ऊषा मुकुंदा
क्या आप पुस्तकालय स्थापित करने में हमारी मदद कर सकती हैं?” उत्तराखण्ड के कुमाऊँ पहाड़ों में स्थित चिराग स्कूल से यह आग्रह आया था। “किसी खुले दिन में आप यहाँ से नन्दा पर्वत की पूरी शृंखला देख सकती हैं और साथ ही कोने तक की त्रिशूल और पंचाचुली शृंखलाएँ भी,” आगे उन्होंने यह भी जोड़ा।
मैं किस चीज़ का इन्तज़ार कर रही थी? एक ऐसा काम जो मेरे दिल के बहुत करीब हो और हिमालय को एक नज़र देखने का मौका। एक पल भी न गँवाते हुए, पहली जुलाई को मैं उत्तर दिशा की तरफ निकल पड़ी। पहले दिल्ली पहुँची फिर रात की गाड़ी से काठगोदाम। वहाँ से टैक्सी लेकर मुक्तेश्वर के समीप ‘सीतला’ नामक जगह। जैसे ही चढ़ाई बढ़ती गई, मेरा उत्साह भी बढ़ता गया और मैं वहाँ की साफ हवा में ऐसे गहरी साँसें लेने लगी जैसे पहले कभी साँस ही न ली हो। मैंने एक लम्बे अरसे से इतना नीला आकाश नहीं देखा था। वहाँ के हरे-भरे पेड़ों को देखकर मुझे अपार शान्ति का अनुभव हुआ और मैं समझ गई कि मुझे इस जगह खुशी और शान्ति मिलेगी।
पुस्तकालय और गतिविधियाँ
एक दिन बाद, मैंने स्कूल के साथ काम शुरू किया। 3 से 9 वर्ष तक के लगभग 60 बच्चे हैं। वे कुमाऊँनी और हिन्दी बोलते हैं। उन्हें अँग्रेज़ी बहुत कम या नहीं आती। स्कूल घाटी में स्थित है। आस-पास का दृश्य बहुत ही मनमोहक है। बीच-बीच में जब आकाश बहुत ही अद्भुत लगता तो मैं रुककर उसे ताकने, निहारने लगती। बच्चों और शिक्षकों को यह बात अजीब लगती। मेरा उद्देश्य था बच्चों को पूरी तरह से अँग्रेज़ी भाषा में डुबो देना - कहानियों, कविताओं, गानों, रोचक गतिविधियों, खेलों और नाटक आदि के मार्फत। इसके अलावा मुझे एक घण्टे के लिए शिक्षकों के साथ भी अँग्रेज़ी की गतिविधियाँ करवानी थीं। पर पुस्तकालय का क्या हुआ - यही जानना चाहते हैं न आप?
बस, आ गई उस पर भी! पाठशाला के गुरुजी, राजीव की तैयारी और समझदारी के कारण, वहाँ पर बहुत-सी बढ़िया किताबें, पत्रिकाएँ, ऑॅडियो-विज़ुअल सामग्री आदि का संग्रह पहले से ही मौजूद था, तो मेरा सबसे पहला काम था उन्हें सचेत करना कि इन सब की सूची बनाना अतिआवश्यक है। कुछ लोगों की मदद से यह काम शुरू हुआ और जुलाई के अन्त-अन्त तक पूरा भी हो गया। इस रिकॉर्ड से किताबें जारी करना और लौटाना आसान हो जाता है। किताबों को विषय अनुसार विभाजित कर दिया जाता है और उसमें एक उपविषय भी जोड़ दिया जाता है। हर किताब के कुछ मूल शब्द भी रिकॉर्ड में लिखे जाते हैं, जिनसे किसी भी तरह की किताब ढूँढ़ना आसान हो जाता है। अगर कोई किताब गुम हो जाती है तो रिकॉर्ड में लिखी गई जानकारी के आधार पर उसे दोबारा मँगवाना आसान हो जाता है।
फिर अँग्रेज़ी भाषा के कमरे के एक कोने में, पुस्तकालय के लिए औपचारिक रूप से जगह बनाई गई। एक बड़ा-सा बोर्ड (पुस्तकालय को इंगित करता हुआ), किताबों एवं पत्रिकाओं का प्रदर्शन, बच्चों द्वारा बनाए गए चित्र एवं पोस्टर, पढ़ने के लिए छोटी कुर्सियाँ-मेज़, ‘पिक-ए-बुक’ डिब्बा, सभी किताबों व शेल्फों पर रंगों के माध्यम से कोडिंग - इन सब चीज़ों के रहते पुस्तकालय में एक माहौल बना जो उसे प्रयोग करने वालों के हिसाब से था और लुभावना भी था।
