अनुवाद - रमाकान्त अग्निहोत्री [Hindi PDF, 743 kB]

लगभग पिछले बीस सालों में पढ़ने की प्रक्रिया को लेकर हमारी समझ काफी पुख्ता हुई है। पढ़ने की वास्तविक प्रकृति कैसी है इस पर विद्वानों में अब काफी सहमति है। पढ़ना लिखित सामग्री से अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया है। यह एक अत्यन्त जटिल कौशल है जिसमें अनेक प्रकार की क्षमताओं का निरन्तर संवाद होता रहता है।

पढ़ने की तुलना ऑर्केस्ट्रा की एक मधुर सिंफनि के साथ की जा सकती है जिसमें कई वाद्य यंत्र एक साथ बजते हैं। इस तुलना से तीन बातें स्पष्ट होती हैं। पहली, एक सिंफनि की ही तरह पढ़ना भी एक समग्र प्रक्रिया है यानी, हम पढ़ने की प्रक्रिया को छोटे-छोटे कौशलों में बाँट तो सकते हैं पर किसी भी एक कौशल में हुनर हासिल करने से पढ़ना नहीं आ जाता। आप यदि वर्णमाला जानते हैं और शब्दों को सही पहचान पाते हैं तो केवल इनसे ही आप सही मायने समझ नहीं सकते। पढ़ना तभी सम्भव होगा जब पढ़ने से जुड़े सारे कौशल एक-दूसरे से संवाद करते एक साथ काम करें - जैसे सिंफनि में वाद्य यंत्र (आप ही बताइए कि यदि संगीत सुनते समय तानपुरा, सितार या तबला बेसुरा हो जाए तो आपको कैसा लगेगा?)।

दूसरी बात, जैसे संगीत के लिए अभ्यास आवश्यक है, वैसे ही पढ़ने के लिए भी। जैसे संगीत सीखने में पूरी उम्र लग जाती है, वैसे ही पढ़ने के लिए भी। तीसरी बात, एक सिंफनि की ही तरह किसी भी पठन-सामग्री के कई अर्थ हो सकते हैं। किसी कहानी-कविता या संवाद का कोई क्या अर्थ ग्रहण करेगा यह पढ़ने वाले की पृष्ठभूमि, पढ़ने के उद्देश्य व उस सन्दर्भ से निर्धारित होता है जिसमें वह सामग्री पढ़ी जा रही है।
आखिर पढ़ने की प्रक्रिया क्या होती है? एक आम अवधारणा है कि पढ़ने की प्रक्रिया में शब्दों का उच्चारण अर्थ की ओर ले जाता है। शब्दों के अर्थों से मिलकर उपवाक्य व वाक्यों के अर्थ बनते हैं। और वाक्यों के अर्थों को जोड़कर पूरे संवाद का अर्थ समझ में आ जाता है। इस अवधारणा के अन्तर्गत यह माना जाता है कि बच्चे सबसे पहले अक्षर को पहचानकर शब्दों व वाक्यों को पहचानते हैं और इस तरह ‘ईंट पर ईंट’ रखकर अर्थ तक पहुँचते हैं।

परन्तु अब शोध ने सिद्ध कर दिया है कि यह बात केवल आंशिक रूप से ही ठीक है शायद। अक्षरों व शब्दों की जानकारी के साथ-साथ पढ़ने के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी भी पाठ के साथ सम्बन्धित लोगों, स्थानों व वस्तुओं के बारे में भी ज्ञान संजोया जाए। यही नहीं पठन सामग्री की रचना व गठन के बारे में भी समझ बनाना आवश्यक है। एक पठन सामग्री कोई अर्थ के बर्तन जैसी नहीं होती। वास्तव में उसमें आंशिक रूप से कुछ अर्थ व जानकारी होती है जिसका प्रयोग पाठक इसलिए करता है कि वह अपने पूर्व-ज्ञान से जोड़कर उस सामग्री के वास्तविक अर्थ तक पहुँच सके।

पढ़ना उस प्रक्रिया का नाम है जिसमें पठन सामग्री से मिलने वाली जानकारी व पाठक के पूर्व-ज्ञान में निरन्तर एक संवाद चलता रहता है। इस संवाद को हम एक उदाहरण की मदद से और बेहतर समझ सकते हैं:
जब मेरी रेस्टोरेन्ट पहुँची तो दरवाज़े पर खड़ी महिला ने उसका अभिनन्दन किया और उसका नाम अपनी लिस्ट पर जाँचा। कुछ ही मिनटों में मेरी को उसकी मेज़ तक पहुँचाया गया और उसे उस दिन का मीनू दिखाया गया। खाना परोसने वाला उखड़ा-उखड़ा-सा था, यहाँ तक कि असभ्य भी। बाद में, मेरी ने महिला को पैसे दिए और चल दी।

