डॉ. किशोर पंवार
नकल करना मनुष्य का एक खास गुण है। कुछ लोग इसमें माहिर होते हैं। उन्हें मिमिक्री आर्टिस्ट भी कहा जाता है। लेकिन यह नकल मात्र हास्य या व्यंग्य के लिए की जाती है।
हमारे आस-पास के जीव-जगत पर नज़र डालें तो मिमिक्री के अनेक उदाहरण दिखाई दे जाते हैं। लेकिन ये मिमिक्री अक्सर, शिकार को फँसाने के लिए या शिकार से बचने के लिहाज़ से की जाती है। जब आमने-सामने की लड़ाई में पार पाना मुश्किल हो तब मिमिक्री एक अच्छा तरीका हो सकता है। इसमें नकलची, शिकारी को धोखा देकर बच निकलने में कामयाब होता है। ऐसे नकलची जीव सामान्यत: सीधे-सादे, रक्षा-विहीन एवं खाने योग्य होते हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि आस-पास के किसी खतरनाक या ज़हरीले जीव के हाव-भाव या रंगों के संयोजन की नकल शिकार होने से बचने में फायदेमन्द साबित हो सकती है।
जब चेतावनी वाले रंग-संयोजन के कारण साधारण जीव के बच निकलने की सम्भावना बढ़ जाती है तो ऐसी नकलपट्टी को सुरक्षात्मक रंग-संयोजन कहते हैं। इस प्रकार की मिमिक्री को इसके खोजकर्ता ब्रिटिश प्रकृतिवेत्ता के सम्मान में बेट्सीयन मिमिक्री कहा जाता है। इसका एक सामान्य उदाहरण हमारे आस-पास भी मिलता है। वायसराय तितली का रंग-रूप, ज़हरबुझी एवं बेस्वाद मोनार्क तितली जैसा होता है। इन दोनों तितलियों के रंग-रूप के संयोजन में इतनी समानता होती है कि पहली नज़र में शिकारी इसे खतरनाक मोनार्क समझकर खाने का इरादा छोड़ देता है, जिससे वायसराय के बचने के मौके बढ़ जाते हैं।
सभी मोनार्क में ज़हर की मात्रा एक जैसी नहीं होती है। कुछ अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि कुछ पक्षी ज़हरीली और कम ज़हरीली मोनार्क में अन्तर करके कम ज़हर वाली मोनार्क के कुछ हिस्सों को खा लेते हैं। या कभी मोनार्क को चोंच मारकर टेस्ट कर लेते हैं - तितली ज़हरीली हुई तो उसे छोड़ दिया, नहीं तो खा लिया। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वायसराय को मिमिक्री की वजह से पक्षियों से सौ फीसदी सुरक्षा मिल जाती है।
जीवों में नकलपट्टी का एक अन्य प्रकार ऐसा है जिसमें एक जीव दूसरे अखाद्य जीव की नकल करता है, और रूप-रंग की समानता से शिकारी धोखे में आ जाता है। इस प्रकार की मिमिक्री को इसके प्रवर्तक जर्मन प्रकृतिशास्त्री फ्रिट्ज़ मुलर के सम्मान में मुलेरीयन मिमिक्री कहते हैं।
परन्तु कुछ जन्तु ऐसे भी हैं जिनके लिए जन्तुओं की बजाय पौधों की मिमिक्री कारगर साबित होती है। जैसे स्टिक इन्सेक्ट, जो सूखी टहनी पर बैठा बिलकुल पौधे की शाखा-सा नज़र आता है। दूसरा उदाहरण है लीफ इन्सेक्ट, जो बिलकुल एक जीवित चमकीली हरी पत्ती की तरह दिखता है, और-तो-और इसके पंखों पर पत्तियों की तरह शिराविन्यास तक दिखाई देता है। यदि आपने गौर किया हो तो मैदानी इलाकों में पतझड़ के मौसम में ज़मीन पर गिरी सूखी पत्तियों के बीच एक तितली अक्सर दिखाई दे जाती है। जब यह ज़मीन पर गिरी हुई सूखी पत्तियों पर बैठ जाती है तो उसे खोज पाना मुश्किल होता है।
प्राणि विज्ञान में मिमिक्री के अनेक उदाहरण मिल जाएँगे। लेकिन क्या वनस्पति जगत में भी मिमिक्री इतनी ही आम रणनीति है? यह सवाल जब उठा तभी से मैं सोच रहा था - एक जगह स्थिर रहने वाले पेड़-पौधे अपनी मिमिक्री में क्या-क्या करते होंगे और क्यों करते होंगे?
