अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित
भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।
1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।
चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।
अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।
इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता - चूंकि इसमें ईधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।
इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में ‘मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर’ कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।
किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।
फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।
देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)