अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी [Hindi PDF, 665 kB]
ऋषि वैली स्कूल के विद्यार्थी एवं शिक्षक
यह लेख अर्थियन प्रतियोगिता के पाँच सफल प्रतिभागियों में से एक का सम्पादित अंश है। इस प्रोजेक्ट पर ऋषि वैली स्कूल के बच्चों और शिक्षकों की टीम ने वर्ष 2000 के दौरान काम किया है। इसमें उन्होंने अपने आवासीय स्कूल और आस-पास के क्षेत्र में पानी के संसाधनों एवं उपयोग का विश्लेषण किया है और पानी के स्रोतों के संरक्षण के लिए आज तक के प्रयास का विवरण दिया है। इकट्ठे किए गए आँकड़ों और जानकारी को गहराई से समझकर बच्चों ने अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं ताकि भविष्य में पानी का संरक्षण और बेहतर हो। इससे पता चलता है कि कठिन और पेचदार मुद्दों पर विचार विमर्श करने में बच्चों का भी योगदान हो सकता है।
वॉटिस (विप्रो अप्लाईंग थॉट इन स्कूल्स) द्वारा संचालित अर्थियन प्रतियोगिता के पीछे सोच यह है कि आज पृथ्वी वासियों के समक्ष कई तरह की चुनौतियाँ हैं जैसे - जलवायु में बदलाव, जल संकट, तेज़ गति से बढ़ रहा नगरीकरण, जैव विविधता का ह्रास आदि। लोग समस्याओं को समझें और इनके लिए हल खोज सकें। आज के युवाओं में समस्याओं की समझ बनाने के लिए, उनमें सस्टेनेबल सोच को बढ़ावा देने के लिए, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी और शिक्षक को मिलकर इन चुनौतियों के हल निकालने आदि का एक मौका है अर्थियन।
भारत में पानी की उपलब्धता की स्थिति तेज़ी से बिगड़ती जा रही है जिसके चलते केवल 30% भारतीयों को साफ, पीने योग्य पानी उपलब्ध है। 2009 में एक अध्ययन ने दिखाया कि 1997 से 2050 तक भारत में पानी की कुल माँग के 89% बढ़ जाने, और साथ ही इसी अवधि में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के लगभग 44% घट जाने का अनुमान है।
भारत के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पानी की उपलब्धता, और उसकी कमी के कारण बहुत अलग-अलग हैं। इस लेख में हम आंध्र प्रदेश की ऋषि घाटी, हमारे स्कूल और उसके परिवेश में पानी की स्थिति का आकलन करना चाहेंगे।
ऋषि वैली स्कूल का परिसर 350 एकड़ में फैला है और लगभग 500 लोगों की आबादी उस परिसर में निवास करती है। आस-पास की घाटी की अधिकांश आबादी ग्रामीण है और यहाँ पानी की भारी कमी बनी रहती है। परिणामस्वरूप, स्थानीय समुदाय को इस संसाधन का ज़्यादा सोच-समझ कर इस्तेमाल करना पड़ा है। हाल ही में, आंध्र प्रदेश सरकार ने इस पूरी घाटी, जिसमें स्कूल तथा आस-पास के गाँव शामिल हैं, को ‘विशेष विकास क्षेत्र’ का दर्जा दिया है। स्कूल तथा विशेष विकास क्षेत्र, दोनों ने ही पानी के संरक्षण और उसके पुन: उपयोग के मुद्दे को बहुत गम्भीरतापूर्वक लिया है। परिसर में किए गए प्रयासों के बावजूद, अभी भी यहाँ के भू-जल-स्तर पर अत्यधिक दबाव है जिसके चलते तीन साल में पाँच बोरवैल सूख गए हैं। हमारा उद्देश्य पिछले 15-20 वर्षों में पानी के संरक्षण, प्रबन्धन और पुन: उपयोग का अध्ययन करना है। इसके लिए जानकारी का एक अनोखा स्रोत जो हमें उपलब्ध है, वह पिछले पाँच सालों में ऋषि वैली स्कूल के विद्यार्थियों द्वारा स्कूल के पाठ्यक्रम के अंग के रूप में इकट्ठे किए गए पानी के उपयोग के आँकड़े हैं। पर्यावरण शिक्षा (ऐनवायरनमेन्टल एजुकेशन) जो सभी कक्षाओं के लिए अनिवार्य विषय है, के अन्तर्गत पानी का उपयोग और उसके संरक्षण के उपाय इस परिसर में भली-भाँति पढ़े जाने वाले विषय हैं। पानी की समस्या की व्यापक तस्वीर जानने के लिए हम स्टाफ के सदस्यों और स्थानीय समुदाय के लोगों से साक्षात्कार भी लेंगे।
हम बीते वर्षों में देखे गए उपयोग के तौर-तरीकों (पैटर्न्स) और प्रवृत्तियों पर ध्यान देते हुए जानकारी पर आधारित ऐसे समाधान निकालने की आशा करते हैं जो वर्तमान परिस्थिति में लागू किए जा सकते हैं। हमें विश्वास है कि ऋषि वैली की पानी की समस्या का हमारा विश्लेषण और प्रस्तावित समाधान भारत में अन्य स्थानों पर समान आकार के अन्य समुदायों के लिए प्रतिरूप की तरह काम कर सकते हैं।
