सुशील जोशी

गर्म और ठण्डा, दोनों एहसास हैं और इन एहसासों को लेकर कई सवाल उठते हैं। रोचक बात है कि इनके विज्ञान सम्मत जवाब ऊष्मा संवेदी तंत्रिका कोशिकाओं में छिपे हुए हैं। जैसे एक सवाल तो शीर्षक में ही आ गया है - मिर्च जलन क्यों पैदा करती है? और उससे जुड़ा सवाल है कि पेपरमिंट ठण्डक का एहसास क्यों देता है। इस स्तर की कई सारी अनुभूतियाँ हैं, जैसे कई लोगों ने शायद यह भी महसूस किया होगा कि यदि गर्म पानी में हाथ डालें, तो पहले क्षण ठण्डक की अनुभूति होती है और उसके बाद गर्म लगना शुरू होता है। यह भी आम अनुभव का विषय है कि हाथ को बहुत गर्म पानी में डाल दें, तो गर्म लगने की बजाय दर्द होने लगता है। यह भी आपने अनुभव किया होगा कि बहुत ठण्डी चीज़ को हाथ में पकड़े रहें, तो हाथ सुन्न पड़ जाता है। इसमें एक रोचक अनुभव और जोड़ दूँ - इस बात का पता 1840 के दशक में शरीर क्रिया वैज्ञानिक अन्र्स्ट हाइनरिश वेबर ने लगाया था कि यदि किसी वस्तु को हाथ पर रखा जाए तो उसके वज़न का एहसास तापमान पर निर्भर करता है। यदि वस्तु ठण्डी हो, तो थोड़ी भारी महसूस होती है। इसे ‘सिल्वर थेलर’ भ्रम या ‘वेबर विरोधाभास’ नाम दिया गया है। एक प्रयोग किया जाए तो ठण्डे-गर्म एहसास के बारे में कुछ और रोचक अनुभव होते हैं। एक गिलास में गर्म पानी, एक में गुनगुना पानी और एक में ठण्डा पानी भर लीजिए। अब अपने एक हाथ की उंगलियाँ गर्म में और दूसरे हाथ की उंगलियाँ थोड़ी देर ठण्डे पानी में डालकर रखिए। अब दोनों हाथों की उंगलियों को एक साथ गुनगुने पानी में डाल दीजिए। ज़रा बताइए उस गिलास का पानी ठण्डा है या गर्म?

ये सब सवाल तो हैं ही, मेरे मन में एक और सवाल था, जिसकी वजह से मैंने ऊष्मा की अनुभूति के बारे में पढ़ना शुरू किया। एक समय था जब ऊष्मा के बारे में अवलोकन तो खूब थे मगर यह समझने के लिए कोई सैद्धान्तिक ढाँचा नहीं था कि गर्म चीज़ क्या होती है। अलग-अलग सिद्धान्त सोचे-विचारे जा रहे थे। तब एक बात यह भी सोची गई थी कि गर्मी और ठण्ड, दो अलग-अलग पदार्थ होते हैं। इनमें से गर्मी को कैलोरिक नाम दिया गया था जबकि कुछ लोगों ने कहा कि ठण्ड से सम्बन्धित भी एक पदार्थ होता है और इसे नाम दिया फ्रिगोरिक। वैसे फ्रिगोरिक की बात ज़्यादा नहीं चली थी। यह कहा गया कि जिस चीज़ में कैलोरिक का घनत्व ज़्यादा होगा वह ज़्यादा गर्म होगी। अलबत्ता, धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि गर्मी और ठण्ड अलग-अलग पदार्थ होना तो दूर, दो अलग-अलग अवधारणाएँ भी नहीं हैं। ये तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दर्शाते हैं कि किसी पदार्थ का तापमान किसी अन्य वस्तु की तुलना में कितना है।

इतनी लम्बी बात कहने का मकसद सिर्फ इतना है कि आज भौतिकी में माना जाता है कि किसी वस्तु का तापमान उसके कणों की औसत गतिज ऊर्जा का द्योतक है। कणों की औसत गतिज ऊर्जा जितनी ज़्यादा होगी, वस्तु का तापमान उतना ही अधिक होगा। मतलब ठण्डा या गर्म होने में कोई गुणात्मक फर्क नहीं है, सिर्फ औसत गतिज ऊर्जा की मात्रा में अन्तर भर है।

