लेखक: विनता विश्वनाथन
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी [Hindi PDF, 749 kB]

पिछले साल जून में मुझे एकलव्य द्वारा इन्दौर में आयोजित विज्ञान शिक्षकों के वार्षिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला। इस छह दिवसीय प्रशिक्षण में 52 सहभागी, युवा और बुज़ुर्ग, शामिल हुए। इसमें शासन द्वारा संचालित स्कूलों, गैर-शासकीय संगठनों तथा अन्य निजी स्कूलों के विज्ञान शिक्षक उपस्थित थे। विज्ञान शिक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ विद्यार्थियों और शिक्षकों ने भी इस प्रशिक्षण में भाग लिया।
कई प्रशिक्षार्थी इन्दौर के स्थानीय लोग थे। कुछ देवास, कन्नोद और महू जैसे पास के कस्बों से आए थे। कई अन्य लोग काफी दूर, जैसे राजस्थान के बारां और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तथा कानपुर से थे। कई लोगों के लिए प्रशिक्षण नया था और कुछ एकलव्य के पुराने मित्र थे। हम सब का लक्ष्य एक ही था - विज्ञान को बेहतर ढंग से समझना और पढ़ाना।
दूसरे दिन जैव-विकास पर केन्द्रित सत्र का समापन करते हुए जब हमने प्रश्न आमंत्रित किए तब एक प्रशिक्षार्थी ने एक प्रश्न किया, जिसका हालाँकि उस समय संक्षिप्त उत्तर दे दिया गया, पर जो मेरे विचार में विस्तृत उत्तर का हकदार है। वह प्रश्न था:
“जब बच्चे पूछते हैं कि क्या बन्दरों से फिर से मनुष्य विकसित हो सकते हैं तो हम उन्हें क्या जवाब दें?”

इस सवाल का जवाब देना कठिन है क्योंकि यह एक भ्रान्ति पर आधारित है। इसलिए, चलिए पहले हम इस भ्रान्ति का ही निराकरण करें; मनुष्य बन्दरों से विकसित नहीं हुए। न ही हम चिम्पांज़ियों से विकसित हुए हैं, जो आज जीवित हमारे सबसे नज़दीकी नरवानर (प्राइमेट) सम्बन्धी हैं। पर, चिम्पांज़ियों और मनुष्यों का एक साझा पूर्वज था, जो एप्स (वानरों) जैसा था। एप्स अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाने वाले नरवानरों का समूह है जिसमें मनुष्य, चिम्पांज़ी, गोरिल्ला, गिब्बन, ओरेंगोटेन तथा बॉनोबोे शामिल हैं; इनमें से मनुष्य और गिब्बन भारत में पाए जाते हैं। यह साझा पूर्वज, जिससे हम विकसित हुए, कोई 50 से 80 लाख साल पहले अस्तित्व में था। इस साझा पूर्वज का कोई जीवाश्म नहीं मिला है। इस साझे पूर्वज के अस्तित्व का अनुमान तर्क के आधार पर मनुष्यों और दूसरे एप्स के जीवाश्मीय तथा आनुवंशिक अध्ययनों से लगाया गया है। इन अध्ययनों ने मनुष्य और एप्स के बीच साझा आकृति-सम्बन्धी (मॉर्फोलोजिकल) और आनुवंशिक विशेषताएँ उद्घाटित की हैं। मनुष्यों, एप्स तथा उनके पूर्वजों के इन सम्बन्धों की व्याख्याएँ अक्सर व्यक्तिपरक और अस्पष्ट होती हैं। इन सबके बीच सम्बन्धों की सही-सही प्रकृति के बारे में बहुत बहस होती है। पर, नृवैज्ञानिक और जीववैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि मनुष्यों और अभी जीवित तथा लुप्त हो चुके, दोनों प्रकार के एप्स में परस्पर सम्बन्ध हैं, तथा उनका एक साझा पूर्वज था।

तो फिर हम आज की मानव प्रजाति (होमो सेपियंस) में कैसे रूपान्तरित हुए? मोटे तौर पर हुआ यह कि मनुष्यों तथा एप्स के साझा पूर्वज से कई वंशावलियाँ विकसित हुईं (बॉक्स 1)। इनमें से कुछ जीवित बचीं और कुछ नहीं बचीं। हम इतना जानते हैं कि इस साझा पूर्वज से निकली एक वंशावली से चिम्पांज़ियों की उत्पत्ति हुई और एक अन्य वंशावली से मनुष्यों के एक प्रारम्भिक पूर्वज की, जिससे हम आज के मनुष्य विकसित हुए।

बॉक्स 1 - वंशावली क्या होती है?


