कमलेश चन्द्र जोशी

कुछ समय पहले तक आमतौर पर भाषा की पाठ्य पुस्तकें एक उपदेशमूलक, शुद्धतावादी व सख्त ढाँचे में बँधी हुई दिखाई देती थीं जिनमें बच्चों को एक आदर्श नागरिक बनाने, राष्ट्र सम्मान की भावना पैदा करने जैसे उद्देश्यों पर ज़ोर होता था। इसके साथ ही भाषा को एक सीमित दायरे में बाँधकर देखा जाता रहा है। उसे केवल सम्प्रेषण के साधन तक ही सीमित मान लिया जाता है जब कि यह एक माध्यम है जिसके सहारे हम अधिकांश जानकारी प्राप्त करते हैं। यह एक व्यवस्था है जो काफी सीमा तक हमारे आस-पास की वास्तविकताओं और घटनाओं को हमारे मस्तिष्क में व्यवस्थित करती है। यह कई तरीकों से हमारी पहचान का एक चिन्ह है। भाषा शिक्षण पहले से तय एक क्रम में चला आता रहा है जिसका उद्देश्य बच्चों को वर्णमाला की पहचान से शु डिग्री करके बिना मात्रा वाले शब्द, मात्राओं वाले शब्द, संयुक्ताक्षर, वाक्य आदि सिखाने का सतत् क्रम ही दिखाई पड़ता है। इस फ्रेम के अन्तर्गत पाठ्य पुस्तकों का पाठ्य एक तयशुदा रूप में ही दिखता रहा है जिसमें केवल यह ध्यान रखा जाता है कि बच्चा यांत्रिक रूप से तथ्यों को याद करता रहे। पाठ्य पुस्तकों में इस बात की गुंजाइश काफी कम रहती है कि बच्चों को स्वयं सोचने व कुछ रचने के मौके मिलें। ऐसे फ्रेम को पारम्परिक रूप से हम दशकों से देखते चले आ रहे हैं और आज भी हम ऐसी बहुत सारी पाठ्य पुस्तकें आसानी से देख सकते हैं। यहाँ तक कि इन पाठ्य पुस्तकों में बच्चों के भाषा सीखने की नैसर्गिक क्षमताओं को भी नकार कर ही देखा जाता रहा है। ऐसे हताशा भरे माहौल में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा हाल ही में प्रकाशित पाठ्य पुस्तकें बच्चों की सीखने-सिखाने की दुनिया में ताज़ी हवा के झोंके के समान हैं जिसका अनुभव पाठ्य पुस्तकों को देखकर, पढ़कर व बच्चों के साथ प्रयोग करके ही महसूस किया जा सकता है।

बच्चों को ज़्यादा मौके
एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित प्राथमिक स्तर की पाठ्य पुस्तकें रिमझिम शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं। भाषा की ये पाठ्य पुस्तकें पूर्व वर्णित नज़रिए में आमूल-चूल बदलाव लाने का प्रयास करती हुई दिखाई देती हैं। पाठ्य पुस्तक के परिप्रेक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि बच्चों की सोच, रुचियों, उनके अनुभव, उनकी कल्पना शीलता व रचनात्मकता को कक्षा में स्थान मिले और इसे ध्यान में रखकर कक्षा के कार्य तय किए गए हैं। इसके पाठों में इन बातों की काफी गुंजाइश है कि शिक्षक कक्षा में ऐसे मौके रचें जहाँ बच्चों को अपनी बातों को व्यक्त करने की आज़ादी हो। आगे ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षक इन सम्भावनाओं का बच्चों के साथ भली-भाँति इस्तेमाल कर पाएँ।

पहली कक्षा की पाठ्य पुस्तक के अन्दर के कवर पृष्ठ पर जब हम कविता की ये पंक्तियाँ पाते हैं -
‘हरा समन्दर गहरा पानी,
बोल मेरी मछली कितना पानी,
कमर-कमर तक गहरा पानी,
बोल मेरी मछली कितना पानी’

तो इन्हें पढ़ते हुए हम बचपन की स्मृतियों में पहुँच जाते हैं और बचपन के दृश्य जीवन्त रूप से एक-एक कर याद आ जाते हैं - गाँव-मोहल्ले, पेड़ के नीचे खेलते बच्चे, सर्दी-गर्मी-बरसात के मौसमों की शामें आदि। तब शायद हम इन पंक्तियों को इस तरह गाते थे -
‘हरा समन्दर गोपी चन्दर पानी,
बोल मेरी मछली कितना पानी,
कमर-कमर तक गहरा पानी,
बोल मेरी मछली कितना पानी।’

