लेखक: हिमांशु श्रीवास्तव और उमा सुधीर
अनुवाद: सुशील जोशी [Hindi PDF, 184 kB]
बात चाय के दौरान बातचीत से हुई थी। वैसे भी सारी महान चर्चाएँ चाय-कॉफी की चुस्कियों के साथ ही होती हैं। मुद्दा यह था कि एक मशहूर फर्नीचर दुकान ने एक विज्ञापन छपवाया था - इसमें दावा किया गया था कि उन्होंने भारत की सबसे ऊँची कुर्सी बनाई है और इसे उनके भोपाल शोरूम में देखा जा सकता है। विज्ञापन में एक व्यक्ति भोपाल का रास्ता पूछ रहा है और उसे बताया जाता है - “वह ऊँची-सी कुर्सी देख रहे हो? बस उसी पर नज़रें जमाकर चलते रहो।”
यह सही है कि (निर्माता के मुताबिक) वह कुर्सी किसी दो-मंज़िला इमारत के बराबर ऊँची है, मगर फिर भी यह सवाल उठता है कि क्या उसे देख कर भोपाल का रास्ता पकड़ सकते हैंे। क्या हम उस कुर्सी, या उतनी ऊँची किसी इमारत को इन्दौर से देख पाएँगे, जहाँ यह चायदार चर्चा या चर्चादार चाय हो रही थी?
चलिए मान लेते हैं कि इन्दौर और भोपाल के बीच, हमारे और उस इमारत के बीच कोई आड़ नहीं है। यह भी मान लेते हैं कि हमारी नज़रें एकदम दुरुस्त हैं और हम करीब 180 कि.मी. (इन्दौर-भोपाल का फासला) की दूरी तक देख सकते हैं। इतना सब मानने के बाद भी क्या हम इन्दौर में बैठे-बैठे उस इमारत को देख पाएँगे? हम सोचने लगे।
हमें इतना तो समझ में आ गया कि इतनी दूरी से किसी वस्तु को देखने के मामले में पृथ्वी की गोलाई पर ध्यान देना होगा। यानी इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम एक समतल-सपाट जगह पर नहीं खड़े हैं। चूँकि पृथ्वी की सतह गोलाई लिए है, इसलिए हमें दूर स्थित किसी भी वस्तु को देखने के लिए गोलाई में देखना होगा। अर्थात् वस्तु इतनी ऊँची होनी चाहिए कि वह क्षितिज के ऊपर उभरी रहे। तो हमारा सवाल यह था - नज़र एकदम पैनी हो और इन्दौर से भोपाल के बीच कोई बाधा न हो तो भोपाल स्थित कोई इमारत कितनी ऊँची होनी चाहिए कि वह इन्दौर में दिखाई पड़े?
हमारी माथापच्ची का नतीजा यहाँ दे रहे हैं। मगर इसे पढ़ने से पहले आप खुद भी दिमाग लड़ाकर किसी नतीजे तक पहुँचने की कोशिश कर सकते हैं।
हमने इस सवाल का जवाब खोजने के लिए जो रास्ता अपनाया वह आगे दिया गया है। मामले को सरल बनाने के लिए हमने मान लिया कि पृथ्वी एकदम गोलाकार है। इन्दौर व भोपाल इस गोले पर दो बिन्दु क्ष् व ए हैं। इस गोले का केन्द्र ग्र् है। हम इस गोले को एक ऐसे तल में दो बराबर भागों में बाँट सकते हैं जिसमें ये दोनों बिन्दु और गोले का केन्द्र भी स्थित हो (चित्र 1-क)। आपको अपनी शुरुआती ज्यामिति से पता ही होगा कि यदि किसी त्रि-आयामी जगह (space) में कोई भी तीन बिन्दु लें, तो हमें एक ऐसा तल हमेशा मिलेगा जो उन तीन बिन्दुओं से होकर गुज़रता हो। अब यदि हम इस गोले का एक भाग ले लें, तो इसका एक प्रक्षेपण (projection) एक वृत्त होगा (देखें चित्र 1-ख)।
यदि आपको यह ज्यामिति समझने में दिक्कत आ रही हो, तो एक नींबू और एक चाकू लीजिए। इस नींबू की सतह पर दो बिन्दु अंकित कर दीजिए। अब नींबू को इस तरह काटिए कि चाकू इन दो बिन्दुओं और नींबू के केन्द्र से भी गुज़रे। आपको नींबू के दो बराबर-बराबर अर्ध-गोले (गोलार्द्ध) मिल जाएँगे।
चित्र 1 (क)- गोलाकार पृथ्वी के बीच से गुज़रता हुआ एक ऐसा तल जिस पर पृथ्वी का केन्द्र (ग्र्), इन्दौर (क्ष्) और भोपाल (ए) स्थित हैं।
अब हमें चित्र 1 (ख) में दिखाए अनुसार वृत्त मिल गया। हमारा अगला काम यह देखना था कि हमें क्या मालूम है और क्या पता करना है। यदि अर्ध गोले की सपाट सतह से बने इस वृत्त पर इन्दौर व भोपाल के बिन्दुओं (क्ष् व ए) को देखें तो इनको जोड़ने वाले चाप की लम्बाई 180 कि.मी. होगी। अब मान लीजिए कि भोपाल की एक इमारत ण् मीटर ऊँची है। इसे ॠए के रूप में चित्र 2 में दर्शाया गया है।
चूँकि इमारतें धरातल के लम्बवत ही होती हैं इसलिए रेखा खण्ड ॠए वृत्त पर एक अभिलम्ब है। यदि आप रेखाखण्ड ॠए को वृत्त के अन्दर की ओर आगे बढ़ाएँगे, तो वह उसके केन्द्र से गुज़रेगा।
यहाँ एक बात को दोहराना शायद ज़रूरी है - पृथ्वी की गोलाई के महत्व का। इन्दौर के किसी व्यक्ति के लिए चांद या सूरज को देखना आसान है क्योंकि वे अक्सर आकाश में ऊँचाई पर पाए जाते हैं। मगर धरती पर स्थित किसी वस्तु को देखने के लिए हमें पृथ्वी की गोलाई का भी ख्याल करना होगा। हमारी दृष्टि रेखा (जो सरल रेखा होती है) की एक सीमा आ जाती है क्योंकि पृथ्वी की सतह में वक्रता है। लिहाज़ा इन्दौर में बैठकर (खड़े होकर भी कोई खास मदद नहीं मिलेगी) भोपाल की किसी इमारत को देखने के लिए ज़रूरी है कि हमारी दृष्टि रेखा कम-से-कम उस इमारत के शिखर (यानी चित्र 3 के बिन्दु ॠ) से होकर गुज़रे। यह रेखा क्ष्ॠ है।
इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि बिन्दु ॠ से जो प्रकाश पुंज चले वह हमारी आँख तक पहुँचे। प्रकाश पुंज तो सीधी रेखा में ही चलेगा। जब आप और दूर की वस्तु को देखेंगे (यानी क्षितिज की ओर देखेंगे) तो पता चलेगा कि रेखाएँ बिन्दु क्ष् पर खींचे गए टेंजेंट यानी स्पर्श-रेखा के करीब आती जा रही हैं (T1-T2)। दृष्टि रेखा इससे और नीचे नहीं जा सकती। ध्यान देने की बात यह है कि हम जिस पैमाने की दूरियों की बात कर रहे हैं, उनकी तुलना में व्यक्ति की ऊँचाई से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
अब मान लीजिए कि चाप क्ष्ए के दो सिरे पृथ्वी के केन्द्र पर द्द कोण बनाते हैं। दूरी ग्र्क्ष् और ग्र्ए पृथ्वी के अर्धव्यास के बराबर है। पृथ्वी का अर्धव्यास करीब 6400 कि.मी. मान सकते हैं। अब हमें यह कोण यानी Ɵ पता करना है। हमने सोचा कि किसी भी वृत्त की पूरी परिधि केन्द्र पर 360 डिग्री का कोण बनाती है। तो गणना की जा सकती है कि क्ष्ए चाप (यानी 180 कि.मी.) केन्द्र पर कितना कोण बनाएगा।
पृथ्वी की परिधि = 2 x π x पृथ्वी का अर्धव्यास
= 2 x 3.14 x 6400 कि.मी.
=40,212.39 कि.मी.
= ~ 40,212 कि.मी.
