इतिहास की खोज-करके देखो
इतिहास समझने के लिए सूत्रों से मिली जानकारी की तुलना ज़रूरी है। टॉलुण्ड आदमी के शव के ऐसे ही अध्ययन से दो हजार साल पहले के जर्मन कबीलों की प्रथाओं के बारे में नए सबूत मिले।
टॉलुण्ड आदमी : 1950 में डेनमार्क के टॉलुण्ड इलाके में हुई खुदाई के दौरान मिला दो हजार साल पुराना शव, इसके गले में रस्सी का फंदा पड़ा है।
इतिहास जानने और समझने के लिए वैसे तो हमें कई कुशलताओं में निपुण होना पड़ेगा, पर शुरुआत के लिए कुछ बिलकुल बुनियादी बातों का अभ्यास कर लेते हैं। इनमें से एक बिलकुल सीधी सादी बात यह है कि इतिहास में किसी भी चीज़ की जानकारी अलग-अलग सूत्रों से मिलती है। किसी एक सूत्र से मिली जानकारी कभी पूरी बात नहीं बता सकती। इतिहास की खोज का एक बुनियादी नियम है कि अलग-अलग सूत्रों से जानकारी हासिल करो, फिर एक सूत्र से मिली जानकारी की दूसरे सूत्रों से मिली जानकारी से तुलना कर के देखो।
मसलन मौर्य साम्राज्य में यात्रा कर रहे मेगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक इण्डिका में सड़कों पर लगाए गए मील के पत्थरों का ज़िक्र किया है। पर मौर्यकाल से संबंधित जितना भी उत्खनन का काम हुआ है उसमें अभी तक ऐसे पत्थरों का शायद ही कोई अवशेष मिला है। जब तक मौर्यकालीन मील के पत्थरों के ठोस अवशेष नहीं मिलते मेगस्थनीज़ की पुस्तक से प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता मज़बूत नहीं बनेगी।
अलग-अलग सूत्रों से जानकारी लेकर सच्चाई जानने की एक कोशिश चलिए हम भी करके देखें। आज़माइश के लिए लीजिए टॉलुण्ड के आदमी का मशहूर किस्सा। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व की दुनिया में इस किस्से ने सबको दंग कर दिया क्योंकि प्राचीन लोगों के बर्तन भांडे तो बहुत मिलते हैं, हड्डियां और मकान भी, और उनके बारे में लिखी गई बातें भी पता चल जाती हैं - लेकिन हाड़-मांस, वस्त्र और भोजन समेत साक्षात मनुष्य से तो सामना कभी नहीं होता था।
टॉलुण्ड मनुष्य
8 मई, 1950 - बात डेनमार्क देश में स्थित एक जगह टॉलुण्ङ-फेन की है। शाम के घिरते अन्धेरे में चिड़ियों की तीखी चहचहाहट सुनाई दे रही थी। यह वो इलाका था जहां पीट मिट्टी पाई जाती है। दलदली जगहों की इस मिट्टी में बहुत अधिक मात्रा में जैविक पदार्थ मिले होते हैं यानी पेड़-पौधों के अवशेष। इस तरह की जैविक सामग्री सूखने पर काफी ज्वलन- शील होती है। इसलिए लोग पीट मिट्टी के बड़े-बड़े टुकड़े काट कर घर ले जाते हैं और सुखाकर उसे चूल्हे जलाने के काम में लेते हैं।
तो 8 मई, 1950 की उस शाम दो आदमी अपनी रसोई के लिए पीट मिट्टी काटने में लगे थे कि उन्हें मिट्टी की तहों में एक मनुष्य का चेहरा दिखाई दिया। ऐसा ताज़ा-सा दिखने वाला चेहरा मानो कुछ समय पूर्व ही उसकी मृत्यु हुई हो। क्या यह कोई हाल में घटी हत्या का मामला था? दोनों ने तुरन्त सेल्कबर्ग पुलिस थाने में खबर की। पुलिस वहां पहुंची और मनुष्य के शरीर से मिट्टी की सारी परत को धीरे-धीरे हटाया। वह अपनी दाहिनी करवट पर सोया-सा लग रहा था। वह आदमी जहां मिला वह जगह ठोस ज़मीन से लगभग 50 मीटर अलग हट के थी (यानी दलदली इलाके में) और उस आदमी के ऊपर दो मीटर गहरी पीट की परत थी।
उसने सिर पर चमड़े की एक नुकीली टोपी पहनी हुई थी जो एक चमड़े की रस्सी से उसकी ठुड्डी के नीचे अच्छे से बंधी हुई थी। उसकी कमर पर भी चमड़े की एक चिकनी पेटी बंधी हुई थी। बस उसके शरीर पर और कोई वस्त्र नहीं था। उसके बाल इतने छोटे कटे हुए थे कि टोपी के नीचे से थोड़े से ही दिखते थे। उसकी दाढ़ी तो नहीं थी बस गालों और ओठों के ऊपर महीन-सी बढ़त थी।
यूं तो यह आदमी बड़े कोमल, शान्त भाव से सोया जान पड़ रहा था। पर जैसे ही उसके सिर के पास से पीट का एक छोटा टुकड़ा हटाया गया तो एक धक्का-सा लगा। एक रस्सी दिखी - चमड़े के दो फीतों से गुंथी हुई। फांसी के फन्दे की रस्सी। उसकी गर्दन पर कसी हुई यह रस्सी कन्धे के ऊपर से जाती हुई पीठ पर पड़ी थी।
कौन था यह आदमी? मिट्टी में दबे हुए उसे कितना समय हो गया था? उसकी मृत्यु क्यों हुई?
लाश को दलदल में से निकालने के बाद वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को जांच के लिए दे दिया गया। उनके निष्कर्ष इस प्रकार थेः
1. दफनाने की तिथि:
लाश के नीचे मिट्टी पर काई की एक पतली परत थी। वैज्ञानिकों ने पता किया कि डेनमार्क के पीट के
पीट मिट्टी
इसका निर्माण खास तौर से उन इलाकों में होता है जहां किसी भी कारण से जैविक पदार्थों के सड़ने की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी होती है। कम तापमान के इलाके (यूरोप, एशिया, अमेरिका के उत्तरी भाग) और बहुत अधिक जल वाले इलाके (दलदल व झील चाहे वे गर्म प्रदेशों की ही क्यों न हों) ऐसे हैं, जहां जैविक पदार्थ बहुत ही धीरे-धीरे सड़ते हैं। कम गले हुए पेड़-पौधों के अवशेष जहां बड़ी मात्रा में इकट्ठे होते जाते हैं, वहां जब 12 इंच या उससे अधिक मोटी ऐसी मिट्टी की तह बन जाती है जिसमें 30% से अधिक मात्रा जैविक सामग्री की है, तो उसे 'पीट' मिट्टी कहा जाता है। पीट की जांच करने पर उन पेड़-पौधों, वनस्पतियों के रेशे पहचान में आ जाते हैं जिनसे यह मिट्टी बनी थी।
ठंडे या जलीय वातावरण में बैक्टीरिया या फफूंद की सक्रियता कम होती है इसलिए चीजें जल्दी सड़ नहीं पातीं। जहां पानी में वनस्पति डुबी रहती है वहां ऑक्सीजन की कमी के कारण जीवाणुओं की सक्रियता कम रहती है। इसलिए भी वहां वनस्पति जल्दी सड़ नहीं पाती। अधसड़े इकट्ठे होते हुए वनस्पति भंडार में बड़ी मात्रा में अम्ल पैदा होता है।
पीट की जानकारी हमारे लिए इसलिए भी रोचक है क्योंकि इसका संबंध कोयले से भी है। ऊपर जब मिट्टी, पत्थर की तहें बहुत बढ़ जाएं और पीट पर काफी ज़्यादा दबाव पड़ता रहे तो धीरे-धीरे उसका पानी निकल जाता है व दंब-दब के पीट, कोयले में परिवर्तित होने लगता है। एक अनुमान लगाया गया है कि पांच से.मी. मोटे पीट से एक से.मी. मोटी कोयले की तह बनती है।
दलदलों में लौह युग की शुरुआत में ऐसी काई की परत निर्मित हुई थी। यानी लगभग ईसा के जन्म के युग में। इस तरह, लौह युगीन मिट्टी की परत में गड्ढा बना के दफनाया गया यह आदमी आज से लगभग 2000 वर्ष पहले का माना जाएगा।