इस कविता को खेल-खेल में गाने का मज़ा आज कितने बच्चे ले पाते हैं, पता नहीं। लेकिन इन पंक्तियों की कौंध आज तक हमारे मन में छाई हुई है और जब इस खेल गीत को 21वीं सदी में सरकार की एक पाठ्य पुस्तक में पाते हैं तब सहज ही सुखद अनुभूति होती है और यह समझ में आता है कि उनका एक पाठ्य पुस्तक में होना आम भारतीय लोक परम्परा को इज्ज़त देता है। इससे पाठ्य पुस्तक में जीवन्तता का भान होता है। हमें नहीं पता कि ये पंक्तियाँ पहले किसी पाठ्य पुस्तक में थीं या नहीं (हमारे स्कूली समय में तो नहीं थीं) लेकिन इस समृद्ध परम्परा को पाठ्य पुस्तक में जगह मिलना एक बड़ी बात है। हमारे समय की पाठ्य पुस्तकों में यह देखा जाता रहा है कि अधिकतर पाठ विदेशी परी कथाओं के अनुवाद जैसे - सोती सुन्दरी, अन्धा राजकुमार आदि ही होते थे।

आस-पास की पाठ्य सामग्री
पाठ्य पुस्तक के पाठों पर गौर करने पर बाल मन की कई चीज़ें जैसे झूला, रेलगाड़ी, आम, पतंग, गेंद-बल्ला, बन्दर, बुढ़िया, चाँद एकाएक स्मृति पटल पर घुमड़ आते हैं जो बचपन में एक कौतूहल पैदा करते थे। यहाँ इस बात पर गौर करने की ज़रूरत है कि देश के लाखों बच्चे जिनका शुरुआती दौर में किसी भी तरह की प्रकाशित सामग्री से कोई परिचय नहीं होता, उनके बीच इस तरह की किताबों का होना बच्चों में एक खुशी भर देता है - इस बात की खुशी कि उनके आस-पास की चीज़ें पाठ्य पुस्तक में जगह पाती हैं और बच्चे सच में उन्हें महसूस कर सकते हैं।

पहली कक्षा की पाठ्य पुस्तक में कई परिवेशीय चित्र दिए गए हैं जिनमें ग्रामीण परिवेश के चित्र भी हैं तथा शहरी परिवेश के भी। ये चित्र विद्यालय में बच्चों को अपना अनुभव बताने, बातचीत करने, सोचने, ढूँढ़ने, अनुमान लगाने, कल्पना करने और तर्क करने के मौके प्रदान करते हैं। शिक्षकों के लिए समझने की बात यह है कि इन चित्रों के पाठ्य पुस्तक में होने का अर्थ समझ पाएँ। इनको लेकर बच्चों के साथ क्या बातचीत करनी है? क्यों बातचीत करनी है? इस पर स्पष्टता हो तो इन चित्रों की सार्थकता नज़र आती है।

इन चित्रों में बच्चों के घर और उनके आस-पास की दुनिया समाई हुई है जिसमें बच्चों का विद्यालय, विद्यालय का पहला दिन, रेलवे स्टेशन, माँ की रसोई, झूला, खेत-खलिहान, बस यात्रा आदि के चित्र हैं। इनसे बच्चा आसानी से सम्बन्ध बनाते हुए बातचीत कर सकता है और अपनी सोच को जगह दे सकता है। बच्चों के विद्यालय का चित्र वास्तव में विद्यालय ऐसा ही होने की मन्द स्वर में सलाह भी देता है, जहाँ बच्चों को ऐसा माहौल मिले जैसा कि चित्र बता रहे हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि ये चित्र बच्चों के आस-पास के परिवेश की भरी-पूरी दुनिया को बच्चों के सामने रखते हैं और बच्चों द्वारा बातचीत करनेे का परिप्रेक्ष्य खोलते हैं। इस बातचीत द्वारा बच्चे अपने स्तर पर अपने परिवेश से तादात्म्य स्थापित करते हैं, अपनी बात को रखना सीखते हैं।

बच्चों को भाषा के विविध अनुभव प्रदान करने के लिए पाठों में बहुत सारी गतिविधियाँ दी गई हैं। उदाहरण के लिए रिमझिम-1 के पृष्ठ 25 पर ‘पत्ते ही पत्ते’ नामक पाठ है जिसमें बच्चों को अपने आस-पास के परिवेश का अवलोकन करते हुए विभिन्न तरह की पत्तियों जैसेे - गोल, लम्बी, छोटी, बड़ी, कतरीली, मुलायम, खुरदुरी आदि को छाँटकर वर्गीकृत करना है। इसी तरह इसी पुस्तक के पृष्ठ 92 पर ‘क्या डूबेगा क्या तैरेगा?’ नामक अभ्यास जैसे पाठों में बच्चों को ‘करके सीखने’ का मौका मिलेगा। ऐसे पाठ बच्चों के परिवेशीय अध्ययन से भी जुड़े हैं और इनका भाषा की पाठ्य पुस्तकों के साथ भी सुन्दर मेल बिठाया गया है। इनमें बच्चे भाषा के प्रयोग के साथ अन्य कौशल जैसे तालिका बनाना, छाँटना, वर्गीकृत करना भी सीखते हैं। यह शायद इसलिए भी है ताकि शुरुआती दौर में बच्चे अपने आस-पास के परिवेश को एक समेकित रूप में देख पाएँ।

