एस. अनंतनारायणन
रक्ताधान (खून चढ़ाना) एक उपयोगी जीवन रक्षक तभी बन पाया जब 1901 में रक्त समूहों की खोज हो गई। उससे पहले किसी मरीज़ का बहुत खून बह जाने या सर्जरी के बाद रक्ताधान कभी-कभी मरीज़ के लिए जीवनदायक तो कभी-कभी जानलेवा साबित होता था। प्राय: होता ऐसा था कि मरीज़ खून की कमी से नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने के कारण मौत का शिकार हो जाता था।
ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक कार्ल लैण्डस्टाइनर इस खोज के आधार पर आगे अनुसंधान कर रहे थे कि “अलग-अलग जंतु और पादप प्रजातियों में प्रोटीन में अंतर होते हैं और प्रोटीन हर प्रजाति के लिए विशिष्ट होते हैं।” दरअसल उन्होंने देखा कि अलग-अलग अंगों में भी विशेष प्रोटीन्स पाए जाते हैं और यहां तक कि एक ही जंतु के अलग-अलग हिस्सों के निर्माण के लिए अलग-अलग प्रोटीन्स की ज़रूरत होती है। यह मानव-निर्मित मशीनों जैसा नहीं था जहां अलग-अलग हिस्से एक ही पदार्थ से बनाए जा सकते हैं।
यह समझने के लिए कि क्या ये अंतर एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच भी पाए जाते हैं, लैण्डस्टाइनर ने विभिन्न व्यक्तियों की लाल रक्त कोशिकाओं और रक्त सीरम को आपस में मिलाने की कोशिश की। उन्होंने देखा कि कुछ मामलों में तो ऐसा लगता है जैसे किसी व्यक्ति के खून को उसी के खून में मिलाया गया हो। किंतु कुछ मामलों में दो व्यक्तियों का खून मिलाने पर खून के थक्के बनने लगते थे अर्थात खून के अंश आपस में चिपक जाते थे।
ऐसे अलग-अलग खून के नमूनों के साथ काम करते हुए लैण्डस्टाइनर ने दर्शाया कि 4 रक्त समूह होते हैं: A, B, AB और O तथा विभिन्न रक्त समूहों के मिलाने पर तालिका में दिखाए अनुसार परिणाम प्राप्त होते हैं।
तालिका से स्पष्ट है कि रक्त समूह A और B के व्यक्ति को या तो उसी समूह का रक्त दिया जा सकता है या O समूह का। किंतु O समूह के व्यक्ति को सिर्फ O समूह का रक्त देना होगा। दूसरी ओर, O समूह का रक्त किसी भी समूह के लिए चल जाएगा। तो ॠए सार्वभौमिक ग्राही है जबकि O समूह सार्वभौमिक दाता है। गलत रक्त समूह का खून देने पर खून के थक्के बनने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि रक्त प्रवाह में बाधा पहुंचती है या अन्य अंगों का कामकाज प्रभावित होता है और मरीज़ की मृत्यु हो जाती है।
प्रोटीन की करामात
अब हम जानते हैं कि मानव रक्त कोशिकाओं की सतह पर विशिष्ट प्रोटीन्स होते हैं। इन्हें हम A, B और O नाम से जानते हैं। किसी-किसी कोशिका पर A व B दोनों प्रोटीन्स पाए जाते हैं। सतह पर पाए जाने वाले ये प्रोटीन्स एंटीजन होते हैं। अर्थात जब कोई पराई वस्तु इनके संपर्क में आती है तो ये उसके खिलाफ प्रतिक्रिया करते हैं, बशर्ते कि उस पराई वस्तु पर ऐसे रासायनिक चिन्ह हों जिन्हें ये प्रोटीन पहचानते हों। रक्त सीरम में एंटीबॉडी पाई जाती हैं। एंटीबॉडी वे पदार्थ होते हैं जो एंटीजन को प्रतिक्रिया करने को उकसाते हैं।
