लेखक : बिंदु ए. बंबाह
अनुवाद: मनीषा शर्मा
महिला वैज्ञानिक: 4
विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पर आस-पास के परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विज्ञान को अपना कार्य क्षेत्र चुनने के पक्ष में शायद सबसे पहला प्रभाव इस बात से पड़ता है कि स्कूल में गणित और विज्ञान पर कितना ज़ोर दिया जाता है। पढ़ाने वाले महिला और पुरुष शिक्षक भी इस बारे में उनकी सोच को प्रभावित करते हैं कि महिलाएँ विज्ञान के क्षेत्र में सफल हो सकती हैं या नहीं।
मैं बहुत भाग्यशाली थी कि स्कूल के दिनों में मेरे सामने अनेक सकारात्मक आदर्श शिक्षक थे जिन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया और मेरी वैज्ञानिक समझ को जगाया। किसी वैज्ञानिक विधि का सबसे पहला अनुभव मुझे 1967 में हुआ जब मैं दस वर्ष की थी। उसी वर्ष डॉक्टर क्रिश्चियन बर्नार्ड ने पहला हृदयारोपण किया था। हमारी शिक्षिका मिस जेसिका केलर, जो अत्यन्त उत्साही विज्ञान शिक्षिका थीं, कक्षा में सुअर का हृदय लेकर आईं और हमें पूरी प्रक्रिया समझाई। वह वाकई चकित कर देने वाला अनुभव था। उसके बाद 1969 में पहली बार मानव चन्द्रमा पर पहुँचा और तब हमें चन्द्रमा के पत्थरों को देखने के लिए (वेधशाला) ले जाया गया। बाह्य-अन्तरिक्ष के संसार ने मुझे प्रकृति के भौतिक पहलुओं का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।
बाद में, हाई स्कूल में हमारी भौतिक विज्ञान की शिक्षिका सिस्टर विंसेंट ने क्वांटम मैकेनिक्स और उसके सभी वैज्ञानिक रहस्यों के साथ हमारा परिचय कराया। हमारे रसायन शास्त्र के शिक्षक मिस्टर प्यारा सिंह ने बेंज़ीन की संरचना समझाने के लिए हमें केकुले के साँप की कहानी सुनाई। मैं इस बात के लिए अपने शिक्षकों की बहुत ऋणी हूँ कि उन्होंने कभी हमारे साथ जेंडर आधारित भेदभाव नहीं दर्शाया। उन्होंने हमारे उत्साह को बढ़ाया और बताया कि अपने अधिकारों के लिए एक जुट होकर लड़ते हुए लक्ष्य प्राप्ति तक आगे बढ़ते जाना होगा। अब जब मैं जीवन के सभी पहलुओं में घुस चुके भौतिकवाद और विद्यार्थियों की परीक्षा-केन्द्रित शिक्षा को देखती हूँ, तो मुझे यह महसूस होता है कि आज हमारे पास स्कूलों में ऐसे समर्पित और प्रेरणा देने वाले शिक्षक होना बहुत ज़रूरी है।
मुझे कभी भी विज्ञान में इतना मज़ा नहीं आया था जितना मुझे अपने स्कूल के वर्षों के दौरान आया। इसीलिए जब आगे के कैरियर के लिए विषय चुनने की बात आई तो मुझे स्पष्ट था कि मैं विज्ञान पढ़ना चाहती हूँ।
काफी सोच-विचार के बाद मैंने अपने ही शहर में पंजाब विश्वविद्यालय के भौतिकी के समेकित पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने का निर्णय लिया, इस तथ्य के बावजूद कि राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिभा खोज परीक्षा में मेरी सफलता के कारण मुझे पिलानी के बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑॅफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी (बिट्स) और कानपुर के भारतीय तकनीकी संस्थान (आई.आई.टी.) से उनके समेकित कार्यक्रमों में प्रवेश के प्रस्ताव मिले थे। यह मेरे जीवन का सबसे पहला निर्णय था जो मेरे जेंडर से प्रभावित था। मुझे यह स्वीकार करना होगा कि लड़कियों के स्कूल में पढ़ाई करने के कारण अचानक पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा के बारे में सोचकर मैं हतोत्साहित हो गई थी।
