शीला के. प्रसाद
सामाजिक विज्ञान के अनेक शिक्षक इस बात को लेकर चिन्तित रहते हैं कि सामाजिक विज्ञान को बच्चों के लिए रुचिकर कैसे बनाएँ। उन्हें विज्ञान की प्रयोगशालाओं से बाहर निकलते हुए बच्चों के उत्साह को देखकर थोड़ी-सी ईर्ष्या का भी अनुभव होता है। वे यह महसूस करते हैं कि उनके विषय का अध्यापन कठिन है क्योंकि उसे विज्ञान की तुलना में बच्चों के अनुभवों से जोड़ पाना और इस तरह बच्चों के लिए प्रासंगिक बना पाना कहीं ज़्यादा मुश्किल है।
जबकि सामाजिक विज्ञान में आस-पास के अनुभवों से सीखना कहीं ज़्यादा सम्भव है। सामाजिक विज्ञान प्रत्येक गाँव और शहर में मौजूद है, वह प्रत्येक बाज़ार, पंचायत और घर से जुड़ा हुआ है। किसी भी बच्चे के आस-पास का वातावरण सामाजिक विज्ञान के अनुभव आधारित सीखने के तरीकों का सबसे उपयुक्त क्षेत्र है। यह तो शिक्षक और विद्यार्थी पर निर्भर है कि वे सामाजिक विज्ञान के लिए इस समृद्ध संसाधन को कैसे उपयोग में लेते हैं।
महिला सशक्तिकरण के बारे में जानने के लिए मौखिक इतिहास को एक औज़ार के रूप में प्रयोग में लाने सम्बन्धी मेरे अनुभवों के बारे में अब मैं चर्चा करुँगी। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने अपना नज़रिया काफी खुला रखा और अनुभवों के आधार पर मैं लड़कियों के साथ की चर्चाओं में बदलाव लाती रही। मूल विषय में बदलाव के साथ-ही-साथ तरीका भी बदलता जा रहा था। इस अनुभव से मैंने मौखिक इतिहास और सामाजिक विज्ञान के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए प्रयोग में लाए जा सकने वाले कुछ तरीकोंें के बारे में सीखा।
मौखिक इतिहास के प्रोजेक्ट सामान्यत: दो में से एक नज़रिए को लेकर चलते हैं। पहला तरीका किसी क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित घटना, व्यक्ति या ऐतिहासिक विकासक्रम के बारे में जानकारी हासिल करने से सम्बन्धित होता है। दूसरी विधि इस बात का पता लगाने से सम्बन्धित है कि व्यापक असर वाले किसी ऐतिहासिक विकासक्रम ने किसी क्षेत्र-विशेष को किस तरह प्रभावित किया। मैंने यहाँ बाद वाला तरीका इस्तेमाल किया।
शुरुआत में मैंने सोचा था कि बच्चे निटाया में हरित क्रान्ति के बारे में जानकारी हासिल करने में रुचि लेंगे, क्योंकि यह उस इलाके को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी घटना थी। लेकिन ज़्यादातर लड़कियों में इस विषय के प्रति रुचि का अभाव नज़र आया। जबकि महिला अधिकारों या लड़कियों और लड़कों के बीच के फर्क के बारे में बात करने पर लड़कियाँ उसमें खूब रुचि के साथ भाग ले रही थीं। वे उस उम्र में थीं जब यह फर्क ज़्यादा खुल कर सामने आने लगते हैं। लड़कियों के पास महिला मुद्दों को लेकर बहुत-से सवाल थे और साथ ही उनके पास इनके बारे में अपनी अन्तर्दृष्टि भी थी। रुचि, जिज्ञासा और अनुभव आधारित जानकारी के इस सामंजस्य ने काम करने के लिए मज़बूत आधार उपलब्ध कराया।
कैसे करें साक्षात्कार