ऋषि वैली: समुदाय
ऋषि वैली बेंगलुरु से लगभग 160 कि.मी. उत्तर-पूर्व में, आंध्र प्रदेश के चित्तूर ज़िले में स्थित है। सूखे के रुझान वाले इस क्षेत्र में स्थित अधिकांश आबादी ग्रामीण है जिसकी जीविका के मुख्य साधन खेती तथा पशुपालन हैं। यह घाटी वर्षा की ओट में, उससे वंचित ऐसे क्षेत्र में होने के कारण जिसके आस-पास कोई बड़ी नदी भी नहीं बहती, सभी उपयोगों के लिए पूरी तरह से भू-जल पर ही निर्भर है।
ऋषि वैली ऐजुकेशन सेंटर (आरवीईसी) और आवासीय स्कूल की स्थापना 1931 में प्रख्यात दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति द्वारा की गई थी। लगभग 500 की आबादी वाला इसका परिसर तकरीबन 350 एकड़ में फैला है।
आंध्र प्रदेश सरकार ने 1980 में 150 एकड़ की एक पहाड़ी का सीमांकन करके उसे वनीकरण के उद्देश्य से आरवीईसी को सौंप दिया। तब से आरवीईसी के विद्यार्थियों द्वारा उस पर फिर से पेड़-पौधे लगाने के प्रयासों से, और नमी तथा मिट्टी के संरक्षण के लिए रिसाव का संग्रहण करने वाले तालाब और रोधक बाँध बनाने से यह ज़मीन सफलतापूर्वक जंगल में बदल गई है।
आंध्र प्रदेश सरकार ने 2008 में ऋषि वैली और 33 गाँवों सहित उसके चारों ओर के इलाके (5,176.97 एकड़) को एक ‘विशेष विकास क्षेत्र’ घोषित किया। आरवीईसी तथा आंध्र प्रदेश सरकार ने घाटी में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने और पानी के बेहतर प्रबन्धन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए बहुत प्रयास किए हैं।
ऋषि वैली में पानी का इतिहास
खेती, पशुपालन और घरेलू उपयोग के लिए भू-जल ही पानी का प्राथमिक स्रोत है। ऐतिहासिक रूप से ऋषि वैली में 1970 के दशक के अन्तिम वर्षों तक खोदे गए और खुले कुओं से पानी निकाला जाता था।
1980 के दशक में बोर-वैल (नलकूप) के आगमन के साथ ही जल स्तर नीचे जाने लगा। आंध्र प्रदेश के भू-जल विभाग ने 1970-71 में जल स्तर के भूमि की सतह से 30-50 फीट नीचे होने की जानकारी दी थी। 1996-1997 से बोर-वैलों की संख्या सात गुनी बढ़ गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन वर्षों में पानी की स्थिति निरन्तर बिगड़ती गई है, जैसा कि भू-जल विभाग के 2006-2007 के सर्वेक्षण से प्रकट होता है जो इस क्षेत्र में कुल मिलाकर 208 बोर-वैल दर्शाता है, जिनमें से 150 मौसमी कारणों से सूख गए थे। आज वहाँ जल स्तर भूमि की सतह से 500-800 फीट नीचे है।
जल संसाधनों का पारिस्थितिक विश्लेषण
ऋषि घाटी को दक्षिण-पश्चिमी तथा उत्तर-पूर्वी, दोनों मानसून प्राप्त होते हैं। पिछले दस वर्षों में यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 880 मि.मी. के करीब था (विवरण ऊपर दिए ग्राफ में देखें)। चूँकि यह इलाका वर्षा की ओट (रेन शैडो एरिया) वाले क्षेत्र में है, इसलिए यहाँ बारिश अनियमित और अपूर्वानुमेय (अनप्रेडिक्टेबल) होती है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में सूखे के दौर नियमित रूप से आते रहे हैं, जिसमें आखिरी बड़ा सूखा 1980 के दशक में पड़ा था जब जल स्तर 200 फीट के नीचे चला गया। ऋषि वैली स्कूल में जो शिक्षक और स्टाफ के सदस्य 1980 के दशक से हैं, उनसे लिए गए साक्षात्कारों से पता चलता है कि उस समय भी पानी एक दुर्लभ संसाधन था और स्कूल ने उसके संरक्षण के उपाय शु डिग्री कर दिए थे।
उपभोक्ता | बोर-वैल की संख्या | पानी निकालने की मात्रा (लीटर प्रतिदिन) |
ऋषि वैली कैम्पस - 600 लोग | 2 | 99,225 |
ऋषि वैली एस्टेट | 3 | 1,26,000 |
|
1 | 40,000 |
ऋषि वैली डेयरी | 1 | 36,000 |
कुल | 7 | 3,01,225 |
परिसर की पानी की ज़रूरतें विविध प्रकार की और विस्तृत हैं। बीते वर्षों में आरवीईसी ने एक लम्बे समय तक चल सकने वाले समुदायिक विकास में बहुत ऊर्जा लगाई है, और इसके फलस्वरूप एक 100 एकड़ का फार्म (जो ‘एस्टेट’ कहलाता है), एक 16 एकड़ का जैविक सब्ज़ियों का बगीचा और एक डेयरी विकसित हो गए हैं। इसलिए मानवीय ज़रूरतों के अलावा, खेती और पशुपालन के लिए भी पानी की काफी माँग रहती है। आरवीईसी में पानी के खर्च का पता करने के लिए हमने विद्यार्थियों द्वारा इकट्ठे किए गए आँकड़ों पर भरोसा किया है। पर्यावरण शिक्षा के प्रोजैक्ट्स के अंग की तरह, पानी का उपयोग और उसके संरक्षण के उपाय, इस परिसर में बहुत अच्छी तरह पढ़ा जाने वाला विषय है (पर्यावरण शिक्षा सभी कक्षाओं के लिए अनिवार्य विषय है)।