लोककथा और लोककला को स्थान
पाठ्य पुस्तकों में बहुभाषिता व भारतीय संस्कृति पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। इसका अहसास पाठ्यपुस्तकों की विभिन्न रचनाओं को देखकर आसानी से किया जा सकता है - विभिन्न राज्यों की विविध रंगतों वाली लोक कथाएँ पाठ्य पुस्तक की पूरी  ांृखला में शामिल हैं। विदेशी रचनाओं को कम ही जगह मिली है। इन पाठ्य पुस्तकों में अलेक्सान्द्र रस्किन की रचना ‘पापा जब बच्चे थे’, आइज़ेक एसीमोव की विज्ञान कथा ‘वे भी क्या दिन थे’ एवं इण्डोनेशियाई नाटक को शामिल किया गया है।

पाठ्य पुस्तकों की साज-सज्जा में देश के विभिन्न राज्यों की लोक कलाओं जैसे बिहार की मधुबनी, महाराष्ट्र की वर्ली, उड़ीसा के पट्टचित्र आदि का खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है। पाँचवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक के मुखपृष्ठ पर दुर्गाबाई का चित्र इस बात का भरपूर अहसास देता है कि पाठ्य पुस्तकें स्थानीय संस्कृति का पुट देने में सक्षम हैं। ऐसी साज-सज्जा यह सन्देश देने में सक्षम है कि पाठ्य पुस्तकों में किस तरह से स्थानीय संस्कृति को स्कूल के सीखने-सिखाने में शामिल किया जा सकता है और इससे पाठ्य पुस्तकें समृद्ध हो सकती हैं। इस तरह के चित्र बच्चों में एक सौन्दर्य बोध भी जगाते हैं और भारतीय संस्कृति की विविधता से परिचित करवाते हैं। यह पाठ्य पुस्तक लेखन का एक महत्वपूर्ण आयाम है और हमें लगता है कि ऐसी सोच पाठ्य पुस्तकों में पहली बार दिखाई पड़ी है। इसका ज़िक्र राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ 2005 में भी किया गया है।

बाल अभिव्यक्ति को मौके अनेक
पाठ्य पुस्तकों में ‘आम की कहानी’ व ‘कहानी खोजो’ जैसे पाठ बच्चों को स्वयं कहानी सोचने के मौके प्रदान करते हैं। इस तरह के पाठ के चित्र बच्चों को कहानी का क्रम व सन्दर्भ पकड़ने में मदद करते हैं जिसके ज़रिए बच्चे पूरी कहानी को अपनी तरह से बता सकते हैं।

इसी तरह रिमझिम-3 के पृष्ठ 52 पर कौआ और लोमड़ी की बचपन में बहुत बार सुनी गई कहानी दी गई है। लेकिन इसके साथ अगले पृष्ठ पर दिया गया है कि इन्हीं चित्रों व पात्रों के आधार पर एक नई कहानी बनाओ। ज़ााहिर है कि बच्चों को यहाँ नई तरह से सोचने का व कहानी बनाने का मौका मिलेगा। उन्हें यह भी समझ में आएगा कि ढूँढ़ने पर किसी समस्या का कोई दूसरा हल भी हो सकता है। लेकिन यहाँ शिक्षकों की यह अपेक्षा नहीं होनी चाहिए कि बच्चे पूरी कहानी बना ही देंगे। ऐसे पाठ मात्र यह सुझाते हैं कि बच्चों को अभिव्यक्ति के मौके किस तरह से मिलें और उन्हें हम किस ज़रिए से अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करें? चित्रकथा बच्चों को बातचीत करने, उन्हें स्वयं अनुमान लगाने तथा कहानी बनाने का मौका प्रदान करती है जिससे बच्चों की कल्पनाशीलता, अभिव्यक्ति को विकसित करने के मौके प्रदान किए जा सकते हैं। इसी तरह से अन्य गद्य रचनाएँ भी बच्चों को कक्षा में बातचीत करने का मौका प्रदान करती हैं।