शुरुआत में मैंने छात्राओं को साक्षात्कार यानी इंटरव्यू करने के कौशल के बारे में बताया। साक्षात्कार मौखिक इतिहास जुटाने का तरीका है और इसलिए मुझे लगा कि इसके बारे में बताने का यह सही मौका है। मैंने सोचा कि बच्चे स्वाभाविक रूप से साक्षात्कार कर पाएँगे। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम इस तरीके को अक्सर अपनाते हैं। जब हम मिलते हैं तो एक-दूसरे के बारे में जानकारी लेते-देते हैं। जब हम किसी दिलचस्प अनुभव के बारे में सुनते हैं तो उस बारे में सवाल करते चले जाते हैं जब तक कि हमारी जिज्ञासा शान्त नहीं हो जाती।
लेकिन मैंने पाया कि यह इतना स्वाभाविक नहीं था। रोज़मर्रा साक्षात्कार करना स्वाभाविक होता है क्योंकि हमारी उन विषयों में दिलचस्पी होती है। शु डिग्री से मैंने अपने विद्यार्थियों को उन विषयों पर साक्षात्कार लेने के लिए प्रोत्साहित किया, जिनके बारे में मुझे लगता था कि उनकी दिलचस्पी हो सकती है। लेकिन यह विधा उनके लिए स्वाभाविक नहीं थी। जब पहले से तैयार सवालों के आधार पर साक्षात्कार किए जाते तब वे सवालों के सीधे और संक्षिप्त जवाब लेकर चले आते जिनमें ज़्यादा गहरे और दिलचस्प तथ्यों के बारे में छानबीन की कोशिश नहीं होती; उनसे सम्बन्धित और सवाल पूछने या साक्षात्कार को विस्तार देने या सामने वाले को बोलने के लिए प्रोत्साहित करने की रुचि का भी अभाव नज़र आता।
मुझे इसके दो कारण समझ में आए। पहला, विषय में पर्याप्त रुचि नहीं होना। शुरुआत के कुछ मामलों में मैंने उन्हें पूर्व-अनुभवों या कक्षा में हुई चर्चाओं के आधार पर साक्षात्कार करने का काम नहीं दिया बल्कि खुद मुझे जिन विषयों के बारे में लगा कि इनमें उनकी दिलचस्पी हो सकती है उन्हीं के बारे में साक्षात्कार करने के लिए कहा। इन शुरुआती कार्यों का उद्देश्य भी साक्षात्कार कौशल का विकास करना था इसलिए उनकी विषय वस्तु पर मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया।
दूसरा, क्योंकि ये सब चर्चाएँ स्कूल के अन्दर हो रही थीं इसलिए उन्होंने सौंपे गए कार्यों को स्कूल में दिए गए कार्यों की ही तरह लिया जिसे जाँच कर उसके आधार पर शिक्षक उन्हें पास-फेल करते हैं। उन्होंने इन कार्यों को खुद अपने लिए नहीं बल्कि मेरे लिए किया था। मुझे यह एहसास हुआ कि वे अच्छे साक्षात्कारकर्ता बनें इसके लिए सबसे पहले तो विषय में खुद उनकी स्वाभाविक दिलचस्पी होना ज़रूरी है ताकि उनके साक्षात्कार उस विषय के बारे में अधिक-से-अधिक जानकारी हासिल करने के साधन बन सकें।
इन समस्याओं से निपटने के लिए मैंने अपने ध्यान को साक्षात्कार से हटा कर विषय पर केन्द्रित किया। आरम्भिक पाठों के दौरान मैंने यह महसूस किया था कि लड़कियों में महिलाओं की भूमिका और महिला सशक्तिकरण को लेकर काफी दिलचस्पी थी और वे इसके बारे में जानने को भी काफी उत्सुक रहती थीं। शुरुआती सत्रों में कई साक्षात्कार इसी विषय के इर्द-गिर्द बुने गए थे।
चित्र बने माध्यम
