बाल्टीमोर के जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय ने कैंसर की एक नई दवा विकसित की है मगर अभी इसका क्लीनिकल परीक्षण नहीं हुआ है। जर्मनी के एक वैकल्पिक चिकित्सा केंद्र ने इस दवा का उपयोग कई मरीज़ों पर किया और उनमें से तीन की मृत्यु हो गई है। केंद्र व उससे जुड़े डॉक्टरों पर अब अनजाने में हत्या का मुकदमा चलेगा।
3-ब्रोमोपायरुवेट (3-बीपी) नामक इस दवा को कुछ शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण दवा बताया है हालांकि अभी तक इसका व्यवस्थित परीक्षण तक नहीं हुआ है। इसके असर के बारे में जो भी बातें हैं, वे प्राय: कही-सुनी बातें ही हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि फिलहाल इस दवा का उपयोग अत्यंत नियंत्रित स्थिति में ही किया जाना चाहिए।
जर्मनी में इस दवा के सेवन के बाद तीन मरीज़ों की मृत्यु को गंभीरता से लिया गया है। सबसे पहले तो जर्मन स्वास्थ्य अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से सूचना दी है कि किसी भी अन्य मरीज़ ने यदि यह दवा ली हो, या उस केंद्र में इलाज करवाया हो तो वे स्वास्थ्य केंद्रों में जाकर जांच करवाएं और सलाह लें। दूसरा, तीन मौतों की तहकीकात शु डिग्री हो गई है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि कई संगठनों ने मांग की है कि पारंपरिक/वैकल्पिक चिकित्सकों व चिकित्सा केंद्रों की ज़्यादा गहन निगरानी की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।
दरअसल इन मरीज़ों को यह दवा बायोलॉजिकल कैंसर सेंटर नामक एक वैकल्पिक चिकित्सा केंद्र में क्लाउस रॉस द्वारा दी गई थी जबकि इस दवा को अभी मंज़ूरी नहीं मिली है। रॉस ने तो दावा किया है कि वे खास तौर से उन मरीज़ों को यह दवा देते हैं जो सामान्य चिकित्सा, कीमोथेरपी वगैरह करवाकर थक चुके हैं। अपनी वेबसाइट पर रॉस ने 3-बीपी को वर्तमान में उपलब्ध सर्वोत्तम कैंसर चिकित्सा बताया है।
जहां तक 3-बीपी के सुरक्षित होने अथवा असरदार होने की बात है तो करीब एक दशक पूर्व जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में जैव रसायनविद यंग ही को तथा पीटर पेडर्सन ने रेडियोलॉजिस्ट जेफ गेशवाइंड के साथ मिलकर इसके सीमित परीक्षण किए थे। ये परीक्षण चूहों पर किए गए थे। इसके बाद लीवर के एक दुर्लभ कैंसर से ग्रस्त बच्चे पर इस दवा का परीक्षण किया गया था जिसमें शोधकर्ताओं को लगा था कि बच्चे के कैंसर की वृद्धि धीमी पड़ गई थी। हालांकि उसे बचाया न जा सका मगर डॉक्टरों का मानना था कि 3-बीपी की वजह से ही वह काफी लंबे समय तक जीवित रहा था। बाद में शोधकर्ताओं ने अपने ही परिणामों पर आशंका भी व्यक्त की थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित ऐसे परचों को पढ़कर ही रॉस ने इसके उपयोग का निर्णय लिया। चूंकि 3-बीपी एक रसायन के रूप में उपलब्ध है, और पारंपरिक चिकित्सकों के कामकाज का सख्ती से नियमन नहीं होता, इसलिए वे कई मरीज़ों को यह दवा दे पाए। अब इसीलिए यह मांग उठ रही है कि इस तरह की चिकित्सा के नियमन की कोई व्यवस्था बनाई जाए। (स्रोत फीचर्स)