सुशील जोशी
यह तो सभी जानते हैं कि हम जो साँस लेते हैं वह फेफड़े में जाती है। फेफड़े इस हवा में से थोड़ी ऑक्सीजन निकाल लेते हैं और कार्बन डाई-ऑक्साइड उसमें छोड़ देते हैं। जब यह हवा बाहर निकलती है तो इसमें ऑक्सीजन की मात्रा थोड़ी कम होती है और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा थोड़ी ज़्यादा होती है। यह भी शायद सबको पता ही होगा कि हवा में से जो ऑक्सीजन फेफड़ों में रह जाती है वह खून में घुल जाती है और पूरे शरीर में पहुँचाई जाती है।
दूसरी क्रिया जिसमें हम बाहर से पदार्थ ग्रहण करते हैं, भोजन ग्रहण करने की है। जब भोजन मुँह में से अन्दर जाता है तो वह एक लम्बी आहार नली में से होता हुआ दूसरे सिरे पर गुदा द्वार से बाहर निकल जाता है। इस आहार नली में भोजन का पाचन होता है। पाचन का मतलब है भोजन में उपस्थित पदार्थों को ऐसे सरल पदार्थों में तोड़ना जिन्हें आहार नली में से खून में पहुँचाया जा सके और शरीर में उनका उपयोग हो सके।
पाचन के माध्यम से भोजन से हमें जो पदार्थ प्राप्त होते हैं उनका उपयोग नाना प्रकार से होता है। जैसे इन्हीं पदार्थों से शरीर बनता है। इन्हीं पदार्थों से शरीर की टूट-फूट की मरम्मत होती है। इन्हीं पदार्थों की मदद से शरीर रोगों से लड़ता है। और इन्हीं पदार्थों से शरीर को कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हाँ, इस तरह से उपयोग से पहले शरीर में इन पदार्थों को तोड़ा जाता है और फिर उन पदार्थों से और नए पदार्थ बनाए जाते हैं।
शरीर को ऊर्जा मिलती कहाँ से है
यहाँ हम भोजन से शरीर को ऊर्जा मिलने के बारे में थोड़ी विस्तार में चर्चा करेंगे। वैसे तो हमारा शरीर तमाम किस्म के कार्बनिक अणुओं का उपयोग करके ऊर्जा प्राप्त कर सकता है मगर सामान्यत: इस काम के लिए ग्लूकोज़ का उपयोग किया जाता है। ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से ऊर्जा प्राप्त होती है। यह बात सभी जानते हैं कि यदि ग्लूकोज़ को जलाएँगे तो उसमें से ऊष्मा और प्रकाश प्राप्त होते हैं। ऊष्मा और प्रकाश दोनों ही ऊर्जा के रूप हैं। तो ग्लूकोज़ जब हवा में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया करता है तो ऊर्जा निकलती है। इस क्रिया को समीकरण में दर्शाएँ तो
C6H12O6 + 6O2 ⇒ 6CO2 + 6H2O
aG = -2880 किलोजूल प्रति मोल C6H12O6
aG ( यानी उर्जा परिवर्तन ) ऋणात्मक होने से पता चलता है कि इस क्रिया में 2880 किलोजूल ऊर्जा निकलती है। गौरतलब बात है कि एक मोल ग्लूकोज़ 180 ग्राम के बराबर होता है। जब हवा में साधारण रूप से यह क्रिया होती है, तो इसे दहन कहते हैं।