महिला सशक्तिकरण के विषय में छानबीन करने के लिए मैंने लड़कियों को उन कामों के चित्र बनाने को कहा जो ‘लड़कियों के काम’ और ‘लड़कों के काम’ कहलाते हैं। यह कार्य उन्होंने समूह में किया। ऐसा विषय जिस पर बात करने में अन्यथा झिझक आड़े आ सकती थी उस पर चर्चा की शुरुआत के लिए यह एक बेहतर तरीका साबित हुआ; क्योंकि जिन बातों को सबके सामने खुलकर बोलने में झिझक हो सकती थी उन्हें उनके बारे में चित्र बनाकर काफी कुछ बताने का अवसर मिल गया था। इसके बाद इन चित्रों के माध्यम से जो फर्क नज़र आए उनके बारे में लड़कियों ने चर्चा की। सबसे बड़ा फर्क यह था कि लड़के बाहर जाकर खेल सकते हैं जबकि लड़कियों को घर में रहकर काम करने होते हैं।
अगले सत्र में सशक्तिकरण के संकेतकों का पता लगाने के लिए लड़कियों ने समाचार पत्रों में छपी महिलाओं की तस्वीरों की कतरनों को देखा। हमने एक बड़े समूह में इस बारे में चर्चा की कि इन तस्वीरों में छपी महिलाएँ क्यों सशक्त हैं, या सशक्त नहीं हैं। तस्वीरों का दायरा काफी व्यापक था जिनमें सोनिया गाँधी, हँसती हुई लड़कियों का समूह, बीयर पीती महिला, कम्प्यूटर पर काम करती महिला और ऐसे ही अनेक चित्र शामिल थे। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि लड़कियों की राय में ये सभी महिलाएँ सशक्त थीं। इतना ही नहीं उनका यह भी मानना था कि ये महिलाएँ सिर्फ खुल कर बात करने या लड़कों के बीच आत्मविश्वास से भरे होने में ही नहीं बल्कि सशक्तिकरण के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। इस अभ्यास के द्वारा लड़कियों ने खुद अपनी विचार प्रक्रिया के माध्यम से सशक्तिकरण के आधारभूत विचार को समझा। चूँकि गतिविधि जोश से भरी थी, लड़कियों की विषय में दिलचस्पी भी बढ़ती गई।
खेल-खेल में गतिविधि
गतिविधि को और स्पष्ट बनाने के लिए मैंने साँप-सीढ़ी का एक खेल बनाया जिसमें सकारात्मक संकेतकों (जैसे महिला द्वारा अर्जित धन का उपयोग अपने बच्चे को स्कूल भेजने में करना) को सीढ़ियों के निचले पायदान पर और नकारात्मक संकेतकों (जैसे अध्यापक का यह कहना कि लड़कियाँ गणित में कमज़ोर होती हैं) को साँप के मुँह के सामने बना कर प्रस्तुत किया। इस खेल को एक बार खेलने और कार्डों पर चर्चा करने के बाद लड़कियों ने खुद अपने कार्ड बनाए। एक समूह ने यह काम बहुत फुर्ती से कर लिया जबकि दूसरा समूह क्या लिखना है इस बारे में मदद माँग रहा था। हालाँकि दोबारा खेलने पर दोनों समूहों ने हिस्सा लिया और इस बारे में सवाल भी किए कि जिन्हें सकारात्मक या नकारात्मक संकेतक बताया गया है, क्या वे सचमुच सकारात्मक या नकारात्मक संकेतक हैं। उदाहरण के लिए एक समूह का मानना था कि ‘लड़कियों को रात के समय घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता है,’ यह एक सकारात्मक संकेतक है। दूसरे समूह की कुछ लड़कियाँ इस बात से असहमत थीं और वे इसे नकारात्मक मानती थीं। हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे लेकिन इन वक्तव्यों तक पहुँचना महत्वपूर्ण था।
