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला कि कुछ पौधों में रंग का गुण शायद एक से अधिक आनुवंशिक इकाई (जीन) से नियंत्रित होता होगा। इसीलिए फूलों के रंगों में इतनी भिन्नता पाई गई।

कुछ समय बाद ही उसे ब्रून का मठाधीश बना दिया गया और उस के कंधों पर कई जिम्मेदारियां आन पड़ीं। इसके बाद वह अपने प्रयोगों के लिए समय नहीं निकाल सका और अंततः मेंडल का 6 जनवरी 1884 को निधन हो गया।

मेंडल के नियमों का एक बड़ा योगदान था डार्विन के विकास के सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार देना। डार्विन के विकासवाद के अनुसार प्राकृतिक चयन द्वारा अनेक विशेष गुण प्रजातियों में इकट्ठे हो जाते हैं और फिर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते हैं। पर यह होता कैसे है? इसका कोई जवाब डार्विन के पास नहीं था। दूसरी ओर ‘ब्रून नेचुरल साइंस सोसाइटी' में प्रकाशित शोधपत्र में साफ कहा गया था कि ये गुण विशेष इकाइयों द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जोड़ों में जाते हैं। उसने यह भी कहा था कि ये विशेष इकाइयां जनन कोशिकाओं से अलग रहती हैं। लेकिन इन दोनों ही अलग-अलग कामों की महत्ता एक डच वनस्पतिशास्त्री ‘ह्यूगो डी रीस' ने समझी। डी रीस खुद भी डार्विन के प्रश्न का ही उत्तर खोज रहा था। उसका सोचना था कि यदि प्राकृतिक चयन का आधार ही सीमित है तो प्रजातियों में इतनी सारी विभिन्नताएं कैसे होती हैं?

इसके जवाब में उसने प्रिमरोज़ पर प्रयोग शुरू किए और संबंधित शोधपत्रों को ढूंढना शुरू किया। रीस ने मेंडल का शोधपत्र खोज निकाला और उसको पढ़ा। 24 मार्च 1900 को ‘ह्यूगो डी रीस' ने जर्मन बॉटेनिकल सोसाइटी के सामने अपना शोधपत्र पढ़ा। इस शोधपत्र में मेंडल को पूरा श्रेय दिया गया।

इसी साल 24 अप्रैल को एक अन्य जर्मन वैज्ञानिक, कार्ल कोरेंस ने मटर के संकरण के अपने प्रयोगों के नतीजे एक शोधपत्र के रूप में इसी सोसायटी के सामने पढ़े; उसे यह विश्वास था कि ये खोज उसी की है। इसके ठीक दो महीने बाद एक ऑस्ट्रियन वैज्ञानिक, एरिक शरमाक, ने इसी सोसाइटी में अपना पेपर पढ़ा - इस पर्चे में भी मेंडल के ही नतीजे दोहराए गए थे। उसे भी विश्वास था कि यह उसी की। खोज है। बाद में दोनों को पता चला कि 35 साल पहले मेंडल यहाँ खोजें प्रकाशित कर चुका है। इस त्रिमूर्ति द्वारा मेंडल को उसकी खोजों के लिए श्रेय दिए जाने से पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों का ध्यान मेंडल के ऊपर गया। दशकों की उपेक्षा के बाद उसे वह वैज्ञानिक प्रतिष्ठा मिली जिसका वह वास्तविक हकदार था। साथ ही मेंडलवाद की नींव भी पड़ चुकी थी।

ग्रेगर (जोहान) मेंडल का जीवनकाल

1822: ऑस्ट्रिया के हाइंसडॉर्फ गांव के एक किसान, एंटन मेंडल के घर 22 जुलाई को जोहान मेंडल का जन्म।

1822-42: पढ़ाई लिखाई में अत्यंत बुद्धिमान। छोटी कक्षाओं से सीधे उच्च  अध्ययन के लिए सिफारिश, पर धनाभाव के कारण संभवनहीं हो सका। ट्रोपाऊ के स्कूल में भर्ती। उसके बाद ऑल्मुट्स के फिलॉसोफिकल इंस्टिट्यूट में दो वर्ष तक दर्शनशास्त्र का अध्ययन

1843: ब्रून की ऑगस्टिनियन मॉनेस्ट्री में प्रवेश। यहीं पर उसके नाम में ग्रेगर जुड़ा। यहां 1847 में उसकी पादरी पद पर नियुक्ति हुई।

1848: नेम के सेकेंडरी स्कूल में ग्रीक व गणित विषय के एडहॉक शिक्षक के  रूप में पढ़ाई।

1849: नियमित शिक्षक की सर्टिफिकेट परीक्षा में फेल।

1851-3: अपने मठाधीश द्वारा वियना विश्वविद्यालय भेजा गया जहां उसने गणित, रसायनशास्त्र, भौतिकी, प्राणीशास्त्र व वनस्पतिशास्त्र विषय पढ़े।

1854: ब्रून वापस आया और टेक्निकल हाईस्कूल में प्राकृतिक विज्ञान पढ़ाने लगा। लेकिन नियमित शिक्षक की सर्टिफिकेट परीक्षा में कभी पास नहीं हो पाया।

1856: अपनी मॉनेस्ट्री के बगीचे में मटर के पौधों में पर-परागण के प्रयोग शुरू किए।

1865: 8 फरवरी और 8 मार्च को ब्रून की नेचुरल साइंस सोसायटी में अपने प्रयोगों पर आधारित दो शोधपत्र पढ़े। इन पर कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं।

1866: बून की नेचुरल साइंस सोसायटी की पत्रिका में उसका विस्तृत लेख एक्सपेरिमेंट विद प्लांट हाइब्रिड प्रकाशित। यह पत्रिका यूरोप व अमेरिका के 120 वैज्ञानिक संगठनों व विश्वविद्यालयों को भेजी गई। किसी भी जीव वैज्ञानिक द्वारा मेंडल की प्रशंसा या आलोचना नहीं की गई। इसी वर्ष उसने अपने काम का विवरण यूरोप के सबसे प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री, कार्ल विल्हेम फॉन नगेली (म्यूनिख विश्वविद्यालय) को भेजा।

1867: नागेली के सुझाव पर पुनः प्रयोग प्रारंभ।

1868: मठाधीश के पद पर नियुक्ति। अनेक जिम्मेदारियों के कारण उसे अपने प्रयोगों को आगे बढ़ाने का समय नहीं मिल सका।

1869: हॉकवीड पौधों के अध्ययन पर एक और शोधपत्र प्रकाशित।

1884: 6 जनवरी को मृत्यु।


यह लेख ‘स्रोत' फीचर सर्विस के जुलाई 1989 अंक से लिया गया है।