प्रकाश कान्त
पुस्तक - तोत्तोचान
लेखक - तेत्सुको कुरोयांगी
अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा
प्रकाशक - साहित्य चयन, गांव झिरी
डाक - बांसखेड़ी, वाया - मनोहर थाना
ज़िला - झालावाड़, राजस्थान - 326 037
प्रकाशन - 1993, पृष्ठ - 167, मूल्य - 30 रु.
युद्ध जब बच्चों की ज़िन्दगी में दाखिल होते हैं तब न सिर्फ उनके भौतिक साधनों को बल्कि सपनों के संसार को भी नष्ट कर देते हैं।" ‘तोत्तोचान - खिड़की में खड़ी एक लड़की' को पढ़कर, बिल्कुल आखिर तक पहुंचकर एक नतीज़ा यह निकाला जा सकता है। लेकिन, यह किताब के पूरेपन को एक तरह से कम करना होगा| एक छोटी सी बच्ची के अनुभव संसार को प्रस्तुत करने वाली यह किताब कई चीज़ों को हमारे सामने रखती है। मसलन, बहुत छोटे बच्चों के स्कूल कैसे हों, पालक अपने बच्चों के साथ किस तरह व्यवहार करें, बच्चों के लिए किस तरह का संसार रचा जाए, वगैरह।
दरअसल इस किताब को पढ़ते-पढ़ते हम इस सच्चाई से रूबरू होते हैं कि घर से लेकर स्कूल तक बच्चों को नकली और असुविधाजनक बंदोबस्त का शिकार होना पड़ता है। और कि बड़े कभी जान नहीं पाते कि बच्चों के भीतर किस तरह के सपने, ख्वाहिशें उफान ले रही होती हैं। बच्चों की इन तमाम चीज़ों को बड़े, अपनी उदासीनता, लापरवाही, नासमझी और रूखेपन के चलते बुरी तरह कुचल देते हैं। और इस कुचलन का उन्हें कभी अहसास तक नहीं हो पाता।
वास्तव में, बड़े हमेशा यही उम्मीद करते होते हैं कि जितनी जल्दी हो सके बच्चे बड़े होकर उनकी दुनिया में शामिल हो जाएं। हम सब बड़ों की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कोशिश यही होती है कि जल्दी-से-जल्दी बच्चों से उनका बचपन छीनकर उनपर संपूर्ण बड़ापन लाद दिया जाए। इसलिए, बड़ों की दुनिया में बच्चों की दुनिया के लिए कोई जगह नहीं होती।
हमारे घर स्कूल, बच्चों से उनका बचपन छीनने की लगातार कोशिश में लगे रहते हैं। लेकिन, इसके बावजूद अपवाद स्वरूप ही सही, कुछ लोग तो होते ही हैं जो ऐसी जगह बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं जहां बच्चों को अपने समूचे-बचपन के साथ जी पाने का मौका मिल सके। जापान की राजधानी तोक्यो में तोमोये एक ऐसा ही स्कूल है। यह स्कूल पुराने रेल के डिब्बों में लगता है। इसी स्कूल में दाखिल होती है सात साल की एक नन्ही बच्ची तोत्तोचान। जो अपनी अजीब बताई जाने वाली आदतों की वजह से एक दूसरे स्कूल से निकाली जा चुकी है।
जिस-जिस बच्चे के माता पिता इस बात को लेकर चिंतित हैं। कि उनके स्वतंत्र, स्वाभाविक ऊर्जा से भरे बच्चे को स्कूल में दाखिला कैसे मिल सकेगा, उनकी इस समस्या का हल तोमोये स्कूल करता है। वैसे रेल के डिब्बों वाले स्कूल को खुद तोत्तोचान अपने लिए पसंद करती है। वह स्कूल, में रेल के डिब्बों में लगने वाली कक्षाओं के अलावा और भी कई खासियतें पाती है। वह देखती है। कि उस स्कूल का अपना कोई गीत नहीं है जिसे सबको रोज़ गाना ही है। वहां किसी भी बच्चे को कुछ भी करने से रोका-टोका नहीं जाता। वहां के प्रधानाध्यापक उसकी बातें लगातार चार-चार घंटों तक सुनते रह सकते हैं। वहां का काम पीरियड से बंधा हुआ नहीं है। बच्चे अपना काम अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार करते रह सकते हैं।