यह भी महत्वपूर्ण है कि मैंने इस वक्त तक उन्हें अपने आप करने के लिए कोई काम नहीं दिया और ये सारी गतिविधियाँ पूर्णत: चर्चा आधारित थीं। अभी उन्हें नतीजों की परवाह नहीं थी और वे मुक्त होकर अपनी बात कह सकती थीं। उनके लिए इन मुद्दों को पूर्णत: आत्मसात करने और अपने जीवन से उनका सम्बन्ध जोड़ने का सवाल था, सिर्फ बाद में दोहराने के लिए कुछ बिन्दुओं को याद कर लेना मात्र नहीं। इसलिए जब उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर लिखकर अपना काम प्रस्तुत करना था तब भी उन्होंने मुझे प्रसन्न करने के लिए कुछ नहीं लिखा।
अगले सत्र में मैंने उन्हें लिखने के दो छोटे-छोटे अभ्यास दिए, जिन पर हमने बाद में चर्चा की। ये कार्य इस बात पर आधारित थे कि स्त्री और पुरुष के बीच असमानता कैसे उनके अपने जीवन को भी प्रभावित करती है। यह काम थे ‘आपको लड़की होना या न होना क्यों अच्छा लगता है?’ और ‘आपकी नानी या दादी का जीवन आपसे कैसे भिन्न था?’ इन अनुभवों पर चर्चा करना इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे लड़कियों को एक-दूसरे के अनुभवों में समानता महसूस करने और भिन्नता से सीखने का अवसर मिलता है जो उन्हें खुद अपने अनुभवों के लिए नई अन्तर्दृष्टि देता है। वे एक-दूसरे से सीखती हैं। मैं यह देखकर प्रभावित हुई कि वे बहुत खुलकर आपस में बात कर रही थीं। मैंने लिखे हुए पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और उन पर कोई नकारात्मक टिप्पणी भी नहीं की। ऐसा मैंने जानबूझ कर किया क्योंकि मैं एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहती थी जिसमें अपने कार्य को एक-दूसरे को दिखाने को लेकर किसी किस्म के नकारात्मक परिणामों की चिन्ता महसूस न हो। उन्होंने फटाफट और धाराप्रवाह लिखा और पूरी तरह मुद्दे को ध्यान में रखते हुए लिखा।
लिखने के इन कामों का मकसद लड़कियों के अपने अनुभवों से सीखना था। उन्होंने अपने जीवन के बारे में लिखा व अपने विचारों को व्यक्त किया और हमने महिला सशक्तिकरण के मूल विचार व इसके इतिहास को केवल उनकी ज़िन्दगियों के उदाहरण देखते हुए समझा कि सशक्तिकरण अक्सर शिक्षा, पैसे पर नियंत्रण और विवाह से जुड़ा होता है। चूँकि विषय नितान्त व्यक्तिगत था इसलिए यह उनके लिए खास किस्म का स्कूली अभ्यास मात्र नहीं रह गया था।
साक्षात्कार की तैयारी
इन लिखित कार्यों के बाद हमने उनकी माताओं से पूछे जाने वाले सवाल बनाने के बारे में दिमाग दौड़ाया। लड़कियों ने अनेक प्रश्न बनाए, जिनमें से कुछ बिलकुल निरर्थक थे (जैसे, क्या आपको पौधे व फूल लगाना पसन्द है? आदि) जबकि कुछ विवाह और शिक्षा आदि से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सवाल भी उन्होंने बनाए। मैंने आग्रह किया कि लड़कियाँ अपनी माँ से विवाह के सम्बन्ध में बातचीत करें, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। उन्हें इस विषय पर चर्चा करने में बहुत संकोच हो रहा था और उन्हें लग रहा था कि ऐसा करना अपमानजनक भी हो सकता है।
