रमाकान्त अग्निहोत्री
भाग - 3
संविधान के भाषा से सम्बन्धित 17वें भाग में चार ही अध्याय हैं। दो पर हम चर्चा कर चुके हैं। इस लेख में तीसरे व चौथे अध्याय की बात करेंगे। संविधान के तीसरे अध्याय में दो अनुच्छेद हैं: 348 व 349। अध्याय चार में भी दो अनुच्छेद हैं: 350 व 351। हम अनुच्छेद 351 से शुरू करते हैं। उसका सीधा सम्बन्ध हिन्दी से है और संविधान बनाने की प्रक्रिया से भी।
भाग-17, अध्याय-4, अनुच्छेद-351
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कई लोग बेचैन थे। उन्हें लगता था कि दक्षिण के लोगों को जो तमिल, मलयालम जैसी बिलकुल अलग भाषा परिवारों की भाषाएँ बोलते हैं, हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने की बात सहज मान लेनी चाहिए। यह एक पूरे देश का सवाल था। दक्षिण भारत का कहना था कि यदि हमें साथ रखना है तो हमारी बात भी सुनी जानी चाहिए। अँग्रेज़ी को चलते रहना चाहिए।
लोग यह नहीं समझना चाहते थे कि दक्षिण के हर प्रदेश के लोगों की अपनी अलग पहचान है और उसे वे आसानी-से खोना नहीं चाहते। तमिल संस्कृति व साहित्य किसी भी दृष्टिकोण से संस्कृत की परम्परा से कम नहीं। यही बात केरल, आँध्रा व कर्नाटक के बारे में भी सही थी। यह तो ठीक है कि उत्तर भारत की अधिकतर भाषाएँ संस्कृत से जुड़ी हैं। पर संरचना के आधार पर दक्षिण में बोली जाने वाली द्रविड़, उत्तर-पूर्व में बोली जाने वाली तिबतो-बरमन व आदिवासियों में बोली जाने वाली मुण्डा भाषाओं का संस्कृत से कोई ताल्लुक नहीं। हाँ, सभी भाषाएँ एक-दूसरे से शब्द निरन्तर उधार लेती रही हैं। बहुत लम्बी बहस के बाद हिन्दी को राजभाषा बनाना तय हुआ। लेकिन हिन्दीवालों के लिए कुछ विशेष प्रावधान करना भी ज़रूरी था। इसीलिए अनुच्छेद 351 बना।
उसमें कहा गया कि हिन्दी भाषा का जगह-जगह विस्तार करना संघ का कर्तव्य होगा। यह हिन्दी ऐसी होगी जो भारत की सामासिक (कम्पोज़िट) संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। हिन्दुस्तानी की मूल प्रकृति में अन्तर नहीं आना चाहिए। संघ हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में उल्लेखित भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए हिन्दी का विकास करे।
जहाँ आवश्यक हो वहाँ उसके शब्द-भण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। संस्कृत से ही मुख्यता शब्द लिए जाएँ, यह बात आज भी बहस का मुद्दा है, शिक्षा शास्त्रियों व लेखकों के लिए। यदि शब्द अधिकतर संस्कृत से ही लिए जाएँगे तो हिन्दुस्तानी की शैली व सामासिक संस्कृति का क्या होगा? कई स्कूलों में हिन्दी और उर्दू, दोनों की पढ़ाई होती है। काफी विश्वविद्यालयों में हिन्दी और उर्दू के अलग-अलग विभाग होते हैं। हिन्दुस्तानी की कहीं बात नहीं होती। शायद प्रेमचंद को हिन्दी व उर्दूवाले, दोनों पढ़ते हैं। एक बार तमिल नाडु सरकार ने यह फैसला लिया कि जिन लोगों ने हिन्दी का विरोध किया था, उन्हें विशेष पेंशन मिलनी चाहिए। तमिल नाडु हाई कोर्ट ने भी यह बात मान ली। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि तमिल सरकार का कानून असंविधैनिक है।1
यह केस आर.आर. दलवाई व तमिल सरकार के बीच था।2 सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि देश में किसी को अधिकार नहीं है कि वह हिन्दी के खिलाफ कोई आवाज़ उठाए, और उसके लिए लोगों को पेंशन देना तो बिलकुल सम्भव नहीं। जिनको पेंशन मिली भी, उनसे वापिस लेने के आदेश दिए गए।
भाग-17, अध्याय-3, अनुच्छेद-348
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की क्या भाषा होगी, इसका ज़िक्र अनुच्छेद 348 में किया गया है। जब तक कोई अन्य कानून न बन जाए तब तक उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की भाषा अँग्रेज़ी होगी। 348 के 1ए में कहा गया है:
1. जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबन्ध न करे तब तक--
क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अँग्रेज़ी भाषा में होंगी।
संविधान सभा की बहसों में हिन्दी और अँग्रेज़ी को लेकर काफी गर्मा-गर्मी हुई थी। लोगों का कहना था कि यदि हम अपने ही देश में न्याय की मांग अपनी भाषा में नहीं कर सकते तो फिर यह आज़ादी किस काम की। पहले अँग्रेज़ राज़ करते थे, अब अँग्रेज़ी करेगी? धुलेकर साहिब तो इस बात को लेकर कई बार आग-बबूला हुए। उनका कहना था कि जिन लोगों को हिन्दुस्तानी नहीं आती उन्हें यह देश छोड़ देना चाहिए और उन्हें इस संविधान सभा का सदस्य होने का भी कोई अधिकार नहीं है।3 अन्तत: मुंशी-आयंगर के फॉर्मूले को माना गया। हिन्दी और अँग्रेज़ी, दोनों को राजभाषा माना गया। अँग्रेज़ी को अभी 15 साल के लिए। आठवीं सूची का गठन हुआ अन्य भाषाओं को जगह देने के लिए। अँग्रेज़ी को हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट की भाषा माना गया।4
