लेखक: फ्रांसिस कुमार
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी [Hindi PDF, 819 kB]
मिस्त्री ने बिजली से चलने वाले उस छोटे तन्दूर का कंट्रोल पैनल खोल डाला था जो अचानक तभी ठप्प हो गया था जब उसमें ऐप्पल-पाइ (सेव की भरवाँ मिठाई) पकने के लिए रखी जा रही थी। सुधारने का काम सहजता से चल रहा था और कटे हुए तार के टुकड़े, पुराने टोस्टों का जला हुआ चूरा और कुछ दूसरी छोटी-मोटी चीज़ों का थोड़ा-सा कचरा काउंटर पर इधर-उधर बिखरा पड़ा था। इसके पहले कि कंट्रोल पैनल का ढक्कन वापिस अपनी जगह पर लगे, मैंने उसे साफ करने के लिए उठाया और नज़दीक से देखा। नीचे की ओर उसमें घनी धूल - मकड़ियों के जाले या शायद कीड़ों के खोल - के तीन अण्डाकार छोटे गुच्छे जैसे लगे हुए थे। मैंने उन्हें गौर से देखा और अचरज से भर गई। उन नन्हीं चीज़ों को सम्हाल कर हाथ में लिए, मैंने एक आतशी शीशा ढूँढ़ा और, पड़ोसी के बच्चों को पल भर के लिए अपनी किताबें छोड़कर बाहर आने के लिए पुकारकर, मैं निकली और घर के पिछवाड़े में नीम के पेड़ को घेरकर बने चबूतरे पर बैठ गई। बच्चे मेरे साथ बैठ गए, और जब उन्होंने नज़दीक से मेरे हाथ पर रखी छोटी-सी चीज़ों को देखा तो उनमें आज्ञाकारी भाव की जगह सक्रिय उत्सुकता झलकने लगी।
तन्दूर में सुराग
वे क्या हो सकती थीं? झिझकते हुए उन चीज़ों को छूने पर, उन्हें वे कड़ी मालूम हुईं और उनकी अण्डाकार आकृति से उन्होंने सोचा कि वे ज़रूर नन्हीं चिड़ियों की खोपड़ियाँ होंगी। पर बिजली के तन्दूर के कंट्रोल पैनल की बहुत ही तंग जगह में चिड़ियाँ कर क्या रहीं थी? हमने उन चीज़ों की और ध्यानपूर्वक जाँच-पड़ताल की। जब उनकी आँखें अभ्यस्त हुईं, तो उन्हें उन जबड़ों - क्योंकि वे चीज़ें वास्तव में ऊपरी जबड़े ही थे - में सामने की तरफ दो नन्हें सफेद पिन की नोक जैसे कुतरने वाले दाँत, फिर एक खाली जगह, और फिर दोनों तरफ अत्यन्त छोटी दाढ़ें दिखाई दीं। खोपड़ियों के एक तरफ नरम सिलेटी बालों के टुकड़े चिपके हुए थे और, जब हमने फिर से एक बार कंट्रोल पैनल के ढक्कन पर खोजा, तो एक लम्बी पूँछ, और नन्हीं रीढ़ की हड्डी दिखाई दी। अहा! रसोईघर में चूहों को बर्दाश्त करना तो हमने सीख लिया है, पर बिजली के तन्दूर के कंट्रोल पैनल में रह रहे चूहे? या, यह देखते हुए कि वे खोपड़ियाँ कितनी छोटी थीं, क्या वे चूहे उस तंग जगह में पैदा हुए थे और कभी निकल नहीं पाए? उनकी मौत कब और कैसे हुई? उनके बाकी के अवशेष कहाँ थे?