यहां, शिक्षक खुद व्याख्यान या भाषण देने की अपेक्षा बच्चों को अधिक-से-अधिक अवसर उपलब्ध करवाते हैं। बच्चों को सैर के लिए ले जाया जाता है। उनकी गलतियों की शिकायत उनके माता-पिता से नहीं की जाती। कुल मिलाकर वहां का वातावरण कुछ इस प्रकार का होता है जिसमें सीखी जाने वाली बातें बच्चे के भीतर अपने-आप उभरती हैं। वहां के बच्चे अपने प्रधानाध्यापक की पीठ पर चढ़. जाते हैं, गोद और कन्धे पर लद जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे प्रधानाध्यापक से उधार भी मांग लेते हैं। उनकी असफलता का वहां मज़ाक नहीं उड़ाया जाता। डांटा नहीं जाता। यकीनन, ऐसे स्कूल ही वह जगह हो सकती है जहां बच्चे खुद जाना पसंद करें। भले ही पालक इस तरह के स्कूल का अविश्वास करते हों पर तोत्तोचान इसी स्कूल को अपने लिए उपयुक्त पाती है। उसके माता-पिता भी आश्वस्त हो जाते हैं।
इस स्कूल के प्रधानाध्यापक कोबायासी एक कल्पनाशील और रचनात्मक अभिरुचि रखने वाले व्यक्ति हैं। तोमोये उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का ही निर्माण है। तोत्तोचान न सिर्फ इस स्कूल में दाखिला लेती है बल्कि बड़ी होकर वहीं पढ़ाने का सपना भी देखती है। लेकिन इसी दरम्यान दूसरे विश्वयुद्ध की लपटें जापान को घेरने लगती हैं। जापान में तेज़ी से महंगाई बढ़ती है। बाज़ार से खाने-पीने का सामान गायब होने लगता है। युद्ध बच्चों के सपनों के संसार में दाखिल हो जाता है। और एक दिन उनका स्कूल युद्ध का शिकार होकर जल उठता है। सब कुछ तबाह होता जाता है। बच्चे भारी मन से अपनी-अपनी राह चल देते हैं। प्रधान अध्यापक कोबायासी के भीतर जलते स्कूल को देखकर एक ही सवाल घुमड़ता है कि तोमोये जैसा ही दूसरा स्कूल वे कब और कहां बना पाएंगे।
तोत्तोचान की कहानी लिखी है। तेत्सको कुरोयांगी ने। जिस दौर में जापान में शिक्षा की बदहाली अपनी चरम पर थी, उसी दौर में इस पुस्तक का आना जापानी पालकों के लिए एक बिल्कुल नई और चौंकाने वाली दुनिया से दो-चार होने जैसा था। इसीलिए इस किताब की लाखों प्रतियां हाथों-हाथ बिक गईं।
बेशक, हमारे स्कूलों में बच्चे अपने पूरे बचपने के साथ मौजूद नहीं हैं। ऐसे में तोमोये जैसे स्कूल चुनौती भरे मॉडल बनकर सामने आते हैं। इस स्कूल की तुलना में जब हम अपने सरकारी, गैर-सरकारी, महंगे और खैराती स्कूलों पर नजर डालते हैं तो सिर्फ अफसोस नहीं होता बल्कि एक ज़बरदस्त सदमा भी पहुंचता है। हमारे इन शिक्षा संस्थानों में हर रोज़ करोड़ों तोत्तोचान जिब्ह हुई जा रही हैं और इस बात की परवाह करने वाला कोई नहीं है।
यह किताब उन लोगों को, जो बच्चों की स्वाभाविकता के बारे में सोचते हैं, अपने आसपास के शैक्षिक पर्यावरण को देखने के बाद उदास और हताश भी कर सकती है और कोबायासी जैसी थोड़ी-सी बेचैनी और तड़पन भी शुरू कर सकती है। अगर ऐसा हो तो इस ज़मीन पर तोमोये जैसे स्कूल खड़े कर देने की चुनौती कोई तो स्वीकार करेगा।
इस किताब का अनुवाद पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा ने किया है। जो कि उनके द्वारा किए गए जॉन होल्ट की किताब "बच्चे असफल कैसे होते हैं" के अनुवाद की तरह ही सहज है। किताब को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि हम एक अनुवाद पढ़ रहे हैं।
आज जब सारा शैक्षिक संसार चरमरा गया हो और एक आम बच्चे के लिए शिक्षा एक तमाशा और यातना शिविर में बदलती जा रही हो तब ऐसी किताबें ही शिक्षा के क्षेत्र में नया और सार्थक प्रयास करने की हिम्मत बांधती हैं और दिशा दिखाती हैं।
(प्रकाश कांत - माध्यमिक शाला, मानकुंड (देवास) में शिक्षक, हिंदी साहित्य में शोध एवं विभिन्न विषयों पर नियमित लेखन।)
*तोत्तोचान का हिंदी अनुवाद पहली बार मध्य-प्रदेश शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका पलाश के जून-जुलाई 1989 के अंक में प्रकाशित हुआ था। साहित्य चयन द्वारा प्रकाशित पुस्तक में प्रकाशक द्वारा दी गई भूमिका पलाश के इस अंक के संपादकीय में से ली गई है। - सं.
* इस लेख में दिए गए चित्र मूल पुस्तक में चिहिरो इवासाकी के चित्रों की हूबहू प्रतिकृतियां हैं।