पाठक को पहली पंक्ति में ही अहसास हो जाएगा कि उसका ‘रेस्टोरेन्ट’ के बारे में सारा पूर्व-ज्ञान यहाँ पर प्रासांगिक होगा। यानी, ‘रेस्टोरेन्ट’ पढ़ते ही उससे जुड़ी वे सारी यादें व अनुभव और उनके आपसी सम्बन्ध उभर आते हैं जो ‘रेस्टोरेन्ट’ से सम्बन्धित हैं। फिर पढ़ना काफी सरल हो जाता है। अपने पूर्व-ज्ञान पर आधारित हमारी कुछ अपेक्षाएँ बन जाती हैं। दरवाज़े पर खड़ी महिला निश्चित ही परिचारिका होगी, मेहमानों का स्वागत करने वाली। खाने से पहले मेरी को एक मेज़ पर बैठना ही है। खाना परोसने वाला कोई ‘वेटर’ होगा और पेराग्राफ के अन्त में जाने वाली महिला ‘मेरी’ ही होगी। इन सब अनुमानों पर पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि हम पठन सामग्री में दी गई जानकारी व अपने पूर्व-ज्ञान का प्रयोग करें।

प्रवीण पाठक अपने पूर्व-ज्ञान व पठन-सामग्री में निहित जानकारी का सामंजस्य कुशलता से करते हैं। लेकिन, अधपके पाठक या तो अधिकतर अक्षरों व शब्दों में ही उलझकर रह जाते हैं या फिर अपने पूर्व-ज्ञान में ही उलझे रहते हैं।
कुछ बच्चे तो बहुत ही उदासीन मन से श्रम करते हुए हिज्जे जोड़-जोड़कर पढ़ने का प्रयास करते हैं (जैसे - ‘म्’ में ‘ए’ की मात्रा ‘मे’, ‘र्’ में ‘ई’ की मात्रा ‘री’ - मेरी, आदि)। वे इतनी गहराई से शब्दों के ‘सही’ उच्चारण में खो जाते हैं कि अर्थ के विभिन्न पक्षों का तो उन्हें कोई ध्यान ही नहीं रहता। ये बच्चे पढ़ते वक्त बहुत ही अजीबो-गरीब त्रुटियाँ करते हैं जैसे दरवाज़े पर खड़ी परिया ने उसका अभिनन्दन किया और उसका नाम अपनी स्लेट पर जाँचा। कई बार ये बच्चे अपने पूर्व-ज्ञान का प्रयोग पाठ्य-सामग्री को पढ़ने के लिए नहीं कर पाते।
दूसरे अपरिपक्व पाठक अपने पूर्व-ज्ञान पर ही अधिक निर्भर रहते हैं। ये बच्चे तस्वीरों, शीर्षकों, कल्पनाओं एवं पठन-सामग्री में छुपी छुट-पुट जानकारी के आधार पर ही एक ऐसी कहानी बना देते हैं जो ठीक ही लगने लगती है। उदाहरण के लिए...

फिर न मेरी... एक पिज़्जा की दुकान पर पहुँची। वह दरवाज़े पर गई और उसने अपनी सहेली का अभिनन्दन किया। फिर वह अपनी कुर्सी पर बैठ गई, और उसने बड़े मज़े से एक पिज़्जा खाया।
इन बच्चों में वह क्षमता ही विकसित नहीं हो पाती जिससे शब्द व वाक्य पहचाने जा सकें और पूरे पाठ का अर्थ समझा जा सके।
पिछले दशक में हुए शोध के आधार पर पढ़ने की प्रक्रिया के बारे में पाँच निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:

प्रथम निष्कर्ष है
पढ़ना एक रचनात्मक गतिविधि है। कोई भी पाठ्य-सामग्री अपनी पूरी बात स्वयं नहीं समझा देती यानी पूरी बात उसी में निहित नहीं रहती। किसी भी पाठ्य-सामग्री को समझने के लिए पाठक पाठ्य-सामग्री के विषय के बारे में अपने पूर्व-ज्ञान का उपयोग करता/करती है। पाठक इस पूर्व-ज्ञान का उपयोग पाठ्य-सामग्री में निहित सन्देश की अपूर्तियों को पूरा करने व उसमें दी गई नई जानकारियों को संजोने में करते हैं। यानी पाठक स्वयं अर्थ का ‘निर्माण’ करते हैं। रेस्टोरेन्ट वाले उदाहरण में पाठक यह स्वयं समझ लेता है कि मेज़ पर बैठने वाली महिला ‘मेरी’ ही है, उसने होटल के मीनू से अपने खाने को चुना होगा और किसी वेटर ने उसे खाना लाकर दिया होगा - ये सब बातें पाठ्य-सामग्री में कही नहीं गई हैं। इन सब जानकारियों का निर्माण पाठक स्वयं करते हैं।