दूसरी ओर, मैंने जीव विज्ञान में पढ़ा था कि हमारे शरीर में गर्म की संवेदना अलग होती है और ठण्डे की संवेदना अलग होती है। यह कहा जाता है कि गर्म संवेदना के ग्राही और ठण्ड संवेदना के ग्राही अलग-अलग होते हैं। अब ऐसा कैसे हो सकता है कि विज्ञान की एक शाखा तो कहे कि गर्म और ठण्डा एक ही चीज़ के कम-ज़्यादा होने का माप है, वहीं दूसरी शाखा कहे कि इन दो चीज़ों को नापने (संवेदना प्राप्त करने) के लिए हम दो अलग-अलग तराज़ुओं का उपयोग करते हैं। गर्म-ठण्डे के ग्राहियों का मिला-जुला नाम ताप संवेदना-ग्राही है।

मैं समझता हूँ मेरी दिक्कत आप समझ गए होंगे। यह मानकर मैं आगे बढ़ता हूँ।

ऊपर बताए गए सभी सवालों के जवाब पाने के लिए हमें पहले यह देखना होगा कि ताप संवेदना ग्राहियों के गुणधर्म क्या हैं और वे क्या-कुछ पता कर सकते हैं। इनकी संरचना में जाने की ज़रूरत शायद न पड़े, और अगर पड़ी तो देखा जाएगा।
सबसे पहली बात तो यह है कि हम इन्हें गर्म और ठण्डे ग्राही कहेंगे। ये ग्राही त्वचा पर और शरीर के अन्दर भी पाए जाते हैं। यहाँ हम मूलत: त्वचा के ग्राहियों की बात करेंगे। यह देखा गया है कि गर्म और ठण्डे ग्राही त्वचा पर इस तरह पाए जाते हैं कि इन्हें बिन्दुओं के रूप में पहचाना जा सकता है। यानी आप ठीक किसी बिन्दु पर गर्म या ठण्डी संवेदना देकर उसके प्रभाव का आकलन कर सकते हैं।

संख्या की दृष्टि से देखा जाए, तो त्वचा पर गर्म की अपेक्षा ठण्डे ग्राहियों की संख्या बहुत अधिक (करीब चार गुना ज़्यादा) होती है। दूसरी ओर, जहाँ गर्म ग्राही पूरे शरीर पर एकसार ढंग से फैले होते हैं, वहीं ठण्ड के ग्राही कुछ स्थानों पर ज़्यादा संख्या में पाए जाते हैं। ठण्डे ग्राहियों का घनत्व (यानी प्रति इकाई क्षेत्रफल में ग्राहियों की संख्या) कान, नाक, आँखों, उँगलियों, होठों वगैरह पर ज़्यादा होता है। कहते हैं इसी वजह से कान, नाक पर ठण्ड ज़्यादा लगती है।

अब देखते हैं कि ये दो अलग-अलग ग्राही कैसे हमें ठण्ड और गर्मी का एहसास कराते हैं। तमाम प्रयोगों से पता चला है कि ठण्ड और गर्मी ग्राही तापमान स्थिर रहने पर लगातार एक स्थिर गति से दिमाग को संकेत भेजते रहते हैं। इसे स्थिर प्रतिक्रिया कहते हैं।

यदि त्वचा का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या उससे ऊपर है तो ठण्ड ग्राही निष्क्रिय होते हैं। मगर यदि त्वचा का तापमान कम होने लगे तो ये सक्रिय हो उठते हैं। सक्रिय होने का मतलब होता है कि ये प्रति इकाई समय में पहले से ज़्यादा संकेत भेजने लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इनके संकेत भेजने की आवृत्ति बढ़ जाती है। इनकी सर्वाधिक संकेत आवृत्ति 35-18 डिग्री सेल्सियस के बीच होती है। ये दो तरह से उत्तेजित होते हैं। एक तो किसी तापमान विशेष पर इनकी एक स्थिर प्रतिक्रिया आवृत्ति होती है। दूसरा, ये तापमान में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते हैं। यदि तापमान घट रहा है, तो इनकी संकेत आवृत्ति बढ़ने लगती है। चित्र में साफ दिखता है कि तापमान 35 डिग्री से नीचे जाना शु डिग्री हुआ नहीं और इनकी संकेत आवृत्ति तेज़ी से बढ़ने लगती है। करीब 27 डिग्री सेल्सियस पर इनकी संकेत आवृत्ति सबसे ज़्यादा होती है। तापमान इससे कम होने पर इनकी संकेत आवृत्ति कम होने लगती है। करीब 18 डिग्री तक पहुँचते-पहुँचते ये संकेत भेजना बन्द कर देते हैं (संकेत आवृत्ति शून्य)।

