एन पंचपकेशन

सुब्राह्मण्यन चन्द्रशेखर 
"हमें तारों के बारे में जितना कुछ पता है, उसके अधिकांश के पीछे है चन्द्रशेखर की गणितीय अंतदृष्टि।" यह कथन है एक अन्य विख्यात खगोल भौतिक विज्ञानी, एम.आई.टी. के फिलिप मॉरिसन का, सुब्राह्मण्यन चन्द्रशेखर के बारे में। चन्द्रशेखर, जिनका देहान्त 22 अगस्त 1995 को हुआ, भारतीय विज्ञान-छात्रों की कई पीढ़ियों के लिए ने केवल एक आदर्श थे बल्कि एक मिसाल बन गए थे। एक लम्बी अवधि तक - साठ साल से भी ज़्यादा - वे खगोल भौतिकी के संसार पर छाए रहे सर्वोच्च स्तर के वैज्ञानिक के रूप में; बीस साल तक विख्यात अमेरिकी पत्रिका ‘एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल’ के संपादक रहकर और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसकी बुनियावी परिप्रेक्ष्य की स्वाभाविक तलाश ने तारों के जीवन और मृत्यु के बारे में हमें एक बुनियादी समझ और नज़रिया दिया। अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में  जहां उन्होंने अपने जीवने के साठ साल बिताए, वे एक किवदन्ती थे। जब मैं शिकागों में था, मैंने सुनाकि एक प्रसिद्ध चित्रकार द्वारा बनाए गए चन्द्रशेखर के चित्र का वहां के भौतिकी विभाग में अनावरण हुआ है। मैं उसे देखने गया और वहां मौजूद एक जापानी छात्र से पूछा कि चित्र कहां है। “आप चित्र क्यों देखना चाहते हैं, जब आप स्वयं उस महापुरूष को देख सकते हैं?”  छात्र ने बड़े उत्साह के साथ कहा। अफसोस! अब यह संभव नहीं होगा।

सत्य, सुंदरता और प्रकृति  
अपनी पुस्तक ‘Truth  And Beauty’ में चन्द्रशेखर ने बताया है कि किस प्रकार वे सत्य और सुन्दरता की खोज में जुटे रहे, विज्ञान में भी और साहित्य जैसे जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी। आजीवन उनका उद्देश्य रहा प्रकृति को एक एकीकृत, सुसम्बद्ध गणितीय तरीके से समझना। अन्त तक वे इसी उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहे। अपने ही अंदाज़ में जुटे रहकार उन्होंने तारों के विकास और तारों के जीवन के अन्तिम चरणों - श्वेत वामन, न्यूट्रॉन तारा तथा ब्लैक-हौल - के बारे में महत्वपूर्ण सिद्धांत विकसित किए। इन तीनों अन्तिम अवस्थाओं को समझने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। श्वेत वामनों के बारे में उनके निष्कर्ष एक लम्बे अरसे तक माने नहीं गए। अंतत: इस काम के लिए उन्हें 1983 में नोबेल पुरस्कार मिला, इस विषय पर उनके शोध के पचास साल बाद।

चन्द्रशेखर का जन्म लाहौर में हुआ था। उन्होंने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्ययन किया। उनके पिता वरिष्ठ सरकारी अधिकारी थे और विज्ञान व संगीत से भली-भांति परिचित थे। विख्यात सी.वी.रमन, जिन्हें ‘रमन प्रभाव’ के आविष्कार के लिए 1930 में नोबेल पुरसकार मिला था, उनके चाचा थे। कॉलेज में रहते ही 19 साल की उम्र में चन्द्रशेखर ने शोधकार्य शुरू कर दिया और इसके बारे में उनका एक शोधपत्र छपा भी। इंग्लैंड में केम्ब्रिाज में पी.एच.डी. करने के बाद उन्होंने कुछ समय तक वही ‘फेलो’ के  रूप में काम किया। सन् 1936 में चंन्द्रशेखर इंग्लैंड से अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय चले गए। 1937 में उनका विवाह उनकी सहपाठिनी ललिता से हुआ। उनके साथ वे शिकागो लौट गए और अंत तक वहीं रहे।