वनस्पतियों में मिमिक्री की रणनीति तो है लेकिन यह हमेशा शिकार होने से बचाव के सन्दर्भ में नहीं होती। कुछ पौधों में बचाव एक प्रमुख कारण होता है तो कुछ में परागण क्रिया के सन्दर्भ में मिमिक्री पाई जाती है। आमतौर पर वनस्पतियों में मिमिक्री ज़्यादातर पत्तियों, तनों व फूलों में देखी गई है। इससे वनस्पति को चरने-कुतरने वाले जन्तुओं से सुरक्षा मिलती है। पौधों में यह नकल, रूप-रंग और रसायनों की सहायता से होती है।
सुरक्षात्मक नकलपट्टी
इस तरह की नकल का बढ़िया उदाहरण है लिथोप्स यानी स्टोन प्लांट्स। ये रेगिस्तानी पौधे जीव-जन्तुओं की नहीं, निर्जीव पत्थरों की मिमिक्री करते हैं। चितकबरे, गोल-बेलनाकार, भूरे रंग के पत्थरों के बीच इन्हें ढूँढ़ना आसान नहीं होता। दरअसल, इनका शरीर मांसल, चितकबरी, संगमरमरी दो-चार पत्तियों का ही बना होता है जो लगभग पारदर्शी होती हैं। इससे उनके अन्दर प्रकाश जाने से भोजन बनता रहता है। वर्षा ऋतु में इन पत्थरनुमा पौधों पर सुन्दर पीले और गुलाबी फूल खिलते हैं। फूल खिलने पर ही पता चलता है कि ये पत्थर नहीं पौधे हैं।
स्टोन प्लांट्स का यह रूप परिवर्तन उन्हें शाकाहारी जन्तुओं के खतरे से बचाता है। गर्मियों में जब रेगिस्तान की सारी वनस्पतियाँ सूख जाती हैं तब चरने वाले जन्तु कुछ भी खाने से नहीं चूकते। ऐसे में यह रूप परिवर्तन उसे भक्षित हो जाने से बचाता है। वर्षा उपरान्त फूल सूख जाने के बाद ये पुन: पत्थर-से हो जाते हैं। पत्थरों से गज़ब की समानता के चलते इन्हें लिविंग स्टोन यानी ज़िन्दा पत्थर भी कहा जाता है।
कोबरा प्लांट
कुछ पौधों के लिए खतरनाक जन्तुओं-सी भंगिमाओं की मिमिक्री कारगर प्रतीत होती है। मसलन, केलिफोर्नियन कोबरा प्लांट दरअसल, एक कीटभक्षी पौधा है जो तरह-तरह के छोटे-मोटे कीटों को अपना भोजन बनाता है। लेकिन कहीं खुद किसी का भोजन न बन जाए इसलिए यह अपना फन उठाए कोबरा की तरह खड़ा दिखता है।
ऐसा ही एक और उदाहरण है जो हमारे यहाँ हिमालय में केदारनाथ के आस-पास आमतौर पर दिख जाता है - ऐरिसेमा अर्थात् स्नेक प्लांट। यह दूर से ऐसा दिखता है कि जैसे कोई नाग अपना फन उठाए चेतावनी की मुद्रा में खड़ा हो। इस पर हूबहू नाग जैसे शलक और बाहर लटकती जीभ भी होती है। अब भला किसी मवेशी की क्या मजाल जो इसके पास भी फटकने की हिम्मत करे।
दिखावटी बिच्छू
अब ऐसे पौधे की बात करते हैं जो अपने ही रिश्तेदारों की मिमिक्री करते दिखते हैं। डेडनेटल और घण्टी पुष्प नेटल, असली डंक मारने वाले नेटल अर्टिका की नकल करते हैं। दरअसल, अर्टिका एक डंक मारने वाला पौधा है जिसकी पत्तियों और तनों पर दंशरोम लगे होते हैं जो चुभने पर बिच्छू के डंक-सा असर दिखाते हैं। डेडनेटल की पत्तियाँ भी ऐसी ही दिखती हैं परन्तु उस पर उपस्थित रोएँ दंशरोम नहीं होते। डंक मारने वाले पौधे, अर्टिका और लेपोरटिया पचमढ़ी में तो मिलते ही हैं, साथ ही मेरे कॉलेज में भी बरसात के दिनों में ये अक्सर दिखाई दे जाते हैं। नकली डंक वाले ये पौधे, चरने वाले जीवों से बच जाते हैं।