तीसरी बात - पुस्तकालय का एक आवश्यक पहलू - किताबों का रख-रखाव। कुछ बातचीत द्वारा, कुछ नाटक द्वारा और कुछ खुद करके दिखाने के पहलू से किए गए एक फॉलो-अप गतिविधि के तहत विद्यालय के सबसे बड़े बच्चों द्वारा ‘बुक-मार्क’ बनाए गए। इनमें ‘पढ़ने की आदत’ या ‘किताब’ पर बच्चों द्वारा कोई-न-कोई वाक्य लिखा गया। इन्हें एक डिब्बे में डालकर सभी के उपयोग के लिए पुस्तकालय में रखा गया।
चौथा काम था किताबें छाँटना व उन्हें घर ले जाने की अवधारणा से तार्रुफकराना। किताबों की दुकान पर जैसे खरीदारी करते हैं, उसी तरह के खेल से इसका परिचय दिया गया। जो चाहिए, उसे छाँटना, खरीदना और फिर घर ले जाना। बच्चों को यह बताया गया कि पुस्तकालय में बिना पैसे दिए, किताबें घर ले जाकर लौटाई जा सकती हैं।
अब वे किताबें घर ले जाने के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे। राजीव ने मुझे जो स्वतंत्रता दी थी, उसका प्रयोग करते हुए, मैंने देवदार समूह को, जो कि सबसे बड़े बच्चों का समूह था, किताबें घर के लिए देनी शुरू कीं। पहले उन्हें यह समझाना पड़ा कि पुस्तक ले जाने और लौटाने को दर्ज़ करना कितना ज़रूरी था। उन्हें यह एहसास भी कराना था कि यह पूरी प्रक्रिया विश्वास पर आधारित है। अब उन्होंने अपने लिए एक-एक कार्ड बनाया जिसमें उनका नाम था और अन्य कॉलम थे- जैसे किताब जारी करने की तारीख, किताब का नाम, लौटाने की तारीख। बस, अब उन्होंने रफ्तार पकड़ ली। रोज़ किताबें घर जाने लगीं और रोज़ वापस भी आने लगीं। मैंने इस प्रक्रिया को पक्का हो जाने का मौका दिया और फिर पूछती कि कहानी किसके बारे में है और कहानी का कौन-सा हिस्सा उन्हें सबसे ज़्यादा पसन्द आया। ऐसा यह जानने के लिए किया गया कि उन्होंने घर ले जाकर किताब खोली भी या नहीं!
उसके बाद हमारी कुछ ‘किताबी-बातचीत’ हुई। पहले से तय न करते हुए, मैंने अचानक ही तीन-चार बच्चों से सबके सामने आकर अपनी किताब, जो वे लाइब्रेरी से लेकर गए थे, के बारे में कुछ बोलने को कहा - किताब उन्हें क्यों पसन्द आई या क्यों नहीं। किताबों पर चर्चा कैसे करते हैं, यह अभ्यास उस दिशा में पहला कदम था और बच्चों ने अब तक ऐसी कुछ और चर्चाएँ कर ली होंगी। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, इस गतिविधि को और गहराई से, और बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। लाइब्रेरियन या शिक्षक भी पैने सवाल पूछना सीख जाते हैं।
एक और मज़ेदार गतिविधि खेली हमने - ‘खज़ाने की खोज’, ढ़ो और पढ़ो आराम से। हर बच्चे को लिखित में एक सुराग दिया गया जिससे कि वे एक ऐसी किताब तक पहुँच सकते थे जो कि उन्होंने या तो पुस्तकालय में रखी देखी हो या फिर घर ले जा चुके हों। बच्चों को अपनी-अपनी किताब पूरे दो मिनट में मिल गई! तो अगली बार सुराग और मुश्किल होने चाहिए। लेकिन इसके आगे की गतिविधि चुनौती भरी थी। उसी किताब पर आधारित एक सोचने वाला सवाल था। इसका जवाब उन्हें तीन-चार वाक्य के रचनात्मक लेखन द्वारा देना था।
हमने लाइब्रेरी का एक रूटीन बनाया, जिसमें प्रतिदिन दो बच्चों की ज़िम्मेदारी थी अपने पुस्तकालय को और आकर्षक बनाने की। यह भी अच्छे से चल पड़ा।