चूँकि 40,212 कि.मी. की दूरी केन्द्र पर 360 डिग्री का कोण बनाती है, इसलिए 1 कि.मी. का चाप केन्द्र पर (360/40,212) डिग्री का कोण बनाएगा
=>180 कि.मी. का चाप (360/40,212) x 180 डिग्री = 1.61 डिग्री का कोण बनाएगा
=> 1.61 डिग्री
आपने ध्यान दिया होगा कि हमने गणना से जो मान प्राप्त किए हैं और चित्र 4 में लम्बाइयों का अनुपात और केन्द्र पर क्ष्ए चाप द्वारा बनाए गए कोण काफी अलग-अलग नज़र आते हैं। चित्र में क्ष्ए चाप द्वारा केन्द्र पर बनाया गया कोण काफी बड़ा नज़र आता है। ऐसा जानबूझकर किया गया है ताकि चित्र स्पष्ट बने और बात समझ में आए।
अब थोड़ी प्रारम्भिक त्रिकोणमिति का उपयोग करें। त्रिभुज AIO पर ध्यान दें। इसे समकोण त्रिभुज माना जा सकता है और ऐसा मानने का कारण यह है कि रेखाखण्ड AI बिन्दु I पर टेंजेंट (स्पर्श रेखा) है, इसलिए रेखाखण्ड IO इस पर लम्बवत होगा। OA वह रेखा है जो AB को वृत्त के केन्द्र तक बढ़ाने पर मिली है।
COS Ɵ आधार/कर्ण (परिभाषा से)
=>COS Ɵ= OI/OA ............(1)
चूँकि OI पृथ्वी का अर्धव्यास है, इसलिए OI 6400 कि.मी. उ 64,00,000 मीटर
अब OA=OB+BA
OB भी पृथ्वी का अर्धव्यास है, इसलिए OB =~6400 कि.मी.
BA इमारत की ऊँचाई है। यानी BA= h मीटर।
ये सारे मान समीकरण 1 में रखने पर,
COS Ɵ 6400/(6400+h)
Ɵ 1.61 डिग्री है, तो COS Ɵ = 0.9996 (यह मान सामान्य COS तालिका में मिल जाएगा)।
=> 0.9996 उ ग्र्क्ष्/(ग्र्एअएॠ)
=> 0.9996 उ 6400/(6400 अ ण्)
=> 0.9996 न् (6400 अ ण्) उ 6400
=> (6400 अ ण्) उ 6400/0.9996
=> 6400 अ ण् उ 6402.56
=> h= 6402.56 - 6400
=> h= ~ 2.5 कि.मी.
अर्थात् भोपाल की कोई इमारत इन्दौर से तभी दिख सकती है, जब वह कम-से-कम 2.5 कि.मी. यानी 2,500 मीटर ऊँची हो (और तब भी उसका सिर्फ शिखर ही दिखेगा)।
लग सकता है कि यह इमारत तो खास ऊँची नहीं है। मगर ज़रा दूसरे ढंग से सोचिए। हमारी अधिकांश इमारतों की एक मंज़िल करीब 3 मीटर की होती है। यानी कोई तीन-मंज़िला इमारत 10 मीटर ऊँची होगी। ऐसी 100 इमारतों को एक के ऊपर एक रखेंगे तब जाकर 1 कि.मी. ऊँची मीनार तैयार होगी। और असली कुतुब मीनार तो केवल 72.5 मीटर ऊँची है। तो उम्मीद करते हैं कि अब आपने समझ लिया होगा कि इन्दौर से नज़र आने के लिए भोपाल की किसी इमारत या कुर्सी की ऊँचाई कितनी होनी चाहिए!
यदि आप इसी सवाल का समाधान किसी और तरीके से कर पाएँ, तो ‘संदर्भ’ को लिख भेजिए।
अब एक पहेली हल कीजिए। वास्तव में इतनी ऊँची वह कुर्सी कितनी दूरी से नज़र आएगी?
हिमांशु श्रीवास्तव: होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, मुम्बई में शोध छात्र। एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से भी जुड़े हैं।
उमा सुधीर: एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी हैं। इन्दौर में निवास।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
ज्यामितीय चित्र: बोस्की जैन: सिम्बायोसिस ग्राफिक्स एंड डिज़ाइन कॉलेज, पुणे से ग्राफिक्स डिज़ाइन में स्नातक। एकलव्य के डिज़ाइन समूह के साथ जुड़ी हैं। भोपाल में निवास।
शीबा गुप्ता: केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और प्रबन्ध विज्ञान में विशेषज्ञता। ऑयल एंड गैस इंडस्ट्री, टोरॉन्टो, कनाडा में इंजीनियरिंग परामर्शी के तौर पर काम किया है।