अब इस बात पर विचार कीजिए कि ऑक्सीजन को भी खून के माध्यम से ही शरीर के विभिन्न अंगों, ऊतकों तक पहुँचाया जाता है। हम यह भी जानते हैं कि पाचन क्रिया से प्राप्त ग्लूकोज़ भी खून के माध्यम से ही विविध अंगों तक पहुँचाया जाता है। यानी ग्लूकोज़ और ऑक्सीजन खून की नलियों में हमसफर होते हैं। मगर ये वहाँ क्रिया करके कार्बन डाई- ऑक्साइड, पानी और ऊर्जा का निर्माण नहीं करते। यह क्रिया कोशिकाओं में जाकर होती है। कोशिकाओं में होने वाली ऑक्सीकरण की इस क्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं।
दहन और श्वसन इस मायने में एक-सी क्रियाएँ हैं कि दोनों में ही पदार्थ (ग्लूकोज़) का ऑक्सीकरण होता है और कार्बन डाईऑक्साइड, पानी और ऊर्जा प्राप्त होते हैं। चूँकि शुरुआती क्रियाकारी पदार्थ और अंतिम क्रियाफल एक ही है इसलिए दोनों में कुल ऊर्जा की प्राप्ति बराबर ही होगी। मगर इनके बीच समानता बस यहीं समाप्त हो जाती है। जहाँ दहन की क्रिया में अधिकांश ऊर्जा गर्मी और रोशनी के रूप में निकलती है, वहीं श्वसन में जो ऊर्जा पैदा होती है उसे कोशिकाओं में एक अन्य रसायन के रूप में जमा करके रख लिया जाता है और समय आने पर उस रसायन का उपयोग करके ऊर्जा पैदा कर कार्य सम्पन्न किए जाते हैं।
ग्लूकोज़ का ऑक्सीकरण
तो एक नज़र कोशिकीय श्वसन पर डालते हैं। कोशिका में श्वसन की क्रिया कई चरणों में सम्पन्न होती है। मैं यहाँ मनुष्यों की बात कर रहा हूँ। यह बात काफी हद तक अन्य ऐसे प्राणियों पर लागू हो जाएगी जिनकी कोशिकाओं में केंद्रक होता है, माइटोकॉण्ड्रिया होते हैं। हम कह सकते हैं कि यह विवरण मोटे तौर पर यूकेरियोटिक कोशिकाओं के सन्दर्भ में है।
दहन और श्वसन हालाँकि दहन और श्वसन दोनों ही ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण की क्रियाएँ हैं मगर इनमें अन्तर क्रमिकता का है। आम तौर पर किसी पदार्थ में ऑक्सीजन की वृद्धि हो या हाइड्रोजन की कमी हो, तो उसे ऑक्सीकरण कहते हैं। इसके विपरीत क्रिया को अवकरण यानी रिडक्शन कहते हैं। मगर थोड़ा ज़्यादा सामान्य रूप में देखें तो रासायनिक क्रियाओं के दौरान मूलत: इलेक्ट्रॉनों का आदान-प्रदान होता है। तो ऑक्सीकरण व अवकरण को भी इलेक्ट्रॉन के प्रवाह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जब किसी पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की कमी हो रही है, यानी रासायनिक क्रिया के दौरान वह इलेक्ट्रॉन छोड़ रहा है, तो कहा जाता है कि उसका ऑक्सीकरण हो रहा है। दूसरी ओर, यदि किसी पदार्थ ने इलेक्ट्रॉन ग्रहण किए हैं तो उसका अवकरण हुआ है। दहन और श्वसन में प्रमुख अन्तर यह है कि दहन में पूरा इलेक्ट्रॉन प्रवाह एक चरण में हो जाता है जबकि श्वसन में यही क्रिया कई चरणों में होती है। |