अब गर्म ग्राहियों को देखें। गर्म ग्राही तब सक्रिय होते हैं जब शरीर का तापमान 30 डिग्री होता है। इसके बाद तापमान बढ़ने के साथ इनकी संकेत आवृत्ति बढ़ती जाती है। करीब 46 डिग्री सेल्सियस पर इनकी आवृत्ति सर्वाधिक होती है। इससे ज़्यादा तापमान होने पर ये संकेत भेजना बन्द कर देते हैं, मगर तब दर्द संवेदना ग्राही संकेत भेजने लगते हैं, और यही कारण है कि इससे ज़्यादा तापमान पर हमें गर्मी की बजाय दर्द की अनुभूति होने लगती है।

यहाँ एक बात पर ध्यान देना ज़रूरी है। तरह-तरह के प्रयोगों से वैज्ञानिकों ने यह पता किया है कि बात चाहे ठण्ड की हो या अन्य किसी संवेदना की, हरेक संवेदना के लिए एक से अधिक प्रकार के ग्राही पाए जाते हैं। इसके अलावा कुछ ग्राही ऐसे भी हैं जो सिर्फ तापमान परिवर्तन से ही नहीं, अन्य उद्दीपनों से भी उत्तेजित हो जाते हैं। इनमें स्पर्श, दर्द, स्वाद वगैरह से सम्बन्धित ग्राही शामिल हैं।

उपरोक्त विवरण से एक बात तो साफ नज़र आती है कि तापमान की एक ऐसी रेंज है जहाँ ठण्डे व गर्म, दोनों ग्राही सक्रिय होते हैं - दोनों ग्राहियों की सक्रियता की कॉमन रेंज करीब 30-35 डिग्री सेल्सियस के बीच है। इस रेंज में दोनों तरह के ग्राही संकेत भेजते रहते हैं। कहते हैं कि इन दोनों तरह के ग्राहियों के द्वारा भेजे गए संकेतों की मिली-जुली व्याख्या से ही मस्तिष्क तय करता है कि हम आराम से हैं या नहीं।

इससे एक बात और भी देखी जा सकती है - एक तो 18-45 डिग्री के बीच आपकी त्वचा का जो भी तापमान हो, ये तापग्राही एक स्थिर गति से संकेत भेजते हैं। जैसे ही तापमान में परिवर्तन होता है, इनकी संकेत देने की आवृत्ति बदलती है। यह बदलाव एक तो इस बात पर निर्भर करता है कि शुरुआती तापमान कितना है और दूसरा कि बदलाव की दर क्या है। जैसे ऐसा मानना है कि हम त्वचा के तापमान में 0.15 डिग्री की कमी को भाँप लेते हैं जबकि तापमान में वृद्धि को भाँपने के मामले में हम थोड़े कमज़ोर हैं - करीब 1 डिग्री का अन्तर ही भाँप पाते हैं।

अब ऊष्मा ग्राहियों के एक और गुणधर्म पर गौर किया जाए। मनुष्यों के सन्दर्भ में यह बात खास महत्व रखती है। मनुष्यों के सन्दर्भ में किसी भी संवेदना ग्राही का वर्गीकरण दो तरह से किया जा सकता है। एक तो इस आधार पर कि वह हमें चेतन रूप से कौन-सी अनुभूति देता है। और दूसरा यह कि जैव-रासायनिक दृष्टि से वह किस संवेदना का ग्राही है। इस बात को पेपरमिंट यानी मेंथॉल और मिर्च में पाए जाने वाले पदार्थ केप्सेसिन की मदद से समझते हैं।