पीट में अम्ल की मात्रा बहुत अधिक होती है। इस अम्ल ने लाश को सड़ने नहीं दिया और उसे देखकर लग रहा था जैसे वह कुछ समय पहले ही मरा हो।
2. मृत्यु की वजहः
एक्सरे व मेडिकल जांच ने यह बताया कि आदमी का सिर, हृदय, फेफड़े, आमाशय सब दुरुस्त थे। आदमी बूढ़ा भी नहीं था - परन्तु उसकी उम्र 20 वर्ष से ज़्यादा ही रही होगी क्योंकि उसकी अकल की दाढ़ निकल आई थी। हो न हो उसकी मौत गले में पड़े फन्दे से ही हुई थी। इस रस्सी के निशान उसकी ठुड्डी के नीचे और गले के किनारों पर साफ दिख रहे थे जबकि गले के पीछे जहां रस्सी की गांठ थी निशान नहीं था। यह कहना मुश्किल था कि उसकी गर्दन तोड़ी गई थी या नहीं क्योंकि हड्डियां बहुत भुरभुरी हो चुकी थी
3. उसका आखिरी भोजन
आदमी के पेट व आंतों की पूरी जांच हुई। इससे यह पता चला कि उस आदमी ने अपने आखिरी भोजन में सब्जियों, बीजों (जिनमें कुछ जंगली थे और कुछ खेतों में उगाए जाने वाले थे) का बना सूप-सा कुछ पिया था।
मांस खाने के कोई अवशेष पेट में नहीं थे और भोजन के पाचन की अवस्था देख कर यह पता चल रहा था कि वह आदमी खाना खाने के बाद 12-24 घंटे तक तो जीवित रहा ही था। यानी मृत्यु के पहले लगभग एक दिन वह भूखा रहा था। दो बातें गौर करने लायक थीं।
(क) आदमी ने जो सूप पिया था उसमें कई ऐसे बीज थे जो आमतौर पर आसानी से नहीं पाए जाते। ऐसा लगता है जैसे किसी विशेष अवसर के भोजन के लिए इन चीजों को खास तौर से इकट्ठा किया गया था।
(ख) ये सब बीज ऐसे थे जो उस इलाके में केवल बसंत ऋतु में पाए जाते हैं।
टॉलुण्ड की लाश का राज़ जानने में शायद हमें ऐसे कुछ अन्य तथ्यों से सुराग मिल जाएं जो लौह युगीन लोगों के जीवन पर प्रकाश डालते हैं। ये तथ्य उन लोगों से संबंधित हैं जो डेनमार्क और जर्मनी में उसी समय रहा करते थे, जिस समय टॉलुण्ड वाला आदमी जीता था। (यानी 50 ई.पू. से 100 ईसवीं के युग में)।
सुराग 1 जर्मन कबीलों के कायदे
"जर्मन कबीले अपनी कबीलाई सभा के बीच आरोपी लोगों की सुनवाई करते हैं। जुर्म के अनुसार दण्ड दिया जाता है। गद्दारों को पेड़ से लटकाया जाता है। डरपोक लोगों को या जो लड़ाई में फिसड्डीं रहते हों या 'बुरे’ माने जाते हों, उन्हें ऊपर से डन्डियों से दबाकर दलदलों में डुबो दिया जाता है।" (यह अंश कॉर्नेलियस टैसिटस नाम के एक रोमन आदमी द्वारा जर्मन कबीलों पर लिखी गई एक किताब से लिया गया है। यह किताब 97-98 ईसवी में लिखी गई थी)।
सुराग 2 कबीलों की धार्मिक मान्यताएं
टैसिटस की किताब से ही हमें उत्तर जर्मनी के सात कबीलों की धार्मिक मान्यताओं का भी पता चलता है। ये कबीले 'धरतीमाता' को पूजते थे जो बसन्त की देवी थी, उगती हुई फसलों की देवी थी। हर बसन्त में वे नई फसल और नए जीवन के जन्म का त्यौहार मनाते थे।
"इन कबीलों में बस एक ही बड़ी खास बात है वे बसन्त की देवी, धरती माता की पूजा करते हैं। कि वे मानते हैं कि हर बसन्त में देवी माता कबीले के बीच आकर सवारी करती हुई चली जाती है। वे मानते हैं कि एक झील के बीचों-बीच जंगलों से ढका एक छोटा-सा टापू है, जिसमें एक दिव्य रथ कपड़े से ढका रहता है। उसे सिर्फ एक विशेष पुजारी ही छू सकता है। जब देवी मां गायों द्वारा खींचे गए अपने रथ पर सवारी करती हुई जाती है तो वह पुजारी उसके पीछे-पीछे जाता है।