सोचने के लिए कितना कुछ और बाकी था! मैंने छोटे लड़के से, जो अँग्रेज़ी माध्यम के एक मँहगे स्कूल में पढ़ता है, थोड़ी रुई और एक माचिस की डिब्बी लाने को कहा। हमारे खज़ाने को स्कूल ले जाकर उसकी विज्ञान की मैडम/शिक्षिका को दिखाने के लिए ऐसी डिब्बी का आकार बिलकुल ठीक रहेगा। उसने मेरी ओर चकित और उलझन भरी दृष्टि से देखा। उसके बड़े भाई, जिसकी इसमें उतनी ही गहरी दिलचस्पी थी जितनी मेरी, ने मदद करते हुए कहा, “क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी मैम इन्हें देखना चाहेंगी?” फिर उसने और उसके भाई ने चुपचाप एक-दूसरे को देखा। फिर वे मेरी ओर मुड़े और नरमाई से कहा कि नहीं, मैम की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होगी। फिर मेरे सवालों और उनके जवाबों से सामने आया कि - नहीं, वे विज्ञान की कक्षा में कभी वास्तविक चीज़ों को देखते, परखते नहीं थे, न ही उनकी कक्षा में या विज्ञान कक्ष में किन्हीं भी चीज़ों का संग्रह था, और ना ही उन्हें कभी भी कोई ऐसी चीज़ दिखाई गई थी।
भारतीय स्कूलों में कई दशकों से काम कर रहे होने, और इसलिए अधिकांश कक्षाओं में ‘पढ़ाना’ और ‘पढ़ना’ कैसे होता है यह जानने के बावजूद, मैं उन बच्चों की खातिर फिर भी दु:खी और नाराज़ थी, क्योंकि एक भिन्न माहौल में शिक्षक की तरह मेरे अपने प्रशिक्षण की बदौलत मुझे यह एहसास था कि एक कंट्रोल पैनल से निकाली गई इन तीन छोटी खोपड़ियों से कक्षा में कितना समृद्ध और ज्ञानवर्धक वातावरण पैदा हो सकता था।
कक्षा में खोपड़ियों का उपयोग
उन नन्हीं खोपड़ियों से मैंने अपनी कक्षा में क्या किया होता? एक पहला कदम तो उस डिब्बी को एक से दूसरे को देते हुए पूरी कक्षा में घुमाना होता, ताकि हर बच्चे को उन नन्हीं खोपड़ियों को देखने, हौले से उन पर एक उँगली फिराने, माचिस की डिब्बी का वज़न महसूस करने का मौका मिलता। हम बातचीत करते - ढेर सारी बातचीत - इसके बारे में कि ये चीज़ें क्या हो सकती थीं। हो सकता था कि छोटे बच्चे हर चूहे को एक नाम दे देते। हो सकता था कि हम कल्पना करते कि वे उस तन्दूर में कैसे पहुँचे होंगे, और जब वे वापिस अपने घर नहीं लौटे होंगे तो उनकी माँ ने क्या सोचा होगा। हो सकता था कि हम एक छोटे चूहे के लिए आसपास उस खतरनाक बिजली वाले एक तन्दूर कीबजाय किसी बेहतर घर के बारे में विचार करते। एक बॉक्स? एक जूता? एक आड़ी पड़ी बाल्टी या एक कद्दू? एक चूहा अपने घर में कैसा फर्नीचर रखना पसन्द करेगा? खाना बनाने के बर्तन? खाने की चीज़ों का संग्रह?