2009 में किए गए एक अध्ययन के दौरान इकट्ठे किए गए आँकड़ों के आठ दिनों के औसत का सारांश तालिका-1 में प्रस्तुत किया गया है। पानी के कुल उपभोग का एक-तिहाई परिसर के लोगों द्वारा नहाने, कपड़े और बर्तन धोने, खाना बनाने और सफाई आदि कार्यों में उपयोग होता है। एस्टेट में, जिसमें सबसे ज़्यादा बोर-वैल हैं, पानी का उपयोग केवल खेती के लिए होता है। हालाँकि, हमारे भोजन की दूरी (- यह उपभोक्ता तक पहुँचने में भोजन के द्वारा तय की गई दूरी है, और यह पर्यावरण द्वारा भोजन के लिए चुकाई गई समग्र लागत का एक हिस्सा होती है) को कम करने के लिए यहाँ बहुत पानी माँगने वाली फसलें, जैसे गन्ना और हल्दी उगाई जाती हैं, पर खेती के तरीके पानी के दक्षतापूर्ण उपयोग पर आधारित हैं। गन्ना, खेती की मेडागास्कर पद्धति का उपयोग करते हुए उगाया जाता है, जिसमें पानी की खपत को 50% कम करने के लिए फसल की कतारों के बीच के फासलों को बढ़ा दिया जाता है। इसके अतिरिक्त, एस्टेट पर की जाने वाली पूरी सिंचाई बूँद-बूँद रिसाव वाली तकनीक के द्वारा होती है जिससे पानी के उपयोग की दक्षता और भी बढ़ जाती है। सब्ज़ियों का बगीचा, जो स्कूल को 60% फलों और सब्ज़ियों की पूर्ति करता है, पानी के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए साल में करीब 200 दिन रिसाव सिंचाई का इस्तेमाल करता है, लेकिन इसकी पानी की खपत 40,000 लीटर प्रति दिन है। डेयरी, ऊँची नस्ल की होलस्टीन-फ्रिसियन गायों से आरवीईसी परिसर को दूध प्रदान करने के लिए, प्रतिदिन 36,000 लीटर पानी का उपयोग करती थी। जून 2012 से, डेयरी को बन्द कर दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप पानी की खपत में उल्लेखनीय कमी हुई है।
स्कूल के भीतर पानी की खपत की पड़ताल करते समय यह बात आपका ध्यान खींचती है कि हालाँकि दो छात्रावासों में छात्रों की संख्या समान है, पर उनमें से एक की तुलना में दूसरा दुगने से भी ज़्यादा पानी खर्च करता है। पहले में यह 32 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन और दूसरे में 69 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन है। यह भी पता चला कि स्टाफ के 31 सदस्यों के आवासों में से दो घरों में पानी की खपत के आँकड़े बहुत अधिक थे - 220 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन से भी ज़्यादा।
स्कूल में कुल मिलाकर प्रति दिन एक लाख लीटर पानी का उपयोग किया जाता है, जिसमें सभी छात्रावासों, अतिथि गृहों, भोजन शाला, कपड़े धोने की लॉन्ड्री सेवा और अस्पताल में होने वाली पानी की खपत शामिल है।
स्कूल में पानी के भण्डारण की बात करें तो वहाँ ऊँचाई पर बनी करीब 21 संग्रह टंकियाँ हैं जिनकी कुल भण्डारण क्षमता 2,68,000 लीटर है, जो स्कूल द्वारा लगभग 2.7 दिन की पानी की खपत की पूर्ति करती है। पानी का उपयोग और टंकियों का फिर से भरा जाना साथ-साथ चलता है, और एक बार भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि पानी की ऊँची संग्रह टंकियाँ पूरी तरह खाली हो गई हों।
दृष्टिकोण और जागरूकता
ऋषि वैली के दूर-दराज़ के गाँवों में से अनेक में लोगों के दैनिक उपभोग के लिए साफ और स्वास्थ्यप्रद पानी उपलब्ध नहीं है। साथ ही, जब नलों के द्वारा पानी की आपूर्ति की जाती है तो सड़कों पर लगे नल खुले छोड़ दिए जाते हैं। रिसने वाले नल आम हैं और पानी के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूकता सीमित है - हो सकता है कि यह स्थिति इस तथ्य के कारण और भी बिगड़ी हो कि न तो परिसर में, और न ही उसके बाहर के समुदाय में किसी को पानी के लिए कोई भुगतान करना पड़ता है!
