कालू राम शर्मा
बच्चों को बाल साहित्य उपलब्ध करवा भर देने से बच्चे पढ़ना नहीं सीख जाते, यह बात मुझे तब समझ में आई जब मैं एक स्कूल में गया जहाँ बच्चों के स्तर को ध्यान में रखते हुए पुस्तकें उपलब्ध करवाई गई थीं। ऐसी किताबें जो बच्चों के सन्दर्भ से जुड़ें व भारी-भरकम न हों।
उस दिन मैं बच्चों के साथ पढ़ने पर काम करने के लिए उस स्कूल में गया था। मैंने शिक्षक साथियों के सामने प्रस्ताव रखा कि हम सब मिलकर बच्चों के साथ एक किताब पर काम करते हैं तो उन्होंने मेरे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। मेरे काम का एक हिस्सा यह भी है कि हम शिक्षकों को इस तरह से तैयार कर सकें कि वे स्वतंत्र रूप से बच्चों के साथ पढ़ने को लेकर काम कर पाएँ। ज़ाहिर है कि बच्चों में पढ़ने की ललक जगाने के लिए शिक्षकों को शुरुआती समर्थन की ज़रूरत है।
बच्चों के पढ़ने को लेकर तमाम शिक्षक प्रशिक्षणों में खूब काम होता दिखता है। पढ़ना क्या है, पढ़ने की प्रक्रिया क्या होती है, बच्चों की उम्र को खयाल में रखते हुए किस तरह के बाल साहित्य का चुनाव करना चाहिए इत्यादि पर शिक्षकों के साथ बातचीत भर होती रही है। लेकिन कक्षाओं में बच्चों के बीच पढ़ने को लेकर असल प्रक्रिया कैसे चलती है और इसे कैसे उस मुकाम तक पहुँचाया जाए ताकि उनमें पढ़ने की आदत का विकास स्थाई रूप से घर कर जाए - इस पर भी काम करने की ज़रूरत है।
पढ़ना सीखना और पढ़ने की आदत
यहाँ एक और बात का उल्लेख करना होगा। चूँकि मैं माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों के साथ काम करने जा रहा था इसलिए मैं मानकर चल रहा था कि बच्चों को कुछ तो पढ़ना आता ही होगा। पढ़ना सीखना और पढ़ने की आदत का विकास करना, ये दोनों वैसे तो एक-दूसरे में गुथे हुए हैं मगर दो भिन्न चीज़ें हैं। किसी बच्चे को पढ़ना सिखाने के विभिन्न चरण होते हैं जिसमें वह सन्दर्भित चित्रों व पाठ्य के मिले-जुले स्वरूप के ज़रिए पढ़ना सीखना शुरू करता है। हालाँकि, यह किन हालातों में हो रहा है, यह पढ़ने की आदत को काफी प्रभावित करता है। अगर बच्चे को भय व तनाव की स्थिति में बिना उसकी मर्ज़ी के, बिना सन्दर्भ व अर्थ-निर्माण के पढ़ना सिखाया जा रहा है तो वह चाहे पढ़ना सीख जाए मगर हो सकता है कि उसे पढ़ने से चिढ़ हो जाए। इसके विपरीत, अगर किसी बच्चे को पढ़ना सीखने के दौरान आनन्द की अनुभूति हो और लगे कि उसे पढ़कर कुछ दिलचस्प बातें पता चल रही हैं तो उसका पढ़ने की ओर अधिक रुझान बन सकता है। और यहीं से पढ़ने की आदत का विकास होता है।
चुनौतियाँ पैदा करती हैं ललक
