सुशील जोशी [Hindi PDF, 281 kB]
भाग: 4
पिछले अंक में हमने देखा था कि कई वैज्ञानिकों के प्रयोगों से स्पष्ट होने लगा था कि जलने की क्रिया में जलने वाली वस्तु के साथ-साथ हवा की भूमिका भी होती है। इन्हीं प्रयोगों ने यह भी दर्शाया था कि हवा एक तत्व नहीं बल्कि मिश्रण है और इस मिश्रण में कम-से-कम दो भाग होते हैं - एक भाग जलने में मददगार है जबकि दूसरा नहीं है। मगर प्राचीन मान्यता के मुताबिक वायु और अग्नि तत्व हैं। तो इन्हें तत्व बने रहने दें और जलने की व्याख्या भी हो जाए, ऐसी कोई जुगाड़ ज़रूरी थी। इसी जुगाड़ का नाम है फ्लॉजिस्टन।
फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त में यह माना जाता था कि ज्वलनशील वस्तुओं में एक पदार्थ (तत्व) होता है फ्लॉजिस्टन। जब वस्तु जलती है तो फ्लॉजिस्टन निकलता है। फ्लॉजिस्टन के गुणों में प्रकाश और गर्मी प्रमुख माने गए थे। लिहाज़ा, जब फ्लॉजिस्टन निकलता है तो प्रकाश और गर्मी पैदा होती है। जलने के बाद जो पदार्थ बचता है वह फ्लॉजिस्टन-रहित भाग होता है जिसे केल्क्स (भस्म) नाम दिया गया। यानी ज्वलनशील वस्तु में दो घटक होते हैं - फ्लॉजिस्टन और केल्क्स। इसके आधार पर यह भी कहा गया कि केल्क्स ही उस पदार्थ का मूल रूप है, वह शुद्ध है। आप देख ही सकते हैं कि फ्लॉजिस्टन और कुछ नहीं ‘अग्नि’ तत्व का ही नवीन पदार्थ-रूपी संस्करण है।
फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के विकास का श्रेय सत्रहवीं सदी के किमियागर जे.जे. बेकर को दिया जाता है। बेकर ने यह सिद्धान्त 1667 में विकसित किया था। दरअसल, बेकर ने अपनी पुस्तक फिज़िकल एजुकेशन में पारम्परिक चार तत्वों को कम करके मात्र तीन तत्वों का ज़िक्र किया था। ये तीन तत्व थे: टेरा लेपिडा, टेरा फ्लुइडा, और टेरा पिंगुइस। बेकर का मत था कि टेरा पिंगुइस दहन का प्रमुख तत्व है और चीज़ों के जलने पर प्रकट होता है। वैसे टेरा पिंगुइस को फ्लॉजिस्टन नाम देकर इस सिद्धान्त को परवान चढ़ाने का काम जॉर्ज अन्र्स्ट स्टॉल (1660-1734) नामक जर्मन वैज्ञानिक ने अट्ठारवीं सदी (1703) में किया था।
इस सिद्धान्त के अनुसार जलने का मतलब है किसी वस्तु में से फ्लॉजिस्टन का मुक्त हो जाना जो प्रकाश और गर्मी के रूप में प्रकट हो जाता है। इस सिद्धान्त के मुताबिक जलने में हवा की कोई भूमिका नहीं थी यानी फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक जलने की क्रिया में हवा खर्च नहीं होती। तो फिर बन्द बर्तन में जलाने पर मोमबत्ती बुझ क्यों जाती है?।
फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक जलती हुई वस्तु में से निकलता फ्लॉजिस्टन हवा में ठीक उसी तरह घुलने लगता है जैसे शक्कर पानी में घुलती है। जैसे पानी में शकर की घुलनशीलता निश्चित है, उसी प्रकार से हवा में फ्लॉजिस्टन की घुलनशीलता भी निश्चित है। जब जलती हुई वस्तु में से निकलता फ्लॉजिस्टन हवा को संतृप्त कर देता है, तो और अधिक फ्लॉजिस्टन हवा में नहीं घुल सकता। ऐसी स्थिति आने पर आग बुझ जाती है।
यही स्थिति श्वसन की भी है। श्वसन की क्रिया में जन्तु फ्लॉजिस्टन छोड़ते हैं। जब तक हवा इस फ्लॉजिस्टन को जज़्ब कर सकती है तब तक श्वसन जारी रहता है, उसके बाद टाँय-टाँय-फिस्स। इसीलिए बन्द बर्तन में रखे गए जन्तु मर जाते हैं क्योंकि जल्दी ही उनकी साँस के साथ निकला फ्लॉजिस्टन हवा को संतृप्त कर देता है।
फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के पक्ष में ‘प्रायोगिक प्रमाण’ काफी सारे थे। जैसे आपने भी देखा होगा कि मोमबत्ती या कोयला या लकड़ी जले, तो जलते-जलते ‘खत्म’ हो जाती है। तो ‘स्पष्ट’ था कि जलती हुई वस्तुओं में से फ्लॉजिस्टन निकल जाता है और बचे हुए पदार्थ का वज़न मूल पदार्थ से कम होता है। जो वस्तु जितने अच्छे से जलती है, उसमें फ्लॉजिस्टन की मात्रा उतनी अधिक होगी। क्या आपको इस व्याख्या में कोई दिक्कत नज़र आती है?
