कमलेश चन्द्र जोशी                                                                                                                                            [Hindi PDF, 44 kB]

अकसर शिक्षा से जुड़ी कार्यशालाओं व शिक्षक प्रशिक्षणों में एक सत्र आयोजित किया जाता है कि आप अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए किसी प्रिय शिक्षक के बारे में कुछ बातें लिखें। उसके अन्तर्गत यह ढूँढ़ने का प्रयास किया जाता है कि उस शिक्षक की कौन-सी बातें आपको बहुत अच्छी लगती थीं और वे कक्षा में शिक्षण के दौरान कौन-सी पद्धतियाँ अपनाते थे जिनसे आप प्रभावित हुए। ऐसा ही एक अभ्यास, एक कार्यशाला के दौरान हमारे समूह के साथ भी हुआ। इन बिन्दुओं पर सोचते हुए जब मैंने अपने स्कूली दिनों को याद किया तो मुझे मिश्रा जी याद आए। हालाँकि, उनका पूरा नाम कैलाश नाथ मिश्रा था परन्तु कॉलेज में उन्हें सब मिश्रा जी के नाम से ही जानते थे। उनसे मेरा किस तरह का रिश्ता था मैं सही-सही नहीं जानता, न ही शायद वे जानते होंगे।

वे ग्यारहवीं-बारहवीं की कक्षाओं में अँग्रेज़ी पढ़ाते थे। इसके बावजूद उनसे मेरा मन-ही-मन का इकतरफा रिश्ता जूनियर कक्षाओं में ही बन गया था परन्तु यह रिश्ता हमेशा दूर-दूर का ही रहा। दूर का रिश्ता इस तरह से कि मैं बेहद संकोची विद्यार्थी था और उनसे मेरा कोई सीधा मेल-जोल न था। इसके बाद भी उनका पुस्तकें पढ़ना और कई विषयों की अच्छी जानकारी रखना, मुझे हमेशा प्रभावित करते रहे।

मुझे अच्छी तरह याद है वो दिन जब पाँचवीं कक्षा पास कर, मैं प्राइमरी स्कूल से निकल कस्बे के ही इंटरमीडिएट कॉलेज पहुँचा। यह मेरे पुराने स्कूल से काफी बड़ा स्कूल था जहाँ छठी से बारहवीं तक की कक्षाएँ संचालित होती थीं। स्कूल में करीब हज़ार के ऊपर विद्यार्थी थे, एक अच्छा पुस्तकालय और एक बड़ा खेल का मैदान भी। अपनी जूनियर कक्षाओं के दौरान जब भी साप्ताहिक पुस्तकालय के पीरियड में या किसी खाली पीरियड के दौरान पुस्तकालय जाना होता तो वहाँ मिश्रा जी अकसर दिख जाते। वे पुस्तकालय में कोई अखबार, पत्रिका या कोई किताब पढ़ते रहते। चूँकि, वे बड़ी कक्षाओं को पढ़ाते थे, इस वजह से उनको अपेक्षाकृत कम पीरियड लेने होते थे। वे अपने फ्री पीरियड का उपयोग पुस्तकालय में पढ़ते हुए करते थे। मैंने उन्हें अन्य शिक्षकों के साथ खाली बातें या गपशप करते हुए कम ही देखा।

उनको देखकर अकसर एक सवाल मुझे परेशान करता कि पढ़ाई-लिखाई पूरी करके जब वे शिक्षक बन गए हैं तो अब वे किताबें क्यों पढ़ते रहते हैं? जब नौकरी मिल गई है तो अब पढ़ने की ज़रूरत क्या है?
धीरे-धीरे मुझे अपने सीनियर साथियों से पता चला कि इस पुस्तकालय का सबसे अच्छा उपयोग उन्होंने ही किया है। काफी किताबें उन्होंने पढ़ी हैं, वे रात को भी बिना पढ़े सोते नहीं हैं। कुछ साल बाद मिश्रा जी के बेटे ने मुझे बताया कि कई बार लाईट न होने पर वे टॉर्च जलाकर या लालटेन जलाकर भी पढ़ने का आनन्द लेते हैं।

हालाँकि, वे अँग्रेज़ीपढ़ाते थे लेकिन उनको अँग्रेज़ी के साथ ही हिन्दी साहित्य, खेल, संस्कृति, सिनेमा, इतिहास, दर्शन आदि क्षेत्रों की भी अच्छी जानकारी थी, जिसका वे कक्षा में भी कहीं-न-कहीं उपयोग करते थे। यह मैंने उनसे अँग्रेज़ी पढ़ते हुए महसूस किया। उनके इस तरीके से मेरे लिए कक्षा में जहाँ विषयवस्तु की नीरसता टूटती थी वहीं विषय में रुचि और उत्सुकता बढ़ती।
इन बातों को लेकर उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ। बस, मेरे मन में ही चीज़ों को और जानने-समझने का प्रक्रम चलता रहा। हाँ, कभी-कभी जब वे रास्ते में मिल जाते तो नमस्ते ज़रूर कर लिया करता, इसके अलावा उनसे और कोई बात नहीं होती। वे शायद एक मौन प्रेरणा थे मेरे लिए।