जैसे कोई बच्चा जब सायकिल चलाना सीखता है तो उसे एक आनन्द की अनुभूति होती है, वैसे ही पढ़ना सीखना भी एक बच्चे के लिए आनन्द की अनुभूति होती है। सायकिल चलाना सीखने के दौरान बच्चे गिरते हैं, यहाँ तक कि उन्हें चोट भी लगती है मगर बच्चे के सायकिल सीखने के जोश में कमी नहीं आती। इस दौरान वह अनेक चुनौतियों का सामना करता है। दरअसल, वह चुनौतियों पर पार पाना चाहता है और यही चीज़ बच्चे को सायकिल सीखने व चलाने के लिए प्रेरित करती है।
इसी तरह पढ़ना सीखने व पढ़ने के दौरान भी चुनौतियों का सामना करना होता है। ये चुनौतियाँ होती हैं अर्थ-निर्माण की। पढ़ने के दौरान तत्काल सन्दर्भ एवं स्मृतियों से जोड़ पाने की चुनौतियाँ होती हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहें कि पढ़ने के इन आयामों को हम हाशिए पर रखते हुए केवल डीकोडिंग पर ही ज़ोर देते हैं और इसे ही पढ़ना समझने की भूल कर बैठते हैं। इसलिए अक्सर बच्चा मात्र डीकोड ही कर पाता है और असल पढ़ने से वंचित रह जाता है।
अड़ियल गाय पर बातचीत
कक्षा छठी की पूनम नाम की एक बच्ची ने सी.बी.टी. द्वारा प्रकाशित बाल पुस्तक अड़ियल गाय इशू करवाई थी। बच्चों के साथ इस पुस्तक पर काम करने से पहले मैंने उस स्कूल के शिक्षकों के साथ बातचीत की। शिक्षकों ने बताया कि वे बच्चों को किताबें उपलब्ध करवाते हैं और फिर बच्चे अपनी मर्ज़ी से किताब उठाते हैं और पढ़कर उसे वापस रख देते हैं।
मैंने जब बच्चों से पूछा तो उन्होंने बताया कि वे किताबें ले जाते हैं और उन्हें बिना पढ़े या आधी-अधूरी पढ़कर दूसरी किताब इशू करवाने को उत्सुक होते हैं। बच्चों में होड़ दिखाई दी कि ‘मैंने भी किताब इशू करवाई’।
मैंने शिक्षकों से अनुरोध किया, “अगर हम बच्चों के पढ़ने की प्रक्रिया में स्वयं भी शामिल होकर देखें तो कैसा हो?” इसके निहितार्थ यह भी हैं कि एक तो हम यह समझ सकेंगे कि बच्चे किस तरह से पढ़ते हैं और अर्थ निर्माण करते हैं और दूसरा, हम बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित भी कर सकेंगे।
शिक्षकों ने मेरे अनुरोध को स्वीकार किया और हमने कुछ बातें तय कीं, जैसे बच्चे जैसा भी पढ़ें, हम उन्हें टोकेंगे नहीं। अगर गलत पढ़ रहे हैं, अटक-अटककर पढ़ रहे हैं तो हम उन्हें रोकेंगे नहीं। पढ़ते हुए बीच-बीच में रुकेंगे, जहाँ हमें लगता है कि अब बातचीत करने की ज़रूरत है। अगर हमें लगता है कि किसी शब्द का अर्थ बच्चों को समझ में नहीं आ रहा है तो उन्हें सोचने के अधिक-से-अधिक मौके देंगे। अगर बात नहीं बन रही है तो हम कुछ उदाहरण देंगे। अड़ियल गाय किताब को बच्चे सामूहिक तौर पर पढ़ेंगे और बातचीत करेंगे।
गर्मी के दिनों में मध्यप्रदेश में स्कूलों का वक्त सुबह का तय किया गया था ताकि बच्चों को तपती गर्मी में परेशान न होना पड़े। सुबह साढ़े सात बजे कक्षा में नौ बच्चे जमा हुए। मैं और उस स्कूल के तीन शिक्षक कक्षा में पहुँचे। बच्चों से कहा कि आज हम अड़ियल गाय नामक किताब पढ़ेंगे। चूँकि हमारे पास एक ही किताब उपलब्ध थी इसलिए हमने तय किया कि उसी किताब को बच्चे बारी-बारी से पढ़ेंगे और उस पर बातचीत करेंगे।