अध्ययन और नई किताब  
उनके काम करने की शैली कुछ ऐसी थी: उन्हें किसी विषय में रुचि हो जाती तो वे उसका अध्ययन अपने परिप्रेक्ष्य से अपनी समझ बनाने के लिए करते, उस विषय पर एक प्रामाणिक पुस्तक लिखते और फिर किसी दूसरे विषय पर चले जाते। इस तरह से उन्होंने तारों की संरचना, तारों के विकास और उनके अंदर की क्रियाओं, तारों में विकिरण स्थानांतरण, प्लाज़्मा भौतिकी, न्यूट्रॉन तारों में संतुलन और ब्लैक-होल पर किताबें लिखीं।

ये सारी पुस्तकं अब तक क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं, जिन्हें वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों ने इस्तेमाल किया है। आखिर के कुछ वर्षो में उन्हें प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन द्वारा लिखी गई किताब ‘प्रिन्सिपिया’ में दिलचस्पी हो गई थी? उन्होंने ‘आम आदमी के लिए न्यूटन की प्रिन्सिपिया’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। यह किताब उनकी मृत्यु के कुछ महीने पहले ही प्रकाशित हुई। वे न्यूटन की गणितीय और वैज्ञानिक क्षमताओं के कायल थे। उन्हें बहुत सारे पुरस्कारों व पदकों से सम्मानित किया गया। दुनिया की लगभग सभी महत्वपूर्ण अकादमिक सभाओं के वे सदस्य चुने गए थे। सन् 1983 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।


कला और विज्ञान

मैंने सन 1975 के बाद जितने भी व्याख्यान दिए हैं उन सबमें दो-एक मुद्दे ऐसे हैं और लगातार चलते हुए नज़र आते हैं - किसी-न-किसी संदर्भ में उनकी बात आती ही है।

उनमें से एक तो है, विज्ञान में सुंदरता की तलाश। और दूसरा, जिस पर एक व्याख्यान में मुझे खासतौर पर बोलने को कहा गया था - विज्ञान और कला में सृजनात्मकता के तौर-तरीकों और मापदंडों में फर्क की शुरुआत कैसे हुई होगी।

दोनों की तरह की सृजनात्मकता में अंतर है उसके बारे में दो राय नहीं हो सकती - विशेष तौर पर अगर आप एक कलाकार और एक वैज्ञानिक के काम की तुलना करें तो यह फर्क साफ दिखाई देता है।

एक कलाकार की कृतियों को आमतौर पर तीन अवस्थाओं में बांटकर परखा जाता है - शुरुआती कृतियां, बीच का दौर और अंतिम रचनांए। और माना जाता है कि समय के साथ-साथ कृतियों में गहराई और परिपक्वता आती है। पर वैज्ञानिक का आकलन इस तरह से नहीं किया जाता; उसका मूल्यांकन उन चंद खोजों के महत्व पर आधारित होता है जिनसे विज्ञान के सिद्धातों या जानकारी में कुछ नया जुड़ा हो। और आमतौर पर वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण खोज उनके शुरुआती दौर में होती है। जबकि कलाकार की सबसे परिपक्व और महत्वपूर्ण रचना उसकी आखिरी कृति हुआ करती है।

मुझे कला और विज्ञान के बीच यह विरोधाभास अब भी सोच में डाल देता है।

एस. चंद्रशेखर
8 दिसम्बर 1986
(एस. चंद्रशेखर द्वारा संपादित उनके व्याख्यानों के संकलन ‘ट्रुथ एंड ब्यूटी’ से)


तारों का जीवन चक्र
इस साल दीपावली  (24 अक्टूबर 1995) को संपूर्ण सूर्यग्रहण होने वाला है। सूर्य और उसके ग्रहण से जुड़े अंधविश्वासों के बारे में तो हम जानते ही हैं। कहते हैं न कि ज्ञान ही डर और अंधविश्वास को दूर में सबसे ज़्यादा सहायक होता है - तो चंन्द्रशेखर जैसे खगोल भौतिक विज्ञानी के काम के कारण हम आज सूर्य और अन्य तारों के जीवन और मृत्यु के बारे में बहुत कुछ जान पाए हैं। तारों आदि को लेकर बनी हमारी अंधविश्वासी धारणाओं को दूर करने में इस सब जानकारी से भी मदद मिलती है।