ये खयाल हमें सीधे, उसी दिन, स्कूल के पुस्तकालय से चुनी गई किसी कहानी की ओर ले जा सकते थे। बीट्रिक्स पॉटर, रूमर गोडेन, रौडनी पैप्पे और ऐडना मिलर ऐसे चार नाम हैं जो एकदम दिमाग में आते हैं। इन लेखकों ने चूहों के बारे में - खो जाने, ठुकराए जाने या सबसे कटा हुआ महसूस करने, खतरे और भय में रहने और उनसे उबरने, जब मौसम बदलते हैं तो प्रतिकूल वातावरण से निपटने, जैसे छोटे बच्चों की गहरी चिन्ताओं से जुड़े विषयों पर - ऐसी कहानियाँ लिखी हैं जो बच्चों को बहुत भाती हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ काफी छोटी हैं, जो निचली प्रारम्भिक कक्षाओं के बहुत छोटे बच्चों के लिए उपयुक्त हैं, जिन्हें वे शायद कई बार दूसरों को सुनाएँ, अन्य - उनकी विषय-वस्तु या लम्बाई के कारण - उच्च प्रारम्भिक कक्षाओं को दिन के अन्त में, टुकड़ों में पढ़ कर सुनाने के लिए बढ़िया सामग्री हैं।
विविध गतिविधियाँ
निश्चित ही हम कक्षा के दूसरे कामों के साथ-साथ, अपने नन्हें चूहों के बारे में कम-से-कम एक या दो सप्ताह तक सोचना जारी रखते। तन्दूर के चूहे एक सम्मानजनक जगह पर रखे जाते - कोई अल्मारी का खण्ड, छोटी मेज़ - और उनके साथ उनका महत्व समझाने वाले साफ-सुथरे लेबल लगे होते। पुस्तकालय की किताबें बच्चों के उठाने और पढ़ने के लिए कक्षा में उपलब्ध रखी जातीं - कुछ समय तक शायद एक खिड़की की पट्टी पर किसी उपयुक्त खिलौने के साथ, जो हो सकता था कि कोई बच्चा ले आया होता। हम बच्चों को उनके घर में हुए चूहों के अनुभवों को पेंसिल से या रंगों से चित्रित करने के लिए प्रेरित करते। शिक्षिका उन चित्रों को जैसे वे होते वैसे ही स्वीकार करती, न कि उन्हें ‘सुधारती’, ‘बदलती’, ‘कैसे बनाना सिखाती’, क्योंकि बच्चे जब यह वर्णन करते कि उनके चूहे क्या कर रहे हैं, तो शिक्षिका का लक्ष्य इसके द्वारा भाषा सीखने के अवसर निर्मित करना होता।
छोटे बच्चों के लिए ये टिप्पणियाँ लिख दी जातीं। बड़े बच्चों के लिए चित्रों का लक्ष्य वैज्ञानिक अवलोकन की ओर अधिक ध्यान देना होता। उनके लिए नन्हीं खोपड़ियों को अलग-अलग करके रखा जाता ताकि अधिक-से-अधिक तीन-तीन बच्चों के समूह किसी तरह के आवर्धक का उपयोग करते हुए अपनी प्रकृति अध्ययन की कॉपी में सीधे निरीक्षण पर आधारित चित्र बना सकते थे। ये चित्र भिन्न-भिन्न कोणों से होते - सीधे सिर के सामने, नीचे और ऊपर की तरफ से - और बच्चे जो कुछ देखते उसके पेन्सिल से नोट्स बनाते, काफी कुछ वैसे ही जैसे कोई भी प्रकृतिविज्ञानी अपनी फील्ड नोटबुक में बनाता।
प्राथमिक स्कूल के सभी स्तरों पर बच्चे प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार का रचनात्मक लेखन करते हैं। उपयुक्त शब्द-भण्डार का संसाधन - रोमांचक क्रियाएँ, चूहों के रूप-रंग, ध्वनियों और आदतों से जुड़े विशेषण तथा अचानक किसी चूहे को देखकर हमारे भीतर जगने वाले भाव - विकसित करने के लिए मौखिक कार्य के बाद, उन शब्दों को सुगढ़ता से लिखकर ऐसी जगह लगा दिया जाता जहाँ बच्चे उन्हें देख सकते और उनका सन्दर्भ दे सकते। दूसरे पायदान की कोई कक्षा चूहों की कहानियों का संग्रह करके - जिसमें हर बच्चा चूहे/चूहों के एक अच्छे से वर्णनात्मक चित्र के साथ अपनी-अपनी कहानी देता - एक