शिक्षकों के साथ हमारी चर्चाएँ कुछ कविताओं पर और फिर कुछ कहानियों पर भी हुईं। इसके लिए उन्हें कोई कविता या कहानी घर ले जाकर पढ़नी होती, फिर स्कूल में अन्य शिक्षकों के सामने प्रस्तुत करनी होती। इस पर फिर सवाल-जवाब और चर्चा का सत्र चलता। यह भी अच्छा चला और मैंने देखा कि इसके परिणामस्वरूप शिक्षकों में आत्मविश्वास भी बढ़ा।
अन्तत: सभी शिक्षकों के साथ मिलकर हमने नैनीताल से किताबें खरीदने की एक ट्रिप की। जाने से पहले हमने किताबें खरीदने के पैमाने तय किए। किताबों की दुकान पर शिक्षकों ने लगभग पौना घण्टा वे किताबें छाँटीं जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से पसन्द थीं। फिर सभी ने सारी छँटी हुई किताबें देखीं और उनमें से और किताबों का ध्यान से चयन किया। कुछ चीज़ें स्पष्ट हुईं, कुछ किताबें हमने निकाल दीं, जैसे एक ही लेखक कीबहुत-सी किताबें, ऐसी किताबें जो किसी खास विषय पर ही केन्द्रित हों (अत्यन्त स्पेश्यलाइज़्ड), जिनका प्रिंट बहुत छोटा या जिल्द सही न हो। शिक्षकों को अच्छे प्रकाशन और अनुवाद में भेद करने में मदद दी गई। यह प्रक्रिया बेहद मज़ेदार और ऊर्जावान साबित हुई और इससे सबको ताज़गी भी मिली।
आगे के लिए कुछ सुझाव
- कोई भी एक शिक्षक एक सत्र के लिए लाइब्रेरियन बन सकता है। इससे एक निरन्तरता बनती है, कुछ समय के लिए। चिन्हित शिक्षक यह भी देखेगा कि हर कक्षा ऊपर लिखी गतिविधियों में से कुछेक कर पाए। यदि सम्भव हो तो अन्य गतिविधियाँ भी, या तो किसी मेन्युअल से या फिर खुद से सोचकर।
- सप्ताह में एक बार, सबसे छोटे (प्री-स्कूल के) बच्चों को लाइब्रेरी में करीब आधे घण्टे के लिए ले जा सकते हैं। यह समूह दस-पन्द्रह बच्चों से ज़्यादा का नहीं होना चाहिए। उन्हें किताबें, किताबों के चित्र दिखाए जा सकते हैं या फिर वे बैठकर केवल किताबों को देख सकते हैं। बाद में उन्हें कोई चित्र बनाने के लिए कहा जा सकता है जो वे पुस्तकालय को दे सकते हैं।
- धीरे-धीरे अन्य कक्षाओं को भी किताबें लेने की अनुमति देनी चाहिए। शु डिग्री में, सिर्फ एक। बाद में उन्हें और देवदार, दोनों समूहों को, एक फिक्शन और एक नॉन-फिक्शन।
- यदि शब्दकोष, एटलस और विश्व कोष भी हों, तो बच्चे उन्हें खेल-गतिविधि के माध्यम से इस्तेमाल करना सीख सकते हैं।
- चूँकि, वे अपनी पसन्द की किताबें पढ़ते हैं इसलिए उन्हें असेम्बली में छोटे-छोटे नाटक करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्क्रिप्ट भी लिखनी ज़रूरी नहीं है। अगर कहानी के साथ उनकी घनिष्ट दोस्ती हो जाए तो वे खुद-ब-खुद बना सकते हैं।
- बच्चे एक-एक कविता घर ले जा सकते हैं और उसे असेम्बली में सबके सामने, हाव-भाव के साथ सुना सकते हैं।
ऊषा मुकुन्दा: अँग्रेज़ी साहित्य और लाइब्रेरी साइंस की पढ़ाई की है। बैंगलोर के नज़दीक ‘सेंटर फॉर लर्निंग’ नाम से वैकल्पिक स्कूल की स्थापना में अहम भूमिका निभाई है। बच्चों के साथ किताबें पढ़ना तथा लाइब्रेरी की बहुआयामी उपयोगिता को बढ़ाने में गहरी रुचि है।
इंग्लिश से अनुवाद: शिवानी बजाज: प्राथमिक शिक्षण में रुचि। शौकिया अनुवाद करती हैं। दिल्ली में निवास।
चित्रांकन: प्रबुद्ध: नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन में ग्राफिक डिज़ाइन की पढ़ाई कर रहे हैं।
‘खज़ाने की खोज’
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