डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
टाइटेनियम एक प्रमुख धात्विक तत्व है जिसका रंग चांदी के समान सफेद है। इसका रासायनिक संकेत च्र्त् तथा परमाणु संख्या 22 है। इस तत्व के पांच समस्थानिक पाए जाते हैं जिनमें सबसे अधिक प्रचुरता 48 परमाणु भार वाले समस्थानिक की है जो कुल समस्थानिकों का 73 प्रतिशत है। इसका आपेक्षिक घनत्व 4.51, गलनांक 1668 डिग्री सेल्सियस तथा क्वथनांक 3260 डिग्री सेल्सियस है।
टाइटेनियम की खोज कुछ विलम्ब से हुई। सन 1789 में इंग्लैंड के एक पादरी विलियम ग्रेगर ने इल्मेनाइट खनिज से सफेद रंग का एक धात्विक ऑक्साइड पृथक किया। उन्होंने इसका नाम ‘मेमाकिन’ रखा था।
सन 1795 में जर्मन रसायनविद एम. क्लैपरोथ ने रूटाइल नामक अयस्क से भी एक धात्विक ऑक्साइड पृथक किया तथा इसका नाम ‘टाइटेनियम’ रखा। यूनानी मायथॉलॉजी में पृथ्वी के बेटे को टाइटन नाम से पुकारा जाता था। कुछ समय बाद पता चला कि ग्रेगर तथा क्लैपरौथ द्वारा पृथक किए गए धात्विक ऑक्साइड एक ही थे। उस समय से इस तत्व का नाम ‘टाइटेनियम’ प्रसिद्ध हो गया।
शुद्ध टाइटेनियम को पृथक करने का श्रेय स्वीडिश रसायनविद बर्जीलियस को जाता है जिन्होंने सन 1825 में इसे पृथक किया। परन्तु बाद में पता चला कि बर्जीलियस द्वारा पृथक की गई धातु शुद्ध टाइटेनियम नहीं थी। उसमें कई प्रकार की अशुद्धियां मिली हुई थीं। सन 1875 में रूसी वैज्ञानिक किरोलोव ने शुद्ध टाइटेनियम को पृथक करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इस खोज से संसार के अन्य वैज्ञानिक अपरिचित रहे। सन 1887 में स्वीडन के नील्सन तथा पेटर्सन नामक दो रसायविदों ने भी शुद्ध टाइटेनियम धातु को पृथक करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु यह टाइटेनियम भी पूरी तरह शुद्ध नहीं था। इसमें भी 5 प्रतिशत अशुद्धि मिली हुई थी।
सन 1895 में फ्रांसीसी रसायनविद हेनरी मॉइसां ने आर्क भट्टी में टाइटेनियम ऑक्साइड का हाइड्रोजन द्वारा अपचयन कर 98 प्रतिशत शुद्ध टाइटेनियम प्राप्त किया। सन 1910 में संयुक्त राज्य अमेरिका के रसायनविद हंटर ने नील्सन तथा पेटर्सन की विधि में थोड़ा संशोधन कर शुद्ध धातु प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु वास्तविकता यह थी कि यह टाइटेनियम भी शत प्रतिशत शुद्ध नहीं था। इसमें अल्प परिमाण में कुछ अशुद्धियां शामिल थीं।
शुरू-शुरू में इल्मेनाइट तथा रूटाइल नामक अयस्कों के विश्लेषण से प्राप्त टाइटेनियम ऑक्साइड का कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था। लोग इसे व्यर्थ की वस्तु समझते थे। सन 1908 में दो अमरीकी वैज्ञानिकों ने विचार व्यक्त किया कि टाइटेनियम ऑक्साइड का उपयोग सीसे (लेड) तथा जस्ते के यौगिकों के स्थान पर सफेद वर्णक (व्हाइट पिगमेंट) प्राप्त करने हेतु किया जा सकता है। सीसे तथा जस्ते से प्राप्त वर्णकों की तुलना में टाइटेनियम से प्राप्त वर्णक द्वारा अधिक क्षेत्र को रंगा जा सकता है। साथ ही टाइटेनियम से प्राप्त वर्णक सीसे तथा जस्ते से प्राप्त वर्णकों के समान विषैला भी नहीं होता। इसके बाद धीरे-धीरे टाइटेनियम ऑक्साइड का उपयोग चमड़ा, कपड़ा, कांच तथा पोर्सलेन को रंगने हेतु किया जाने लगा। इससे कृत्रिम हीरे भी बनाए जाने लगे।