हमने पानी की तंगी तथा पानी के बारे में दृष्टिकोण के सम्बन्ध में तेट्ट पंचायत (जिसमें आरवीईसी आता है) के सरपंच और स्थानीय निवासियों का साक्षात्कार लिया। इन साक्षात्कारों से स्पष्ट हुआ कि बहुत-से लोग इस बात से अनजान हैं कि वे तेज़ी से घट रही पानी की आपूर्ति की अन्तिम कगार पर रह रहे हैं। कुछ किसानों के अनुसार, वे टपकने वाले नलों को सुधारने और खुले नलों को बन्द करने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह समस्या के सिर्फ छोटे-से हिस्से को हल करता है।
बोर-वैल्स के पहले, यहाँ समुदाय-आधारित प्रबन्धन के पारम्परिक तरीकों का इस्तेमाल करते हुए पानी का काफी अच्छे ढंग से प्रबन्ध किया जाता था और सभी किसानों (बड़े और छोटे) के बीच साझा उपयोग के लिए उसका उचित बँटवारा किया जाता था। नीरगत्ती कहलाने वाले कुछ लोग, बारिश के पानी द्वारा भरे जाने वाले सामुदायिक तालाबों के जल-स्तरों के अनुसार, किसानों को खेती के लिए पानी का आवंटन करते थे। ज़्यादातर सूखी-ज़मीन वाली फसलें उगाई जाती थीं जो सूखे का मुकाबला कर सकती थीं और बारिश पर, या खुले कुओं या तालाबों से मिलने वाले पानी पर निर्भर रहती थीं। पाले गए पशु भी स्थानीय नस्लों के थे जिन्हें आजकल दूध उत्पादन के लिए पाली जाने वाली मोहक विदेशी नस्लों की तुलना में बहुत कम पानी की ज़रूरत पड़ती थी। इन सबके परिणामस्वरूप, भू-जल पर पड़ने वाला दबाव काफी कम था और लोगों को पीने के लिए और अपनी जीविका के लिए पर्याप्त पानी मिलता था।
आरवीईसी परिसर में, विद्यार्थियों ने विभिन्न साधनों के माध्यम से जागरूकता फैलाने का प्रयास किया है। इसका एक उदाहरण है उन नलों के पास, जो नियमित रूप से और ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल किए जाते थे - ज़्यादातर स्नानघरों और शौचालयों के पास - ऐसे पोस्टर लगाए जो उपयोग करने वालों से सावधानी बरतने का और जहाँ तक सम्भव हो पानी की खपत घटाने का आग्रह करते थे। यह उपाय कुछ हद तक काम करता है, पर दृष्टिकोणों को लेकर जब एक पुनरावलोकन अध्ययन किया गया तो लगा कि यह काफी नहीं था, और पानी के अनावश्यक उपयोग तथा बर्बादी को रोकने के लिए गम्भीर कार्यवाही की ज़रूरत है।
उपयोग का विश्लेषण
आरवीईसी परिसर में पानी की तंगी के तीन प्रमुख कारण हैं:
1. ऋषिवैली की भौगोलिक स्थिति और वहाँ बहुत कम बारिश होना। कोई इस तथ्य को बदल नहीं सकता, जो पानी की कमी के प्रमुख कारणों में से एक है, कि हमारे जल-चक्र में वर्षा जल की आपूर्ति हमेशा ही बहुत कम होती है;
2. परिसर के आस-पास अक्षम जलप्रदाय सुविधाओं और नलों आदि के रूप में खराब बुनियादी ढाँचा। ढेर सारा पानी लापरवाह रवैए के चलते पानी के खराब मीटरों, रिसते नलों, जंग खाए या टूटे पाइपों या रिसती टंकियों के ज़रिए बर्बाद हो जाता है। अधिकांश मामलों में रखरखाव करने वाले स्टाफ को सूचना दी जाती है, पर इस सन्दर्भ में विद्यार्थियों को ज़्यादा जि़म्मेदारी लेना चाहिए; और
3. परिसर के निवासियों - विद्यार्थी, स्टाफ के सदस्य और अन्य निवासी में अपर्याप्त जागरूकता। बीते वर्षों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन फिर भी लोगों की लापरवाही के कारण पानी की हानि होती है।
लम्बी अवधि के सन्दर्भ में एक मुद्दा असंख्य बोर-वैलों के द्वारा भू-जल का अतिशय दोहन है। जैसा कि आँकड़ों से ज़ाहिर है, और हो सकता है कि अधिक बोर-वैलों की खुदाई से लाभ की जगह हानि अधिक हो रही हो, क्योंकि हर बार हमें पानी निकालने के लिए और गहरे भू-जल स्तर तक जाना पड़ता है।
जल प्रबन्धन के अभिनव उपाय