एक और बात करना यहाँ प्रासंगिक है कि शिक्षक बच्चों के साथ पढ़ने को लेकर कैसे काम करें -- इस पर शिक्षकों की कोई तैयारी नहीं थी। शिक्षक प्रशिक्षणों में भी पढ़ने पर बात तो होती है मगर पढ़ने को लेकर किस तरह से काम करना है, इस पूरी प्रक्रिया पर बातचीत कम ही होती है। इसलिए मुझे लगा कि शिक्षकों को ऑन-साइट समर्थन देने की ज़रूरत है। एक बात और कि पढ़ने पर बातचीत करने भर से बात नहीं बनने वाली है। इसे बच्चों के साथ काम करते हुए ही समझा जा सकता है कि पढ़ना सीखना कैसे सम्भव होता है व पढ़ने के दौरान किस प्रकार के मसले सामने आते हैं।
लिहाज़ा, हम कक्षा में गए और शुरुआती बातचीत के बाद किताब पर काम करना शुरू किया। बच्चों को किताब का मुख्य पेज दिखाया। “अड़ियल का मतलब क्या होगा?” बच्चों ने अनुमान लगाया। एक बच्ची बोली, “अटकना।” हमने कहा, “थोड़ा आगे पढ़ते हैं। इस पर बाद में बात करेंगे।”
बच्चों ने बारी-बारी से पढ़ना शु डिग्री किया। पहले पन्ने के चित्र में एक ग्वाला और गाय के बीच संवाद है। अड़ियल गाय बैठी हुई है। ग्वाला गाय को उठाना चाहता है। ग्वाला गाय से कहता है -- ‘तुम चलो। बच्चे दूध की राह देख रहे होंगे। हलवाई मिठाई बनाने का इन्तज़ार कर रहा होगा। किसान भी बैठे होंगे कि छाछ मिले तो ठण्डक महसूस करें।’ पहले बच्चे ने इसे ठीक-ठीक पढ़ा। बच्चों को समझ में आया। अन्य बच्चों से पूछा कि क्या पढ़ा गया। बच्चों ने अपने शब्दों में इस घटना के बारे में बताया।
अगले बच्चे की बारी आई। यह बच्ची धीमी आवाज़ में पढ़ रही थी। कक्षा में दो पंखों की आवाज़ में बच्ची के पढ़ने की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। इसलिए पंखों को कुछ देर के लिए बन्द कर दिया गया। अब वह जो पढ़ रही थी, वह सुनाई दे रहा था। कहानी का दूसरा पात्र पुलिसवाला है जो उधर से गुज़र रहा था। पुलिस वाले ने गाय को उठाने की कोशिश की। गाय उठने का नाम नहीं ले रही थी।
अब बच्चों से पूछा कि अड़ियल का अर्थ क्या होगा? बच्चों ने कहा, “जो अड़ा रहे। ... जो किसी की न सुने।” शुरुआत में जो सवाल ‘अड़ियल’ शब्द के अर्थ को लेकर किया गया था, दो पन्ने पढ़ लेने के बाद बच्चों को समझ में आया।
बच्चों के चेहरों पर खुशी थी। अब वे कहानी के पैटर्न को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। कहानी का अगला पात्र दुकानदार है।
चौथे क्रम पर पहलवान है। पहलवान गाय को उठाने की कोशिश करता है। पहलवान कहता है कि ‘तुम लोग एक गाय को भी नहीं उठा सकते’। आखिर पहलवान भी गाय को उठा नहीं पाता। इस पाठ्य में एक शब्द ‘पुष्ट’ आया। “इसका अर्थ क्या होगा?” बच्चे कुछ देर के लिए सोच में डूब गए। पहलवान को लेकर दो शब्द थे - पहला, कसरती और दूसरा, पुष्ट। कसरती का अर्थ तो बच्चे समझ गए। पुष्ट का मतलब बच्चों ने बताया - हट्टा-कट्टा। पढ़ते हुए शब्दों के अर्थ-निर्माण में अनुमान की भूमिका अहम है। यहाँ बच्चे अनुमान लगाने की कोशिश में सफल होते दिख रहे थे।
