आमतौर पर किसी भी नई चीज़ की खोज होते ही हम सब उसपर लट्टू हो जाते हैं और बिना सोचे समझे धड़ल्ले से उसका उपयोग करने लगते हैं।
डी. डी. टी. की ही बात लें। पचास के दशक में डी.डी.टी. की खोज होने के बाद सत्तर और अस्सी के दशकों में अंधाधुंध इस्तेमाल हुआ इसका - खेतों में, शहरों में, घरों में... आज भी उसका काफी इस्तेमाल होता है।
बाद में जब अध्ययन हुए तो पता चला कि डी.डी.टी. की एक ऐसी खासियत है जिसके कारण वह सबके लिए अत्यन्त खतरनाक हो सकता है। आमतौर पर हमारा शरीर हानिकारक पदार्थों को तोड़कर खत्म कर देता है या मल-मूत्र-पसीने से बाहर निकाल देता है। परन्तु डीडीटी. एक ऐसा यौगिक है जो एक बार किसी के शरीर में पहुंच जाए तो न तो खत्म होता है, न ही बाहर निकलता है - अन्दर ही अन्दर इकट्ठा होता रहता है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि डी.डी.टी. पानी में अघुलनशील है परन्तु वसा या तेलीय पदार्थों में आसानी से घुल जाता है। इसी वजह से अन्य पदार्थों की तरह शरीर से बाहर निकलने के बजाए डीड़ी.टी. जीव-जन्तुओं के शरीर के वसा वाले हिस्सों में इकट्ठा होता रहता है। और फिर जब कोई दूसरा जानवर उसे खाए तो उसके शरीर में जाकर इकट्ठा हो जाता है।
जहां तक मनुष्यों का सवाल है, तरह-तरह से पहुंच जाता है हम तक। सब्जियों, फसलों पर छिड़का हुआ डी डी टी. सीधा ही खुराक में। गाय-भैसों के दूध के जरिए और मांसाहार करने वाले लोगों में बकरियों, मछलियों ... के मांस में इक्ट्ठा हुआ। मनुष्य के शरीर में यह कितना जमा हो रहा है उसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों से मां के दूध में भी डी.डी.टी. की मात्रा पाई जा रही है - और इसका प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है। अब तक उसके प्रभावों के जो अध्ययन हुए हैं उनसे इतना तो स्पष्ट पता चला है। कि वो मनुष्यों के तंत्रिका तंत्र ओर श्वसन तंत्र पर काफी बुरा असर डालता