पानी जैसी जटिल समस्या के लिए सभी स्तरों पर समाधानों की ज़रूरत है। ऋषि वैली जैसे समुदाय में, जो वहाँ लगभग 80 वर्षों से है, लोगों ने अतीत में भी इस समस्या को पहचाना था और बेहतर जल प्रबन्धन के उपायों के रूप में उसके हल निकाले थे। पर आजीविका के स्वरूपों में आए परिवर्तनों के कारण पानी के उपयोग के तौर-तरीकों में हुए बदलाव, भू-जल के बढ़े हुए दोहन और बारिश की बढ़ती हुई अनिश्चितता, इन सबके परिणामस्वरूप पानी इस घाटी का सबसे महत्वपूर्ण और संकटग्रस्त संसाधन बन गया है। जैसा कि स्टाफ के कई सदस्यों और शिक्षकों ने अपने साक्षात्कारों में कहा, ऋषि वैली को अपने निस्तार के बाद व्यर्थ बहाए जा रहे पानी को पुनर्चक्रित करके उसका फिर से उपयोग करने का प्रयास करना होगा, और यह भी देखना होगा कि ज़्यादा लम्बे समय तक बचाए रखने की दृष्टि से वर्तमान संसाधनों का कैसे उपयोग किया जा सकता है। किसी भी समुदाय की तरह, ऋषि वैली का भी अपना एक जल-चक्र है। इस जल-चक्र के हर चरण में पानी बचाना, उसका पुन: उपयोग करना या बेहतर प्रबन्धन करना सम्भव है, जिसके उपाय हम सुझाना चाहेंगे और आशा है कि उन्हें हम लागू भी कर सकेंगे।
स्रोत पर पानी का संरक्षण
ऋषि वैली में पानी के दो मुख्य स्रोत हैं, भू-जल तथा वर्षा। बारिश के बह जाने वाले पानी का संरक्षण करने का एक प्रमुख तरीका रिसाव के द्वारा भरी जाने वाली भूमिगत टंकियों के रूप में उपलब्ध है। बारिश के पानी को संग्रहित करने और भू-जल की फिर से पूर्ति करने के लिए, परिसर में 1984-86 के दौरान दो बड़ी भूमिगत रिसाव टंकियों का निर्माण किया गया। इसके अलावा, भू-जल की पूर्ति के लिए, आरवीईसी की सहायता से पूरी घाटी के विस्तार में निर्मित 52 रोधक बाँधों (चैक डैम्स) और 36 भूमिगत रिसाव टंकियों के द्वारा बारिश के पानी को जितना ज़्यादा सम्भव हो, रोक कर रखा जाता है। इसके परिणामस्वरूप, लगभग समस्त पानी घाटी की सतह पर से बह कर बाहर नहीं जाता।
स्रोत पर किए जाने वाले संरक्षण का एक अन्य उपाय छतों पर गिरने वाले बारिश के पानी का संग्रहण है। स्कूल के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, वर्षा-जल संग्रहण से पानी की हमारी दैनिक ज़रूरतों की लगभग 25% की पूर्ति की जा सकती है। वर्षा-जल को इकट्ठा करने का एक प्रयास किया गया है, पर समुदाय में छतों से बारिश के पानी के संग्रहण की कोई विस्तृत व्यवस्था काम नहीं कर रही। दो कार्यरत व्यवस्थाओं में से केवल एक में ही वर्षा-जल के संग्रहण स्थान पर एक भण्डारण टंकी है, क्योंकि बड़ी और मज़बूत भण्डारण टंकियों की लागत इसमें बाधक है। हालाँकि, अब परिसर में ज़्यादा-से-ज़्यादा छतों को वर्षा-जल संग्रहण योजना के अन्तर्गत लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। घाटी में भी बारिश के संक्षिप्त दौर ही आते हैं जिनके बाद बहुत तेज़ धूप पड़ती हैं और रिसाव टंकियों में इकट्ठा किया गया अधिकांश पानी तेज़ धूप के कारण भाप बन कर उड़ जाता है। इस स्थिति में छतों से वर्षा-जल का संग्रहण कारगर हो सकता है।
आरवीईसी समुदाय में विद्यार्थियों द्वारा संचालित एक गतिविधि ऐसी भी है जो ‘अपने हाथ गंदे करना!’ कहलाती है। इसके अन्तर्गत, पानी को सुगमता से इकट्ठा होने में मदद के लिए (कक्षा 9 से 12) के विद्यार्थी रोधक बाँध और कॉन्टूर (भू-सतह की तल-रेखाएँ) आधारित खाइयाँ बनाते हैं। वे पानी की नालियों में जमी गाद निकाल कर उन्हें साफ करते हैं, साथ ही उग आई ऐसी वनस्पति को भी अलग करते हैं जो रिसाव तालाबों या टंकियों तक पानी के बहाव में बाधक हो सकती है। इसलिए वर्षा-जल को अधिक दक्षतापूर्वक इकट्ठा करने का समुदाय द्वारा अपनाया जा सकने वाला एक तरीका संग्रहण बिन्दु पर भण्डारण टंकियाँ स्थापित करना होगा।
छतों से इकट्ठा किया गया पानी तथा बोर-वैलों से निकाला गया पानी आरवीईसी परिसर में ऊँचाई पर बनी टंकियों में चढ़ाया जाता है। यहाँ से इसे विभिन्न उपयोगों, जैसे घरेलू उपयोग, लॉन्ड्री, रसोई और भोजन-शाला, खेती, आदि के लिए भेजा जाता है। पीने के पानी को एक विपरीत परासरण (रिवर्स ऑॅस्मोसिस) संयंत्र से गुज़ारकर उसे ब्यूरो ऑॅफ इंडियन स्टैन्डर्ड के द्वारा पीने के पानी की गुणवत्ता के लिए निर्धारित मानकों के अनुरूप शुद्ध किया जाता है। इन सभी चरणों में पानी का पुन: उपयोग और पुन: चक्रण किया जा सकता है।