अगले क्रम में इंजिनियर आता है। इंजिनियर शब्द से बच्चे परिचित थे - जो घर, सड़क, पुल बनाते हैं। इसमें एक वाक्य है - ‘उसके पास काफी लम्बी-चौड़ी डिग्री थी’। बच्चों से डिग्री का अर्थ पूछा। बच्चे बता नहीं सके। इस पर बच्चों को समझाने के लिए इशारा किया, “तुम पाँचवीं पास हो चुके हो। तुम्हारे पास पाँचवीं की अंकसूची है। यही तुम्हारी डिग्री है। इसी तरह से जो शिक्षक हैं उन्होंने जो पढ़ाई की है, वही उनकी डिग्री है। जैसे कि एक शिक्षक एम.कॉम. हैं। एक ने बी.एससी. किया है। एक अन्य ने एम.एससी. किया है। ये डिग्री हैं। इंजिनियर के पास बी.ई. की डिग्री है।” आगे इंजिनियर कहता है कि ‘लगता है, यहाँ जड़ता का सिद्धान्त काम कर रहा है’। “जड़ता का सिद्धान्त क्या है?” बच्चों के लिए यह शब्द अनजाना था। कक्षा में तीनों शिक्षक और मैं कुछ देर के लिए अवाक रह गए। आखिर जड़ता के सिद्धान्त को कैसे समझाया जाए। पूछा, “अच्छा बताओ, जड़ता से क्या मतलब है?” बच्चों ने बताया, “जो हिलता-डुलता नहीं। सिद्धान्त मतलब उसूल। मतलब कि जो हिलने-डुलने का नाम ही नहीं ले।”
इस पर भी बात हुई कि एक तो हम अपने लिए पढ़ते हैं और दूसरा, अगर आप पढ़कर किसी को सुना रहे हैं तो इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए कि वह उसे समझ सके। बच्चों व शिक्षकों के बीच माहौल में सरगर्मी थी।
जब कहानी में मूंगफली वाला आता है तो उसमें ‘सौंधी खुशबू’ शब्द आता है। बच्चों ने यह शब्द नहीं सुना था। उन्हें बताया गया, “सौंधी गन्ध को तुम भले ही न जानते हो मगर अनुभव किया होगा। एकदम सूखी मिट्टी में पानी की बौछारें गिरती हैं तो उसमें से जो खुशबू आती है।” बच्चे समझ गए और बोल उठे, “नए मटके में जब पानी भरते हैं तो उसमें से भी मिट्टी की गन्ध आती है।”
आखिरी में, दूसरी कक्षा का एक बच्चा आता है। वह गाय को उठा पाता है। वह अपने हाथ में घास का ढेर लिए होता है। गाय घास खाने लगी और बच्चा उसे खिलाते हुए एक तरफ ले गया। बच्चा जानता था कि उसे क्या करना है।
कहानी का समापन दिलचस्प ढंग से होता है जिसमें बच्चों को बड़ा मज़ा आया -- ‘मूंगफली वाले ने उस बच्चे को शाबाशी दी जिसने गाय को खिसकाया। दुकानदार ने तालियाँ बजाईं। पुलिस वाले ने खुश होकर अपना डण्डा हवा में लहराया। और पहलवाल ने खीसे निपोरे।’ बच्चों से पूछा गया, “खीसे निपोरने का क्या मतलब है?” बच्चे सोच में डूबे हुए थे। उन्हें समझाया, “यह एक मुहावरा है। इसका अर्थ है कि पहलवान इतना ताकतवर होता है मगर वह एक गाय को नहीं उठा सका। अपने आप को शर्मिन्दा महसूस करना ही ‘खीसे निपोरना’ है।”