कक्षा की कॉपी बनाई जा सकती थी। बड़े बच्चे छोटे-छोटे समूहों में काम कर सकते थे, किसी कथानक को विस्तार देते हुए, नए पात्र और स्थितियाँ जोड़ते हुए, लेकिन सभी कथानक एक आम सहमति वाले प्रारम्भिक बिन्दु से निकलते या आम सहमति वाले चरम बिन्दु पर पहुँचते। सुन्दर आवरण पृष्ठ वाली छोटी पुस्तकों में संकलित करके, ये कहानियाँ सप्ताह के अन्त में कक्षा को पढ़कर सुनाई जातीं, और फिर वे पुस्तकें कक्षा के पुस्तकालय में जुड़ जातीं। बड़े बच्चे छोटी कक्षाओं में अपनी कहानियाँ पढ़कर सुनाने के लिए निमंत्रित किए जा सकते थे। यह किसी शर्मीले बच्चे को आगे आकर प्रदर्शन करने के लिए उसे सहमाए बगैर बढ़ावा देने का एक अन्य बढ़िया तरीका है।
खोपड़ियों के सहारे रसायन शास्त्र से संगीत तक
किसी भी उम्र के बच्चे उन विभिन्न प्रकार की खाने की चीज़ों से परिचित होते हैं जो चूहे रसोईघर से चुराते हैं। दालें, चावल, अनाज, चपाती के टुकड़े आदि का एक छोटा-सा संग्रह आसानी से बनाया जा सकता है। यहाँ भी, इस अनायास प्राप्त हुए सुलभ विषय के अन्य पहलुओं की तरह, शिक्षिका की अपेक्षा बच्चों के योगदान कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं। प्राथमिक स्कूल के मध्यवर्ती स्तरों के बच्चों के साथ यह दर्शाने वाला एक तुलनात्मक चार्ट विकसित किया जा सकता है कि कौन-सी खाने की चीज़ें चूहों को पसन्द हैं और कौन-सी बच्चों को पसन्द हैं। हमें इसकी भी पड़ताल करना चाहिए कि बच्चों और छोटे चूहों के लिए एक से खाद्य पदार्थों के खाए जाने वाले स्वरूप क्यों भिन्न होते हैं। खाद्य पदार्थ के साथ क्या किया जाना ज़रूरी है ताकि वह बच्चों को अच्छा लगे? यह कैसे होता है? यह, ज़ाहिर है कि, रसायनशास्त्र है, हालाँकि हम उस समय कक्षा को यह बताने वाले नहीं हैं। इस लक्ष्य की बजाय कि बच्चे रटे हुए वैज्ञानिक तथ्य फटाफट दोहरा दें, हम उनको परिवर्तन की प्रक्रिया का सहज एहसास करवाना चाहते हैं।
पश्चिमी साहित्य में चूहों और उनके शत्रुओं के बारे में, लगभग किसी भी उम्र के बच्चों के लिए उपयुक्त, नर्सरी राइम्स (तुकबन्दियाँ), गीत, कविताएँ और गाने वाले खेल बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। हम उनमें से कुछ चुनकर पेश करते, और बच्चे उनमें से एक-दो को अच्छे से सीख लेते। शिक्षिका कविताओं के एक या दो छन्दों को लिख लेती ताकि उनका सामूहिक गायन का पढ़ने वाले चार्ट की तरह उपयोग हो सकता। कम अनुभवी और छोटे पढ़ने वालों की मदद करने के लिए ऐसे चार्टों का बहुत मूल्य होता है, क्योंकि एक सुपरिचित कविता या गीत को किसी चार्ट या ब्लैकबोर्ड पर पढ़ते हुए उसे सही लय और उचित गति के साथ बोलने या गाने से नौसिखिए पढ़ने वाले की तंत्रिकाभाषाई (न्यूरोलिंग्विस्टिक) क्षमता में वृद्धि होती है। हम शब्दों के लिए उँगलियों के खेल ईज़ाद करके कविताओं को और समृद्ध बना सकते हैं। हम कक्षा के कमरे जैसी घिरी हुई जगह में भी, गीतों को सक्रिय स्वरूप देने का प्रयास कर सकते हैं।