श्वसन के बारे में मैंने ऊपर कहा था कि इस प्रक्रिया में ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से जो ऊर्जा निकलती है उसे एक रासायनिक पदार्थ के रूप में संचित कर लिया जाता है। यह पदार्थ है एडिनोसीन ट्राई फॉस्फेट। इसे संक्षेप में एटीपी कहते हैं। दरअसल एडिनोसिन नामक क्षार एक, दो या तीन फॉस्फेट मूलकों से जुड़ सकता है। ऐसी स्थिति में क्रमश: एडिनोसीन मोनो फॉस्फेट, डाई फॉस्फेट और ट्राई फॉस्फेट बनते हैं। इन्हें संक्षेप में एएमपी, एडीपी और एटीपी कहते हैं। एडिनोसिन के इन फॉस्फेट की विशेषता है कि इनमें जो फॉस्फेट मूलक जुड़ता है, उसे जोड़ने में काफी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। जब यह वापिस टूटकर अलग होता है तो वह ऊर्जा वापस मिल जाती है। श्वसन के दौरान ग्लूकोज़ के क्रमिक ऑक्सीकरण से जो ऊर्जा प्राप्त होती है उसका उपयोग एडीपी से एटीपी बनाने में होता है। अब समय आने पर इस एटीपी को तोड़कर यह ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है और वापस एडीपी बन जाता है। इस एडीपी का उपयोग एक बार फिर एटीपी बनाने में किया जा सकता है। अत: यह एक चक्रीय क्रिया है। तो श्वसन का मकसद कोशिकाओं में एडीपी के अणु में फॉस्फेट मूलक को जोड़कर एटीपी बनाना है। आप देखेंगे कि इस प्रक्रिया में कई सारे जैव-उत्प्रेरक (एंज़ाइम), कई सारे सह-एंज़ाइम और अन्य पदार्थ भूमिका निभाते हैं।
मुख्य बात यह है कि कोई भी रासायनिक बन्धन बने या टूटे, ऊर्जा मान में परिवर्तन होता है। आपको शायद याद होगा कि ग्लूकोज़ का निर्माण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के दौरान हुआ था। उस क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड और पानी को जोड़कर नए बन्धन बनाए गए थे। इन बन्धनों को बनाने में सौर ऊर्जा का उपयोग हुआ था। अब श्वसन क्रिया में इन्हीं बन्धनों को तोड़कर उस ऊर्जा को मुक्त किया जाएगा।
पहला चरण
6 कार्बन से बने ग्लूकोज़ के क्रमिक ऑक्सीकरण का पहला चरण कोशिका द्रव्य में सम्पन्न होता है। इसे ग्लायको- लायसिस कहते हैं। ध्यान रखें कि जब भी किसी क्रिया के साथ लायसिस शब्द जुड़ा हो, तो मान लें कि उसमें कोई चीज़ टूट रही है। इस चरण में ग्लूकोज़ का अणु टूटता है और तीनतीन कार्बन वाले दो अणु बनते हैं। इन्हें पायरुविक एसिड कहते हैं। दरअसल पायरुविक एसिड नहीं बल्कि पायरुवेट अणु बनते हैं। मुख्य बात यह है कि 6-कार्बन अणु को तोड़कर 3-कार्बन वाले दो अणु बने हैं। इस क्रिया में जो ऊर्जा मुक्त होती है उससे एडीपी के चार अणुओं को एटीपी के चार अणुओं में बदल लिया जाता है। मगर दिक्कत यह होती है कि ग्लूकोज़ को पायरुवेट में बदलने से पहले ग्लूकोज़ का ‘श्रृंगार’ करना पड़ता है। ग्लूकोज़ के इस ‘श्रृंगार’ में एटीपी के दो अणु खर्च होते हैं। लिहाज़ा ग्लायकोलायसिस से एटीपी के 2 अणुओं की नेट प्राप्ति होती है।
ग्लूकोज़ + 2NAD+ + 2 pi + 2ADP = 2 पायरुवेट + 2 NADH + 2ATP + 2H+ + 2H2O
आप देख सकते हैं कि उपरोक्त समीकरण में हमारे जाने-पहचाने ग्लूकोज़, फॉस्फेट मूलक (Pi), पायरुवेट, एडीपी, एटीपी और पानी के अलावा कुछ अन्य अणु भी नज़र आ रहे हैं - NAD+, NADH, H+। ज़ाहिर है इस क्रिया के दौरान एनएडी नामक पदार्थ का अवकरण (reduction) होकर एनएडीएच बना है और दो हाइड्रोजन आयन मुक्त हुए हैं। इनकी बात थोड़ी देर में करते हैं।