कुछ समय बाद टाइटेनियम के एक अन्य यौगिक टाइटेनियम टेट्राक्लोराइड का भी उपयोग किया जाने लगा। इस यौगिक में एक विशेषता यह पाई जाती है कि यह बहुत धुआं पैदा करता है। अत: प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही युद्ध कार्यों में इसका उपयोग होता आ रहा है।
सन 1925 के पूर्व जो भी टाइटेनियम धातु के रूप में प्राप्त किया गया था, उसमें कुछ न कुछ अशुद्धि मौजूद रहती थी जिसके कारण वह भंगुर किस्म का रहता था। सन 1925 में फान आर्केल तथा डी बोर नामक दो डच वैज्ञानिकों ने टाइटेनियम टेट्राक्लोराइड के विलयन से शत प्रतिशत शुद्ध टाइटेनियम धातु प्राप्त करने में सफलता पाई। देखा गया कि विशुद्ध टाइटेनियम लचीला तथा सुघट्य था जिससे चादरें, पत्तियां तथा तार बनाए जा सकते थे। पाया गया कि लोहे की तुलना में इसका आपेक्षिक घनत्व लगभग आधा होते हुए भी यह लोहे से अधिक मज़बूत है। साढ़े छ: सौ डिग्री सेल्सियस जैसे उच्च तापमान पर भी इसकी मज़बूती बनी रहती है। यही कारण है कि उच्च तापमान पर काम में लाए जाने वाले कलपुर्ज़े तथा औज़ार टाइटेनियम से बनाए जाते हैं।
आजकल कहीं-कहीं सुपरसोनिक जेट विमान टाइटेनियम से बनाए जाते हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि यह मज़बूत होता है। दूसरा कारण है कि यह हल्का होता है। विमान उद्योग में टाइटेनियम का उपयोग धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। वायुयानों में टाइटेनियम का उपयोग इंजिन के कलपुर्ज़ों तथा मुख्य ढांचा दोनों ही के निर्माण में किया जाता है।
टाइटेनियम का उपयोग अंतरिक्ष अनुसंधान एवं तकनीक में भी किया जा रहा है। इस धातु से अंतरिक्ष यान के ढांचे तथा इंजिन आदि बनाए जाते हैं। इस दिशा में सबसे पहला प्रयोग 18 अगस्त 1964 को रूस में किया गया था। इस प्रयोग में टाइटेनियम से निर्मित संसार के सबसे पहले अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित किया गया। सन 1969 में तत्कालीन सोवियत अंतरिक्ष यात्रियों गियोर्गी शोनिन तथा वालेरी कुबासोव द्वारा अंतरिक्ष में किए गए प्रयोगों में यह पता चला कि अंतरिक्ष के निर्वात में टाइटेनियम की वेल्डिंग तथा कतरन आसानी से की जा सकती है।
आजकल टाइटेनियम का उपयोग घड़ियों तथा कैमरों के निर्माण में भी काफी अधिक किया जा रहा है। साइकल का निर्माण करने वाली कुछ कम्पनियां टाइटेनियम से सायकल की बॉडी का निर्माण कर रही हैं। ऐसी सायकलें काफी हल्की होती हैं जिससे सायकल चालक को इसे चलाने में शरीर की कम ऊर्जा खर्चनी होती है।
आजकल टाइटेनियम का उपयोग रसायन उद्योग में काम आने वाले उपकरणों के निर्माण में भी किया जा रहा है। हालांकि ऐसे उपकरणों का क्रय मूल्य स्टील से बने उपकरणों की तुलना में बहुत अधिक है, परन्तु स्टील से बने उपकरणों की तुलना में टाइटेनियम से बने उपकरण बहुत अधिक टिकाऊ होते हैं क्योंकि इन पर अम्ल, क्षार या जंग का प्रभाव नगण्य होता है।
टाइटेनियम शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में भी बहुत उपयोगी साबित हो रहा है। टाइटेनियम तथा टाइटेनियम की मिश्र धातुओं से बने शल्य औज़ार काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। इन औज़ारों की बढ़ती लोकप्रियता के कई कारण हैं। उदाहरणार्थ ये औज़ार काफी हल्के हैं इन पर जंग नहीं लगता तथा ये टिकाऊ होते हैं।