इस सामग्री में नाटक के लिए कैसे अद्भुत अवसर मौजूद हैं! बच्चों का एक समूह बैठकर कताई करने वाले छह छोटे चूहे हो सकते हैं, और एक अन्य बच्चा घात लगाने वाली बिल्ली हो सकता है, साथ ही सभी हिकरी-डिकरी माउस बन सकते हैं, सभी नाराज़ घड़ी भी हो सकते हैं, जो उसके सिर पर दौड़ लगाते ऊधम मचाते चूहे पर खीझ रही है, सभी चूहों की नकल करते हुए, इधर-उधर नज़रें दौड़ाते हुए धीरे-धीरे चलते हैं, कि जब अचानक, आफत! की तरह बिल्ली प्रकट होती है - इसमें शर्मीले बच्चों के लिए अपने को एकदम अलग रूप में अभिव्यक्त करने के असीम अवसर हैं और इन्हें चूकना नहीं चाहिए। चूहों का विषय बहुत लम्बा नहीं चलेगा, लेकिन चार्ट्स, कविताओं, नर्सरी गीतों का संग्रह, जो हम इस दौर में विकसित करेंगे, तथा बच्चों की कथापुस्तकें बनी रहेंगी; ये कभी-कभी याद आएँगे या इस्तेमाल किए जाएँगे, हालाँकि स्कूल का सत्र धीरे-धीरे दूसरे रोचक विषयों पर आगे बढ़ जाएगा।
अनेक दूसरे देशों में संगीत प्राथमिक पाठ्यक्रम का एक केन्द्रीय अंग होता है। संगीत की प्रमुख अवधारणाओं, जैसे गति (तेज़/धीमी), स्वर-संरचना (ऊँचे स्वर/नीचे स्वर) और गतिकी (ज़ोर से/शान्त) के प्रति सजगता और संवेदनशीलता उत्पन्न करने के लिए बच्चों के साथ काम करने वाले शिक्षकों ने लम्बे अरसे से चूहों और बिल्लियों के बारे में गीतों को सराहा है। यदि हम सिर्फ एक चार पंक्तियों के छोटे-से गीत ‘लिटिल माउस बी केयरफुल (नन्हे चूहे सावधान)’ को लें तो हम इनमें से किसी भी पहलू, या सभी पहलुओं, को उतनी गहराई से देख सकते हैं जितनी बच्चों के विकास के स्तर तक सुलभ हो सकती है। यदि किसी शिक्षिका की कक्षा में तन्दूर में चूहों की हमारी खोज जैसी घटना घटी होती तो उस सप्ताह सिखाए जाने वाले छोटे गीत की जगह कोई चूहों का गीत सिखाने से वह शिक्षिका बिलकुल नहीं हिचकती।
मेरे मन में शंका उठती है कि कहीं यह आखिरी बात भारतीय स्कूलों के उन अधिकांश शिक्षकों के लिए सबसे कठिन अड़चन तो नहीं है, जो नित्यप्रति, सहज ही, ऐसे अवसरों का तिरस्कार करते रहते हैं जो उनके सिखाने और उनके बच्चों के सीखने को समृद्ध बना सकते हैं। यदि कोई काम सोमवार सुबह के लिए निर्धारित किया गया है, तो सिर्फ इस कारण से वह पत्थर की लकीर नहीं बन जाता; योजनाओं को बदला जा सकता है। विषय बदल सकते हैं। जिस कारण से वे बदले जा सकते हैं, वह यह है कि विज्ञान, भाषा, गणित, संगीत, सामाजिक अध्ययन की अवधारणाओं को बच्चे अध्ययन की प्रक्रिया से सीखते हैं, न कि उन तथ्यों से जो उन्हें, उदाहरण के लिए, डैफोडिल्स के बारे में किसी कविता या पतंगों के बारे में विज्ञान के एक पाठ का कड़ाई से अनुसरण करने से मिलते हैं।
साधारण पत्थर भी खज़ाना
शिक्षा तथ्यों के बारे में नहीं होती, बल्कि उन सम्बन्धों के बारे में होती है जो उन सभी चीज़ों से निर्मित किए जाते हैं जो हम जानते हैं, मानते हैं, और जो जानते नहीं पर पता कर रहे होते हैं। बच्चों का सीखना, जाँच-पड़ताल में, समझने में, संसार को अर्थ देने में, संसार को बदलने में और इस प्रक्रिया में खुद को बदलने में निहित होता है। जहाँ दिलचस्पी गहरी हो वहाँ ये प्रक्रियाएँ शक्तिशाली और समृद्ध होती हैं। वे चीज़ें जो बच्चों को खज़ाने जैसी लगती हैं, सीखने की अद्भुत संसाधन हो सकती हैं।