रखरखाव से पानी का संरक्षण
रिसते नलों, टूटे पाइपों और बेकार पड़ी टंकियों का समय से किया जाने वाला और कारगर रखरखाव उन अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक है जिनका समाधान किया जाना ज़रूरी है। जब किसी शिकायत की सूचना परिसर के भवन विभाग को दी जाती है तो वह उस पर तत्काल कार्यवाही करता है। यह बहुत ज़रूरी है कि छात्र इसमें अधिक जि़म्मेदारी लें, और जैसे ही उन्हें खराब नलों आदि के कारण पानी का ज़रा भी नुकसान होता दिखाई दे तो वे अधिकारियों को सूचित करने में अपनी भागीदारी निभाएँ।
यह बात पानी के मीटरों पर भी लागू होती है जिनका इस्तेमाल दिन भर में खर्च किए गए पानी की मात्रा को मापने के लिए किया जाता है। जहाँ 40 मीटर ठीक से काम कर रहे हैं, वहीं 22 खराब हैं। साथ ही, 7 या इससे अधिक इमारतों में कहीं भी कोई पानी के मीटर नहीं हैं। यदि इस स्थिति को सुधार लिया जाए तो कम-से-कम हमें परिसर के भीतर होने वाले पानी के खर्च की स्पष्ट जानकारी होगी।
उपयोग के दौरान जल संरक्षण
उपभोक्ता के छोर पर, उदाहरण के लिए स्कूल के रसोईघर, आवासों, छात्रावासों आदि में पानी बचाने वाले उपकरणों को धीरे-धीरे चरणबद्ध ढंग से लगाया जा सकता है। इनमें छोटी टोंटी के पानी बचाने वाले नल, शौचालयों में दो स्तरों के बहाव वाले फ्लश (ताकि आप फ्लश करते समय हमेशा भरे हुए पूरे पानी का उपयोग न करें), आदि हो सकते हैं।
आरवीईसी में पानी की एक सक्षम भण्डारण व्यवस्था है जो जानकारी के अनुसार पिछले 15 वर्षों में कभी सूखी नहीं है। इसलिए, ऐसा प्रतीत होता है कि जल-चक्र के इस भाग में, सामान्य नियमित रखरखाव के अतिरिक्त, कोई बड़े सुधार किए जाने की आवश्यकता नहीं है।
पीने के पानी को उपयोग के पहले विपरीत परासरण व्यवस्था का उपयोग करके साफ किया जाता है। इसमें प्रवेश करने वाले पानी का कुछ प्रतिशत, जिसमें पानी से अलग किए गए लवणों की सघन मात्रा होती है, व्यर्थ उत्पाद की तरह बहा दिया जाता है। पीने के योग्य बनाए गए पानी का प्रतिशत संयंत्र में उपयोग की गई झिल्ली (मैम्ब्रेन) की गुणवत्ता, विपरीत दबाव और अन्दर प्रवेश कर रहे पानी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। अधिकांश घरों में, कम विपरीत दबाव के कारण परिष्कृत पानी की मात्रा बहुत कम, सिर्फ 15% तक, हो जाती है। बड़े उद्योगों में उच्च विपरीत दबाव, किन्तु निम्न गुणवत्ता की मैम्ब्रेन के चलते, साफ किए गए पानी की मात्रा 45% बढ़ जाती है। आरवीईसी में उच्च गुणवत्ता की मैम्ब्रेन और, कुल घुले हुए लवणों के थोड़े अधिक स्तर को छोड़कर, प्रारम्भिक पानी की भी अच्छी गुणवत्ता के कारण उसका 75% साफ होकर पीने के लिए वापिस मिल जाता है।
निस्तार के साबुन मिले पानी और शौचालयों और नालियों से निकले गन्दे पानी (सीवेज) का जितना अधिक सम्भव हो उतना फिर से उपयोग और पुनर्चक्रण करना घाटी में पानी की स्थिती सुधारने के सबसे अच्छे तरीकों में से एक है। आवासों, छात्रावासों, भोजन-शाला और अन्य स्थानों से निकलने वाले व्यर्थ पानी का भी पूरी तरह से पुन: उपयोग/पुनर्चक्रण किया जा सकता है। गन्दे पानी (सीवेज) की अनुमानित मात्रा 24,500 लीटर प्रति दिन और (स्नानघरों और रसोईघरों से निकले) धोने के पानी की लगभग 30,000 लीटर प्रति दिन है। परिसर में, सीवेज (काला पानी) को सैप्टिक टैंकों में साफ किया जाता है, सिवाय लड़कों के छात्रावास के एक ब्लॉक में जहाँ इसके लिए अलग व्यवस्था है। यहाँ सीवेज और स्नानघरों से निकले साबुन के पानी (धूसर पानी) को एक विकेन्द्रित वेस्ट-वॉटर ट्रीटमेंट व्यवस्था (डीवाटस), जो भौतिक और जैविक साफ करने की विधियों का मिलाजुला रूप है, का उपयोग करते हुए साफ किया जाता है। साफ किए गए पानी को एस्टेट में लगे फलों के पेड़ों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परिसर के अन्य भागों में दोहराए जाने के लिए, इस व्यवस्था की कार्यकुशलता और व्यावहारिक सफलता का परीक्षण किया जा रहा है।