पूर्व-ज्ञान में अन्तर होने के कारण पाठकों के ‘अर्थ निर्माण’ में काफी विविधता रहती है। कुछ लोगों में इतना पूर्व-ज्ञान होता ही नहीं कि वे पाठ्य-सामग्री को समझ सकें या वे अपने पूर्व-ज्ञान का उचित उपयोग ही नहीं करते। अक्सर बात समझने में विविधता इसलिए पैदा होती है क्योंकि विषय के बारे में लेखक व पाठक की अवधारणाएँ अलग-अलग होती हैं।
यह सम्भव है कि कुछ बच्चों को विषय के बारे में कोई भी समझ ना हो, कुछ थोड़ा बहुत जानते हों और कुछ बहुत कुछ जानते हों। आधुनिक शोध से पता चलता है कि ज्ञान के बारे में इस तरह की विविधता का किसी भी पाठ्य-सामग्री को समझने में बच्चों में काफी अन्तर आ जाता है। उदाहरण के लिए एक शोध में दूसरी कक्षा के बच्चों को, जिनकी पढ़ने की क्षमता बराबर थी, मकड़ियों के बारे में एक पाठ पढ़ाने से पहले मकड़ियों पर उनका पूर्व ज्ञान जाँचने के लिए एक टेस्ट दिया गया। बाद में उनसे मकड़ियों पर दी गई पाठ्य-सामग्री के बारे में प्रश्न पूछे गए। जो बच्चे मकड़ियों के बारे में जानते थे उनके परिणाम प्रश्नों के उत्तर देने में कहीं अधिक अच्छे थे, खासकर उन प्रश्नों में जिनमें तार्किक क्षमता की आवश्यकता थी।

शोध से पता लगता है कि बच्चे कई बार अपने पूर्व ज्ञान का उपयोग नहीं कर पाते, खासकर स्कूली शिक्षा की परिस्थितियों में। उन्हें कुछ उचित जानकारी हो सकती है पर वे पाठ्य-सामग्री को समझने के लिए उसका प्रयोग नहीं कर पाते। इस तरह की सफलताएँ उन परिस्थितियों में होती हैं जहाँ बच्चों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल नई-नई परिस्थितियों में काम लाएँ। एक बच्चे और एक वयस्क के समझने में एक छोटा-सा अन्तर भी देखने पर ऐसा लग सकता है कि बच्चे को पाठ्य-सामग्री बिलकुल समझ नहीं आई।

दूसरा निष्कर्ष है
पढ़ना सही मायने में धाराप्रवाह होना चाहिए। धाराप्रवाह रूप से पढ़ने का आधार है शब्दों की पहचान। अँग्रेज़ी एक वर्णमाला आधारित भाषा है इसलिए शब्दों व हिज्जों में एक लगभग नियमित सम्बन्ध रहता है। हर पढ़ना सीखने वाले को उस ‘कोड’ को आत्मसात करना पड़ता है जिससे हिज्जों, शब्दों व अर्थों में सम्बन्ध स्थापित हो सके। आधुनिक शोध ने यह सिद्ध कर दिया है कि इससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता कि आप बच्चों को पढ़ना सिखाने के लिए आरम्भ में कौन से तरीके इस्तेमाल करते हैं। समझकर पढ़ने के कौशल में वही बच्चे आगे निकलते हैं जो प्रथम कक्षा में शब्दों को सही व तीव्रता से पहचानने लगते हैं।

किसी शब्द को डीकोड करना, यानी उसके उच्चारण व अर्थ को पहचानना, हिज्जों को पहचानने से काफी अलग बात है। 19वीं सदी से हमको मालूम है कि छोटे-छोटे जाने-पहचाने शब्द उतनी ही तीव्र गति से पढ़े जा सकते हैं जितने कि वर्णमाला के अक्षर। कुछ हालात में तो शब्द तब भी पहचाने जाते हैं जबकि हिज्जों पर आपका कोई ध्यान ही न हो। ये बातें सम्भव ही नहीं यदि शब्द पहचानने के लिए हिज्जों में विश्लेषण करना एक आवश्यक शर्त हो। हाल ही में यह भी सिद्ध करके दिखा दिया गया है कि सार्थक सन्दर्भ शब्द-पहचानने की प्रक्रिया में बहुत मदद करते हैं। उदाहरण के लिए ‘नर्स’ शब्द आसानी से पहचाना जा सकता है यदि ‘डॉक्टर’ शब्द उसके आसपास हो। इन सब बातों का आम मान्यता कि ‘शब्द पहचानने का अर्थ है हिज्जे-हिज्जे कर पढ़ना’ से कोई तालमेल नहीं बैठता।