पाठ्य पुस्तकों की एप्रोच को देखकर ऐसा लगता है कि तोड़-तोड़ कर सीखने के बजाए समग्र रूप से सीखने पर बल दिया गया है। इस कारण किताबों में विशेष मात्राओं वाले शब्दों को ध्यान में रखकर पाठ नहीं रखे गए हैं। पाठ्य पुस्तक में ऐसे सब पाठ हैं जो बच्चों के रोज़मर्रा के अनुभवों व उनकी सोच से उभरे हैं और जो उन्हें पढ़ने का आनन्द देते हैं। इन पाठों की खास बात यह है कि इनमें बच्चों के लिए करने को इतना कुछ है कि ये पाठ्य पुस्तकें केवल भाषाई पाठ्य पुस्तकें मात्र नहीं रह गई हैं। इनमें बच्चों के लिए खेल, माथापच्ची, मुखौटे बनाना, क्राफ्ट के काम द्वारा नया रचने-गढ़ने आदि के काफी मौके हैं। परन्तु साथ ही यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ये काम वास्तव में बच्चों से कक्षा में करवाएँ। ये न हो कि उन्हें घर से करने के लिए दे दें जैसा कि आमतौर पर विद्यालयों में होता है। अक्सर बच्चों के काम उनके माता-पिता/भाई-बहन कर देते हैं। इसलिए शिक्षकों को पाठ्य पुस्तकों के उद्देश्य को समझना होगा तभी वे कक्षा में इनके साथ न्याय कर पाएँगे।

कुछ रचनाएँ
पाठ्य पुस्तकों के सभी पाठ रोचक व अर्थपूर्ण हैं जिनका एक सन्दर्भ है और जिससे पढ़ना सीख रहे बच्चों को अनुमान लगाने, पढ़ना सीखने में काफी मदद मिलती है। बशर्ते उन्हें कक्षा में बच्चों के साथ सही दृष्टिकोण से क्रियान्वित किया जाए। खुद से पढ़ने के मौके प्राप्त हों। इन पाठों में ‘बन्दर और गिलहरी’, ‘गेंद-बल्ला’, ‘मैं भी’, ‘लालू और पीलू’, ‘हलीम चला चाँद पर’, ‘भालू ने खेली फुटबाल’, ‘बुलबुल’, ‘एक्की-दुक्की’ जैसे पाठों का नाम आसानी से लिया जा सकता है। ये पाठ शुरू-शु डिग्री में विद्यालय आने वाले बच्चों की सोच, उनकी सहज प्रवृत्ति और कल्पनाशीलता को ध्यान में रखकर रखे गए हैं। इनमें बच्चे पढ़ने का वास्तविक आनन्द ले सकते हैं - बिना किसी ‘शिक्षाप्रद’ सवाल-जवाब के।
इसी  में अन्य रचनाएँ जैसे ‘शेखीबाज़ मक्खी’, ‘चाँद वाली अम्मा’, ‘टिपटिपवा’, ‘बहादुर बित्तो’, ‘जब मुझे साँप ने काटा’, ‘मीरा बहन और बाघ’, ‘सबसे अच्छा पेड़’, ‘अकल बड़ी या भैंस’, ‘क्योंजी मल और कैसे-कैसे लिया’, ‘बुलबुल’, ‘भालू ने खेली फुटबाल’, ‘एक्की-दुक्की’, ‘सुनीता की पहिया कुर्सी’, ‘किरमिच की गेंद’, ‘स्वतंत्रता की ओर’, ‘राख की रस्सी’, ‘स्वामी की दादी’, ‘चुनौती हिमालय की’ नामक पाठ बच्चों को एक अच्छे गद्य का अहसास दिलाते हैं। इनमें बच्चों की कहानियाँ, जानकारी परक लेख, लोक कथाएँ, कॉमिक्स, कार्टून आदि शामिल हैं जो बच्चों को पढ़ने की विविध तरह की लिखित सामग्री से परिचित करवाते हैं और स्वयं पढ़ने के प्रति उत्सुकता पैदा करते हैं।