यह भी ध्यान दीजिए कि अभी तक न तो ऑक्सीजन का उपयोग हुआ है, न कार्बन डाईऑक्साइड पैदा हुई है। यानी अभी मंज़िलें और भी हैं।
दूसरा चरण
कोशिकीय श्वसन के अगले चरण में पहले चरण में बने पायरुवेट का उपयोग किया जाएगा।
पायरुवेट दो अलग-अलग रास्तों पर आगे बढ़ सकता है। यदि ऑक्सीजन अनुपस्थित है तो पहला रास्ता अपनाया जाता है जिसे किण्वन यानी फर्मेंटेशन कहते हैं। इसे अनॉक्सी श्वसन भी कहते हैं। यदि ऑक्सीजन उपस्थित है तो दूसरा मार्ग अपनाया जाता है जिसे क्रेब चक्र कहते हैं।
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में फर्मेंटेशन की क्रिया अपनाई जाती है। इस क्रिया में पायरुवेट को बदलकर लैक्टिक एसिड बनता है। जिस स्थान पर ऑक्सीजन की अनुपस्थिति के चलते श्वसन के दौरान लैक्टिक एसिड बनता है, वहाँ इसके जमा होने के कारण दर्द होता है। आमतौर पर यह स्थिति मांसपेशियों में आती है, जब उन्हें फुर्ती से काम करना होता है, जबकि ऑक्सीजन की इतनी तेज़ी से सप्लाई नहीं की जा सकती। बाद में धीरे-धीरे, ऑक्सीजन उपलब्ध हो जाने पर लैक्टिक एसिड का उपयोग होता है। जब लैक्टिक एसिड पूरा खर्च हो जाता है, तब दर्द भी जाता रहता है।
यदि ऑक्सीजन उपस्थित है तो पायरुवेट को अगले चरण के दूसरे रास्ते के लिए तैयार करने का काम होता है। इसलिए इस चरण को लिंक क्रिया भी कहते हैं। इसमें पायरुवेट के अणुओं को थोड़ा परिवर्तित करके एसिटाइल सह-एंज़ाइम ए (acetyl-CoA) का रूप दिया जाता है। इस रूप परिवर्तन के दौरान पायरुवेट टूटता है और 2-कार्बन वाले पदार्थ में बदल जाता है। इस क्रिया में कोई एटीपी नहीं बनता मगर पायरुवेट के प्रति अणु के विघटन से एक अणु NADH (NAD+ अवकरण से) और कार्बन डाई-ऑक्साइड का अणु बनता है। अभी भी ऑक्सीजन का उपयोग नहीं हुआ है और जितनी कार्बन डाई- ऑक्साइड निकलना थी वह भी पूरी नहीं निकली है (प्रति ग्लूकोज़ अणु 6 अणु कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है। अभी दो अणु निकले हैं)।
acetyl-CoA अब अगली क्रिया में प्रवेश करता है। यह क्रिया कोशिका द्रव्य में नहीं बल्कि माइटोकॉण्ड्रिया में होती है। इस क्रिया में एक-के-बादएक 8 अलग-अलग पदार्थ बनते हैं। सभी 3-कार्बन वाले पदार्थ हैं। उनके नाम में न जाएँ।
कुल मिलाकर क्रेब चक्र का परिणाम यह होता है:
- acetyl-CoA का ऑक्सीकरण होता है - acetyl-CoA के 2 अणुओं से कार्बन डाईऑक्साइड के 4 अणु बनते हैं। यानी जितनी कुल कार्बन डाईऑक्साइड निकलना थी, निकल चुकी है (मगर ऑक्सीजन का उपयोग नहीं हुआ है)।
- एटीपी के दो अणु और बन जाते हैं।
- NAD+ के 6 अणुओं का अवकरण होकर 6 अणु NADH के बनते हैं।