पढ़ने के बारे में हमें आज जो भी बातें मालूम हैं वे आधुनिक पढ़ने के मॉडल पर पूरी तरह से खरी उतरती हैं। इस मॉडल के अनुसार किसी भी शब्द की एक सम्भव व्याख्या दिमाग में उसी वक्त बननी शु डिग्री हो जाती है जैसे ही हमारी नज़र उस पर पड़ती है और उसके बारे में कुछ सूचना हमारे दिमाग तक पहुँचती है। हिज्जों में बँधी शेष जानकारी से यह व्याख्या और पुष्ट होती है। जब सन्दर्भ व हिज्जों से पर्याप्त जानकारी हासिल हो जाती है, तो एक सम्भावित व्याख्या एक निश्चित पहचान बन जाती है। यह सब अत्यन्त तीव्र गति से होता है, औसतन 250 मिली सेकण्ड में, एक कुशल पाठक के लिए।

पाठकों में तीव्र गति से शब्दों को डीकोड करने की क्षमता होना आवश्यक है। तभी वे इस प्रक्रिया का किसी भी पाठ्य-सामग्री के अर्थ निर्माण की प्रक्रिया के साथ तालमेल बिठा सकते हैं। इसका एक प्रमाण यह है कि कुशल पाठक किसी भी ऐसे मनगढ़न्त शब्दों के जिसके हिज्जे ठीक-ठाक लगें बहुत तीव्र गति से उच्चारण कर पाते हैं जैसे कि अँग्रेज़ी में 'tose' या 'jate'। जिन लोगों की पढ़ने की क्षमता लगभग 11-12 साल के बच्चे की होती है वे इस तरह के मनगढ़न्त शब्दों को पढ़ने में कोई गलती नहीं करते। कुशल व साधारण पाठकों को इस स्थिति में जो बात अलग करती है वह तीव्र गति है, न कि शुद्धता। इससे यह बात समझ आती है कि साधारण पाठकों ने हिज्जों व उच्चारण का पैटर्न पकड़ लिया है परन्तु कुशल पाठकों में यह कौशल पैटर्न से कहीं आगे एक स्वचालित प्रक्रिया तक पहुँच चुका है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि कुशल पाठक अपरिचित शब्दों को उन नियमों के अनुसार नहीं पहचानते जिनसे हिज्जों व उच्चारण का सम्बन्ध नियमित होता है। उनकी पहचान वास्तव में अपरिचित शब्द की पहले से परिचित शब्दों के साथ अनुरूपता पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए tab का उच्चारण jab के उच्चारण पर और उन शब्दों के ज्ञान पर जो अँग्रेज़ी में t से आरम्भ होते हैं पर आधारित हो सकता है। एक अन्य प्रमाण जो अनुरूपता पर आधारित डीकोडिंग के नियम पर आधारित है वह है mave जैसे अपरिचित/मनगढ़न्त शब्दों का उच्चारण। mave कभी तो have और कभी wave की तरह बोला जाता है, उन पाठकों के द्वारा जो यह शब्द पहली बार देखते हैं। कारण: mave में a का, उच्चारण छोटा हो सकता है जैसा कि have या दीर्घ हो सकता है, ‘ऐ’, जैसा कि wave में। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पाठक को लघु या दीर्घ ठ्ठ के उच्चारण की विशेष आवश्यकता नहीं। उसे आवश्यकता है उस शब्द भण्डार की जिससे अनुरूपता की युक्ति का प्रयोग हो सके।
यह आवश्यक है कि डीकोडिंग की कुशलता इस हद तक विकसित हो जाए कि वह स्वचालित हो जाए। उस पर चेतन स्तर पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता न रहे। पाठक का ध्यान पाठ्य-सामग्री के अर्थ पर केन्द्रित होना चाहिए। न कि यह समझने पर कि टुकड़े-टुकड़े करने पर एक-एक शब्द के क्या मायने होने चाहिए। साधारण पाठक अक्सर इस कारण से पाठ्य-सामग्री पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते क्योंकि वे निम्न स्तर की डीकोडिंग में उलझते रहते हैं। उनका अधिक ध्यान एक-एक शब्द के सही उच्चारण में लगा रहता है। कुशल पाठक पाठ्य-सामग्री के सतही लक्षणों पर बहुत कम ध्यान दे पाते हैं।
उदाहरण के लिए ऊपर दिए गए रेस्टोरेन्ट वाले पैरा की पहली पंक्ति को कोई बच्चा कुछ इस तरह पढ़ सकता है:
जब मेरी... मेरी - र - रेस्... र् - रेस्ट... जब मेरी रेस्टो... आदि।
‘रेस्टोरेन्ट’ एक कठिन शब्द है। इस तरह से पढ़ने के लिए बच्चे को काफी प्रयास करना पड़ेगा। जब तक बच्चा इस तरह कुछ पढ़ने में सफल होगा तब तक पहले का पढ़ा हुआ उसकी याद में धुँधला हो चुका होगा। वह कभी भी एक समग्र अर्थ नहीं बना पाएगा।
जो आँकड़े हमें उपलब्ध हैं उनसे मालूम होता है कि एक 9-10 वर्ष का औसत कुशल पाठक एक अपरिचित कहानी को लगभग 100 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से पढ़ सकता है। पर एक आम पाठक उसी कहानी को लगभग 50-60 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से पढ़ता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह रफ्तार ‘इतनी धीमी है कि आसान सामग्री को भी पढ़कर समझने में बाधा बन जाती है और समझने की नई क्षमताएँ विकसित होने के लिए तो कोई जगह छोड़ती ही नहीं।’