भूपटल में विभिन्न तत्वों की प्रचुरता के दृष्टिकोण से टाइटेनियम नौवें स्थान पर है। भूपटल में इसकी औसत प्रचुरता 6320 भाग प्रति दस लाख है। इसके अलावा कुछ उल्का पत्थरों में भी यह पाया जाता है। सिलिकेट उल्का पत्थरों में इसकी प्रचुरता 1800 भाग प्रति दस लाख आंकी गई है। अमरीकी अंतरिक्ष यान अपोलो द्वारा चंद्रमा की मिट्टी के कुछ नमूने पृथ्वी पर लाए गए थे। इन नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि चंद्रमा की सतह पर टाइटेनियम की काफी मात्रा मौजूद है।
भूपटल में टाइटेनियम युक्त लगभग 70 प्रकार के खनिज पाए जाते हैं जिनमें प्रमुख दो ही हैं इल्मेनाइट तथा रूटाइल। इनके अलावा स्फीन भी एक प्रमुख खनिज माना जाता है जिसे टाइटेनाइड भी कहा जाता है। इल्मेनाइट का नामकरण रूस के इल्मेन नामक पर्वत के नाम पर किया गया था जहां सबसे पहले इस खनिज की खोज की गई थी। यह काले रंग का एक कठोर खनिज है जिसका आपेक्षिक घनत्व 5 है। इसे लोग गलतफहमी से मैग्नेटाइट समझ लेते हैं, क्योंकि यह प्राय: उन्हीं प्राकृतिक अवस्थाओं में पाया जाता है जिनमें मैग्नेटाइट मिलता है। परन्तु दोनों में अन्तर यह है कि मैग्नेटाइट जहां चुम्बकत्व के गुण से युक्त होता है, वहीं इल्मेनाइट में चुम्बकत्व नहीं पाया जाता।
इल्मेनाइट-मैग्नेटाइट का विशाल भंडार संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयार्क से कुछ दूर सैनफोर्ड लेक के निकट सन 1836 में ही पाया गया था। परन्तु उस समय लोग न तो इल्मेनाइट का कोई उपयोग जानते थे और न मैग्नेटाइट से उसे अलग करने की विधि ज्ञात थी। इल्मेनाइट की उपस्थिति के कारण यहां प्राप्त होने वाला मैग्नेटाइट भी उपयोगी साबित नहीं हुआ था। अत: उस समय खनन कार्य शु डिग्री नहीं हो पाया। बीसवीं शताब्दी में जब लोगों ने टाइटेनियम की उपयोगिता समझी तथा मैग्नेटिक सेपरेटर द्वारा दोनों खनिजों को अलग करने की विधि का विकास हुआ तो यहां पर खनन कार्य शुरू हुआ।
रूटाइल भूरे लाल रंग का एक खनिज है जिसकी कठोरता मो पैमाने पर 6-6.5 है। इसका आपेक्षिक घनत्व 4.2 है। सामान्य तौर पर यह इल्मेनाइट तथा गार्नेट के साथ समुद्री किनारों पर बालू के साथ पाया जाता है।
आज संसार में इल्मेनाइट का वार्षिक उत्पादन लगभग 30 लाख मीट्रिक टन है। रूटाइल का वार्षिक उत्पादन लगभग 3.5 लाख मीट्रिक टन है। इल्मेनाइट का सबसे बड़ा उत्पादक नॉर्वे है (वार्षिक उत्पादन 8.5 लाख मीट्रिक टन)। इल्मेनाइट के उत्पादन में दूसरे स्थान पर ऑस्ट्रेलिया (वार्षिक उत्पादन 8.25 लाख मीट्रिक टन) तथा तीसरे स्थान पर संयुक्त राज्य अमेरिका है (वार्षिक उत्पादन लगभग 6.75 लाख मीट्रिक टन)। इल्मेनाइट का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देशों में शामिल है - मलेशिया, श्रीलंका तथा भारत।
रूटाइल का सबसे अधिक उत्पादन ऑस्ट्रेलिया में होता है (वार्षिक उत्पादन लगभग 1.20 लाख मीट्रिक टन)। रूटाइल का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देशों में शामिल हैं संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत तथा श्रीलंका।
भारत में इल्मेनाइट का कुल वार्षिक उत्पादन लगभग 77,000 मीट्रिक टन तथा रूटाइल का कुल वार्षिक उत्पादन लगभग 3400 मीट्रिक टन है। (स्रोत फीचर्स)