शायद यह उन बहुत सारे कायरतापूर्ण निर्णयों में से एक था जो मेरे कैरियर के दौरान घटे थे। लिंग-भेद से प्रेरित मेरे इन्हीं कृत्यों के कारण मैं वैज्ञानिक के रूप में अपनी वास्तविक क्षमता को पूरी तरह हासिल नहीं कर पाई। और इस तरह मैंने एक ऐसी विशिष्ट विद्यार्थी होते हुए भी, जिसका नाम राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिभा परीक्षा में देश के सर्वोपरि 10 विद्यार्थियों में आया था, घर पर ही रहते हुए कॉलेज जाने का एक आसान विकल्प चुना जबकि मैं और कहीं भी जा सकती थी। क्या यह मेरा चुनाव था? या भयभीत रहने की मनोवृत्ति जो हमारे समाज द्वारा युवा लड़कियों में पैदा कर दी जाती है? एक बात मैं निश्चित रूप से जानती हूँ कि यदि मैं इन्हीं सब योग्यताओं के साथ लड़का रही होती तो ये सब संशय पैदा ही नहीं होते और मैंने विज्ञान के इस प्रतिस्पर्धात्मक जगत में अधिक आत्म-विश्वास के साथ साहसपूर्वक कदम बढ़ाया होता। सौभाग्यवश आजकल युवा लड़कियों के लिए परिस्थितियाँ बदल गई हैं। सर्वोत्कृष्ट संस्थानों में शायद अब उतना लिंग आधारित भेद-भाव नहीं होता और जो शंकाएँ मेरे मन में थीं मुझे उम्मीद है कि शायद वे अब कोई मुद्दा नहीं रह गई हैं।
उस समय मेरा लक्ष्य गणितीय जैव-भौतिकी का अध्ययन करना था, लेकिन तब मैं बुनियादी कणों के विचित्र एवं अद्भुत संसार के आकर्षण के बारे में नहीं जानती थी। एम.एससी. में सौभाग्यवश मुझे दो बहुत ही प्रेरणा-दायक शिक्षक मिले, डॉक्टर जतिन्दर बजाज और प्रोफेसर एम. पी. खन्ना जो आधारभूत कण-भौतिकी को लेकर उत्साह से भरे रहते थे। वह एक मोहक और उत्तेजित करने वाला संसार था और मैं उस ओर खिंची चली गई। उसमें वह सारी गणितीय शुद्धता और जटिलता थी जो मुझे सहज रूप से अच्छी लगती थी। वह अमूर्त भी था और साथ ही नैसर्गिक भी। इसलिए मैंने आधारभूत कण भौतिकी में पीएच.डी. करने का निर्णय लिया। उस समय जो मैं नहीं समझ पाई वो यह था कि अपने मूलत: भयभीत रहने वाले लेकिन प्रतियोगी स्वभाव के साथ मैं संसार के सबसे ज़्यादा गलाकाट स्पर्धावाले और सटीकता की मांग करने वाले कार्य-क्षेत्र में प्रवेश कर रही थी। वहाँ का संसार तो एक किस्म का जंगल था और मैं थी एक छोटे कस्बे की लड़की जिसके मन में वर्षों से भय पैदा किया जा रहा था, जो इस सुन्दर किन्तु खतरनाक संसार के लिए तथा इस क्षेत्र में व्याप्त पुरुष-प्रधानता के लिए कतई तैयार नहीं थी।
अपने कन्धों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी और आधारभूत कण-भौतिकी में कुछ करने की अभिलाषा के साथ मैंने शिकागो विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। नए विद्यार्थियों की इस कक्षा में मैं एकमात्र महिला थी। मैं अत्यन्त प्रतिस्पर्धात्मक युवा पुरुषों से घिरी हुई थी जिन्होंने मुझे कतई संजीदगी एवं गम्भीरता से नहीं लिया। हालाँकि मुझे प्रोफेसर योइचिरो नांबू जैसे सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। वे बहुत ही प्रेरणास्पद थे पर साथ ही उनसे भय भी लगता था, तथापि मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। मैं और बहुत कुछ सीख सकती थी अगर मैं पुरुष-प्रधान संसार में औरत होने की समस्या से जूझ नहीं रही होती।
पहली बार मुझे महसूस हुआ कि किसी शान्त अमौलिक महिला की तुलना में एक चिन्तनशील, अन्तर्प्रेरित महिला के सफल होने की सम्भावना कम होती है। चारों ओर ऐसा ज़बर्दस्त माहौल बनाया जाता था कि एक नम्र और बहुमुखी रूप से बुद्धिजीवी महिला वैज्ञानिक शोध के कठिन परिश्रम को झेलने के लिए पर्याप्त रूप से कठोर नहीं होती। भौतिक शास्त्र के लिए मेरा प्रेम और भौतिक शास्त्री होने की तीव्र लगन का, उस माहौल में ढल जाने और एक स्वस्थ सामाजिक जीवन की मेरी ज़रूरत के साथ हमेशा अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता था। आखिरकार, अमेरिका में शोध के विभिन्न अवसरों के बावजूद मैंने भारत वापस आने का निर्णय लिया। मैं अमेरिका में भौतिकशास्त्र से जुड़ी एक महिला पर पड़ने वाले दबावों को नहीं झेल सकी। यह बेहद कठिन था कि एक ही समय आपको एक वैज्ञानिक और एक महिला के रूप में स्वीकार किया जाए। यह स्वीकार्यता इसलिए भी कठिन थी क्योंकि भौतिकशास्त्र पूरी तरह से ‘पुरुषों का क्लब’ था। इन सबसे मुझे यह सन्देश मिला कि अगर एक महिला को कामयाब होना है तो उसे खोजकर्ता होने की बजाय किसी का अनुयायी बनना होगा।