नेब्युला 20 ट्रिफिड का फोटो: ऐसे नेब्युला में ही तारों का जन्म होता है। ये मुख्यत: अंतरिक्ष में फैले हुए गैस और गर्द के बहुत ही बादल होते हैं जिनमें गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से जगह-जगह पदार्थ के पास-पास आ जाने और और सिकुड़ने के कारण नए-नए तारे पैदा होते रहते हैं। नेब्युला में कुल मिलाकर हाइड्रोजन ही होती है, अन्य तत्व तो बहुत ही कम मात्रा में पाए जाते हैं।

तारों की ऊर्जा आती है नाभिकीय क्रियाओं से, जिनमें हाइड्रोजन हीलियम में परिवर्तित होती है। यह ऊर्जा और तेज़ गति वाले कणों से उत्पन्न दबाव तारे को संतुलित स्थिति में रखते हैं। नहीं तो गुरुत्वाकर्षण बल के कारण तारे एकदम सिकुड़ जाते। अर्थात र्इंधन के रूप में हाइड्रोजन की उपलब्धता ही सूर्य या तारे की स्थिरता का कारण है। जब सारी हाइड्रोजन हीलियम में परिवर्तित हो जाती है तो हीलियम अन्य भारी तत्वों में परिवर्तित होने लगती है। इस तरह तब तक ऊर्जा मिलती रह सकती है जब तक तत्व लोहे में परिवर्तित नहीं हो जाते। तारे को इस अवस्था तक पहुंचने में कई लाख साल लगते हैं। उसके बाद तारे में संतुलन बनाए रखने के लिए कोई र्इंधन उपलब्ध नहीं होता, और तारा सिकुड़ने लगता है। सिकुड़ने से तापमान बढ़ता है और तारा लाल दानव बन जाता है; और ज़्यादा सिकुड़ने से तारे में प्रचण्ड विस्फोट होगा। इस चरण को ‘सुपरनोवा’ कहते हैं।

इस विस्फोट की वजह से बहुत सारा पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाता है। इसके बाद तारा तीन अंतिम अवस्थाओं में से किसी एक की तरफ बढ़ जाता है। वह श्वेत न्यूट्रॉन तारा, या फिर ब्लैक-होल।

साठ साल से भी अधिक पहले चन्द्रशेखर ने पहली बार दिखाया कि श्वेत वामन का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से लगभग 1.4 गुना से ज़्यादा नहीं हो सकता। अत: हमारा सूर्य श्वेत वामन बनेगा। पर अधिक द्रव्यमान तारे श्वेत वामन न्यूटॉन तारा नहीं बन सकते। अगर किसी तारे का द्रव्यमान सूर्य से 1.4 गुना से ज़्यादा है तो वह तारा  श्वेत वामन या न्यूट्रॉन तारा तभी बन सकता है - अगर वह सुपरनोवा विस्फोट के समय इस अतिरिक्त पदार्थ (द्रव्यमान) को अंतरिक्ष में फेंक दे। अर्थात सुपरनोवा विस्फोट के बाद उसका द्रव्यमान सूर्य से 1.4 गुना से कम हो जाए। यदि वह अतिरिक्त पदार्थ को बाहर नहीं फेंकता तो उसे ब्लैक-होल ही बनना पड़ेगा।

आलोचना और चंद्रशेखर सीमा  
जब चन्द्रशेखर अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचे तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि ब्लैकहोल जैसी कोई चीज़ हो सकती है। विख्यात खगोल भौतिकी विज्ञानी एडिंगटन ने इस परिणाम को मानने से इन्कार कर दिया और चंद्रशेखर के काम की जमकर आलोचना की। उस दौर में एडिंगठन का रुतबा ऐसा था कि उनकी आलोचना काफी माएने रखती थी। इसी आलोचना के चलते चन्द्रशेखर को इंग्लैड छोड़कर नौकरी के लिए अमेरिका जाना पड़ा। जैसे कि पहले कहा गया है, श्वेत है, इस बात को मान्यता मिलने में बहुत समय लगा। सूर्य के द्रव्यमान से लगभग 1.4 गुना द्रव्यमान की यह सीमा अब  ‘चन्द्रशेखर’ सीमा के नाम से जानी जाती है।