तीसरा निष्कर्ष है
पढ़ना मुख्यरूप से युक्तिगत होना चाहिए। कुशल पाठकों में सदा एक लचीलापन रहता है। किसी भी पाठ्य-सामग्री को वे इस दृष्टिकोण से पढ़ते हैं कि वह कितनी जटिल है, उसकी विषय-वस्तु से वे कितना परिचित हैं एवं उनके पढ़ने का अपना उद्देश्य क्या है। कई शोधों से यह पता लगता है कि अपरिपक्व पाठकों में कम-से-कम दो वो युक्तियाँ नहीं होतीं जो कुशल पाठकों के पास होती हैं: एक तो वे पाठ्य-सामग्री से सम्बन्धित अपने पूर्व-ज्ञान का जायज़ा नहीं लगा पाते और दूसरे अपने समझने की प्रक्रिया को नियंत्रित नहीं कर पाते जिससे वे उन युक्तियों का प्रयोग नहीं कर पाते जो समझने की प्रक्रिया के असफल होने पर काम में लाई जाती हैं।

कुशल पाठक जानते हैं कि पढ़ने के अलग-अलग उद्देश्य होते हैं और इन उद्देश्यों को बदलना पड़ता है। उदाहरण के लिए वे समझते हैं कि मज़े लेने के लिए पढ़ते वक्त शायद कोई गहरी समझ की आवश्यकता नहीं पर परीक्षा के लिए तो खूब समझ कर ही पढ़ना होगा। एक शोध में तीसरी व छठी कक्षा के बच्चों को दो कहानियाँ पढ़ने के लिए कहा गया - एक केवल मज़े लेने के लिए और दूसरी परीक्षा के लिए। कुशल पाठकों ने अपने पढ़ने के तरीकों में उचित तब्दीलियाँ कीं, अपरिपक्व बच्चों ने नहीं। परिणामत: इन बच्चों को दोनों कहानियों में से कोई भी ठीक से समझ नहीं आई, न ही याद रही।

अपरिपक्व पाठक अक्सर पढ़ने के तरीके को नियंत्रित नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें पढ़ने का उद्देश्य ठीक से समझ नहीं आता। नियंत्रण का एक पक्ष यह है कि यह समझ पाना कि कब पढ़ने में कोई असफलता हुई है। इस बात की जाँच करने के लिए शोधकर्ताओं ने पाठकों को पाठ्य-सामग्री में ऐसी बातों को पहचानने के लिए कहा है जो उस पाठ्य-सामग्री से मेल न खाती हों। नीचे हम उदाहरण के लिए दो पैराग्राफ दे रहे हैं:
इस जहाज़ पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन सबका आपस में खूब मेल जोल है। जिन लोगों के पास बहुत पैसा है और जिन के पास बहुत कम, वे सभी आपस में दोस्त हैं। अफसर मुझे बराबरी का दर्जा देते हैं। हम सब अक्सर साथ-साथ खाना खाते हैं। मुझे तो लगता है कि हम सब एक ही खुशहाल परिवार के सदस्य हैं।

अब इसी पैराग्राफ का दूसरा रूप देखिए:
इस जहाज़ पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन सबका आपस में खूब मेल जोल है। जिन लोगों के पास बहुत पैसा है और जिनके पास बहुत कम, वे सभी आपस में दोस्त हैं। अफसर सदा मेरा निरादर करते हैं। हम सब अक्सर साथ-साथ खाना खाते हैं। मुझे तो लगता है कि हम सब एक ही खुशहाल परिवार के सदस्य हैं।
कुशल पाठक दूसरे पैराग्राग में आई अखरने वाली बात को सहज ही पकड़ लेंगे। दूसरी तरफ छोटे या अपरिपक्व पाठक कहेंगे कि दूसरा पैराग्राफ भी ठीक-ठाक है।