- साथ ही, FAD नामक पदार्थ के 2 अणुओं के अवकरण से FADH2 के 2 अणु बनते हैं।
क्रेब चक्र को साइट्रिक एसिड चक्र भी कहते हैं। आगे बढ़ने से पहले देख लें कि ग्लूकोज़ से शुरू करके ग्लायको-लायसिस, acetyl-CoA के निर्माण और क्रेब चक्र के पूरा होने तक क्या कुछ हासिल हुआ है।
अब तक जो कुछ हुआ है उसका परिणाम संक्षेप में निम्नानुसार है:
- ग्लूकोज़ का 1 अणु टूटा।
- कार्बन डाईऑक्साइड के 6 अणु बने ( 2 पायरूवेट से acetyl-CoA बनने के दौरान और 4 क्रेब चक्र के दौरान)।
- एटीपी के 6 अणु बने (4 ग्लायकोलायसिस के दौरान, 2 क्रेब चक्र के दौरान), एटीपी के 2 अणु खर्च हुए (ग्लायकोलायसिस के लिए ग्लूकोज़ का ‘श्रृंगार’ करने में) अर्थात एटीपी के 4 अणुओं की नेट प्राप्ति हुई।
- 10 NAD+ अणु के अवकरण से 10 NADH अणु प्राप्त हुए (2 ग्लायकोलायसिस के दौरान, 2 पायरुवेट से acetyl-CoA के निर्माण के दौरान और 6 क्रेब चक्र से)।
- 2 FAD अणुओं के अवकरण से 2 अणु FADH2 प्राप्त हुए।
- ऑक्सीजन का उपयोग नहीं हुआ है। और न ही पानी बना है।
आगे बढ़ने से पहले हमें दो बातों पर विचार करना होगा। जैसा कि मैंने पहले ही कहा था, NAD+ और NADH पर मैं बाद में कुछ कहूँगा। उसका वक्त अब आ गया है। साथ में FAD और FADH2 को भी लेना होगा। दूसरा हमें थोड़ी बात माइटोकॉण्ड्रिया की रचना पर भी करनी होगी, जो क्रेब चक्र और आगे की क्रिया का स्थल है।
इलेक्ट्रॉन का आदान-प्रदान
NAD+ और FAD ये दो ऐसे अण़ु हैं जो इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर सकते हैं। जब ये इलेक्ट्रॉन ग्रहण करते हैं तो हम कहते हैं कि इनका अवकरण हो गया है। इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने के साथ ये हाइड्रोजन आयन भी ग्रहण करते हैं। उक्त इलेक्ट्रॉन ऊपर वर्णित क्रियाओं में मुक्तहोते हैं। पहले ये इलेक्ट्रॉन ग्लायकोलायसिस के दौरान तब मुक्त होते हैं जब ग्लूकोज़ को तोड़कर तीन-तीन कार्बन वाले अणु बनते हैं। दरअसल, इस क्रिया में ग्लूकोज़ का कुछ हद तक ऑक्सीकरण हुआ है। इस ऑक्सीकरण के दौरान मुक्त हुए इलेक्ट्रॉनों और साथ में एक H+ आयन को NAD+ ने ग्रहण कर लिया है और NADH में तबदील हो गया है। इसी प्रकार से FAD भी इलेक्ट्रॉन व दो H+ आयन ग्रहण करके FADH2 में बदल गया है।
वास्तव में ऑक्सीकरण-अवकरण क्रिया को हम इलेक्ट्रॉन के आवागमन के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। जो पदार्थ इलेक्ट्रॉन देता है उसका ऑक्सीकरण हुआ है और जो पदार्थ इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है उसका अवकरण हुआ है। इलेक्ट्रॉन का यह लेन-देन रासायनिक बंधनों के टूटने की वजह से होता है। ये इलेक्ट्रॉन विभिन्न स्तर तक ऊर्जायुक्त होते हैं। यह ऊर्जा नए बंधनों में कैद हो जाती है।