उनसे कक्षा में पढ़ने का मौका सीधे ग्यारहवीं व बारहवीं की कक्षाओं में मिला। वे हमें अँग्रेज़ी पढ़ातेे और मैं सबसे पिछली पंक्ति में बैठता। वे कक्षा में कहानी, कविता, निबन्ध आदि जो कुछ पढ़ाते थे उसका सन्दर्भ ज़रूर बताते। उसे अन्य सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों से जोड़कर बताने की कोशिश करते। यहाँ शायद वे कोर्स को पूरा करने की बजाय विषयवस्तु को ज़्यादा गहराई से जोड़ने का प्रयास करते थे। एक और खासियत उनमें यह थी कि जब उन्हें कुछ लिखवाना होता तो वे स्वयं अपने मन से सोचकर लिखवाते। इस वजह से उनके द्वारा साल-दर-साल लिखवाए गए सवालों के जवाब में विविधता होती थी। जबकि अधिकतर शिक्षक प्रश्नोत्तर का काम गाइड से ही करवाते थे। यह बातें विद्यार्थियों को बहुत प्रभावित करतीं। अँग्रेज़ी ग्रामर का अधिकतर कार्य वे अपने स्थानीय परिवेश से जोड़कर करवाते। कक्षा में अँग्रेज़ी से हिन्दी या हिन्दी से अँग्रेज़ी अनुवाद के अभ्यास देते समय वे अखबार के समसामयिक समाचारों व घटनाओं का खूब उपयोग करते।

मुझे आज भी याद आता है कि ग्यारहवीं की एक परीक्षा के दौरान उन्होंने अखबार में छपी वनस्पति घी में चर्बी की मिलावट की खबर का अनुवाद कार्य दिया था जो उस समय अखबारों की सुर्खियों में थी। इसी तरह कस्बे की छोटी-छोटी घटनाओं को वो अनुवाद का हिस्सा बनवाते। उस समय मेरा उन घटनाओं पर उनसे बातचीत करने का बहुत मन करता लेकिन अपने संकोची स्वभाव की वजह से इतनी हिम्मत मैं न जुटा पाता था। फिर भी ये बातें कहीं आगे जाकर सोचने और जानने के लिए प्रेरित ज़रूर करतीं।

एक बार कक्षा में किसी मुद्दे के सम्बन्ध में ‘आक्रोश’ फिल्म का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि इस फिल्म का नायक कुछ नहीं बोलता लेकिन वह बहुत कुछ बोलता है। यह बात हालाँकि, उस समय मेरे पल्ले नहीं पड़ी। कुछ साल बाद जब वह फिल्म मैंने दोबारा देखी तो मुझे उस वाक्य का असली अर्थ समझ आया।
वे स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों व खेल प्रतियोगिताओं में संयोजक का काम भी करते तथा उनमें काफी रुचि लेते। इस तरह उनकी विभिन्न विषयों पर जानकारी और अलग-विधाओं के प्रति लगाव व सक्रियता मुझे काफी प्रभावित करती।

स्कूल की इन घटनाओं को याद करते हुए मुझे अब यह समझ में आता है कि कैसे ये छोटी-छोटी बातें चुपचाप हमारे मन में घर कर जाती हैं और कहीं-न-कहीं मन में एक गहरी जगह बना लेती हैं। आप स्कूली पढ़ाई व पाठ्य पुस्तकों से इतर और बातें सीखने में रुचि लेने लगते हैं जिनकी अहमियत शायद आप पहले समझ नहीं पा रहे थे जबकि वो ज़िन्दगी से व स्कूली पढ़ाई से, एक गहरा रिश्ता रखती हैं। हालाँकि, इन पर कम शिक्षकों द्वारा ही ध्यान दिया जाता है परन्तु ये बातें आपके पूरे जीवन में काम आती हैं।

मिश्रा जी को सेवानिवृत्त हुए लगभग आठ-दस साल हो चुके हैं। सुना है कि वे आज भी किताबें शौक से पढ़ते हैं। यह सुनकर मेरा मन खुशी से झूम उठता है। अब मेरा जी करता है कि हिचकिचाहट छोड़, सारे संकोच दरकिनार करते हुए उनसे किताबों पर ढ़ेर सारी बातचीत करूँ।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत।