बीते कुछ सालों में तकनीकी जगत में एक शब्द बड़ा आम हो गया है - ‘आर्टिफिशियल इंटेललिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धि। हाल ही में चीन की सिन्हुआ समाचार एजेंसी पूरी दुनिया के लिए तब समाचार बन गई जब उसने अपने यहां समाचार पढ़ने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट न्यूज़ एंकर (समाचार वाचक) का उपयोग किया। यह वाचक अंग्रेज़ी में खबरें पढ़ता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसे एंकर 24×7 बिना थके या बिना छुट्टी लिए अपना काम करने में सक्षम है। इसमें वाइस रिकॉग्नीशन (वाणी पहचान) और खबरों के अनुरूप चेहरे के हाव-भाव बदलने के लिए मशीन लर्निंग का उपयोग किया गया है।
उक्त न्यूज़ एंकर से खबरें पढ़वाने के साथ ही पूरी दुनिया में एक बार फिर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नफे-नुकसान पर चर्चा तेज़ हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बुद्धि ऐसी बुद्धिमत्ता है जो मशीनें सीखने की एक खास प्रक्रिया के तहत सीखती हैं। वे मशीनें धीरे-धीरे इस बुद्धिमत्ता को अपने में अंगीकार कर लेती हैं। इसके बाद मशीनें भी किसी मनुष्य की तरह अपेक्षित काम पूरी गंभीरता और बारीकी के साथ करने लगती हैं। चूंकि ये मशीनें कृत्रिम रूप से इसे ग्रहण करती हैं इसीलिए इन्हें कृत्रिम बुद्धिमान कहा जाता है। अलबत्ता, यह बहुत हद तक प्राकृतिक बुद्धि की तरह ही होती है।
सबसे पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अवधारणा जॉन मैक्कार्थी ने 1956 में दी थी। उन्होंने इसके लिए एक नई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज भी बनाई थी जिसे उन्होंने लिस्प (लिस्ट प्रोसेसिंग) नाम दिया था। यह लैंग्वेज कृत्रिम बुद्धिमत्ता सम्बंधी अनुसंधान के लिए बनाई गई थी।
अब ऐसी मशीनों के साकार होने से यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि इनका उपयोग किस हद तक किया जाना ठीक है और इसके क्या खतरे या चुनौतियां हो सकती हैं। आखिरकार ये हैं तो मशीनें ही, इनमें एक मनुष्य की तरह की भावनाएं कैसे आएंगी। ये हमारा काम ज़रूर आसान बना सकती हैं पर मानवीय भावनाएं नहीं होने के कारण ये किसी भी काम को करने से पहले गलत-सही का फैसला करने में असमर्थ रहेंगी और गलत कदम भी उठा सकती हैं।
इनमें तो भावनाओं की कोई जगह ही नहीं है। आजकल हम वैसे ही दुनिया और समाज से बेखबर अपने पड़ोस तो दूर, घर के लोगों से भी कटे-कटे से रहते हैं। ऐसे में मशीनी मानव हमें समाज से काटकर और भी अकेला बना देंगे। इससे नई पीढ़ी में मनुष्यता के गुणों का और भी ह्यास होगा। आजकल बहुसंख्य लोगों के पास मोबाइल है और कई लोग दिन-भर उस मोबाइल में लगे रहते हैं। बार-बार देखते हैं कि कहीं कोई ज़रूरी मेसेज तो नहीं आया। मोबाइल के माध्यम से हम दुनिया भर से जुड़े हैं परंतु अपने आस-पास क्या हो रहा है इसकी हमें खबर नहीं होती। कई लोग तो मोबाइल में इतने डूब जाते हैं कि पास वाले व्यक्ति की तकलीफ दिखाई तक नहीं देती। इस आभासी या वर्चुअल दुनिया में कहीं-ना-कहीं हम असल दुनिया को भूलते जा रहे हैं और इसके कारण हमारे अंदर की मनुष्यता खत्म होती जा रही है।
महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि अगर आर्टिफिशियल इंटेललिजेंट मशीनों को बनाया गया तो ये मानव सभ्यता को खत्म कर देंगी। जब एक बार मनुष्य आर्टिफिशयल इंटेलीजेंट यंत्र बना लेगा तो यह यंत्र खुद ही अपनी प्रतिलिपियां बना सकेंगे और ऐसा भी हो सकता है कि भविष्य में मनुष्य कम रह जाएं और मशीनी मानव उनके ऊपर राज करें। उनकी यह आशंका कहां तक सच होगी, यह तो फिलहाल नहीं कह सकते लेकिन मशीनी मानव हमारे मानवीय गुणों और संवेदनाओं के लिए यकीनन नुकसानदायक हैं।
पहले से ही खत्म होते रोज़गार के इस दौर में यह बेरोज़गारी बढ़ाने वाला एक और कदम साबित होगा। ऐसे यंत्रों के बनने से कई लोगों की नौकरियां भी चली जाएंगी क्योंकि इनकी उपयोगिता बढ़ने के साथ हर जगह ऐसी मशीनें लोगों की जगह लेती जाएंगी। जैसे-जैसे मशीनीकरण बढ़ेगा वैसे-वैसे काम करने के लिए लोगों की ज़रूरत कम होती जाएगी। बढ़ता मशीनीकरण बेरोज़गारी तो बढ़ाएगा ही साथ ही अपराध भी बढ़ाएगा। जब लोगों के पास करने को कोई ढंग का काम नहीं होगा तो वे रोज़ी-रोटी कमाने के लिए ज़ुर्म करेंगे। इससे पूरी दुनिया में अराजकता फैल सकती है।
अंतरिक्ष यान बनाने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ इलोन मस्क भी मानते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध का मुख्य कारण आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस होगा। इस तरह लगता है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस जितना मददगार है, लंबे समय में उतना ही ज़्यादा प्रलयकारी भी। अगर इसे सही तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया तो यह पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। ऐसे यंत्र भले ही अभी हमारी भलाई के लिए बनाए जा रहे हों पर दीर्घावधि में यही सबसे ज़्यादा हानिकारक होने वाले हैं। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - August 2019
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