आयंगर साहिब का कहना था कि हमारी कोर्टों को अँग्रेज़ी में काम करने की आदत पड़ चुकी है। सभी कानून अँग्रेज़ी में हैं और सभी अधिनियम, आदेश व उप-नियम भी। कानून की सभी किताबें अँग्रेज़ी में हैं। जिन फैसलों के आधार पर नए फैसले करने हैं, वे अँग्रेज़ी में हैं। संविधान के अनुसार आगे से भी जो कानून बनेंगे, वे अँग्रेज़ी में होंगे। कानून की दृष्टि से किसी भी अँग्रेज़ी अभिव्यक्ति का आसानी-से हिन्दी अर्थ तलाश करना आसान नहीं। ला कमीशन की 216वीं रिपोर्ट में फाली नारिमन ने कहा कि “मैं संसद व सरकार, दोनों से गुज़ारिश करता हूँ कि वे हिन्दी को कानूनी व्यवस्था की भाषा न बनाएँ। पिछले 300 साल से हमारी पूरी कानूनी व्यवस्था व उसकी भाषा अँग्रेज़ों से जुड़ी हुई है और उसका अब पूरी तरह से भारतीकरण हो चुका है। अब भारतीय अँग्रेज़ी भारत की अपनी भाषा है। अब भारतीय कानून व उसकी अँग्रेज़ी में हम कोई ओक पेड़ की बात नहीं करते। वह अब एक पीपल के पेड़ जैसा है।”
नारिमन ने यह भी कहा कि यदि हम अब अपने कानून व अधिनियमों की भाषा बदलते हैं तो कानून चलाना असम्भव हो जाएगा। हाँ, हम एक नए सिरे से अपना कानून बनाएँ तो अलग बात है। 1970 में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक केस आया। मधु लिमये वर्सिज़ वेद मूर्ति का।5 इसमें राज नारायण साहिब ने कहा कि वे केवल हिन्दी में ही बहस करेंगे। सात जजों की बेंच के सामने यह केस लगा था। संविधान के अनुसार उन्होंने फैसला किया कि सुप्रीम कोर्ट में बहस केवल अँग्रेज़ी में ही हो सकती है।
ख)
(i) संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मण्डल के सदन में प्रस्तावित सभी विधेयकों व संशोधनों की भाषा अँग्रेज़ी होगी।
(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मण्डल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों की भाषा भी अँग्रेज़ी होगी, और
(iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मण्डल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के, प्राधिकृत पाठ अँग्रेज़ी भाषा में होंगे।
(iv) खण्ड (1) के उपखण्ड (क) में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा, परन्तु इस खण्ड की कोई बात हाई कोर्ट के निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगी।
भाग-17, अध्याय-3, अनुच्छेद-349
भाषा की दृष्टि से अनुच्छेद 349 बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें यह प्रावधान रखा गया कि इस पन्द्रह वर्ष तक अनुच्छेद 348 के खण्ड (1) में उल्लिखित किसी प्रयोजन के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबन्ध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंज़ूरी के बिना प्रस्तावित नहीं किया जाएगा।
भाग-17, अध्याय-4, अनुच्छेद-350
एक आम आदमी के लिए शायद सबसे अधिक बलदायक है अनुच्छेद 350। इसमें किसी भी आम आदमी को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपनी समस्या सरकार के सामने किसी भी भाषा में रख सकता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा। इस अनुच्छेद में दो संशोधन किये गए: एक 1956 में और दूसरा 1976 में, दोनों ही अत्यधिक महत्वपूर्ण। पहले में प्रावधान किया गया कि प्रत्येक राज्य में राज्य अल्पसंख्यक-वर्गों के विद्यार्थियों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा। दूसरे में यानी 350 (ख) में भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष अधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान है। विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के अधिकारों से सम्बन्धित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के सम्बन्ध में ऐसे अन्तरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे। राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और सम्बन्धित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
...जारी
रमाकान्त अग्निहोत्री: दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त। व्यावहारिक भाषा-विज्ञान, शब्द संरचना, सामाजिक भाषा-विज्ञान और शोध प्रणाली पर विस्तृत रूप से पढ़ाया और लिखा है। ‘नेशनल फोकस ग्रुप ऑन द टीचिंग ऑफ इंडियन लेंग्वेजिज़’ के अध्यक्ष रहे हैं। आजकल विद्या भवन सोसायटी, उदयपुर में एमेरिटस प्रोफेसर हैं।
इन सभी लेखों का आधार संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद हैं। इनका संसद से पारित कोई हिन्दी मानकीकृत रूप उपलब्ध नहीं है। इसलिए सरल हिन्दी में संविधान के इन अनुच्छेदों के बारे में बातचीत की गई है। जहाँ कहीं सम्भव हुआ, इंटरनेट से मदद ली गई है।
सन्दर्भ:
• Seervai, H M (1983). Constitutional Law of India: A Critical Commentary. Bombay: Tripathi
• Shiva Rao, B et al (1968). The Framing of India’s Constitution: A Study. Delhi: The Indian Institute of Public Administration