एक सवाल बच्चों के सामने रखा, “अगर इस कहानी के पात्रों को उलट-पलट कर दें तो कहानी पर क्या फर्क पड़ेगा?” बच्चों ने कहा, “किया जा सकता है।” उनसे पूछा, “अगर दूसरी के बच्चे को बीच में सरका दें तो क्या होगा?” इस पर बच्चों ने ही बताया कि इससे कहानी बिगड़ जाएगी। बेशक, बच्चों को यह बात समझ में आई कि कहानी का आखिरी पात्र ही कहानी में रोमांच भरता है।
कहानी से उपजी गतिविधियाँ
इस कहानी को पढ़ने के बाद कुछ गतिविधियाँ की गईं जैसे घटनाओं का क्रम क्या है, कौन-कौन आए गाय को उठाने के लिए -- यह सब बच्चे खुशी-खुशी बता सके। शिक्षक ने बच्चों से पूछा, “ ‘मूंगफलीवाला’ में ‘वाला’ आखिरी में आया है। इस तरह के और शब्द बताओ।” बच्चों ने बताना शु डिग्री किया, “चायवाला, दूधवाला, आमवाला, मिठाईवाला, तांगेवाला, टोपीवाला, सब्ज़ीवाला...।”
तत्पश्चात बच्चों को कहानी सुनाने को कहा गया। उन्होंने कहानी अपने शब्दों में कही। साथ ही, बच्चों को इस कहानी पर एक नाटक मंचन का सुझाव दिया गया और कुछ देर के लिए उन्हें समूह में बात करने के लिए छोड़ दिया गया। नाटक में कौन बच्चा क्या बनेगा, यह बच्चों को ही तय करना था। “गाय कौन बनेगा?” एक शिक्षक ने कहा, “मैं गाय बनूँगा।”
नाटक का मंचन किया गया। बारी-बारी से जो पात्र कहानी में गाय को उठाने के लिए आते हैं, उसी क्रम में नाटक के दौरान आते हैं। यहाँ यह उल्लेख करने की ज़रूरत है कि जैसा कहानी में लिखा गया है, बच्चों के डायलॉग उससे फर्क थे लेकिन उनका भाव वही था जो कहानी में व्यक्त किया गया है।
इस कहानी को बच्चों के साथ पढ़ने पर मुझे व शिक्षक साथियों को कुछ बातें समझ में आईं। एक तो बच्चे खुद से किताब को नहीं पढ़ पाते, उन्हें पढ़ने के लिए तैयार करना होता है। पढ़ने की प्रक्रिया केवल एक-रेखीय नहीं है बल्कि इस दौरान घटनाओं व पाठ्य में आए शब्दों को सन्दर्भ से जोड़ने की ज़रूरत होती है। इसके लिए शिक्षक को धैर्य की ज़रूरत है। पढ़ना एक दिलचस्प मगर धीमी प्रक्रिया है। पढ़ना सीखना व पढ़ने की आदत पड़ना सीढ़ी-दर-सीढ़ी होता है। इस पूरी प्रक्रिया में गलतियाँ करने के भरपूर अवसर देने होंगे। हाँ, उन गलतियों पर तुरन्त टोकने की ज़रूरत नहीं बल्कि शिक्षक उन्हें ज़ेहन में रखें व जहाँ मौका मिले, उन पर बच्चों का ध्यान आकर्षित करें। इस कहानी पर काम के दौरान समझ में आया कि पढ़ना सीखने व पढ़ने की आदत बनाने के लिए बच्चों के साथ-साथ शिक्षक को भी काम करने की ज़रूरत है। इस दौरान बच्चों को कौन-से शब्दों के अर्थ समझ में नहीं आ रहे होंगे, इसकी टोह भी लेनी होगी। कई बार बच्चे पूछने में संकोच करते हैं। इसके लिए संकोच-मुक्त कक्षा का निर्माण करना होगा।
कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।
सभी चित्र सी.बी.टी. द्वारा प्रकाशित किताब अड़ियल गाय से साभार।