बहरहाल, ये जो NAD+ और FAD ने इलेक्ट्रॉन ग्रहण किए हैं, उनकी वजह से ये उच्च ऊर्जायुक्त अणु बन चुके हैं। ये जब इन इलेक्ट्रॉन्स को छोड़ेंगे तो वह ऊर्जा उन इलेक्ट्रॉन्स के साथ जाएगी (जैसे आई थी)। NADH और FADH2 द्वारा इलेक्ट्रॉन को मुक्त किया जाना श्वसन का सबसे महत्वपूर्ण चरण है और इसी के दौरान सबसे ज़्यादा मात्रा में एटीपी अणु बनते हैं यानी कोशिका को सबसे ज़्यादा ऊर्जा मिलती है जिसका उपयोग कामकाज के लिए किया जा सकता है। इन अणुओं से इलेक्ट्रॉन मुक्त करवाकर, उसके दौरान मुक्तऊर्जा का उपयोग एटीपी बनाने में करना माइटोकॉण्ड्रिया की संरचना से जुड़ा है। अब उसी पर संक्षेप में विचार करते हैं।
माइटोकॉण्ड्रिया की दोहरी झिल्ली
माइटोकॉण्ड्रिया दोहरी झिल्ली से घिरा एक कोशिकांग होता है। दोनों झिल्लियों के बीच जगह होती है। अन्दर वाली झिल्ली अन्दर की ओर झालर की तरह मुड़ी होती है। यदि माइटोकॉण्ड्रिया को काटकर इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी में देखेंगे तो चित्र के समान रचना दिखेगी। यह चित्र एक रेखाचित्र है जो इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से प्राप्त सूचना के आधार पर बनाया गया है।
श्वसन क्रिया में इन झिल्लियों और उनके बीच की जगह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अन्दरूनी झिल्ली में तरहतरह के अणु धँसे होते हैं। अगले चित्र में इन झिल्लियों (खासकर अन्दरूनी झिल्ली) की आणविक रचना दर्शाई गई है। अन्दरूनी झिल्ली में धँसे अणुओं में एक पूरी व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था एक खास काम को अंजाम देती है। हमने ऊपर देखा था कि NADH और FADH2 अणुओं में इलेक्ट्रॉन कैद हैं। यदि इन इलेक्ट्रॉन को मुक्त किया जाए तो काफी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। अन्दरूनी झिल्ली में धँसे अणु NADH और FADH2 से इलेक्ट्रॉन ग्रहण करते हैं। ऐसे अणुओं की एक पूरी शृंखला होती है। शृंखला का पहला अणु NADH या FADH2 से इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है और थोड़ी ऊर्जा मुक्तहोती है। यह पहला अणु अपना इलेक्ट्रॉन अगले अणु को दे देता है और इस बार भी थोड़ी ऊर्जा मुक्तहोती है। इस प्रकार से अणुओं की पूरी शृंखला में इलेक्ट्रॉन को क्रमश: छोड़ा और ग्रहण किया जाता है और हर कदम पर थोड़ी ऊर्जा मुक्तहोती है। ये विभिन्न अणु प्रोटीन्स हैं और ऐसे 8 संकुल माइटोकॉण्ड्रिया की अन्दरूनी झिल्ली में क्रमश: इलेक्ट्रॉन को ग्रहण करके ऊर्जा मुक्तकरते हैं। हम आगे देखेंगे कि यह ऊर्जा कैसे मुक्त की जाती है और इसका क्या उपयोग किया जाता है।
इस पूरी व्यवस्था को इलेक्ट्रॉन ढुलाई (परिवहन) तंत्र कहते हैं। इसमें ऑक्सीजन आखरी इलेक्ट्रॉन-ग्राही का काम करती है। ऑक्सीजन का अवकरण होता है और पानी बनता है। ध्यान दें कि ऑक्सीजन का उपयोग जाकर अन्तिम बिन्दु पर होता है।
