प्रदीप
हम जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। यह काफी पहले ही घोषित किया जा चुका है कि अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी जीव विज्ञान की सदी होगी। ऐसा स्वास्थ्य, कृषि, पशु विज्ञान, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में सतत मांग के कारण संभव हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में जीवजगत एक केंद्रीय तत्व है। पिछले कुछ वर्षों में जीव विज्ञान में चमत्कारिक अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। इस दिशा में हैरान कर देने वाली हालिया खबर है - एक चीनी वैज्ञानिक द्वारा जन्म से पूर्व ही जुड़वां बच्चियों के जीन्स में बदलाव करने का दावा। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाता है। कह सकते हैं कि काफी हद तक हम वैसे ही दिखते हैं या वही करते हैं, जो हमारे शरीर में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। डीएनए के उलट-पुलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो संतानों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलती हैं।
चूंकि शरीर में क्रियाशील जीन की स्थिति कुछ बीमारियों को आमंत्रित करती है, इसलिए वैज्ञानिक लंबे समय से मनुष्य की जीन कुंडली को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों का उद्देश्य यह रहा है कि जन्म से पहले या जन्म के साथ शिशु में जीन संपादन तकनीक के ज़रिए आनुवंशिक बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स को पहचान कर उन्हें दुरुस्त कर दिया जाए। इस दिशा में इतनी प्रगति हुई है कि अब जेनेटिक इंजीनियर आसानी से आणविक कैंची का इस्तेमाल करके दोषपूर्ण जीन में काट-छांट कर सकते हैं। इसे जीन संपादन कहते हैं और इस तकनीक को व्यावहारिक रूप से किसी भी वनस्पति या जंतु प्रजाति पर लागू किया जा सकता है।
हालांकि मनुष्य के जीनोम में बदलाव करने की तकनीक बेहद विवादास्पद होने के कारण अमेरिका, ब्रिाटेन और जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्रतिबंधित है मगर चीन एक ऐसा देश ऐसा है जहां मानव जीनोम में फेरबदल करने पर प्रतिबंध नहीं है और इस दिशा में वहां पर पिछले वर्षों में काफी तेज़ी से काम हुआ है। इसी कड़ी में ताज़ा समाचार है - चीनी शोधकर्ता हे जियानकुई द्वारा जुड़वां बच्चियों (लुलू और नाना) के पैदा होने से पहले ही उनके जीन्स में फेरबदल करने का दावा। हे जियानकुई के अनुसार उन्होंने सात दंपतियों के प्रजनन उपचार के दौरान भ्रूणों को बदला जिसमें अभी तक एक मामले में संतान के जन्म लेने में यह परिणाम सामने आया है। इन जुड़वां बच्चियों में सीसीआर-5 नामक एक जीन को क्रिस्पर-कास 9 नामक जीन संपादन तकनीक की मदद से बदला गया। सीसीआर-5 जीन भावी एड्स वायरस संक्रमण के लिए उत्तरदायी है। क्रिस्पर-कास 9 तकनीक का उपयोग मानव, पशु और वनस्पतियों में लक्षित जीन को हटाने, सक्रिय करने या दबाने के लिए किया जा सकता है। जियानकुई ने यह दावा एक यूट्यूब वीडियो के माध्यम से किया है। अलबत्ता, इस दावे की स्वतंत्र रूप से कोई पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है और इसका प्रकाशन किसी मानक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में भी नहीं हुआ है।
दुधारी तलवार