छुई-मुई की मिमिक्री
चरने-कुतरने वाले जन्तुओं को चौंकाकर अपनी रक्षा करने का एक बढ़िया उदाहरण है मायमोसा का पौधा छुईमुई अर्थात् मायमोसा प्यूडिका। इसे हल्के से स्पर्श हो जाए तो तुरन्त पत्तियाँ बन्द होने लगेंगी। इस अचानक होने वाली घटना की वजह से कीट या जीव चौंककर उससे दूरी बना लेते हैं। देखा यह गया है कि छुई-मुई के आस-पास उगने वाले अन्य पौधे जिनकी पत्तियाँ छुई-मुई से मेल खाती हैं, खाए जाने से बच जाते हैं। सम्भवत: मायमोसा की पत्तियों से समानता का उन्हें लाभ मिलता है।
नकली अण्डे
दक्षिण और मध्य अमेरिका के वर्षा वनों में पाई जाने वाली गेलीकलर्ड हेलिकोनिया तितलियाँ अपने अण्डे पेशन-फ्लावर के पत्तों पर देती हैं जो उसके लार्वा का खास भोजन है ताकि उनसे निकलने वाले लार्वा को तुरन्त उनका मनपसन्द खाना यानी इसकी पत्तियाँ मिल जाएँ। यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसके लार्वा को पर्याप्त खाना मिलता रहे, मादा तितली ऐसी पत्तियों पर अण्डे नहीं देती जहाँ पूर्व में किसी अन्य तितली ने अण्डे दिए हों।
तितली के इसी व्यवहार का फायदा उठाते हुए पेशन-फ्लावर की पत्तियों पर नकली अण्डे यानी तितली के अण्डे जैसी रचनाएँ निर्मित होने का सिलसिला विकसित हुआ है। पत्तियों पर पहले से किसी और तितली ने अण्डे दिए हैं यह मानते हुए तितलियाँ ऐसी पत्तियों पर अपने अण्डे नहीं देतीं। और इस तरह पत्तियाँ अण्डों की नकल के कारण लार्वा द्वारा कुतरे जाने से बच जाती हैं।
परागण के लिए मिमिक्री
रेफ्लेसिया का फूल लगभग एक मीटर व्यास एवं 15 किलो वज़न का होता है और पंखुड़ियों की मोटाई लगभग एक सेंटीमीटर होती है। इसकी पंखुड़ियों का रूप-रंग और गन्ध, सड़ते हुए मांस की तरह होता है जिसके चक्कर में पड़कर मुर्दाखोर मक्खियाँ इस पर मण्डराती हैं और इस दौरान इसका परागण हो जाता है।
स्टेपेलिया के पौधे मांसल होते हैं और फूल बड़े-बड़े सितारे के आकार के होते हैं। इसके फूलों की पंखुड़ियों में सड़ते हुए मांस से साम्य के लिए वह सब कुछ हुआ है जो जैवविकास के दौरान सम्भव था। मसलन, इसका रंग-रूप, गन्ध और इसकी पंखुड़ियों की सतह की बारीकियाँ तक सड़ते हुए मांस की तरह बन पड़ी हैं। इसके रूप-रंग पर मोहित हो मांस-प्रिय मक्खियाँ, इस पर मण्डराती रहती हैं। यहाँ तक कि इसकी पंखुड़ियों को सड़ता हुआ मांस समझकर वे अपने अण्डे तक इस पर दे डालती हैं। अण्डे देने की इस प्रक्रिया में इनके पैरों पर फूलों के पोलिनिया चिपक जाते हैं और जब ये मक्खियाँ स्टेपेलिया के दूसरे फूल पर अपने अण्डे देने जाती हैं तो पैरों पर चिपके पोलिनिया वहाँ छूट जाते हैं और उस फूल का परागण हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ये फूल अपनी कारगुज़ारी में सफल हो जाते हैं। मैंने स्वयं अपने घर पर लगे स्टेपेलिया के फूलों पर इन मक्खियों को अण्डे देते और उनसे लार्वा निकलते देखा है।
