बचपन का एक जानलेवा मस्तिष्क रोग होता है एएलडी। इस रोग में मस्तिष्क की कोशिकाओं में चंद वसाओं का निपटारा करने की क्षमता नहीं रह जाती। यह वसा तंत्रिका कोशिकाओं के ऊपर जमा होने लगती है और उनके कार्य को प्रभावित करती है। यह रोग आम तौर पर शुरुआती बचपन में ही हो जाता है और एड्रीनल ग्रंथि तथा मस्तिष्क के कॉर्टेक्स को प्रभावित करता है। बच्चे की दृष्टि जाती रहती है, चलने-फिरने में दिक्कत होती है और 12 वर्ष की आयु तक मृत्यु हो जाती है। यह रोग करीब 15-20 हज़ार बच्चों में से एक को होता है।
यह रोग एक जीन में गड़बड़ी के कारण होता है जो एक्स गुणसूत्र पर पाया जाता है। लड़कियों में यह रोग नहीं होता क्योंकि संभावना यह रहती है कि उनके दो में से एक एक्स गुणसूत्र पर सही जीन उपस्थित होगा। किंतु लड़कों में एक ही एक्स गुणसूत्र पाया जाता है, इसलिए यदि वह जीन गड़बड़ हुआ, तो गए काम से।
अब तक इसका एक ही इलाज रहा है - अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण। अस्थि मज्जा में उपस्थित श्वेत रक्त कोशिकाएं दिमाग में पहुंच जाती हैं और वहां जाकर ग्लिअल कोशिकाओं में बदल जाती हैं। ये ग्लिअल कोशिकाएं वह प्रोटीन बनाने लगती हैं जो वसाओं को निपटाने में सहायक होता है। मगर अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण काफी पेचीदा काम है और यह संभावना बनी रहती है कि शरीर पराई अस्थि मज्जा को अस्वीकार कर देगा।
अब एएलडी रोग के लिए जीन उपचार की तकनीक आज़माई गई है और शुरुआती परिणाम आशाजनक रहे हैं। सबसे पहले सन 2000 में फ्रांस के शोधकर्ताओं ने 2 लड़कों की हड्डियों की कोशिकाओं को लेकर उनका उपचार एक संशोधित एड्स वायरस से किया। इस एड्स वायरस को इस तरह बदला गया था कि इसमें एएलडी प्रोटीन बनाने वाला सही जीन था। उन्होंने 2009 में साइन्स शोध पत्रिका में यह बताया था कि ऐसा करने पर बीमारी थम गई थी।
अब इसी तरह का एक ज़्यादा व्यापक परीक्षण ब्लूबर्ड बायो नामक कंपनी के तत्वावधान में किया गया है। वैज्ञानिकों ने 4 से 13 वर्ष उम्र के 17 लड़कों की रक्त कोशिकाएं लेकर एएलडी-प्रोटीन के जीन से युक्त एड्स वायरस से उपचारित किया गया और वापिस मरीज़ों में डाल दिया गया। 6 माह के अंदर ही 16 मरीज़ों में स्थिरता आ गई। उपचार के 2 वर्ष बाद किए गए ब्रेन स्कैन में अधिकांश बच्चों में सूजन या नुकसान का कोई लक्षण नहीं दिखा। 16 लड़कों में दृष्टि की क्षति या चलने-फिरने में दिक्कत जैसे लक्षण भी प्रकट नहीं हुए।
अभी दो साल और इंतज़ार करने के बाद ही इस तकनीक को चिकित्सा की दृष्टि से मान्यता दिलवाने के लिए आवेदन किया जाएगा। एक बात स्पष्ट है कि यह तकनीक पहले हो चुके नुकसान की मरम्मत नहीं करती बल्कि आगे नुकसान को रोकती है। इसलिए शोधकर्ताओं का मत है कि इसे रोग की पहचान होने के तुरंत बाद करना फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)