जीन संपादन तकनीक आनुवंशिक बीमारियों का इलाज करने की दिशा में निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है। इसकी संभावनाएं चमत्कृत कर देने वाली हैं। यह निकट भविष्य में आणविक स्तर पर रोगों को समझने और उनसे लड़ने के लिए एक अचूक हथियार साबित हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि ज्ञान दुधारी तलवार की तरह होता है। हम इसका उपयोग विकास के लिए कर सकते हैं और विनाश के लिए भी! इसलिए जियानकुई के प्रयोग पर तमाम सामाजिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी है तथा मानव जीन संपादन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। जेनेटिक्स जर्नल के संपादक डॉ. किरण मुसुनुरू के मुताबिक ‘इस तरह से तकनीक का परीक्षण करना गलत है। मनुष्यों पर ऐसे प्रयोगों को नैतिक रूप से सही नहीं ठहराया जा सकता।’ एमआईटी टेक्नॉलजी रिव्यू ने चेतावनी दी है कि यह तकनीक नैतिक रूप से सही नहीं है क्योंकि भ्रूण में परिवर्तन भविष्य की पीढ़ियों को विरासत में मिलेगा और अंतत: समूची जीन कुंडली को प्रभावित कर सकता है। इसलिए नैतिकता से जुड़े सवाल व विवाद खड़े होने के बाद फिलहाल जियानकुई ने अपने प्रयोग को रोक दिया है तथा चीनी सरकार ने भी इसकी जांच के आदेश दिए हैं। चीन मानव क्लोनिंग को गैर-कानूनी ठहराता है लेकिन जीन संपादन को गलत नहीं ठहराता।
नैतिक और सामाजिक प्रश्न
इस तरह के प्रयोग पर विरोधियों ने सवालिया निशान खड़े करने शुरू कर दिए हैं। उनका कहना है कि इससे समाज में बड़ी जटिलताएं और विषमताएं उत्पन्न होंगी।
सर्वप्रथम इससे कमाई के लिए डिज़ाइनर (मनपसंद) शिशु बनाने का कारोबार शुरू हो सकता है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को गोरा-चिट्टा, गठीला, ऊंची कद-काठी और बेजोड़ बुद्धि वाला चाहते हैं। इससे भविष्य में जो आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग होंगे उनके ही बच्चों को बुद्धि-चातुर्य और व्यक्तित्व को जीन संपादन के ज़रिए संवारने-सुधारने का मौका मिलेगा। तो क्या इससे सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
वैज्ञानिकों का एक तबका इस तरह के प्रयोगों को गलत नहीं मानता। उन्हें लगता है कि ऐसे प्रयोग लाइलाज बीमारियों के उपचार के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल सकते हैं। इससे किसी बीमार व्यक्ति के दोषपूर्ण जीन्स का पता लगाकर जीन संपादन द्वारा स्वस्थ जीन आरोपित करना संभव होगा। मगर विरोधी इस तर्क से भी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर जीन विश्लेषण से किसी व्यक्ति को यह पता चल जाए कि भविष्य में उसे फलां बीमारी की संभावना है और वह जीन संपादन उपचार करवाने में आर्थिक रूप सक्षम नहीं है, तो क्या उस व्यक्ति का सामाजिक मान-सम्मान प्रभावित नहीं होगा? क्या बीमा कंपनियां संभावित रोगी का बीमा करेंगी? क्या नौकरी में इस जानकारी के आधार पर उससे भेदभाव नहीं होगा?
जीन संपादन तकनीक अगर गलत हाथों में पहुंच जाए, तो इसका उपयोग विनाश के लिए भी किया जा सकता है। इसके संभावित खतरों से चिंतित भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि यह तकनीक आनुवंशिक बीमारियों को ठीक करने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि कुछ अतिवादी आतंकवादी अनुसंधानकर्ता अमानवीय मनुष्य के निर्माण करने की कोशिश करेंगे। तब इन अमानवीय लोगों से समाज कैसे निपट सकेगा?
संभावनाएं अपार हैं और चुनौतियां भी। जीन संपादन तकनीक पर नैतिक और सामाजिक बहस और वैज्ञानिक शोध कार्य दोनों जारी रहने चाहिए। इस तकनीक का इस्तेमाल मानव विकास के लिए होगा या विनाश के लिए, यह भविष्य ही बताएगा। (स्रोत फीचर्स)