जब शरीर पर पेपरमिंट (मेंथॉल) लगाया जाता है तो वह उन्हीं ग्राहियों को उत्तेजित करता है जो हमें ठण्ड की अनुभूति प्रदान करते हैं। यदि अनुभूति के स्तर पर देखें तो यह ग्राही एक ऊष्मा-ग्राही है मगर जैव-रासायनिक दृष्टि से देखें तो यह एक रसायन संवेदना ग्राही है। होता यह है कि मेंथॉल हमारे ‘ठण्ड ग्राही’ से जुड़ जाता है और हमारा मस्तिष्क वहाँ से आने वाले संकेतों को ठण्ड का संकेत समझता है। इसी प्रकार से केप्सेसिन के साथ भी होता है। केप्सेसिन हमारे ‘गर्मी-ग्राहियों’ से जुड़ता है। तब हमें गर्मी का एहसास होता है। मेंथॉल की शीतलता-क्रिया को लेकर सोचा यह जाता है कि यह ठण्ड-ग्राहियों की सक्रियता के तापमान को थोड़ा बढ़ा देता है। लिहाज़ा, ये ठण्ड ग्राही, थोड़े अधिक तापमान पर ही संकेत भेजने लगते हैं।

ऊपर मैंने कहा था कि गर्म व ठण्डे के ग्राही एकाधिक प्रकार के होते हैं। ये अलग-अलग तापमान पर सक्रिय होते हैं। यानी एक ही संवेदना के लिए एक से अधिक किस्म के ग्राही पाए जाते हैं। जैसे कुछ ठण्ड ग्राही थोड़े विचित्र होते हैं। ये ग्राही तापमान घटने पर तो संकेत भेजते ही हैं मगर ऊँचे (करीब 45 डिग्री से ऊपर) तापमान पर भी संकेत भेजने लगते हैं। ठण्डे व गर्म के ग्राहियों के बीच एक प्रमुख अन्तर की वजह से दिमाग को पहले ठण्डे ग्राहियों की सूचना प्राप्त होती है। अन्तर यह है कि ठण्डे ग्राहियों से जुड़ी तंत्रिकाओं में संकेत प्रेषण की गति अधिक होती है, बनिस्बत गर्म ग्राहियों के। इसलिए पानी काफी गर्म हो तो हाथ लगाने पर शुरू-शुरू में ठण्डा महसूस होता है।

गौरतलब बात है कि एक ही ग्राही अलग-अलग उद्दीपनों से सक्रिय हो सकता है। ऊपर हमने देखा था कि तापमान संवेदी ग्राही कतिपय रसायनों से भी उत्तेजित हो जाते हैं। कई प्रयोगों की बदौलत आज हम जानते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो सारे संवेदना ग्राही एक से अधिक उद्दीपनों से सक्रिय होते हैं। इन्हें पोलीमॉडल ग्राही कहते हैं। कहा यह जा रहा है कि हमारे अधिकांश ग्राही पोलीमॉडल होते हैं।

स्पर्श व दबाव संवेदना ग्राहियों के मामले में यह बात साफ तौर पर नज़र आती है। कुछ ग्राही ऐसे हैं जो यांत्रिक (दबाव, ऐंठन, चिमटी जैसे) उद्दीपन से भी उत्तेजित हो जाते हैं और ठण्ड से भी। ये दरअसल, यांत्रिक विकृति के ग्राही हैं। मगर ठण्ड लगने पर भी संकेत भेजते हैं। इसी के चलते शायद ऐसा होता है कि कोई ठण्डी चीज़ थोड़ी ज़्यादा वज़नदार लगती है क्योंकि वह उन ग्राहियों को भी उत्तेजित करती है जो हमें दबाव का एहसास देते हैं। 

मिर्च की स्थिति बहुत अनोखी है। आम तौर पर मिर्च खाते ही हैं, शरीर पर अन्यत्र तो लगाते नहीं। जीभ पर जब यह जलन पैदा करती है तो हम समझते हैं कि यह उसके स्वाद के कारण है। मगर देखा जाए तो यह अत्यन्त गर्मी वाले ग्राहियों को उत्तेजित करती है। इस प्रकार के ग्राही शरीर पर हर जगह पाए जाते हैं। ऐसे में यदि हम मिर्च शरीर पर कहीं भी लगाएँ, यही संवेदना पैदा होगी।

रोचक बात यह है कि मेंथॉल और केप्सेसिन से पैदा होने वाली अनुभूतियाँ हमारी शरीर क्रिया की एक गफलत है। दरअसल, केप्सेसिन जो अनुभूति पैदा करती है, वह खतरे का संकेत है। हमने इसे ज़ायके का लुत्फ बना लिया है।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।