A और B रक्त समूह के खून की कोशिकाओं पर क्रमश: A और B एंटीजन पाए जाते हैं। किंतु इन रक्त के सीरम में जो एंटीबॉडी होती हैं वे इनके विपरीत होती हैं। अर्थात A रक्त समूह के खून के सीरम में B एंटीबॉडी होती हैं जबकि B रक्त समूह के खून के सीरम में A एंटीबॉडी होती हैं। AB रक्त समूह के खून की कोशिकाओं पर दोनों एंटीजन होते हैं किंतु सीरम में कोई एंटीबॉडी नहीं होती। इसके विपरीत O समूह के रक्त में कोई एंटीजन होता जबकि सीरम में दोनों एंटीबॉडी होती हैं।
परिणाम वही होता है जो हमने ऊपर की तालिका में देखा। A और B समूह वाले लोग अपने ही रक्त समूह का या O समूह का खून ले सकते हैं। AB समूह, जिसमें कोई एंटीबॉडी नहीं होती, वह किसी भी समूह का खून प्राप्त कर सकता है। O समूह के खून में दोनों एंटीबॉडी होती हैं, और उसे किसी अन्य समूह का रक्त नहीं दिया जा सकता, सिर्फ O समूह का ही रक्त दिया जा सकता है। चूंकि इस खून में कोई एंटीजन नहीं होता इसलिए यह खून किसी को भी दिया जा सकता है।
जांच और रक्ताधान
रक्त समूहों के वर्गीकरण का तत्काल प्रभाव यह हुआ कि खून चढ़ाने से पहले खून की जांच करके मैचिंग किया जा सकता था। परिणाम नाटकीय थे। सर्जरी के बाद और एनीमिया के मामलों में खून देना कहीं अधिक सुरक्षित हो गया। इसके कुछ वर्षों बाद एक और खोज हुई कि रक्त कोशिकाओं की सतह पर एक और प्रोटीन पाया जाता है जिसे आरएच फैक्टर कहते हैं। इस मामले में भी एक एंटीजन और एक एंटीबॉडी होती है। जिन लोगों के खून की कोशिकाओं पर यह फैक्टर होता है उन्हें आरएच धनात्मक कहते हैं और उनमें कोई आरएच-एंटीबॉडी नहीं होती। दूसरी ओर यदि आरएच-ऋणात्मक व्यक्ति को आरएच फैक्टर युक्त खून दिया जाए उनमें इसके खिलाफ एंटीबॉडी बन जाती हैं। इसलिए आरएच-ऋणात्मक व्यक्तियों को सिर्फ आरएच ऋणात्मक खून दिया जाना चाहिए जबकि आरएच-धनात्मक व्यक्ति को आरएच-ऋणात्मक खून भी चलता है।
रक्त समूहों की खोज के लिए कार्ल लैण्डस्टाइनर को 1930 में नोबेल से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - July 2017
- भारत में पहली जीएम खाद्य फसल सुरक्षित घोषित
- आत्म रक्षा करने वाला धान
- बारुदी सुरंग का सुराग देंगे कछुआ रोबोट
- मानव सदृश जीव का लगभग पूरा कंकाल मिला
- 3.5 अरब वर्ष पुराना जीवाश्म और जीवन की उत्पत्ति
- मनुष्य कितना तापमान झेल सकते हैं
- कितने रूप हैं मरीचिकाओं के?
- त्वचा कोशिका से रक्त कोशिका बनाई गई
- हमारी नाक उतनी भी बुरी नहीं है
- लगातार नींद न मिले तो दिमाग खाली हो जाता है
- विशाल पक्षीनुमा डायनासौर के अंडे मिले
- पिरामिडों का रहस्य खोजने की नई तकनीक
- संगीत मस्तिष्क को तंदुरुस्त रखता है
- संगीत अगर प्यार का पोषक है, तो बजाते जाओ
- रक्त शिराओं के रास्ते इलाज
- खून का लेन-देन और मैचिंग
- कोमा - दिमागी हलचलों से अब इलाज संभव
- सौ वर्ष पुरानी कैंसर की गठानें खोलेंगी कई राज़
- ओरांगुटान 9 साल तक स्तनपान कराती हैं
- भांग से बूढ़े चूहों की संज्ञान क्षमता बढ़ती है
- बासमती चावल की पहचान की नई तकनीक
- हाइड्रोजन का भंडारण होगा अब आसान
- जेनेटिक इंजीनियरिंग कल्पना से ज़्यादा विचित्र है
- अंतरिक्ष में भी धूल उड़ती है!
- देश के विकास में नवाचारों का योगदान
- पारदर्शी मेंढक का दिल बाहर से ही दिखता है