कोयला (राख + फ्लॉजिस्टन) + गर्मी = राख + फ्लॉजिस्टन
जब धातुओं पर जंग लगता है तो भी यही माना जाता था कि उसमें से फ्लॉजिस्टन निकल जाता है। इसीलिए धीरे-धीरे धातु ‘खत्म’ हो जाती है।
और तो और, जब धातु के अयस्क से धातु बनाना हो, तो उसमें फ्लॉजिस्टन जोड़ना पड़ता है। इसीलिए अयस्क को किसी ऐसे पदार्थ (जैसे कोयला) के साथ गर्म किया जाता है जिसमें फ्लॉजिस्टन पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो। इस प्रक्रिया में कोयले का फ्लॉजिस्टन अयस्क में जुड़ जाता है और हमें धातु प्राप्त होती है।
कोयला (राख अ फ्लॉजिस्टन) + धात्विक भस्म (तत्व)= राख +धातु (धात्विक भस्म + फ्लॉजिस्टन)
गौर करने की बात यह है कि फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक धातु के अयस्क तो ‘तत्व’ हैं जबकि स्वयं धातु ‘मिश्रण’ हैं। इसके पीछे शायद यह मान्यता रही होगी कि ‘अग्नि’ को एक शुद्धिकारक तत्व माना जाता था। लिहाज़ा, धातु को गर्म करने पर जो भस्म मिल रही है वह शुद्ध होनी चाहिए। आज भी हम कहते हैं कि आग में तपकर ही सोना खरा होता है। मतलब आग का शुद्धिकारक गुण आज तक हमारे मन पर हावी है।
मगर फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के पक्ष में ‘प्रायोगिक प्रमाण’ वास्तव में सामान्य गुणात्मक अवलोकन ही थे। एक बार जब मात्रात्मक अवलोकनों की परम्परा शु डिग्री हुई, तो फ्लॉजिस्टन की नैया डगमगाने लगी। इन्हीं मात्रात्मक अवलोकनों का परिणाम था ऑक्सीजन की खोज और रसायन शास्त्र का आधुनिक संस्करण।
फ्लॉजिस्टन की डगमगाती नैया
विज्ञान में मात्रात्मक अवलोकनों का इतिहास ज़्यादा पुराना नहीं है। मगर एक बार जब प्रयोगों में नाप-तौल शु डिग्री हुई तो इसने यथार्थ का सर्वथा नया रूप पेश करना शु डिग्री कर दिया। जैसे दहन, श्वसन और जंग लगने की घटना को ही लें।
सबसे पहले जंग लगने की बात करें। फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक धातुओं पर जंग तब लगता है जब उसमें से फ्लॉजिस्टन निकल जाता है। मगर नाप-तौल करने पर पता चला कि वास्तव में जंग लगने पर धातु का वज़न बढ़ जाता है। आपको याद ही होगा कि मेयोव अपने प्रयोगों में देख चुके थे कि यदि एंटीमनी को एक बन्द बर्तन में रखकर बिल्लोरी काँच की मदद से जलाया जाए तो उसका वज़न बढ़ता है।
यहाँ पर विज्ञान का एक प्रमुख मोड़ सामने आता है। फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त ने दहन, श्वसन व जंग लगने की एक सुसंगत व्याख्या प्रस्तुत की थी - कम-से-कम उस समय उपलब्ध साक्ष्यों के सन्दर्भ में। जब नए साक्ष्य सामने आए, यानी जब पता चला कि जंग लगने पर धातु का वज़न बढ़ जाता है तो लाज़मी था कि फ्लॉजिस्टन पर सवाल खड़े होते। मगर फ्लॉजिस्टन के हिमायतियों ने इसका तोड़ निकाला। उन्होंने फ्लॉजिस्टन के बारे में कहना शु डिग्री किया कि दरअसल उसका वज़न ऋणात्मक होता है। इसीलिए जब फ्लॉजिस्टन निकल जाता है तो धातु का वज़न बढ़ जाता है!