मैंने महसूस किया कि भारत में महिलाओं के प्रति इस तरह का भेद-भाव यद्यपि खुले तौर पर नहीं था, परन्तु दबे रूप में वही स्थिति मौजूद थी। नेतृत्व पुरुषों के हाथ में था लेकिन महिलाओं का भी एक हद तक उचित प्रतिनिधित्व था। वे एक स्तर तक आगे बढ़कर अपने लिए एक सुविधापूर्ण क्षेत्र बना सकती थीं, और फिर वे उसी दायरे के भीतर विज्ञान का काम करती रहतीं। यह काम करने के लिए ठीक माहौल था, परन्तु अचानक एक स्तर तक पहुँचकर समझ में आता है कि आपके भीतर अब स्पर्धात्मक भावना बची ही नहीं है। अमेरिका के विपरीत जहाँ विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत थोड़ी-सी महिलाएँ एक-दूसरे को सहारा देती थीं, मैंने भारत में पाया कि भौतिकशास्त्र में महिलाएँ एकजुट न होकर एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा में लगी रहती थीं। अमेरिका के समान यहाँ न तो आपस में कोई बहनों जैसी भावना थी और न है, शायद इसलिए क्योंकि यहाँ हर महिला वैज्ञानिक, पुरुष वैज्ञानिक समुदाय में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में लगी रहती है। महिलाओं की योग्यता का बचाव करना तब बेहद मुश्किल हो जाता है, जब आपकी टांग खींचने वाला व्यक्ति कोई महिला ही हो।
जैव-भौतिकशास्त्री एवलिन फॉक्स केलर द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का मुझ पर हाल ही में बहुत प्रभाव पड़ा। विज्ञान की प्रकृति उस पुरुषवादी सोच के तरीकों से कहाँ तक सम्बन्धित है जिसने इसे पैदा किया, और क्या इस तरह से रचा गया विज्ञान वाकई वैश्विक और वस्तुनिष्ठ हो सकता है? मेरा विचार है कि लिंग-आधारित भेदभाव और विज्ञान, दोनों ही सामाजिक रूप से बनाए गए दृष्टिकोण हैं। ऐतिहासिक रूप से, सामाजिक रूप से बनाए गए भावना-प्रधान स्त्रियोचित गुणों के विपरीत, सामाजिक रूप से गढ़े गए तर्कप्रधान पुरुषोचित गुणों से विज्ञान का गठजोड़ कहीं ज़्यादा मज़बूत है। हमें अपने ध्यान का केन्द्र बदलने की, और वैज्ञानिकों में विविधता बढ़ाने की आवश्यकता को स्वीकार करने की बेहद ज़रूरत है, और स्त्री-पुरुष समानता इसकी कुंजी है।
सैद्धान्तिक भौतिकशास्त्र गणितीय रूप से साफ-सुथरा है; यह हमारे आस-पास की दुनिया को आधारभूत ढंग से समझाता है। अगर और अधिक महिलाओं को इसका अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया जाए तो यह अधिक समृद्ध होगा।
लिंगभेद के कारण हुई सभी मुश्किलों ने मुझे मज़बूत, और कामयाब होने के लिए अधिक महत्वाकांक्षी भी बनाया है, और मैं विज्ञान के क्षेत्र में बिना किसी खेद या हीनभाव के काम करती हूँ। मुझे उम्मीद है कि मेरे अनुभव इसी तरह के विकल्पों से जूझ रही युवा लड़कियों की मदद करेंगे। उन्हें इस क्षेत्र में जाना चाहिए, एक-दूसरे की मदद करना चाहिए, और अवसरों का पूरा लाभ उठाना चाहिए।
बिंदु ए. बंबाह: 1983 में शिकागो स्कूल ऑफ फिज़िक्स से पीएच.डी. की। युनेस्को के ‘यंग साइंटिस्ट अवार्ड’ से सम्मानित और पी.एम.एस. ब्लैकेट स्कॉलरशिप की विजेता रहीं। वर्तमान में सैद्धान्तिक उच्च उर्जा भौतिकी और गतिकी विषयक पद्धतियों (Theoretical High Energy Physics and Dynamical Systems) पर कार्य कर रही हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनीषा शर्मा: शिक्षा से चिकित्सक हैं। विज्ञान और शिक्षा में गहरी दिलचस्पी। अनुवाद करने का शौक है। दिल्ली में रहती हैं।