इससे पहले लड़कियों ने एक स्थानीय अध्यापिका से पूछने के लिए कुछ सवाल तैयार किए थे। इन सवालों को उन्होंने बहुत यांत्रिक तरीके से पूछा और उनकी दिलचस्पी मात्र सवालों के जवाब दर्ज करने तक सीमित रही। इन अनुभवों को ध्यान में रखते हुए और लड़कियों के द्वारा बनाए गए सवालों के स्तर को देखते हुए मैंने यह तय किया कि बेहतर यही होगा कि उनकी माताओं को सीधे-सीधे अपने जीवन के बारे में बातचीत करने के लिए प्रेरित किया जाए जिसमें वे अपनी शिक्षा-दीक्षा, काम-काज और लड़की व लड़के के बीच के फर्क आदि के बारे में बातचीत करें। इन निर्देशों के साथ मैंने लड़कियों को एक टेप रिकॉर्डर भी दिया और कहा कि वे अपने द्वारा किए गए साक्षात्कार को टेप करके लाएँ।
लड़कियों ने किया साक्षात्कार
हमने अगले दिन इन साक्षात्कारों को सुना। मुझे यह सुनकर निराशा का एहसास हुआ कि लड़कियाँ ऐसे सवाल पूछ रही थीं जिनका हमारे मकसद से कोई लेना-देना नहीं था और यहाँ तक कि जिन बातों के जवाब खुद उन्हें मालूम थे जैसे ‘आपके चाचा के कितने बच्चे हैं?’ मैंने सोचा कि एक बार बिना किसी तैयारी के उन्हें साक्षात्कार कर लेने देना ठीक ही रहा क्योंकि ऐसा करने से वे स्वयं भी साक्षात्कार की रफ्तार पकड़ पाईं और उनकी साक्षात्कार दाता (माताएँ) भी इससे थोड़ा सहज हो पाईं। साक्षात्कार का कुछ हिस्सा उपयोगी था और अधिक प्रश्न बनाने के लिए सभी साक्षात्कारों में से ऐसे हिस्सों को हमने चुना।
इस पहले दौर के बाद हमने मिल-जुल कर फिर से सवाल तैयार किए जिनके आधार पर लड़कियों ने दूसरे दौर के साक्षात्कार किए, और इस बार के नतीजों में बहुत सुधार था। माताओं के जवाब बहुत स्पष्ट थे और लड़कियों को भी गर्व का एहसास हो रहा था। क्योंकि सभी लड़कियों ने एक जैसे सवाल पूछे थे इसलिए हम प्राप्त जवाबों के बीच तुलना और फर्क कर सकते थे और प्रत्येक सवाल के एक मुकम्मिल जवाब तक पहुँच सकते थे। उन्होंने सभी सवालों के जवाब के महत्व को आँका और जवाब हासिल करने की दिशा में मिलकर प्रयास किया। सवालों पर हुई चर्चाओं ने बहस का वातावरण बनाया, लड़कियों ने साक्षात्कार में उठाए मुद्दों पर चर्चा की। उदाहरण के लिए यह प्रश्न पूछा गया कि क्यों पहले लड़कियाँ सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही पढ़ाई करती थीं और अब वे बारहवीं कक्षा या कॉलेज के स्तर तक भी पढ़ने जाती हैं। एक लड़की की माँ ने कहा, क्योंकि अब परिवारों के पास पहले से ज़्यादा पैसा है इसलिए वे लड़कियों को आगे तक पढ़ा पाते हैं। दूसरी ने कहा, क्योंकि अब ज़्यादा स्कूल खुल गए हैं। लड़कियाँ अपनी-अपनी माताओं के पक्ष का बचाव कर रही थीं और उसकी उत्कृष्टता को लेकर बहस कर रही थीं। वे यह नहीं समझ पा रही थीं कि सभी जवाब अपनी जगह सही हैं, वे सिर्फ अपनी माँ द्वारा दिए गए जवाब को ही सही मान रही थीं। इस बिन्दु पर अन्तत: हम इस सहमति पर पहुँचे कि सभी जवाब सही हैं और इन तमाम कारणों के चलते अब लड़कियाँ ज़्यादा आगे तक शिक्षा हासिल कर पाती हैं।
साक्षात्कार के कुछ अभ्यास इन सत्रों की शुरुआत मैंने बहुत पहले से कर दी थी लेकिन मेरी राय में मौखिक इतिहास के लिए विषय की छानबीन करने के बाद अभ्यास ज्यादा बेहतर बन पाए। लिखने की क्षमता और साक्षात्कार का कौशल अर्जित करने के लिहाज से वे महत्वपूर्ण थे। एक-दूसरे का साक्षात्कारः इसके लिए तीन-चार विषय देना जिनमें से बच्चे एक-दूसरे का साक्षात्कार करने के लिए किसी एक को चुन सकें। मैंने विषय दिए - जब मेरी बहन/भाई का जन्म हुआ, मेरा प्रिय काम, मैं बड़ी होकर क्या बनना चाहती हूँ। यह सब करवाने का मेरा उद्देश्य एकदम साफ था।