नियंत्रित पढ़ने की प्रक्रिया का अन्य पक्ष है कि एक कुशल पाठक को जैसे ही यह अहसास होता है कि उसे कोई बात समझ में नहीं आई तो वह कोई-ना-कोई ऐसा कदम उठा लेता है या कोई ऐसी युक्ति खोज लेता है जिससे वो बात उनकी समझ में आ जाए। कुशल पाठकों को पता होता है कि कठिनाइयों का सामना कैसे करना होता है। कई विकल्प उपलब्ध हैं: एक तरीका तो यह है कि समस्या को कुछ देर के लिए टाल दिया जाए, इस उम्मीद के साथ कि थोड़ी देर बाद उसका अर्थ स्वयं स्पष्ट हो जाएगा। एक अन्य विकल्प है कि एक ही हिस्से को बार-बार पढ़ना; आगे पढ़ने की प्रतीक्षा करना या बाह्य स्रोतों से मदद लेना। एक शोध कार्य में शोधकर्ताओं ने दूसरी और छठी कक्षाओं से पूछा कि जब उन्हें कोई लिखी हुई बात समझ नहीं आती तब वे किन युक्तियों का प्रयोग करते हैं। उम्र में बड़े कुशल पाठकों ने बताया कि यदि वे किसी शब्द का अर्थ नहीं जानते तो किसी अन्य व्यक्ति से पूछ लेते हैं या किसी शब्दकोश की सहायता ले लेते हैं। अपरिपक्व पाठक अपनी युक्तियों के बारे में कोई विशेष बात नहीं बता सके। वास्तव में यह बात बच्चों के अवलोकनों से और भी पुख्ता हुई है। एक अन्य शोध में चौथी कक्षा के बच्चों को ऐसी कहानी पढ़ने को दी गई जिसमें कुछ कठिन शब्द थे। जैसी कि उम्मीद थी, कुशल पाठकों ने प्रश्न पूछे, नोट्स लिए तथा शब्दकोश का प्रयोग किया। अपरिपक्व पाठकों ने इन चीज़ों की बहुत कम मदद ली।

यह बात हम बार-बार देखते हैं कि कुशल पाठकों के पास पढ़ने की युक्तियों का एक भण्डार होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुशल पाठक अपनी पढ़ने की प्रक्रिया का नियंत्रण करते हैं और समझ के रास्ते में आने वाली रुकावटों का कोई-ना-कोई हल निकालते हैं।

चौथा निष्कर्ष है
पढ़ने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है। हर अध्यापक जानता है कि प्रेरणा यानी पढ़ने की गहरी इच्छा पढ़ना सीखने की कुंजी है। अधिकतर बच्चों को पढ़ना सीखने के लिए कई साल लगेंगे लेकिन इस दौरान हमारी यह भरसक कोशिश होनी चाहिए कि बच्चों की यह उम्मीद बनी रहे कि वे एक कुशल पाठक बनेंगे।

पढ़ना अपने आप में एक आनन्दायक बात है। उन बच्चों के लिए तो निश्चित ही जो कुशल पाठक हैं; काफी हद तक उन बच्चों के लिए भी जो औसत या औसत से भी नीचे की श्रेणी में हैं। कहते भी हैं कि यह बच्चे तो किताबों के मोह में खोए हुए हैं। पढ़ना सिखाने की प्रक्रिया का यह उद्देश्य तो होना चाहिए कि अधिक-से-अधिक बच्चे कुशल पाठक बन जाएँ। पर साथ-साथ हमारा उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि उन बच्चों की संख्या बढ़े जो केवल मज़े लेने के लिए नई-नई किताबें पढ़ते हैं। इस प्रक्रिया का एक आवश्यक हिस्सा यह है कि बच्चों को जिन किताबों में रुचि है वो किताबें उन्हें आसानी से मिलें।

बच्चों को पढ़ना सिखाने की प्रक्रिया अक्सर बहुत बोरिंग होती है। इस प्रक्रिया के कई हिस्से बहुत नीरस होते हैं। पढ़ने के नाम पर दी गई अधिकतर गतिविधियाँ अरुचिकर होती हैं। इसलिए जब एक शोध में यह पता लगा कि जब बच्चों को अपनी कक्षा से एक कक्षा के आगे की किताबें पढ़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें पढ़ने में तो मज़ा आ रहा है लेकिन पाठ के अन्त में दी गई गतिविधियों में कोई रुचि नहीं, तो यह कोई हैरानी की बात नहीं। वे अध्यापक जो बच्चों की प्रेरणा को एक उच्च स्तर पर बनाए रखते हैं वे बहुत तेज़ गति से विविध पाठ पढ़ाते हैं। गतिविधियाँ एक उत्साह के साथ आरम्भ की जाती हैं और यह समझाया जाता है कि उनको करने से क्यों बच्चे बेहतर पाठक बनेंगे। जिन अध्यापकों की कक्षाओं में प्रेरित बच्चे होते हैं उनकी कक्षाओं में खूब काम होता है लेकिन उनमें बहुत स्नेह और विश्वास होता है। इस तरह के अध्यापकों के द्वारा पढ़ाए गए बच्चे पढ़ने के मूल्यांकन में औसत से कहीं अधिक अंक लाते हैं।