‘चन्द्रशेखर’ सीमा क्वांटम यांत्रिकी की उन धारणाओं का सीधा परिणाम है जिनका आविष्कार उससे कुछ ही पहले हुआ था। भौतिकी की नई धारणाओं पर आधारित इन परिणामों को मानने के लिए एडिंगठन कतई तैयार नहीं थे। खगोलशास्त्र में उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व ने चन्द्रशेखर की धारणाओं को सर्वमान्य होने से रोका। ‘चन्द्रशेखर’ सीमा को किसी पुरस्कार से सम्मानित होने में लगभग 40 साल लगे, और नोबेल ने एक बार मज़ाक में कहा था कि नोबेल पुरस्कार मिलने से वे उस स्थिति से बच गए जिसमें सेना के एक जनरल ने अपने आप को पाया था। जनरल की छाती पर बहुत सारे तमगे लगे हुए थे। एक महिला ने उनसे उन तमगों के बारे में पुछा तो जनरल ने कहा कि सबसे पहला गलती से मिला था और बाकी इसलिए मिले क्योंकि लोग पहले वाले से लगातार प्रभावित होते रहे!

पूरी कक्षा को नोबेल पुरस्कार  
चन्द्रशेखर के जीवन के आखिरी 30 साल सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत (General Theory Of Relativity) व गुरुत्वाकर्षण के अध्ययन में और ब्लैक-होल का असर कया होता होगा यह समझने में बीते।  उनकी ‘सीमा’ के कारण ही सिद्ध हुआ था कि ब्लैक-होल का अस्तित्व होगा ही - अत: उनके लिए ब्लैक-होल का अध्ययन करना स्वाभाविक था। इस अध्ययन का परिणाम था 1982 में प्रकाशित उनकी पुस्तक - कृष्णविवरों का गणितीय सिद्धांत। इस अध्ययन में पूरी तरह से नहीं दी जा सकती थीं। अत: इन विस्तृत गणनाओं समेत उनकी कापियां शिकागो विश्वविद्यालयों की रेगेनस्टाइन लाइब्रोरी में रखीं गई हैं ताकि कोई समझना चाहे तो उन्हें देख सके और ज़रूरत हो तो उनका सत्यापन कर सके! इस उम्र में लगन के साथ इतने जटिल गणित के साथ जूझना बहुत कम लोगों के लिए संभव है।

वे 1966 तक येरकिस वेधशाला में थे और विश्वविद्यालय में अपनी कक्षा को पढ़ाने के लिए कार चला कर शिकागो जाते थे। एक बार उनकी कक्षा में केवल दो छात्र थे। जब किसी ने पूछा कि वे सिर्फ दो छात्रों के लिए गाड़ी चला कर क्लास लेने क्यों जाते हैं, तो उन्होंने कहा, “मेरी पूरी क्लास को नोबेल पुरस्कार मिला हुआ है।”  वे दो छात्र थे टी.डी. ली और सी.एन. यांग, जिन्हें 1957 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार मिला। चन्द्रशेखर और उनकी पत्नी बहुत सादा जीवन व्यतीत करते थे। चन्द्रशेखर भारत में दिलचस्पी लेते थे, और महात्मा गांधी और नेहरू के प्रशंसक थे। जब 1968 में उन्हें जवाहरलाल नेहरू स्मारक भाषण देने के लिए कहा गया तब वे फूले नहीं समाए।

वे विख्यात गणितज्ञ रामानुजन से बहुत प्रभावित थे और मद्रास में रामानुज संस्थान हाथ भी था। उन्होंने दो-एक बार भारत लौटने के बारे में सोचा था, पर घटनाक्रम ने ऐसा होने नहीं दिया। उनके जीवन का बहुत अच्छा विवरण कामेश्वर वाली द्वारा लिखित ‘CHANDRA’ में है - खासतौर पर ‘चन्द्रा’ के आखिरी हिस्से में चन्द्रशेखर और वाली के बीच विभिन्न मुद्दों पर हुई चर्चाओं का ज़िक्र उनकी सोच और नज़रिए के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है।


एन. पंचपकेशन - दिल्ली विश्वविद्यालय में खगोल भौतिकी के प्राध्यापक।