अब ये इलेक्ट्रॉन तो एक से दूसरे इलेक्ट्रॉन ग्राही के पास पहुँचते गए और हर कदम पर ऊर्जा मुक्त होती गई। इस ऊर्जा का उपयोग करने के लिए एक और तंत्र माइटोकॉण्ड्रिया की अन्दरूनी झिल्ली में पाया जाता है। यह होता है प्रोटॉन पम्प का तंत्र। प्रोटॉन यानी धनावेशित हाइड्रोजन परमाणु। जो ऊर्जा इलेक्ट्रॉन परिवहन तंत्र द्वारा टुकड़ों-टुकड़ों में मुक्तहुई है, उसका उपयोग इन प्रोटॉन पम्प को चलाने में किया जाता है। प्रोटॉन पम्प और कुछ नहीं, एक व्यवस्था है जिसकी मदद से प्रोटॉन को माइटोकॉण्ड्रिया की मेट्रिक्स में से दोनों झिल्लियों के बीच की जगह में पहुँचा दिया जाता है।
जब प्रोटॉन मेट्रिक्स में से निकलनिकलकर झिल्लियों के बीच की जगह में पहुँचते हैं, तो झिल्ली के अन्दर और बाहर प्रोटॉन सान्द्रता में अन्तर पैदा हो जाता है। इस अन्तर की वजह से एक विभव पैदा होता है और प्रोटॉन अन्दर आने की कोशिश करते हैं। झिल्ली में इनको अन्दर आने के लिए एक ही मार्ग होता है। इस मार्ग को एटीपी संश्लेषी संकुल कहते हैं। जब प्रोटॉन इस मार्ग में से गुज़रते हैं तो एटीपी का संश्लेषण होता है।
कुल मिलाकर इलेक्ट्रॉन परिवहन तंत्र का नतीजा यह निकलता है कि जो प्रोटॉन बाहर निकाले गए थे वे एटीपी संश्लेषण मार्ग में से वापिस मेट्रिक्स में लौटते हैं और एटीपी अणुओं
का निर्माण करवाते हैं। एक ग्लूकोज़ अणु से हमें कुल मिलाकर 10 NADH तथा 2 FADH2 अणु प्राप्त हुए थे। प्रत्येक NADH अणु के वापिस NAD+ में परिवर्तित होने से मुक्त हुए इलेक्ट्रॉन 3 एटीपी अणुओं का निर्माण करते हैं, जबकि FADH2 के प्रत्येक अणु से मुक्त इलेक्ट्रॉन 2 एटीपी अणुओं के निर्माण में सहायक होते हैं। इस प्रकार से इलेक्ट्रॉन परिवहन तंत्र में ग्लूकोज़ के प्रत्येक अणु से एटीपी के 34 अणु प्राप्त होते हैं।
ग्लायकोलायसिस और क्रेब चक्र से 4 एटीपी मिल ही चुके थे। अर्थात कोशिकीय श्वसन की पूरी प्रक्रिया से एटीपी के 38 अणु प्राप्त होते हैं।
एक बार फिर दहन और श्वसन पर लौटें। जैसा कि पहले ही कहा गया था, यदि ग्लूकोज़ का ऑक्सीकरण जलाकर किया जाए या श्वसन क्रिया में किया जाए, ऊर्जा तो बराबर ही मिलेगी। अब हम कह सकते हैं कि दोनों प्रक्रियाओं में मुख्य अंतर यह है कि जहां दहन एकमुश्त ऑक्सीकरण की क्रिया है, वहीं श्वसन में यही कार्य चरणबद्ध ढंग से सम्पन्न किया जाता है, जिसकी वजह से ऊर्जा टुकड़ों में मिलती है। इसे एटीपी के रूप में जमा करना संभव होता है। एटीपी पूरे जीवजगत में ऊर्जा की मुद्रा है।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा प्रकाशित रुाोत फीचर सर्विस से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण एवं लेखन में गहरी रुचि।
एटीपी से सम्बन्धित लेख पूर्व में संदर्भ के मूल अंक 19 और 21 में - ‘एटीपी और मांसपेशियों का सिकुड़ना’ तथा ‘एटीपी एक सेतु’ शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं।