लेखक : रिनचिन
अनुवाद: सुशील जोशी
जहाँ सबरी रहती थी वह एक छोटा-सा गाँव था जहाँ पहुँचना मुश्किल है। रोज़ाना तीन छोटी-छोटी पहाड़ियाँ और नाले पार करने पड़ते थे सबरी और उसके दोस्तों को स्कूल पहुँचने के लिए। और अब जब बारिश हो गई है तो पूरा इलाका हरा-भरा हो गया है और पहाड़ी की ढलान पर फिसलन है। सबरी सम्हलकर चल रही है मगर तेज़-तेज़। पीछे आते बच्चों से बहुत आगे। उसे पता है कि जब वे नाले के पास पहुँचेंगे तो शंकर पानी में कूद-कूदकर छींटे उड़ाएगा सबके ऊपर। बाकी लोग अपनी जानें, वह तो भीगना नहीं चाहती। वह उस चीज़ को बचाना चाहती है जो उसके बस्ते में रखी है। वह चीज़ है उसके तीन सबसे बढ़िया चित्र कागज़ पर बने हुए।
सबरी को चित्र बनाने में बहुत मज़ा आता है, वह लिपे हुए फर्श पर हर समय अपने खड़ू से चित्र बनाती रहती है। कभी-कभी वह पेंसिल का इस्तेमाल करती है। कागज़ और सादी पेंसिल भी कितनी मुश्किल से मिलते हैं। इसलिए सबरी को स्लेट पर या ज़मीन पर चित्र बनाकर तसल्ली करना पड़ता है। उसकी बहनें उसे अपनी नोट बुक से फाड़कर लाइन वाले कागज़ दे देती हैं। मगर वे इतने अच्छे नहीं होते। उसे कागज़ चाहिए। साफ कोरे कागज़ जिस पर उसके चित्र अच्छे से उचटते हैं।
एक बार कुछ लोग गाँव आए थे सर्वे करने। जीप में बैठकर स्कूल आए थे वे लोग। परिवार में कितने लोग हैं इसकी लिस्ट बनाई थी, लोगों से पूछा था कि उन्होंने कितने पेड़ काटे हैं, पट्टे के कागज़ के बारे में पूछा था। स्कूल में जो एक कमरा था उसे उन्होंने छेंक लिया था। वापिस जाते समय वे बहुत सारे फटे हुए कागज़, थोड़ी प्लास्टिक की थैलियाँ और कागज़ की एक थप्पी छोड़ गए थे। दूसरे बच्चों ने तो यहाँ-वहाँ पड़ी चीज़ें उठाकर उनके साथ खेलना शु डिग्री कर दिया था। शंकर ने एक प्लास्टिक की थैली की पट्टियाँ काट ली थीं और उनसे रस्सी बनाने में लग गया था। मगन ने एक कागज़ को लपेटकर एक नली बना ली थी और अब कागज़ की छोटी-छोटी गोलियाँ बना रहा था कि दूसरों पर फेंकेगा। सबरी ढँूढ़ रही थी सादे कागज़, कम-से-कम एक तरफ कोरे वाले। दो कागज़ मिले थे उसे। मास्साब जब अन्दर आए थे तब तक कमरे में हवाई जहाज़ इधर-उधर उड़ रहे थे और कागज़ की गोलियों की लड़ाई ज़ोर-शोर से चल रही थी। सबरी को डर था कि जिन कागज़ों से वे खेल रहे हैं वे छिन जाएँगे, कम-से-कम उसके दो अधकोरे कागज़ तो ज़रूर छिन जाएँगे। मगर यह सब देखकर बड़े मास्साब ने कहा था, “देखो बाला, हम तो उनके कचरे से भी कितने खुश हैं।” “उनको जो नहीं चाहिए उसे यहाँ छोड़ जाते हैं और हमारे बच्चे तो ऐसे कर रहे हैं जैसे उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो।” फिर उनका ध्यान सबरी पर गया जो दो आधे कोरे कागज़ हाथ में पकड़े खड़ी थी, डरी हुई और अनिश्चित-सी, जैसे चोरी करते पकड़ी गई हो। मगर फिर उन्होंने ऐसा कुछ किया था कि वह हैरान रह गई थी। उन्होंने मेज़ पर पड़े पूरी तरह कोरे कागज़ उठाकर उसके हाथ में देते हुए कहा था, “लो, ले लो। वे लोग तो कागज़ से हाथ और पुट्ठे पोछेंगे और हमसे कहेंगे कि हम जंगल से लकड़ी चुराते हैं।” हालाँकि, किसी को भी उनकी बात का मतलब समझ नहीं आया था, सबरी को भी नहीं, मगर जब उन्होंने पुट्ठे कहा तो कुछ बच्चे हँसने लगे थे। उस समय बड़े मास्साब उन्हें अपने दोस्त लगे थे जबकि हमेशा तो बच्चे उन्हें अपना दुश्मन ही मानते थे।
अब उसने सारे कागज़ भर डाले, हर पन्ने पर उसकी अपनी दुनिया का एक चित्र था। एक पन्ने पर मोर है, तो किसी पर आईटी और बाबा, घुटने के बल रेंगती चकुली, चूल्हे पर बैठी आईटी, जानवरों को बाहर ले जाते बाबा, छोटी पहाड़ी के पीछे से उगता सूरज। नीम के पेड़ पर चढ़ी बेल का चित्र।
तभी एक और चीज़ हुई थी। पिछले महीने स्कूल निरीक्षण से पहले उसने शिक्षकों के पास रंगों की लम्बी-लम्बी पेंसिलें देखी थीं और बोतल में भरे रंग भी थे। बड़े-बड़े चार्टों पर उन्होंने कक्षा के परिणाम लिखे थे। बच्चों को तो बहुत कुछ करने को नहीं मिला था। शिक्षकों को डर था कि बच्चे सब तोड़-फोड़ डालेंगे। मगर सबरी की उँगलियों को उस लम्बी पेंसिल का स्पर्श याद है... कितनी आसानी से उसमें से रंग निकलकर आता था। एकदम एक-सा और थोड़ा चमकता हुआ। मगर शिक्षकों ने वह सब जल्दी से वापिस ले लिया था। जैसे इमली थोड़ी-सी चटा दो और फिर इतनी जल्दी से हटा लो कि स्वाद का पूरा मज़ा भी न आ पाए, मुँह में बस पानी बनकर उस स्वाद की याद रह जाए। अब उसकी उँगलियाँ एक बार फिर उन रंगीन पेंसिलों को हाथ में पकड़ने को बेताब थीं। उन्हें लेकर कागज़ पर रगड़ने को कुलबुला रही थीं। और वो पनीले रंग जो उसने देखे थे... शिक्षकों ने उनका उपयोग मुख्य चार्ट के लिए किया था। बाला मास्साब ने लताओं पर फूल बनाए थे और फिर पानी में मिलाकर एक ब्रुश से ये रंग उनमें भर दिए थे। रंग भरने पर ये बिलकुल वैसे ही दिखने लगे थे जैसे बारिश के बाद सचमुच के फूल दिखते हैं, जब ऐसा लगता है कि एक सूखी रस्सी पर धीरे-धीरे रंग उगते हैं और लाल-लाल फूलों के गुच्छे खिल जाते हैं। बच्चे ललचाकर शिक्षकों के आसपास झुण्ड बनाकर खड़े हो गए थे। दोनों मास्साब ने ब्रुश लेकर पोस्टर बनाए थे। इन पर उन्होंने उन सब बच्चों के नाम लिखे थे जो फर्स्ट आए थे। सबरी का नाम उस पोस्टर पर नहीं था। वैसे वह अपनी छाप वहाँ छोड़ सकती थी, बस उसे मौका मिल जाता कि बेल और उसके फूलों का चित्र बना सके। वह पेंसिल और रंगों की मदद से अपने घर के बाहर की बेल को कागज़ पर, यहाँ कक्षा में जीवित कर देती। मगर शिक्षकों ने उन्हें छूने तक नहीं दिया था रंगों को। और ना ही पोस्टर को। इतना ही बहुत था कि कक्षा के पोस्टर बनाने के लिए उन्हें पेंसिलें मिल गई थीं। सबरी भी इतना पाकर खुश थी मगर थोड़ा और पाने की चाह को भी रोक नहीं पा रही थी।
अब जब भी वह चित्र बनाती तो उसके आकार को रंगों के साथ देखने लगी। पहले तो उसने अपनी माँ की हल्दी और मिर्ची चुराई रंग भरने के लिए। कुछ दिन तो मज़ा आया था मगर फिर और पाने की भूख पैदा हो गई।
रसोई के, घर पर बने रंग काफी नहीं थे। वह तो हर किसी चीज़ का चित्र बनाती हैै, हरे पेड़, मगर उसके पास उनमें भरने के लिए या नीले आकाश में भरने के लिए रंग नहीं हैं, नीला रंग कैसे बनाए वह। रसोई में ऐसी कोई चीज़ है ही नहीं। इसलिए उसे ख्वाबों में शिक्षकों की आलमारी में रखे रंग दिखते रहतेे हैं। जब तक वो रंग नहीं मिल जाते, उसके चित्रों के पेड़ और आसमान तो रंगों के बिना बेजान ही रहेंगे। उसके आसपास तो रंग ही रंग हैं...उसकी माँ की ओढ़नी में, जामुनी, गुलाबी, हरा, नीला। और गुलाबी, पीला रंग पिताजी के गमछे का जो वे जब भी बाहर जाते हैं सिर पर डालते हैं या गर्दन पर लपेटे रहते हैं। बहन जिन मोतियों की माला बनाती है उनका रंग, मुर्गी के पंखों तक में कई रंग थे।
इतने सारे रंग, इन्हें कागज़ पर कैसे उतारे...अपने चित्रों को कैसे निखारे।
उसे डर है कि रंग भरने से पहले ही घर पर रखे-रखे उसके चित्र बरबाद हो जाएँगे। चकुली, उसकी छोटी बहन ज़रूर अपने गन्दे हाथ उन पर लगा देगी। या शायद आईटी खाना बनाते समय उन पर हल्दी गिरा देगी। वह उन्हें सबकी पहुँच से दूर सुरक्षित रखने की कितनी ही कोशिश करे, मगर कैसे विश्वास हो कि कोई-न-कोई गलती से उन्हें बरबाद नहीं कर देगा। मान लो, जब वे सब बड़े कमरे में एक साथ सोए हों और बकरी या वे बेवकूफ मुर्गियाँ चित्रों को पा लें तो। उन्हें क्या पता इन कागज़ों का और इन चित्रों का मूल्य।
कल शाम घर आते हुए उन्होंने एक मोर को नाचते देखा। आजकल ज़्यादा नहीं दिखता यह दृश्य। सारे बच्चे खड़े हो गए थे देखने को। हरे-हरे पेड़ों और घास के बीच उसने अपनी नीली सुन्दरता फैला दी थी। जगमगाते रत्न जैसा था वह। सबरी उसका चित्र बनाना चाहती थी। वह चाहती थी कि मोर और उसके रंगों को सदा के लिए कागज़ पर उतार ले। “क्यों? रोज़ तो देख सकती हो उसे,” शंकर ने पूछा था, “हाँ, रोज़ तो नहीं मगर कई बार दिखेगा। और वैसे भी जब भी तुम इसे देखना चाहो, अपनी आँखें बन्द करके याद करो...मैं ऐसा ही करता हूँ।”
अचानक उसने आँखें बन्द कर लीं और चिढ़ाने वाली आवाज़ में बोलने लगा...देखो, अब मैं उसे देख सकता हूँं...मोर है....नीला है...सफेद है...तरह-तरह के नीले रंग हैं इसमें...और वह कह रहा है...“मेरा चित्र बनाओ...सबरी मेरा चित्र बनाओ...नहीं तो मैं रहूँगा ही नहीं।” उसने अपनी एक टांग ऊपर उठा ली थी और हाथ फैला लिए थे...वह सुन्दर मोर तो नहीं गन्दा, बेढंगा गिद्ध जैसा दिख रहा था। सबरी ने चिढ़कर अपना पैर पटककर उसे धक्का दे दिया था मगर वह लोटपोट होकर हँसने लगा था, और अपनी झूठ-मूठ की कर्कश आवाज़ में चीखता जा रहा था। सबरी को रुलाई आ गई, वह इस मसखरे को नहीं समझा सकती थी कि उसकी कितनी इच्छा थी चित्र बनाने की और उनमें रंग भरने की। हो सकता है कि यह उसकी खूबी है कि आँख बन्द करके याद कर ले, या हर चीज़ का मज़ाक बना दे। वह अपने चुटकुलों से ही जीवन का अनुभव करता है। सबरी का तरीका चित्र बनाने का है। कभी-कभी उसको लगता था कि अगर वह उन चित्रों को न बनाए तो वह पल उसके लिए पूरी तरह जीवन्त नहीं होगा। और उसको मज़ा आता था चित्र बनाने में।
पर अब ये रंगों का नया भूत, इसका क्या करे?
तो आज वह अपने चित्रों वाले कागज़ स्कूल ले गई। उसने ध्यान से वे तीन चित्र चुने थे जो उसको सबसे ज़्यादा पसन्द थे। किसी भी तरह वह मास्साब को मना लेगी कि वे उसे रंग दे दें। उसे पता था कि बाला मास्साब को उसके चित्र अच्छे लगते हैं। उनसे माँगे तो? वे उसे रंग दे देंगे, चाहे सिर्फ स्कूल में उपयोग के लिए। हर हफ्ते उनका चित्रकारी का आधे घण्टे का पीरियड होता है मगर कोई उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं सिखाता था। बड़े मास्साब तो बस उन्हें जो मर्जी आए बनाने देते थे। हाँ, बाला मास्साब होते तो बात अलग होती थी। वे रुक-रुककर हर बच्चे के काम में झाँकते थे और सलाह देते थे। पिछली बार उन्होंने सबरी को सिखाया था कि चॉक को तिरछा चलकार कई पत्तियों का आभास कैसे पैदा करते हैं। मगर आम तौर पर उनके चित्रकला पीरियड में बड़े मास्साब रहते थे। वे तो इस वक्त का उपयोग रजिस्टर भरने या मध्यान्ह भोजन का हिसाब बनाने के लिए करते थे। कभी-कभार दूसरे फलिए के स्कूल के शिक्षक आ धमकते थे। उन दिनों सरकार के अन्याय की बहुत बातें हो रही थीं, कि कैसे सरकार शिक्षकों का पैसा हजम कर रही है। बाला मास्साब भी इस बातचीत में जुड़ जाते थे और इतने भावुक होकर और ज़ोरदार ढंग से बात करते थे कि विश्वास नहीं होता था ये वही हैं। कुछ स्थायी-अस्थायी की बातें होती थीं, प्रदर्शन और हड़ताल करने की बातें होती थीं। पिछले हफ्ते उनकी बातचीत के चक्कर में आधा घण्टा खूब लम्बा हो गया था। दुख की बात तो यह थी कि मास्साब को स्कूल की याद आ गई और फिर गणित और भाषा पर लौट आए। पाँचवीं से वे अँग्रेज़ी पढ़ाने वाले थे। वह डर रही थी, उसकी बड़ी बहन और बड़ा भाई दोनों आठवीं में अँग्रेज़ी में ही फेल हुए थे। वह भी फेल हो गई तो? सोचकर भी डर लगा था। सिर्फ चित्रकला की परीक्षा क्यों नहीं कर लेते? फिर डर की कोई बात नहीं रहेगी और शायद उसे रंग भी मिल जाएँगे। उसने अपना सिर हिलाया...दिमाग कहाँ-से-कहाँं भागता है...आठवीं में अँग्रेज़ी में पास होने की चिन्ता जबकि अभी वह चौथी में थी और उसकी मुख्य समस्या तो रंग प्राप्त करने की थी।
शंकर फिर उसके पीछे आ गया था, कितनी जल्दी वह पहुँच गया था...और नाला नज़दीक ही था। या तो उसे धीमे चलना चाहिए या तेज़-तेज़ चलना चाहिए...मगर शंकर और मगन उसके आगे तेज़-तेज़ चल रहे थे, वे किसी चीज़ के पीछे भाग रहे थे जो उसे नहीं दिख रही थी, शायद लोमड़ी का बच्चा। या कोई पिल्ला ही होगा। लोमड़ी या पिल्ला जो भी था, छिप गया था और मगन व शंकर झाड़ियों को झँझोड़कर उसे बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे। अब वे पानी में घुस गए थे और चारों ओर पानी उछाल रहे थे। सबरी ने सोचा, “वे चीज़ों को जैसी हैं वैसी रहने क्यों नहीं देते? हमेशा चीज़ों को पकड़ रहे हैं, उलट-पलट रहे हैं। हमेशा और जानने की कोशिश करते रहते हैं। सिर्फ देखकर तसल्ली नहीं होती उन्हें।” चकुली, उसकी बहन भी इन्हीं के जैसी बनेगी और ये...हमेशा मुश्किल में फँसे रहते थे। मगर शंकर के पास सबको हँसाने का हुनर था, वह हर चीज़ का, खुद का भी मज़ाक बना सकता था। एक बार जब कीरता मास्साब कोई परीक्षा पास करके नए मिडिल स्कूल में ज्वॉइन करने जा रहे थे, तो शंकर ने उनके लिए एक छड़ी बनाई थी, पतली और लचकदार, ताज़ी हरी। सबको पता था उससे बहुत तेज़ लगती है। और उसने उसको काट-छाँटकर बहुत आकर्षक पैटर्न बना दिया था। “ये वहाँ के बच्चों के लिए।” सब हँस पड़े थे। यहाँ तक कि कीरता मास्साब भी हँस पड़े थे, हालाँकि वे अपनी पोल खुलने पर थोड़े खिसिया गए थे।
सबरी को उम्मीद थी कि आज वह बाला मास्साब को रंग देने के लिए मना लेगी। उन्होंने कल कहा था कि उन्हें अनुमति लेनी पड़ेगी। उस आलमारी की चाभी बड़े मास्साब के पास रहती है जिसमें स्कूल की थोड़ी-सी अच्छी-अच्छी चीज़ें रखी रहती हैं। तो सबरी के लिए तो वह आलमारी ऐसे जंगल के समान थी जिसमें पूरा खज़ाना था, मगर पहुँच से दूर था। आरक्षित क्षेत्र। एक बार उसने गाँव की बैठक में पिताजी को कहते सुना था...हमें जंगल से बाहर क्यों रखते हो, हम जंगल को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे, हम उसमें से चीज़ें लेते हैं क्योंकि वे हमारे जीवन के लिए ज़रूरी हैं, आप हमें उससे बाहर कैसे रख सकते हैं। सबरी मन में आलमारी और रंगों के बारे में यही सोच रही थी। वे उसे इससे दूर कैसे रख सकते हैं।
स्कूल पहुँचते ही वह बाला मास्साब के पास गई मगर उन्होंने बुरी खबर सुनाई। बड़े मास्साब बाहर गए थे। जिस प्रदर्शन की बात वे हफ्तों से कर रहे थे, वह शुरू हो गया था, ज़िले भर के लगभग सारे शिक्षक वहाँ होंगे। बाला मास्साब बता रहे थे, “कई दिन लग सकते हैं...जब तक सरकार हमारी माँगों को नहीं सुनती। हालात खराब हैं मगर सरकार को सुनना पड़ेगा, हम उन्हें सुनाकर रहेंगे।” आलमारी की चाभी बड़े मास्साब के पास थी। “रंग तो अब उनके आने के बाद ही मिलेंगे।”
सबरी का दिल टूट गया। आधी छुट्टी में जब सब खेल रहे थे, तब वह कोने के पेड़ के पीछे बैठी अपने चित्रों को ताकती रही है। उसकी आँखों में आँसू प्रकाश को कई रंगों में बिखेर देते हैं। आँखों में इन्द्रधनुष लिए वह देर तक अपने चित्रों को निहारती रहती है। सिर झुकाकर वह सोच रही है। क्यों न वह अपने पिता से रंगों के लिए कहे, शायद वे विशेष तोहफे के रूप में कुछ रंग ला दें। या शायद बड़े मास्साब के आने तक इन्तज़ार किया जाए, शायद सरकार उनकी बात सुन ले, जो भी वे कहना चाहते हैं, और शिक्षकों को वापस स्कूल भेज दें। तब तक वह और चित्र बना सकती है। बाला मास्साब उसे कुछ और गुर सिखा देंगे। या शंकर की तरह आँखें बन्द करके कल्पना करे, नहीं उसका काम वैसे नहीं चलेगा। या तो फिर वह रंग बनाने के तरीकों के बारे में सोच सकती है, अपनी बहन के मोतियों, रसोई की मिर्ची और हल्दी, मास्साब के पेन की स्याही का उपयोग कर सकती है और कहीं से हरा रस, कहाँ से? पत्तियाँ पीसकर, मगर वह तो बहुत खुरदरा और उबड़-खाबड़ होगा, शायद कोई तरीका हो... आई! कोई चीज़ उसकी गर्दन पर रेंग रही है। वह झटके से सिर ऊपर करके घुमाकर पीछे देखती है...ये शंकर और मगन उसे मरी हुई मकड़ी से डराने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने उसे एक धागे से बाँध लिया है। ये लड़के...! वह पास से घास और धूल उठाकर उनके मुँह पर फेंकती है...वे भी पलटकर थोड़ी धूल फेंकते हैं और उसका बस्ता उठाकर भागते हैं। उनकी चिल्लाने की आवाज़ें हवा में तैरती आ रही हैं, “पकड़ सबरी रबड़ी”। वह उनके पीछे भागती है। उसके आँसू पीछे छूट जाते हैं।
रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। भोपाल में रहती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
चित्रांकन: श्वेता रैना: शान्ति निकेतन से ग्राफिक्स (प्रिंट मेकिंग) में स्नातकोत्तर। वर्ष 2002 में राष्ट्रीय स्तर के 74वें एआईएफएसीएस (AIFACS) पुरस्कार से सम्मानित। दिल्ली में रहती हैं।