"जहां-जहां देवी मां की सवारी जाती है वहां कई दिनों तक हर्षोल्लास के साथ त्यौहार मनाया जाता है। पर अन्त में देवी साधारण मनुष्यों के बीच रहते हुए थक जाती है और अपने दिव्य जंगल में रहने के लिए, लौट जाती है। तब देवी की मूर्ति, रथ व कपड़ों को एक गुप्त झील में धो कर साफ किया जाता है। यह काम करते हैं कबीले के दास जिन्हें बाद में झील में डुबोकर मार दिया जाता है।"
सुराग 3
इस चित्र में दिख रहा फन्दा लौह युग के एक अन्य आदमी के गले पर मिला था जो डेनमार्क में ही एक अन्य स्थान बोरफेन में दबा हुआ पाया गया था। इस आदमी का भी आखिरी भोजन बसन्त के बीजों से बना हुआ सूप था। उसके शरीर पर बर्च पेड़ की एक मीटर लंबी व साढ़े चार से.मी. मोटी डाली पड़ी थी। फन्दे के पास गले में पहना जाने वाला एक कड़ा दिख रहा था। लौह युग के लोग ऐसे कड़ों को दलदलों में दबाकर बसन्त देवी को चढ़ाते थे।
सुराग 4. ग्रॉबाल आदमी
यह एक और आदमी का चित्र है जो डेनमार्क में 'ग्रॉबाल' नामक स्थान पर दबा मिला। उसका गला एक कान से दूसरे कान तक कटा हुआ था। वैज्ञानिकों ने पता किया कि वह 1650 साल पहले दबाया गया था। मरने से थोड़ा समय पहले उसने जो आखिरी भोजन लिया, उसमें भी टॉलुण्ड के आखिरी भोजन जैसे ही बसन्त के बीजों और सब्ज़ियों से बना सूप था।
टॉलुण्ड की लाश का राज़ - एक जांच पड़ताल
टॉलुण्ड आदमी की कहानी में आपको इतिहास की जानकारी देने वाले अलग-अलग सूत्रों की तुलना किए जाने का उदाहरण तो स्पष्ट दिखा होगा। पर इसी कहानी में इतिहास की कक्षा में गतिविधि करवा पाने की संभावना भी छिपी हुई है। इसके लिए आप इस कहानी को छात्रों को सुनाकर या पढ़ाकर और नीचे दिए गए प्रश्न पूछ कर पहला प्रयास कर सकते हैं। पहले दिए गए चार सुरागों पर खास ध्यान देते हुए छात्र इन प्रश्नों के जवाब दें। उनके जवाबों से यह ज़ाहिर होगा कि जानकारी के हर सूत्र की और कई सूत्रों के आपसी संबंध और एक-दूसरे पर निर्भरता की कितनी समझ आप उन में बना पाए हैं। फिर इन मुद्दों पर आप उन के साथ एक सार्थक चर्चा कर सकते हैं। अपनी चर्चा का पूरा ब्यौरा हमें ज़रूर भेजिएगा।
- लाश किसे मिली थी?
- लाश कहां मिली थी?
- लाश पर या उसके पास क्या-क्या वस्त्र या अन्य चीजें पाई गई थी?
- आदमी की उम्र क्या थी?
- उसे मरे हुए कितना समय बीत चुका था?
- कौन-सी बात उसकी मौत के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हो सकती है? बुढ़ापा, बीमारी, आत्महत्या? कारण सहित अपना उत्तर समझाओ।
- उसकी मृत्यु इस प्रकार क्यों हुई? आपके अनुमान/निष्कर्ष का आधार क्या है?
- आपकी कोई अन्य टिप्पणी?
- 9. क्या किसी पक्के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आपको कुछ और जानकारी की ज़रूरत महसूस हो रही है? किस प्रकार की जानकारी?
- 1 चर्चा के लिए - नरबलि के उदाहरण बहुत से समाजों में मिलते हैं। भारत के संदर्भ में नरबलि के क्या उदाहरण हैं?
(स्कूल हिस्ट्री काऊंसिल प्रोजेक्ट के एक पर्चे पर आधारित)