वर्तमान में, अधिकांश छात्रावासों और आवासों से निकले निस्तार के धूसर पानी का पुन: उपयोग (बिना साफ किए) आमों के बगीचे सहित फलों के पेड़ों की सिंचाई के लिए किया जा रहा है। स्टाफ के कुछ सदस्य भी अपने व्यर्थ पानी को सीवेज में मिलने के लिए नालियों में बहाने की बजाय उसका इस्तेमाल पौधों के लिए करते हैं।
पानी के बेहतर प्रबन्धन के सम्भव समाधानों के लिए शोध के दौरान, हमने एक और समुदाय - पॉण्डिचेरी में ऑॅरोविल - को ध्यान से देखा जिसने कुशलतापूर्वक पानी का इस्तेमाल करना सीख लिया है। ऑॅरोविल ‘प्लान्टेड फिल्टर्स’ (पौधों के छन्ने) का उपयोग करता है। ये प्राकृतिक रूप से काम करने वाली ऐसी व्यवस्था है जिसमें निस्तार का धूसर पानी पौधों की एक ाृंृंखला की जड़ों के आस-पास वाले क्षेत्रों से होकर गुज़रता है जो पानी को साफ कर देती हैं, और उच्च गुणवत्ता वाला प्रवाह बाहर निकलता है। प्लान्टेड फिल्टर्स बहुत स्थान घेरते हैं, पर ऋषि वैली में इनसे कोई अड़चन नहीं होगी - इनका तकरीबन किसी भी पर्यावरण के भूदृश्य में खूबसूरती से समावेश किया जा सकता है।
इसी प्रकार की जड़ों के क्षेत्रों की प्रशोधन व्यवस्था का उपयोग आरवीईसी में डीवाटस संयंत्र के हिस्से की तरह सीवेज को साफ करने के लिए किया जाता है। यहाँ कैन्ना तथा ग्लैडियोली के पौधे लगाए जाते हैं, और पहले सूक्ष्मजीवों द्वारा उपचारित किया गया सीवेज इन पौधों की जड़ों के क्षेत्रों से गुज़रता है और सिंचाई के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले पानी की तरह बाहर निकलता है। इस प्रकार के जड़-क्षेत्रों की प्रशोधन विधि का उपयोग परिसर की सभी इमारतों के लिए किया जा सकता है, ताकि सम्भावित रूप से सारे काले पानी को आंशिक रूप से साफ करके फिर से इस्तेमाल किया जा सके।
वर्तमान में हमारा धुलाई का पानी बिना उपचारित किए हुए सीधा सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है। पर, आरवीईसी का इरादा परिसर के सभी कृषि क्षेत्रों में, वाष्पीकरण के कारण होने वाले पानी के नुकसान को कम करने के लिए, बूँद-बूँद रिसाव वाली सिंचाई व्यवस्था कायम करने का है। यह कर सकने के लिए, इस धुलाई के पानी को, उसमें निलम्बित समस्त ठोस कणों को अलग करने के लिए, उपचारित करना ज़रूरी होगा। इस सम्बन्ध में जड़-क्षेत्रों की प्रशोधन विधि सहित विभिन्न विकल्पों की पड़ताल की जा रही है।
एक और आशा जगाने वाला विकल्प ‘सजीव मशीनों’ की अवधारणा है। ये व्यवस्थाएँ मानव-निर्मित वैटलैंड (गीले भूभाग/दलदल) होते हैं जिनमें पौधों और जन्तुओं की भिन्न-भिन्न प्रकार की अनेक ऐसी प्रजातियाँ होती हैं जो सक्रिय रूप से पानी को छानती हैं। व्यर्थ पानी का पुनर्चक्रण करने वाली पारम्परिक इकाई ऐसे ज़हरीले सहउत्पाद पैदा करती है जिनको अलग करने की ज़रूरत होती है। सजीव मशीनों की अवधारणा में, भारी धातुएँ और मानव-निर्मित अन्य रसायन बायोमास (जैवपदार्थ) के रूप में परिवर्तित करके पानी से अलग किए जा सकते हैं। यह सीवेज और धूसर पानी को प्रकृति को साफ करने देने का एक कुशल तरीका हो सकता है। हमें भारत में किसी ऐसे समुदाय की जानकारी नहीं है जिसने पानी के पुनर्चक्रण के हिस्से की तरह इस अवधारणा का समावेश किया है। हमें लगता है कि यदि इस प्रणाली को यहाँ लागू किया जाए तो ऋषि घाटी को अत्यन्त लाभ हो सकता है, और यह अन्य समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रायोगिक परीक्षण की तरह भी काम कर सकता है।