लेकिन जब कोई बच्ची घर से ऐसा कोई खज़ाना लेकर आती है तो वास्तव में क्या होता है? चलिए एक रोचक पत्थर के बारे में सोचें जो उसने कहीं से उठाया हो, और जब वह कहती है कि “(मुझे) एक जीवाश्म मिला है, मैम”, तो उसके रोमांच भरे उत्साह के बारे में सोचें। पाठ्यक्रम के भीतर - गणित, इतिहास, भाषा विकास के लिए - उस पत्थर को एक प्रस्थान बिन्दु की तरह उपयोग करने की अनन्त सम्भावनाएँ हैं। पर हाल में मैं जिन स्कूलों में गई हूँ, उनमें बच्ची से तत्काल कहा जाता कि वह एक गंदी चीज़ - भले ही उसने अपने पत्थर को सावधानी से धो लिया हो - से खेलकर बचकानी बेवकूफी कर रही है और, इसमें यह इंगित भी छिपा रहता कि वह खुद भी एक गंदी बच्ची है। हो सकता है कि शायद उसके हाथों पर मार पिटती, पत्थर को हिकारत के साथ कचरे की टोकरी में फेंक दिया जाता, और फिर उसे हाथ धोने के लिए भेज दिया जाता।
थोड़े ज़्यादा उदार परिवेश में, शायद हो सकता है कि पत्थर पर एक सवालिया नज़र डालते हुए कहा जाता, “ओह, यह अच्छा है, बेटी, अब अपनी जगह पर जाओ।” और फिर इसके बारे में आगे एक शब्द भी नहीं कहा जाता, चाहे कक्षा अपनी पाठ्यपुस्तक के विज्ञान के पाठ में तब पत्थरों और चट्टानों के बारे में ही पढ़ रही होती, तो भी नहीं। और उस स्थिति में पत्थर का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता? इसका एक कारण, जो मुझे बार-बार दिखाई दिया, वह एक शिक्षिका का अपने काम में, उसी स्तर की दूसरी शिक्षिकाओं के काम से, भिन्न होने की किसी भी सम्भावना से बचने की प्रवृत्ति है। एक अधिक आधारभूत कारण यह भी हो सकता है कि शिक्षिका जो पढ़ा रही है उसमें उसकी रुचि ही न हो। तब वह उससे जुड़ी ही नहीं है।
सीखने-सिखाने के कई मौके हैं चारों तरफ
किसी बच्चे की जेब में रखे एक दिलचस्प पत्थर को बहुत आसानी से नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है, लेकिन ऐसी सुबह के बारे में क्या कहेंगे जब कौओं, गौरैयों और मैनाओं के कर्कश शोरगुल द्वारा दूसरी मंज़िल की एक कगार पर बैठे, साफ दिखाई दे रहे एक बड़े सफेद उल्लू की मौजूदगी की खबर दी जा रही थी? किसी भी स्कूल की किताबों के संग्रह में उस पक्षी की तस्वीर होगी, क्योंकि खलिहानों के बाड़ों में रहने वाले उल्लू (बार्न आउल) का यहाँ दक्षिण दिल्ली में दिखना एक दुर्लभ घटना थी! यह खबर शिक्षकों को भी दी गई, और प्रशासन को भी। और, हालाँकि उन्होंने बड़े अच्छे ढंग से कहा, (कि यह) “कितनी दिलचस्प बात है”, पर कोई भी इस खूबसूरत अनोखे परिन्दे को देखने के लिए अपनी कक्षा को बाहर नहीं लाया।
टाइमटेबिल में खिड़की की पट्टी पर बैठे दुर्लभ पक्षियों को देखने के लिए कोई समय निर्धारित नहीं था, कला के पाठ्यक्रम में उल्लुओं की खोज करके उनके चित्र बनाने का उल्लेख नहीं था, इतिहास में उल्लुओं की भूमिका का ज़िक्र नहीं था - जबकि स्थानीय इतिहास और परम्पराओं में यह काफी विस्तृत है - क्योंकि पक्षीविज्ञान उस सत्र के कार्यक्रम में नहीं था। उल्लुओं के बारे में कितनी ही कविताएँ हैं, पर वे उस सप्ताह नहीं पढ़ाई जा रहीं थीं। वह उल्लू वहाँ क्यों था, कैसे वहाँ आया, अन्यथा वह कहाँ हो सकता था - सहज उत्सुकता से भरे इन प्रश्नों में से कोई भी किसी के द्वारा नहीं उठाया गया। उस उल्लू के दिखने से बच्चों के दिलों में सदा मौजूद विस्मय, आश्चर्य और रहस्य के जिस भाव को जगाया जा सकता था, वह सोया पड़ा रहा।
आखिर ऐसा क्यों नहीं होता?
या फिर हकीकत यह है कि पैंतीस साल की एक महिला को इस बात की इजाज़त लेना ज़रूरी है कि वह अपनी कक्षा के बच्चों को गलियारे में से होते हुए बाहर बगीचे में ले जा सके ताकि वे दूसरी मंज़िल की कगार की ओर नज़रें उठाकर एक सचमुच अद्भुत नज़ारे को देख सकें? क्या वह प्रशासन की हरी झण्डी के बगैर इतना छोटा-सा कदम भी नहीं उठा सकती? क्या ‘अति-उत्साही’ कह कर चिढ़ाए जाने का भय, या साथी शिक्षकों के ऐसे व्यंग्य-बाणों का भय कि वह प्रधान शिक्षिका के लिए दिखावा कर रही है, इतना ज़बर्दस्त है? मैं मानती हूँ कि ये भय बहुत शक्तिशाली हैं।
और उतना ही शक्तिशाली है शिक्षिका को सौंपे गए बच्चों के प्रति उसका बुनियादी रूप से अविश्वास का भाव। जब आप स्कूल के गलियारों से गुज़रते हैं तो बच्चों पर असर डालने के लिए अनावश्यक रूप से ऊँची आवाज़ में लगातार डाँट-डपट और झिड़कियाँ आपको सुनाई देती हैं। आपको सुनाई देते हैं बच्चों को चुप कराने के लिए दिए गए उपेक्षा भरे रस्मी उत्तर। यदि आप इस तरह से पढ़ाते हैं, तो अनुशासन के सवाल के कारण, आपके मन में अपनी कक्षा को सबके सामने बाहर ले जाने की चाहत होना बहुत मुश्किल है। इसके विपरीत, वे बच्चे जिन्हें शान्त - दृढ़ किन्तु उचित और थोड़े विनोद तथा नम्रता से भरे - स्वर में कुछ कहा जाता है तो वे परिपक्वता से उसका उत्तर देते हैं।
जिन बच्चों को रोचक चीज़ों को देखने और करने की आदत होती है, वे अपने शिक्षक के साथ दोस्ताना सैर के लिए बाहर जाने का मूल्य समझते हैं। उन्हें सीखने में, साथ सीखने में, आनन्द आता है। वह रोमांचक होता है। ऐसा सीखना कोई दुर्लभ आदर्श नहीं है, यह सहज सुलभ होता है, जब हमें सौंपे गए बच्चों को हम महत्व देना शु डिग्री करते हैं, जब हम उनके अनुभव और रुचि को उनकी स्कूली शिक्षा को समृद्ध बनाने देने का अवसर देने का निर्णय लेते हैं।
फ्रांसिस कुमार: कई वर्षों तक स्कूल में शिक्षिका रही हैं। वर्तमान में बच्चों के बीच काम करने के साथ-साथ बाल साहित्य लिखती हैं। संगीत में रुचि। दिल्ली में निवास।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब गाज़ियाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से अनुवाद कार्य कर रहे हैं।
सभी चित्र: निशित मेहता: महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातक। वर्तमान में एकलव्य के साथ जुड़कर स्वतंत्र रूप से चित्रकारी और लेखन कार्य कर रहे हैं।