‘क्योंजी मल और कैसे-कैसे लिया’ नामक पाठ जहाँ बच्चों की प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को दर्शाते हैं वहीं आफन्ती के किस्से के रूप में ‘अकल बड़ी या भैंस’ कॉमिक्स शैली में रखा गया है। बच्चों के बचपन के अनुभव के रूप में शंकर द्वारा रचित ‘जब मुझे साँप ने काटा’ नामक पाठ पढ़ने का आनन्द देता है। ‘टिपटिपवा’ व ‘बहादुर बित्तो’ उत्तर प्रदेश व पंजाब की लोक कथाओं से संकलित किए गए हैं। ‘टिपटिपवा’ बाल मनोविज्ञान के रूप में डर को पृष्ठभूमि में रखकर रचा गया है और बच्चों में अन्त तक कौतूहल बनाए रखता है। इसी तरह ‘बहादुर बित्तो’ पाठ आम जनमानस से उठाए गए किसान की पत्नी के रूप में महिला पात्र बित्तो को केन्द्र में रखकर रचा गया है और प्रच्छन्न रूप से महिला सशक्तिकरण का मूल्य लिए हुए है। इसी तरह से ‘चाँद वाली अम्मा’ बच्चों के लिए कल्पना, मिथक व यथार्थ का पुट लिए एक सुन्दर कहानी है जो बच्चों को आनन्दित कर सकती है और एक अच्छी कहानी का अहसास दिलाती है। आमतौर पर पाठ्य पुस्तकों में यह देखा जाता है कि उनके पाठ ऐसे रचे जाते हैं जहाँ बच्चों को किसी वर्ण, मात्रा से परिचित करवाना उनका उद्देश्य होता है और बच्चे शब्द-दर-शब्द पढ़ना सीखते हैं। ऐसे पाठ्य में न तो बच्चों के लिए कोई अर्थ पूर्ण सन्दर्भ होता है न ही कोई आनन्द। उनके लिए पढ़ना एक निरर्थक कवायद बनकर रह जाता है। यहाँ इस बात का प्रयास किया गया है कि बच्चे समझ कर पढ़ना सीखें और पढ़ने का आनन्द लें। समझ कर पढ़ने में सोचने के उच्च कौशल शामिल हैं जिसके अन्तर्गत बच्चे अपने अनुभव जोड़ते हैं, समस्याओं को समझते हैं, विश्लेषण करना सीखते हैं। यह सीखने के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण पहलू है।

पाठ्य पुस्तक में दी गई कहानियाँ पढ़कर आनन्द लेने के लिए तो हैं ही, इसके साथ ही इनमें दिए गए अभ्यास भी बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करते हैं जैसे कि ‘शेखीबाज़ मक्खी’ नामक कहानी में दिया गया प्रश्न, “मक्खी मकड़ी के जाल में फँस गई थी फिर क्या हुआ होगा? कहानी आगे बढ़ाओ।” दूसरा प्रश्न कि अगर कहानी मक्खी की जगह लोमड़ी और शेर को ध्यान में रखकर लिखी जाती तो उससे क्या फर्क पड़ता? इसी तरह कहानी के नए शीर्षक सोचना आदि प्रश्न बच्चों को कहानी के ढाँचे को समझने में मदद करते हैं और बच्चों को समस्याओं को सुलझाने के नए रास्ते ढूँढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। साथ ही बच्चों को सोचने के लिए उकसाते भी हैं।

यहाँ रेखांकित करने लायक बात यह है कि दी गई कहानियाँ मात्र इसलिए नहीं हैं कि पढ़कर उनके प्रश्नोत्तर याद कर लिए जाएँ जैसे कि आमतौर पर पाठ्य पुस्तकों में होता है। वे इसलिए भी हैं कि बच्चे कहानी निर्माण की प्रक्रिया को समझें और खुद भी नया रचने की कोशिश करें। अधिकतर पाठों के अभ्यास बच्चों को अपने परिवेश से जानकारी जुटाने, खोजबीन करने आदि के लिए प्रेरित करते हैं जिससे वे भाषा के प्रकार्यात्मक (ढद्वदड़द्यत्दृदठ्ठथ्) पहलू को सीख सकें और अपने परिवेश के प्रति भी संवेदनशील हो सकें।

कविताएँ पढ़ो और गाओ भी
पहली कक्षा की पाठ्य पुस्तक में काफी कविताएँ दी गई हैं। उनमें से अधिकतर कविताएँ ऐसी हैं जिनको बच्चों के साथ मिलकर गाया जा सकता है। जिनमें ‘हाथी चल्लम-चल्लम’, ‘गया खेत में बन्दर भाग’, ‘पगड़ी’, ‘भगदड़’ नामक कविताएँ बच्चों के साथ गाने के लिए रोचक व उपयुक्त हैं। इन कविताओं की लय व शब्दों की जोड़-तोड़ बच्चों को आनन्दित करती है। ‘चकई के चकदुम’ नामक कविता ऐसी है जिसमें बच्चे अपने आप पंक्तियाँ जोड़ते हुए कविता को आगे बढ़ा सकते हैं। चयन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि कविताएँ बच्चों के लिए सहज हों और उन्हें बच्चे आसानी से ग्रहण कर सकें। दोनों पाठ्य पुस्तकों में राष्ट्र प्रेम व ईश भक्ति प्रेरित कोई भी कविता नहीं है जो कि रूढ़ बिम्बों से ग्रसित व बच्चों की समझ से परे हो। ऐसी कविताएँ आमतौर पर पाठ्य पुस्तकों में ज़रूर रखी जाती हैं। दूसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में शामिल प्रयाग शुक्ल की कविता ‘ऊँट चला भई ऊँट चला’ बच्चों के साथ हावभाव व लय के साथ गाने के लिए बहुत बढ़िया है। इसी तरह निरंकार देव सेवक की सुन्दर कविता ‘टेसू राजा बीच बाज़ार’ बच्चों में आगे सोचने, कल्पनाशीलता बढ़ाने व कक्षा में बातचीत करने के बहुतेरे मौके प्रदान करती है। ऐसी कविताएँ पाठ्य पुस्तकों में ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं।

तीसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में शामिल ‘मन करता है’ बच्चों की सोच को जगह देती है। रामधारी सिंह दिनकर की पुरानी कविताएँ ‘मिर्च का मज़ा’ व ‘पढ़क्कू की सूझ’ में कहानियाँ छिपी हैं। इसी क्रम में सोहन लाल द्विवेदी की लम्बी कविता ‘गुरु और चेला’ का नाम लिया जा सकता है जो पाँचवीं कक्षा में शामिल है। इससे बच्चों को कविताओं में कहानी के रूप का पता चलता है। ‘कक्कू’ नामक कविता बच्चों के नाम से जोड़-तोड़ करने, चिढ़ने की स्वाभाविक मनोवृत्ति से प्रेरित है और इस पर बच्चों के अपने अनुभवों को जोड़ने के खूब मौके प्रदान करती है।

तीसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में एक नाटक भी दिया गया है जिसे हम कहानी के रूप में खूब सुनते रहे हैं। इसमें काली और सफेद, दो बिल्लियाँ आपस में रोटी के लिए लड़ती हैं और उनका बँटवारा बन्दर करता है जो स्वयं ही रोटी खा जाता है। हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित इस नाटक ‘बन्दर बाँट’ का बच्चे कक्षा में मिलजुल कर मंचन कर सकते हैं और साहित्य की एक अन्य विधा नाटक का आनन्द भी ले सकते हैं। यह नाटक भारतीय श्रुति परम्परा से गहरे से जुड़ा हुआ है। आगे की कक्षाओं में ‘थप्प रोटी थप्प दाल’ तथा ‘चावल की रोटियाँ’ नाटक शामिल हैं।

प्राथमिक व उच्च प्राथमिक के सेतु को देखते हुए पाँचवीं कक्षा में सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, रवीन्द्र नाथ टैगोर, राजेश जोशी आदि की कविताएँ भी शामिल हैं जो भाषा के सौन्दर्य के साथ अपने आस-पास के प्रति संवेदनशीलता भी प्रदर्शित करती हैं।

रचनाओं में विविधता
पाठ्य पुस्तकों की अन्य रचनाओं में ‘स्वामी की दादी’ नामक पाठ अँग्रेज़ी के मशहूर कथाकार आर.के. नारायण की रचना है जो पाँचवीं कक्षा के बच्चों के मनोविज्ञान को देखते हुए उपयुक्त है। इसी सन्दर्भ में ‘चुनौती हिमालय की’ नामक यात्रा-वर्णन को भी देखा जा सकता है। यह पाठ साहित्य की एक नई विधा के साथ अच्छे यात्रा वर्णन का अहसास भी दिलाता है। ‘सुनीता की पहिया कुर्सी’ एक विकलांग बच्ची की साहस भरी कहानी है जो सहज रूप से उभरकर आती है और संवेदनशीलता जगाती है। इसी क्रम में ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ को भी रखा जा सकता है। ‘स्वतंत्रता की ओर’ नामक पाठ बच्चों में नमक सत्याग्रह को सरस ढंग से प्रस्तुत करता है। ‘बुलबुल’ व ‘हुदहुद’ नामक पाठ बच्चों को पक्षियों के बारे में रोचक ढंग से जानकारी देते हैं।

पाँचवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक की डिज़ाइन में भी नवीनता दिखाई देती है। इस पाठ्य पुस्तक को चार प्रमुख भागों में बाँटा गया है। पहला भाग ‘अपनी-अपनी रंगतें’ भारतीय विरासत से जुड़ी सामग्री है। दूसरा भाग ‘बात का सफर’ बीते हुए कल व आने वाले कल से जुड़ा हुआ है। तीसरे भाग में पाँचवीं कक्षा के स्तर पर बच्चों के मनोविज्ञान को देखते हुए हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ समाहित हैं तथा चौथे भाग में बच्चों के आस-पास के परिवेश के प्रति संवेदनशीलता दिखाती हुई रचनाएँ हैं। रचनाओं में काफी विविधता है जो बच्चों में पढ़ने के प्रति संवेदनशीलता, सौन्दर्य बोध व कल्पनाशीलता उभारने में सक्षम हैं। इसमें खास बात यह भी है कि एक ही विषय वस्तु को विभिन्न विधाओं में बच्चों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है जिससे बच्चे विषयवस्तु का आनन्द भिन्न-भिन्न विधाओं में ले सकते हैं। उदाहरण के लिए रवीन्द्र नाथ टैगोर की नदी पर कविता है तो अगला पाठ नदी पर केन्द्रित गद्य के रूप में है। इस तरह की विविध सामग्री पाठ्य पुस्तक में शामिल है।

प्रत्येक पाठ्य पुस्तक में कुछ तारांकित रचनाएँ भी दी गई हैं जो सिर्फ बच्चों के पढ़ने के लिए हैं। ऐसा शायद इसलिए रखा गया है क्योंकि भाषा सीखने के सन्दर्भ में विविध तरह की चीज़ें पढ़ना महत्वपूर्ण है। कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़कर हम आनन्द ले सकते हैं और अपने हिसाब से समझ ग्रहण करते हैं। ऐसी रचनाओं का दिया जाना इस बात को इंगित करता है कि बच्चों को इस तरह की पाठ्येत्तर सामग्री समय-समय पर उपलब्ध कराई जाए जिससे उन्हें पढ़ने व स्वयं सीखने में मदद मिले तथा उनमें पुस्तकों के प्रति प्रेम व पढ़ने की आदतों का विकास हो सके। ऐसी रचनाओं में एक लोककथा ‘बिल्ली कैसे रहने आई आदमी के संग’ को आधुनिक कॉमिक्स का रूप दिया गया है और यह दूसरी कक्षा के बच्चों के लिए उपयुक्त है। इसी तरह से ‘जोड़ा साँको वाला घर’, ‘ईदगाह’, ‘एशियाई शेर की मीठी गोलियाँ’ आदि उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

भाषा की विविध विधाएँ
पाठ्य पुस्तकों में भाषा के अनेक पक्षों को शामिल किया गया है। साथ ही ऐसा लगता है कि भाषा के सन्दर्भ में लिखे गए एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम पर्चे को ध्यान में रखा गया है जिसमें कहा गया है कि संसार को उद्घाटित करने के अलावा भाषा के प्रकार्यात्मक तत्व हैं। कविता, गद्य और नाटक न केवल हमारी साहित्यिक संवेदनशीलता को परिष्कृत करते हैं बल्कि हमारे सौन्दर्यबोध को भी समृद्ध करते हैं - साथ ही विशेष पठन, अवबोधन एवं लिखित के उच्चारण को भी। साहित्य में चुटकुले, व्यंग्य, काल्पनिकता, कहानी, पैरोडी, दृष्टान्त व नीति कथा भी शामिल हैं जो हमारे दिन-प्रतिदिन की बातचीत में शामिल होते हैं और उनका विस्तार करते हैं। यहाँ भाषा के प्रति यह दृष्टिकोण मुखर रूप से दिखता है और पाठ्यक्रम के वक्तव्य को पूरा करता है।

पाठ्य पुस्तकों में दिए गए कॉमिक्स, खेल, भूल-भुलैया, मुखौटे बनाना जैसी सामग्री बच्चों को पाठ्य पुस्तक से जुड़ने में मदद करेगी। इससे बच्चों को यह भी अहसास होगा कि पाठ्य पुस्तक अलहदा कोई पावन पुस्तक नहीं है जिससे केवल पहले से तय ज्ञान को ग्रहण किया जाता है। इन पाठ्य पुस्तकों में बच्चे, अनुभवों को जोड़कर व खुद करके अपनी कल्पनाशीलता से नया ज्ञान रचते हैं और ज्ञान रचने का आनन्द लेते हैं। इससे इस बात का भी अहसास होता है कि पाठ्य पुस्तक हमारे स्थानीय परिवेश, संस्कृति, अनुभवों, कल्पनाशीलता आदि के बीच की चीज़ है जिससे हम जुड़ते हैं, प्यार करते हैं, नए दृष्टिकोण बनाते हैं, गढ़ते हैं, रचते हैं, समझते हैं, सीखते हैं, आगे बढ़ते हैं। इससे यह भी इंगित होता है कि बच्चों में भाषा सीखने के साथ-साथ कई और चीज़ें भी समग्र रूप से विकसित होती हैं। इसके लिए उन्हें विविध अनुभव देने की ज़रूरत होती है।