पानी के उपयोग को उल्लेखनीय रूप से घटाने का एक और तरीका परिसर के बाहर के किसानों से दूध लेना और डेयरी में बदलाव करके स्थानीय प्रजातियाँ - जिनकी पानी की ज़रूरतें तुलनात्मक रूप से काफी कम होती हैं और जो ज़्यादा मज़बूत भी होती हैं - रखना हो सकता है।
संक्षेप में, आरवीईसी के जल-चक्र में निम्न बिन्दुओं पर बेहतर प्रबन्धन के सुझाव दिए जा रहे हैं:
1. छतों पर से पानी का अधिक व्यापक एकत्रीकरण और संग्रहण;
2. पानी के नलों और पाइपों आदि की पूरी व्यवस्था का समय पर और नियमित रखरखाव तथा पुरानी खराब फिटिंग्स को बदलकर ज़्यादा सक्षम उपकरण लगाना;
3. सीवेज के उपचार और पानी का पुनर्चक्रण करने के लिए, धीरे-धीरे सेप्टिक टैंकों की जगह, सजीव मशीनों की अवधारणा का उपयोग करते हुए डीवाटस जैसी प्लान्टेड फिल्टर व्यवस्थाएँ स्थापित करना।
समीक्षात्मक सारांश
ऋषि वैली में पानी सबसे कीमती संसाधन है, न सिर्फ स्कूल के लिए बल्कि पूरी घाटी के लिए जो अपने जीवन और आजीविका के लिए उस पर निर्भर है। पानी एक साझी सम्पदा का संसाधन है जिसके उपभोग में घाटी के हम सभी लोग साझीदार हैं, इसलिए इसका प्रबन्धन घाटी में सभी समुदायों के द्वारा सभी के लिए किया जाना ज़रूरी है।
इस पारस्परिक निर्भरता को देखते हुए, इस संसाधन का कुशल प्रबन्धन न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि हमारे अस्तित्व के लिए नितान्त आवश्यक भी है। आरवीईसी सम्भवत: घाटी का सबसे बड़ा समुदाय है, इसलिए यह इस संसाधन के खासे बड़े भाग का उपभोग करता है। अत:, जहाँ तक सम्भव हो इसका पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करने तथा इसकी खपत घटाने के लिए समुदाय के रूप में सभी आवश्यक उपाय करना हमारी ज़िम्मेदारी है।
हमें उदाहरण पेश करके इसका नेतृत्व करने की ज़रूरत है। हालाँकि, जैसा इस लेख में दर्शाया गया है, हम इस बारे में तो सचेत हैं कि हम किस तरह पानी का उपयोग करते हैं, पर इस ढंग से इस संसाधन का उपयोग करना कि इसे लम्बे समय तक बनाए रखा जा सके, ताकि हमारे आस-पास के समुदाय की आजीविका संकट में न पड़े, इसके लिए हम और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
इस लेख के माध्यम से हमने ऐसे सरल किन्तु सूझबूझ वाले उपायों और विधियों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिन्हें अपनाकर विवेकपूर्ण ढंग से पानी का उपयोग किया जा सकता है। हमने यह भी दिखाने की कोशिश की है कि पानी का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करने के लिए किस तरह प्राकृतिक तंत्रों की नकल करते हुए सजीव मशीनों की स्थापना की जा सकती है। हम अपने लेख में सुझाए गए विभिन्न उपायों को कारगर तरीके से लागू करने की उम्मीद करते हैं, ताकि एक ऐसा आदर्श समुदाय बन सकें जहाँ जल-चक्र एक ‘बन्द वृत्त’ (closed loop- जिसमें से कुछ भी बेकार बाहर न जाए) की तरह काम करता हो। घाटी और उसके लोगों के लिए आगे बढ़ने का यही एकमात्र रास्ता है क्योंकि उनका जीवन गहन रूप से पानी से जुड़ा है।
लेखन टीम: अर्जुन अशोक, आर्यमन जाल, ईशान अग्रवाल, सम्वित सेनगुप्ता, निहाल सलदाना, कबीर श्रीवास्तव, देवदर्शन बस्तोला, तन्मय बेदी तथा राधा गोपालन - ऋषि वैली स्कूल, चित्तूर ज़िला, आंध्र प्रदेश।।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब गाज़ियाबाद में स्वतंत्र रूप से अनुवाद कार्य कर रहे हैं।
चित्र:‘Water and the Valley’ रिपोर्ट, राधा गोपालन, माधव केलकर और विविध वेबसाइट से साभार।
यह लेख अर्थियन को भेजी गई रिपोर्ट का संक्षिप्त रूप है। सन्दर्भों सहित मूल रिपोर्ट के लिए निम्नलिखित वेबसाइट देखें: http://www.wipro.org/earthian/documents/1001148_Rishi%20Valley%20School_WATER_AND_THE_VALLEY.pdf