सवाल यह है कि फूल खिलते ही ये मक्खियाँ अचानक कहाँ से आ जाती हैं? दरअसल, इन फूलों से सड़ते हुए मांस जैसी गन्ध आती है जो वाष्पशील अमीन्स जैसे मिथाइल अमीन, हेक्साइल अमीन की होती है। यहाँ तक कि कुछ फूलों में पटरेसीन और केडावरीन जैसे डायअमीन भी होते हैं जो सड़ते हुए मांस के विशिष्ट उत्पाद हैं। यानी पंखुड़ियाँ केवल मांस जैसी दिखती नहीं बल्कि गन्ध भी हूबहू वैसी ही होती है।
ऑर्किड की मिमिक्री
पौधों द्वारा जन्तुओं की हूबहू नकल करने का श्रेष्ठ उदाहरण है ऑर्किड के फूल। बी ऑर्किड, ऑफरिस इसका एक ज़ोरदार उदाहरण है। इसके फूलों का आकार, रंग-रूप और गन्ध भी एक मादा मधुमक्खी की तरह है जो इसका परागण करती है। ऑर्किड के इन फूलों में नकल की इन्तहा हो जाती है।
छल की हद तो इतनी है कि उनके फूलों पर दो ऐसे चमकदार धब्बे भी होते हैं जो मादा मक्खी पर पाए जाते हैं। आस-पास की पंखुड़ियाँ इतनी सिकुड़ी होती हैं कि वे मादा मक्खी के ऐंटीना जैसी ही दिखती हैं। इतनी गज़ब की समानता के चलते नर मक्खी इसके फूलों से समागम की कोशिश करती है और इसी कोशिश में फूल पर लगे पोलिनिया (परागकणों का समूह) इसके सिर पर चिपक जाते हैं। धोखे का शिकार जब यह नर मक्खी फिर किसी मादा मक्खी की तलाश में भटकती-भटकती गन्ध से आकर्षित हो पुन: किसी ऑर्किड फूल को अपनी असली मादा समझ उससे समागम की कोशिश करती है तो उसके सिर पर चिपके पोलिनिया ऑर्किड फूल पर चिपक जाते हैं। फूल का तो परागण हो गया परन्तु नर मक्खी को क्या मिला? न पराग, न मकरन्द तो फिर मादा से समागम की सन्तुष्टि का एहसास भर है। कोई पौधा बिना कुछ दिए अपना काम निकलवा ले, है ना गज़ब की बात।
वनस्पति शास्त्रियों का कहना है कि जीव-जगत में इस तरह की मिमिक्री हज़ारों सालों के परस्पर अनुकूलन का नतीजा है। पौधे और जन्तु, दोनों में साथ-साथ रहते-रहते जो छोटे-छोटे फायदेमन्द परिवर्तन हुए वे धीरे-धीरे इतने ज़्यादा समान हो गए कि आज उन्हें देख उनकी इस नकलपट्टी पर आश्चर्य होता है कि कैसे एक पौधा हूबहू एक मादा मक्खी जैसा या कैसे एक पौधे का पुष्पक्रम कोबरा के फन के समान दिख सकता है? ऐसे सभी उदाहरण पौधे और जन्तुओं में हुए सह विकास (Parallel co-evolution) के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं।
डॉ. किशोर पंवार: होल्कर साइन्स कॉलेज, इन्दौर में वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक तथा विज्ञान लेखन एवं नवाचार में रुचि रखते हैं।