बच्चों को साक्षात्कार के लिए अपने विषय स्वयं चुनने दें। साक्षात्कार के दौरान बच्चों को सवालों के जवाब देते हए कौन, क्या, कहाँ, क्यों और कैसे पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित करें। यदि बच्चे और अधिक सवालों के बारे में न सोच पा रहे हों तो अपनी ओर से सुझाव दें। अन्त में सभी कहानियाँ सुनें। कोई भी कहानी कैसे ज्यादा दिलचस्प बनती है यह पता लगाने के लिए बच्चों से पूछे कि उन्हें किस कहानी में कौन-सी बात सबसे ज्यादा पसन्द आई। मेरे समूह में बच्चों को हास्यप्रद घटनाएँ (जैसे खिचड़ी का जल जाना) और ऐसी बातें ज्यादा पसन्द आई, जो सबके लिए जरूरी होती हैं (जैसे खाना बनाना सीखना क्योंकि शादी के बाद यह तो आना ही चाहिए)। यह भी पूछे कि उन्हें क्या पसन्द नहीं आया। हो सकता है इसका कोई जवाब न मिले क्योंकि वे अपने साथी को आहत नहीं करना चाहते। सामूहिक रूप से किसी अन्य का साक्षात्कार करनाः कक्षा से बाहर के किसी व्यक्ति जैसे किसी अन्य शिक्षक या प्रधानाध्यापक को बच्चों द्वारा किसी विषय पर सामूहिक साक्षात्कार के लिए चुनें। विषय ऐसा हो जो किसी मुद्दे पर विचार व्यक्त करने की बजाय साक्षात्कार-दाता के अनुभव से जुड़ा हो (जैसे अध्यापन का अनुभव)। विषय और सवाल पर मिलकर दिमाग दौड़ाएँ। सिर्फ विषय से जुड़े ही नहीं बल्कि सभी तरह के सवालों को प्रोत्साहित करें। उन्हें साक्षात्कार के दौरान नहीं बल्कि बाद में नोट्स लिखने को कहें ताकि बातचीत के दौरान एकाग्रता भंग न हो। अन्त में उनसे पछें कि उन्हें कौन-सी बात याद रही और कौन-से जवाब विषय से सर्वाधिक सम्बद्ध थे। उन सवालों के बारे में बात करें जिनके सबसे अच्छे जवाब मिले और क्यों। उन सवालों को चिन्हित करें, जिनके सबसे अच्छे जवाब मिले और ऐसे प्रश्न जिनके जवाब विषय के लिहाज़ से अप्रासंगिक थे। परियोजना विशेष के लिए साक्षात्कार: छात्रों को बिना तैयारी के एक साक्षात्कार करने दें। उन्हें कुछ आधारभूत बिन्दु दे दें जिनके आधार पर उन्हें जवाब तलाशने हों (जैसे मेरे समूह में शिक्षा और विवाह से औरत के जीवन में आने वाले बदलावों की चर्चा की), लेकिन उन्हें सीधे-सीधे सवाल बनाकर न दें। इससे उन्हें साक्षात्कार में सहज होने का अवसर मिलता है। इन साक्षात्कारों के आधार पर कक्षा उन प्रश्नों को छाँट सकती है जो आगे और जानकारी प्राप्त करने में सहायक हो सकते हैं क्योंकि लोग अक्सर उन मुद्दों पर ज़्यादा बात करते हैं जो उन्हें ज़्यादा महत्वपूर्ण और दिलचस्प लगते हैं। साक्षात्कार के दूसरे दौर में विद्यार्थियों को विषय की बेहतर समझ बनाने में मदद मिले इसके लिए विभिन्न साक्षात्कारदाताओं से प्राप्त जवाबों के बीच तुलना और उनके नज़रिए में फर्क को लेकर बातचीत करें। बहस को बढ़ावा दें लेकिन उन्हें यह भी बताएँ कि एक से ज़्यादा लोगों द्वारा कही गई बातें भी सही हो सकती हैं और उनमें परस्पर सम्बन्ध हो सकता है। यह समझने की कोशिश करें कि विभिन्न साक्षात्कार-दाताओं ने अलग-अलग जवाब क्यों दिए। |