प्राईवेट विद्यालयों/प्राईवेट प्रकाशकों को इन पाठ्य पुस्तकों से यह सीखने को मिल सकता है कि आर्ट और क्राफ्ट की पाठ्य पुस्तक को अलग से चलाने की ज़रूरत नहीं है। वे बच्चों के बस्ते के बोझ को ही बढ़ाती हैं और माता-पिता उन पर अनावश्यक पैसा खर्च करते हैं जबकि ये सारी चीज़ें एक पाठ्य पुस्तक में सुन्दर ढंग से पिरोई जा सकती हैं और उन पर बच्चों के साथ समग्रता में काम किया जा सकता है। इन पाठ्य पुस्तकों से सबक मिल सकता है कि बच्चों को सीखने-सिखाने की दृष्टि क्या हो, शिक्षा के उद्देश्य क्या हों, बच्चों में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया क्या हो, बच्चों के बारे में सोच कैसी हो, आदि। इससे देश में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारा जा सकता है - बशर्ते कि हम इनमें उपलब्ध सम्भावनाओं को मौका दें।

एक बँधे-बँधाए ढर्रे पर चलने वाले शिक्षाविदों व शिक्षकों को इन किताबों से शायद निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि वर्णमाला, मात्राएँ, संयुक्ताक्षर, शब्द आदि को ध्यान में रखकर पाठ्य पुस्तकों का निर्माण नहीं किया गया है और न ही इनमें भाषा के व्याकरण के प्रति शुद्धतावादी दृष्टिकोण अपनाया गया है। व्याकरण के अभ्यास इस तरह के हैं जिनमें बच्चे शब्दों व वाक्यों के स्वत: प्रयोग एवं अपने आप ही सन्दर्भ के द्वारा व्याकरण समझने का प्रयास कर सकते हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन पाठ्य पुस्तकों में भाषा शिक्षण को वृहद परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गई है और इसके तार ‘एक लोकतांत्रिक देश में शिक्षा के उद्देश्य क्या हों’ उससे जुड़ते हुए दिखते हैं। इनमें मुख्य रूप से यह रेखांकित करने की कोशिश की गई है कि बच्चे का पूर्व ज्ञान, स्थानीय परिवेश, देश की विविधता, बहुभाषिता एवं भारतीय संस्कृति आदि को पाठ्य पुस्तकों में कैसे परावर्तित किया जा सकता है। कक्षा एक की पाठ्य पुस्तक थोड़ी मोटी (124 पृष्ठ) ज़रूर हो गई है और इस पर यह सवाल उठ सकता है कि पहली कक्षा के लिए इतनी मोटी पुस्तक क्यों? लेकिन सामग्री का चयन अच्छा होने की वजह से यह बात गौण हो जाती है और यह दिशा मिलती है कि इन पाठ्य पुस्तकों को शिक्षक मार्गदर्शक पुस्तकों के रूप में देखें कि उन्हें बच्चों के लिए किस तरह की सामग्री प्रयोग करनी चाहिए और क्यों? यही बात राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ 2005 में कही गई है कि बच्चों का सीखना-सिखाना पाठ्य पुस्तकों से परे जा सके व पाठ्य पुस्तकें बच्चों को चहुँमुखी विकास के अवसर मुहैया कराएँ बजाय इसके कि शिक्षा/पढ़ाई केवल पाठ्य पुस्तक केन्द्रित रह जाएँ।

इसके साथ एक खास बात और स्पष्ट होती है कि पाठ्य पुस्तकें हमारी शिक्षाई सोच और शैक्षिक मूल्यों को उजागर करती हैं। पाठ्य पुस्तकों की एप्रोच को लेकर शिक्षकों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी ज़रूरी है। जिससे शिक्षक इनके मूल स्वर को समझ सकें और कक्षा में सक्रिय रूप से बच्चों के साथ काम कर सकें। इन बातों को ध्यान में रखकर ही शिक्षक परीक्षाओं से ऊपर उठकर बच्चों की अभिव्यक्ति को जगह दे सकेंगे और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ 2005 में दिए गए मार्गदर्शक बिन्दुओं को लागू करने की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

अन्त में, यह सोचने की ज़रूरत है कि इन शिक्षाई मूल्यों को बच्चों, विद्यालय व समुदाय तक कैसे पहुँचाया जाए? इस सन्दर्भ में काफी लम्बा रास्ता तय किया जाना है। अन्त में इस चीनी कहावत को याद रखने की ज़रूरत है कि किसी भी लम्बी यात्रा को तय करने की शुरुआत एक कदम से होती है।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत। बच्चों के साथ काम करने का लम्बा व गहरा अनुभव।