असफलता कोई मज़ाक नहीं। अपरिपक्व पाठकों का पढ़ने के प्रति नकारात्मक हो जाना स्वाभाविक है। पर यह कहना आसान नहीं कि पढ़ने में असफलता नकारात्मक रुख के कारण है या ठीक इसका उल्टा। शायद सच्चाई इन दोनों छोरों के बीच में कहीं है।
अपरिपक्व पाठक इधर-उधर देखते रहते हैं, पढ़ने की तरफ ध्यान नहीं देते और कहीं कक्षा की प्रक्रिया में जान-बूझकर बाधाएँ डालते हैं, अपना काम नहीं करते। जब भी कोई कठिन गतिविधि उनके सामने आती है तो जल्द ही हार मान लेते हैं। उन्हें पढ़कर बोलने के लिए कहा जाता है या कोई परीक्षा देनी होती है तो वे बहुत चिन्तित हो जाते हैं। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ये बच्चे स्वयं को असहाय पाते हैं और उन्हें लगता है कि वे कुछ भी बेहतर नहीं कर सकते।

इस असहायपन के कारणों को हम अभी तक ठीक से समझ नहीं पाए हैं परन्तु शायद अध्यापकों के व्यवहार का इससे कोई-न-कोई रिश्ता ज़रूर है। यह स्वाभाविक है कि कुछ अध्यापकों को लगे कि पढ़ने की परीक्षा में फेल होने पर दया दिखाना बहुत अच्छी बात है लेकिन इस बात में यह सन्देश भी छुपा हुआ हो सकता है कि इन बच्चों में कुछ भी बेहतर करने की क्षमता नहीं और अपने जीवन के निर्माण में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इसके विपरीत अगर अध्यापक कुछ असन्तुष्टि दिखाएँ तो हो सकता है कि बच्चों को लगे कि यदि वे मेहनत करेंगे तो उनकी पढ़ने में प्रवीणता बेहतर होगी। लोग अपने परिश्रम को नियंत्रित कर सकते हैं; यदि नियंत्रण हो तो असहाय भी प्रवीण हो सकते हैं।

एक प्रभावशाली अध्यापक अपनी बातचीत व अपने काम करने के तरीकों से यह दिखा देता है कि हर बच्चा पढ़ना सीख सकता है, यदि वह ध्यान दे और मेहनत करे। इन अध्यापकों की कक्षाओं में बच्चों को अपने परिणाम साफ नज़र आते हैं। शोध से यह बात सिद्ध हो गई है कि ऐसे अध्यापक बच्चों को पढ़ने के लिए ऐसी सामग्री देते हैं जिसको पढ़ने में उन्हें सफलता का अहसास होता है। परन्तु प्रभावशाली अध्यापक बिना सोचे समझे प्रशंसा करने नहीं बैठ जाते। वही बच्चा वास्तव में प्रशंसा का पात्र बनता है जो कोई ऐसा काम कर दिखाए जो उसके लिए सचमुच मुश्किल हो। प्रशंसा करने में यह साफ ज़ाहिर रहता है कि बच्चे ने किस विशेष समस्या को सुलझाया है और किस प्रकार बच्चे की सफलता उसके कौशल और प्रयास से जुड़ी है। इसी से पता चलता है कि भविष्य में भी इसी तरह की सफलताएँ सम्भव हैं।

गोया यह बात सच है कि निरन्तर बनी हुई प्रेरणा पढ़ना सीखने के लिए आवश्यक है, फिर भी हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रेरणा पढ़ने में असफलता का एक मात्र कारण नहीं है। अनुभव से यह पता लगता है कि अच्छे-से-अच्छे हालात में भी कुछ प्रतिशत बच्चे तो ठीक से पढ़ना नहीं सीख पाएँगे। उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इन मुश्किलों की हम यहाँ पर विस्तार से चर्चा नहीं कर सकेंगे। हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि जिन बातों की चर्चा हमने यहाँ की है उनसे उन मुश्किलों को हल करने में कुछ मदद अवश्य मिल सकती है।

पाँचवाँ निष्कर्ष है
पढ़ना एक ऐसा कौशल है जिसका निरन्तर विकास होता रहता है। संगीत की ही तरह पढ़ना भी कोई ऐसी कला नहीं जिस पर एक बार में ही महारत हासिल कर ली जाए। अपितु यह ऐसा कौशल है जो अभ्यास के साथ निरन्तर निखरता है। यह प्रक्रिया उसी वक्त शु डिग्री हो जाती है जब भी कोई व्यक्ति-विशेष किसी पढ़ने-लिखने वाली संस्कृति व पहली पाठ्य-सामग्री के समकक्ष होता है।
पहला नियम जिसका सदैव पालन करना चाहिए वह यह है कि पढ़ने को एक समग्र प्रक्रिया से शु डिग्री किया जाए। पढ़ना इसलिए चाहिए कि पाठ्य-सामग्री में निहित अर्थ व सन्देश को पकड़ना है। स्पष्ट है कि पढ़ना सीखने की शुरुआत करने वाले बच्चे के लिए इसमें काफी समस्या आएगी। यह कैसे सम्भव है कि पढ़ना सीखने से पहले ही बच्चा पढ़ने लग जाए?