लड़कियों ने अपनी माताओं के साथ किए गए साक्षात्कारों के आधार पर पूर्व में महिलाओं की स्थिति को लेकर कहानियाँ लिखीं। उन्होंने बहुत कम समय में कहानियाँ लिख लीं क्योंकि ये कहानियाँ मूलत: उनकी माताओं द्वारा कही गईं बातों को ही संक्षेप में बताती थीं। लड़कियों ने अपनी माँओं के द्वारा कही गईं बातों के आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला और न ही उन बातों का कोई विश्लेषण किया। हालाँकि उनके लिखने में प्रवाह था और विभिन्न वक्तव्यों के समर्थन में उन्होंने उदाहरणों का भी इस्तेमाल किया था, जैसे कि ‘अब लड़कियाँ पहले की तुलना में खेतों पर कम काम करती हैं।’
सवाल पूछने का महत्व
इस प्रोजेक्ट की तीन महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ रहीं, जो किसी भी मौखिक इतिहास परियोजना से हासिल की जा सकती हैं। पहली यह कि लड़कियाँ साक्षात्कारकर्ता बनीं और अपने विषय के बारे में उन्होंने बार-बार ‘क्यों’ पूछा और उन्होंने अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए सवाल पूछने की ज़रूरत को समझा। दूसरा और बहुत-ही अनपेक्षित, वे आसानी से बहस में उतर रही थीं। मेरे विचार में ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि अपने द्वारा जुटाए गए साक्ष्यों पर उन्हें अधिकार महसूस हुआ क्योंकि एक तो इन साक्ष्यों को उन्होंने खुद जुटाया था और दूसरे वे उनकी माताओं की कही बातें थीं जिन पर उन्हें पूरा भरोसा था। तीसरा, सम्भवत: विषय को उन्होंने आत्मसात कर लिया था, वे उस पर धारा प्रवाह लिख सकती थीं, न वे कहीं अटक रही थीं और न ही किसी शब्द सीमा पर रुकने की उन्हें ज़रूरत महसूस हो रही थी।
इतना ही नहीं लड़कियों ने खुद अपनी बहसों, खेलों और अपनी माताओं के साथ अनौपचारिक चर्चाओं के द्वारा महिला सशक्तिकरण के बारे में जाना। उन्होंने वे तमाम महत्वपूर्ण पाठ बिना किसी शिक्षक की मदद से सीखे और यह जाना कि खुद अपने आप से और दूसरों से सवाल करते रहने में वे अपने सीखने को अपने हाथों में ले सकती हैं। उनका विषय बहुत सीमित था। अपनी माँ की नज़र से महिला सशक्तिकरण की दिशा में आए बदलाव को देखना - लेकिन इन लड़कियों ने इस विषय पर विशेषज्ञता हासिल कर ली थी। मौखिक इतिहास के माध्यम से दरअसल, उन्होंने इतिहासकार बनने की प्रक्रिया की ओर कदम बढ़ा दिया था।
शीला के. प्रसाद - इण्डिकोर की फैलोशिप के तहत सन् 2005 में निटाया, होशंगाबाद में स्थित शासकीय कन्या माध्यमिक शाला और कन्या छात्रावास की लड़कियों के साथ समय बिताया। यह लेख उन छात्राओं के साथ उनके अनुभवों पर आधारित है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद - देवयानी भारद्वाज - पत्रकारिता में एम.ए.। लगभग दस साल विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है। शौकिया अनुवादक हैं। विभिन्न महिला संगठनों के साथ काम कर रही हैं। जयपुर में निवास।
सभी चित्र - जितेन्द्र ठाकुर - एकलव्य, भोपाल में डिज़ाइन एवं प्रोडक्शन इकाई में कार्यरत।