हाल ही में फ्रांस की पॉल सेबेटियर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा नेचर पत्रिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार, लुडोविक ऑर्लेन्डो और उनके समूह ने ऐसे क्षेत्रों से 2,000 से अधिक घोड़ों की हड्डियों और दांतों के प्राचीन नमूने एकत्रित किए है जहां पालतू घोड़ों की उत्पत्ति की संभावना है। पालतू घोड़ों की उत्पत्ति के संभावित क्षेत्र युरोप के दक्षिण-पश्चिमी कोने का आइबेरियन प्रायद्वीप, युरेशिया की सुदूर पश्चिमी सीमा, एनाटोलिया (आधुनिक समय का तुर्की), और पश्चिमी युरेशिया और मध्य एशिया के घास के मैदानों को माना जाता है। टोसिन थॉम्पसन ने नेचर पत्रिका के 28 अक्टूबर 2021 के अंक में एक टिप्पणी में लिखा है, डॉ. ऑर्लेन्डो के दल ने इन क्षेत्रों से प्राप्त लगभग 270 नमूनों के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण कर लिया है, और साथ में पुरातात्विक जानकारी भी एकत्र कर ली है। इसके अलावा उन्होंने रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से घोड़ों के इन नमूनों की उम्र निर्धारित कर ली है (रेडियोधर्मी कार्बन-14 एक निश्चित दर से विघटित होता है)। इन मिले-जुले आंकड़ों की मदद से वे यह तय कर पाए कि लगभग 4200 ईसा पूर्व तक कई अलग-अलग तरह के घोड़ों की आबादियां युरेशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थी।
घोड़े के पदचिन्ह
इसी तरह के एक अन्य आनुवंशिक विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि आधुनिक पालतू डीएनए प्रोफाइल वाले घोड़े पश्चिमी युरेशियन स्टेपीज़, विशेष रूप से वोल्गा-डॉन नदी क्षेत्र में रहते थे।
लगभग 2200-2000 ईसा पूर्व आते-आते ये घोड़े बोहेमिया (वर्तमान के चेक गणराज्य और युक्रेन), और मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्जिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान, ईरान तथा अफगानिस्तान) और मंगोलिया में फैल गए थे। इन देशों के प्रजनक इन घोड़ों को उन देशों को बेचने के लिए तैयार करते थे जहां इनकी मांग थी। इन देशों में लगभग 3300 ईसा पूर्व तक घुड़सवारी लोकप्रिय हो गई थी, और सेनाओं का गठन इनके आधार पर किया जाने लगा था - जैसे, मेसोपोटामिया, ईरान, कुवैत और “फर्टाइल क्रिसेंट” या फिलिस्तीन की सेनाओं में। थॉम्पसन ध्यान दिलाते हैं कि पहला स्पोक युक्त पहिए वाला रथ 2000-1800 ईसा पूर्व के आसपास बना था।
भारतीय कहानी
अब सवाल है कि भारत में घोड़े कब आए, और वे देशी थे या विदेशी? क्या घोड़े भारत के मूल निवासी थे? इसका उत्तर तो 'ना' लगता है। “वर्ल्ड एटलस” के अनुसार, भारत के मूल निवासी जानवर सिर्फ एशियाई हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा, बंगाल टाइगर, रीछ, हिमालयी भेड़िया, गौर बाइसन, लाल पांडा, मगरमच्छ और मोर व राजहंस हैं। वेबसाइट थॉटको (ThoughtCo) ने अपने लेख एशिया में पैदा हुए 11 घरेलू जानवरों में मृग, नीलगिरि तहर, हाथी, लंगूर, मकाक बंदर, गैंडा, डॉल्फिन, गेरियल मगरमच्छ, तेंदुआ, भालू, बाघ, बस्टर्ड (उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी), गिलहरी, कोबरा और मोर को सूचीबद्ध किया है। इस तरह इन स्रोतों से साफ झलकता है कि घोड़ा भारत का मूल निवासी नहीं है। यह भारत में देशों के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के माध्यम से आया होगा। भारतीयों ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने हाथियों, बाघों, बंदरों, पक्षियों का व्यापार किया होगा और अपने उपयोग के लिए घोड़ों का आयात किया होगा।
तो, भारत को अपने घोड़े कब मिले? विकिपीडिया बताता है कि उत्तर हड़प्पा सभ्यता स्थलों (1900 से 1300 ईसा पूर्व) से घोड़ों से सम्बंधित अवशेष और वस्तुएं मिली हैं, और इनसे ऐसा नहीं लगता कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़ों ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके थोड़े समय बाद वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में स्थिति अलग दिखती है। (घोड़े के लिए संस्कृत शब्द अश्व है, जिसका उल्लेख वेदों और हिंदू ग्रंथों में मिलता है)। ये मोटे तौर पर उत्तर-कांस्य युग के अंत के समय के है।
साहित्यिक बहस
इस संदर्भ में दो हालिया किताबें भी काफी उल्लेखनीय हैं – इनमें से एक पुस्तक टोनी जोसेफ की है जिसका शीर्षक है प्रारंभिक भारतीय : हमारे पूर्वजों की कहानी और हम कहां से आए (Early Indians: The Story of our Ancestors and Where We Came From) है, और दूसरी पुस्तक यशस्विनी चंद्रा की है जिसका शीर्षक है घोड़े की कहानी (The Tale of the Horse) है। दिसंबर 2018 में फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित डॉ. जोसेफ का हालिया लेख भारत में “आर्यो” के प्रवास के प्रमाण की पड़ताल करता है। यह बताता है कि भारत में पाए जाने वाले घोड़े ऊपर बताए गए “स्तानों” से ही आए हैं। इसके अलावा, दी प्रिंट के 17 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ. चंद्रा का लेख बताता है कि भारतीय मूल के घोड़े 8000 ईसा पूर्व तक लुप्त हो चुके थे।
बहस का सबसे स्पष्ट विश्लेषण आईआईटी गांधीनगर के इतिहासकार मिशेल डैनिनो के एक लेख में मिलता है। उन्होंने जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चर (सितंबर 2006) में दी हॉर्स एंड आर्यन डिबेट शीर्षक के अपने शोध पत्र में और पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एंश्यंट इंडिया (2014) में लिखा है कि पुरावेत्ता सैंडोर बोकोनी ने घोड़ों के दांतों के नमूनों का अध्ययन किया था। ये नमूने हड़प्पा-पूर्व काल के बलूचिस्तान, इलाहाबाद (2265-1480 ईसा पूर्व)) और चंबल घाटी (2450-2000 ईसा पूर्व) से थे। इनके अलावा उन्होंने कालीबंगन से प्राप्त ऊपरी दाढ़ों का भी अध्ययन किया था। उनका निष्कर्ष था कि ये पालतू घोड़ों के अवशेष थे। प्रोफेसर डैनिनो के इन शोध पत्रों ने भारत में पालतू घोड़ों के लेकर किए जा रहे परस्पर विरोधी दावों को विराम दे दिया है और हमें उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
हड़प्पा के अवशेष
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जांचना दिलचस्प होगा कि क्या हड़प्पा स्थलों में घोड़ों के कोई अवशेष, हड्डियां, दांत या खोपड़ियां हैं जिनका डीएनए अनुक्रमण किया जा सके, जैसा कि ऑरलैंडो के समूह ने युरेशियन नमूनों के लिए किया। (स्रोत फीचर्स)
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