इसके लिए कई नई-नई युक्तियाँ प्रयोग में लाई जा सकती हैं। एक स्वाभाविक युक्ति यह है कि बच्चों को वे कहानियाँ सुनाई जाएँ जिनसे वे पहले से परिचित हैं और जो उन्हें लगभग याद भी हैं। एक अन्य युक्ति है कि नई कहानियों की शब्दावली सीमित हो। अक्षर व ध्वनि के सम्बन्ध की ओर ध्यान दिलाने से भी लाभ हो सकता है।

अनेक अन्य जटिल कौशलों की ही तरह पढ़ना सिखाने की प्रक्रिया में उन हिस्सों/पक्षों के विवरण, विमर्श, कोचिंग के अभ्यास पर ज़ोर दिया जाता है जो पढ़ने के आवश्यक अंग माने जाते हैं। लेकिन इन सब प्रक्रियाओं का मूल्यांकन इसी बात से हो सकता है कि समझकर पढ़ने में बच्चे की क्षमता कितनी बढ़ी है। अत: एक सुरक्षित पढ़ना सिखाने के कार्यक्रम में टुकड़ों पर प्रवीणता हासिल करना अपने आप में एक उद्देश्य नहीं हो सकता। यह केवल उद्देश्य प्राप्त करने का एक रास्ता ही हो सकता है। समग्र रूप से समझकर पढ़ने व उस प्रक्रिया के टुकड़ों पर एक सन्तुलित ज़ोर देना चाहिए।

संक्षेप में
1. पढ़ना एक रचनात्मक गतिविधि है। एक कुशल पाठक बनने के लिए आवश्यक है कि रोज़मर्रा के ज्ञान व विषयवस्तु विशेष के ज्ञान पर आधारित पाठ्य-सामग्री से एक तार्किक संवाद स्थापित हो सके।
2. पढ़ना सही मायने में धारा प्रवाह होना चाहिए। एक कुशल पाठक होने का तात्पर्य यह है कि आपका पढ़ने के सभी कौशलों पर पूरा अधिकार है। वे इस कद्र स्वचालित हैं कि आप अपना पूरा ध्यान अर्थ समझने पर लगा सकते हैं।
3. पढ़ना मुख्य रूप से युक्तिगत होना चाहिए। एक कुशल पाठक बनने के लिए यह आवश्यक है कि आपका पढ़ने के उद्देश्य, पाठ्य-सामग्री की प्रकृति और अपने समझने की प्रक्रिया के पढ़ने के साथ जो भी रिश्ते बनें उन पर पूरा नियंत्रण होना चाहिए।
4. पढ़ने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है। एक कुशल पाठक होने का मतलब यह है कि आप एक लम्बे समय तक ध्यान केन्द्रित रख सकते हैं और आप यह मानते हैं कि पाठ्य-सामग्री रुचिकर व ज्ञानदायक हो सकती है।
5. पढ़ना एक ऐसा कौशल है जिसका निरन्तर विकास होता रहता है। एक कुशल पाठक होने का मतलब है कि आप निरन्तर अभ्यास करते हैं और आपके कौशल में निरन्तर विकास व सुधार होता रहता है।


यह लेख रिचर्ड सी. एंडर्सन, एलफ्रीडा एच. हीबर्ट, जूडिथ ए. स्कॉट और इआन ए.जी. विल्किनसन द्वारा तैयार की गई पुस्तक बिकमिंग अ नेशन ऑफ रीडर्स - द रिपोर्ट ऑफ द कमिशन ऑफ रीडिंग से लिया गया है। प्रकाशक - द नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन, वॉशिंगटन, डीसी, 1985।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: रमाकान्त अग्निहोत्री: दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त। व्यावहारिक भाषा-विज्ञान, शब्द संरचना, सामाजिक भाषा-विज्ञान और शोध प्रणाली पर विस्तृत रूप से पढ़ाया और लिखा है। ‘नेशनल फोकस ग्रुप ऑन द टीचिंग ऑफ इंडियन लेंग्वेजिज़’ के अध्यक्ष रहे हैं। आजकल विद्या भवन सोसायटी, उदयपुर में एमेरिटस प्रोफेसर हैं।
चित्र: बोस्की जैन: सिम्बायोसिस ग्राफिक्स एंड डिज़ाइन कॉलेज, पुणे से ग्राफिक्स डिज़ाइन में स्नातक। भोपाल में निवास।