मगर उनके सामने दूसरा तथ्य यह था कि मोमबत्ती जलते-जलते खत्म हो जाती है। यानी उसका वज़न कम हो जाता है। तो उन्होंने कहा कि कुछ पदार्थों में फ्लॉजिस्टन का वज़न धनात्मक होता है, जबकि कुछ में ऋणात्मक होता है।
इसी प्रकार से लुई-बर्नार्ड गायटन डी मोर्वो (1737-1816) ने कई धातुओं पर परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि हवा में गर्म करने पर धातुओं का वज़न बढ़ जाता है। यह बात मेयोव एंटीमनी के साथ अपने प्रयोगों में देख चुके थे। इन प्रयोगों से स्पष्ट था कि हवा में गर्म करने पर कोई चीज़ आकर धातु से जुड़ रही है, तभी तो वज़न बढ़ेगा। मगर...।
मगर उस समय फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त का दबदबा था और गायटन भी इसके कायल थे। फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त कहता था कि जब धातु जलती है तो उसमें से फ्लॉजिस्टन निकल जाता है। लिहाज़ा, धातु के जलने पर उसका वज़न कम होना चाहिए, और प्रयोग में वज़न बढ़ रहा है। एक जाने-माने सिद्धान्त को छोड़ना आसान नहीं होता। गायटन ने इस दुविधा का विचित्र व सर्वथा नवाचारी समाधान निकाला।
गायटन ने व्याख्या की कि फ्लॉजिस्टन इतना हल्का-फुल्का होता है कि जिन चीज़ों में यह पाया जाता है, उनमें एक उत्प्लावन (उछाल) पैदा करता है जिसकी वजह से उनका वज़न कम लगता है। जब गर्म करने पर वज़न बढ़ गया तो उछाल बल के अभाव में बढ़ गया, और क्या? (यहाँ भार और घनत्व के बीच गफलत भी नज़र आती है - जैसे साधारण रूप से हम कहते हैं कि हाइड्रोजन भरने से गुब्बारा ‘हल्का’ हो जाता है और ऊपर उठ जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि गुब्बारे में हाइड्रोजन भरेंगे तो उसका वज़न बढ़ेगा। नया वज़न गुब्बारे के वज़न और हाइड्रोजन के वज़न के योग के बराबर होगा। मगर गुब्बारा हवा में तैरता है क्योंकि वह अपने वज़न के बराबर हवा हटा देता है। उसका आपेक्षिक घनत्व हवा से कम है।)
बस यहीं से फ्लॉजिस्टन के बुरे दिन शु डिग्री हो गए। कारण यह है कि यथार्थ का कोई भी मॉडल बनाते हुए आप कुछ अपुष्ट मान्यताओं का उपयोग तो कर सकते हैं मगर उस मान्यता का अर्थ एकरूप व सुसंगत होना चाहिए। यदि फ्लॉजिस्टन को स्वीकार करें, तो उसका वज़न या तो ऋणात्मक होगा या धनात्मक। यह स्वीकार्य नहीं है कि मनमाफिक व्याख्या के लिए कभी तो उसका वज़न ऋणात्मक हो और कभी धनात्मक। ऐसे मॉडल की दिक्कत यह है कि किसी प्रयोग के चाहे जो परिणाम प्राप्त हों, या प्रकृति में चाहे जो अवलोकन हों, उनकी व्याख्या इससे हो जाएगी; यहाँ तक कि परस्पर विपरीत अवलोकनों की व्याख्या इसकी मदद से की जा सकती है। ऐसे सिद्धान्त/मॉडल को वैज्ञानिक मान्यता नहीं दी जा सकती। इसी बात को विज्ञान के दार्शनिक कार्ल पॉपर ने मिथ्याकरण सिद्धान्त का रूप दिया है। वे कहते हैं कि किसी भी नियम को वैज्ञानिक तभी कहा जा सकता है जब उसमें यह गुंजाइश हो कि उसे गलत साबित किया जा सके। ‘चित भी मेरा, पट भी मेरा’ नहीं चलेगा।
तो फ्लॉजिस्टन के दिन लद गए। अब कई वैज्ञानिक दहन की किसी वैकल्पिक व्याख्या की तलाश में थे।
यह तलाश कई राहों से आगे बढ़ी और इसमें जुटे सब व्यक्ति जानते भी नहीं थे कि उनके प्रयोग अन्तत: इस सवाल का जवाब देने में मददगार होंगे। दरअसल, इसमें जुटे कई व्यक्ति तो यह मानने को तैयार तक नहीं थे कि उन्होंने जो कुछ खोजा है वह फ्लॉजिस्टन को उखाड़ फेंकेगा। इनमें से कई वैज्ञानिक तो फ्लॉजिस्टन और फ्लॉजिस्टन रहित वायु की खोज में भिड़े हुए थे।
अगली बार मिलेंगे तो ऑक्सीजन की खोज और फ्लॉजिस्टन की अन्तिम यात्रा की चर्चा करेंगे।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।