वंशावली प्रजातियों की ऐसी क्रमबद्ध शृंखला होती है जिसमें प्रत्येक प्रजाति अपनी पूर्ववर्ती प्रजाति से विकसित हुई हो। उदाहरण के लिए, यदि हम एक साझा पूर्वज से प्रारम्भ करें तो दो वंशावलियाँ निर्मित हो सकती हैं, जिनमें से प्रत्येक दूसरी से कुछ विशेषताओं में भिन्न हो। जैसे कि (पूरे शरीर के द्रव्यमान के अनुपात में) मस्तिष्क के आयतन को लें; और देखें समय बीतने के साथ दोनों वंशावलियों के निर्मित होने का एक तरीका। चित्र-2 में हम देखते हैं कि 1 करोड़ (100 लाख) वर्ष पहले, (मस्तिष्क का आयतन)/(शरीर का द्रव्यमान) 3 घन से.मी./कि.ग्रा. है। 95 लाख वर्ष पहले का समय आते तक, दो समूह निर्मित हो गए हैं जिनके (मस्तिष्क का आयतन)/(शरीर का द्रव्यमान) अनुपातों के मान भिन्न-भिन्न हैं। इन दो वंशावलियों का अलग-अलग जैव-विकास होता है। ‘ॠ’ की ऊपर-नीचे होती हुई विकास-रेखा समय के साथ (क्षैतिज अक्ष पर बाँई से दाँई ओर चलने पर समय लाखों वर्षों में घटता है) मस्तिष्क के आकार में उतार-चढ़ाव दर्शाती है, जबकि ‘ए’ में मस्तिष्क का आकार लगभग एक-से ढंग से बढ़ता हुआ प्रतीत होता है।

चित्र 2 पर गौर करें कि दोनों वंशावलियों में मस्तिष्क का आकार बढ़ा है। परन्तु, इनसे फर्क अन्य परिणाम भी सम्भव हैं।

चित्र 3: एक वैकल्पिक परिदृश्य

ऊपर का चित्र-3 एक वैकल्पिक परिदृश्य दर्शाता है जिसमें प्रत्येक वंशावली में कई प्रजातियाँ निर्मित होती हैं। इनमें से कुछ प्रजातियाँ समय बीतने के साथ जीवित बचेंगी, कुछ अपनी खुद की वंशावली भी निर्मित कर सकती हैं। इस बात की काफी सम्भावना है कि कुछ प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। यह भी सम्भव है कि दो वंशावलियों का साझा पूर्वज स्वयं एक प्रजाति की तरह (उदाहरण के लिए b1, b2,b3 की बजाय b, b2, b3) बचा रहे।


अपने विकास की कहानी बयान करने से पहले, इसकी थोड़ी बात करना उपयोगी हो सकता है कि ‘विकास’ या ‘जैव-विकास’ का अर्थ क्या है, ताकि इस विषय की आपकी और मेरी समझ एक जैसी हो।

किसी आबादी में जैव-विकास
जैव-विकास का आशय किसी आबादी की जीन (आनुवंशिक इकाई) आवृत्तियों में कई पीढ़ियों में आए परिवर्तन से होता है। जीन, आनुवंशिक पदार्थ (जैसे कि डीएनए) का ऐसा खण्ड है जो एक इकाई की तरह विरासत में मिलता है। इन इकाइयों में हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए आवश्यक प्रोटीन निर्मित करने के लिए निर्देश निहित रहते हैं। इसलिए किसी आबादी में किसी जीन की आवृत्ति का मतलब उन व्यक्तियों के अनुपात से होता है जिनमें आनुवंशिक पदार्थ की विरासत में पाई जा सकने वाली यह इकाई होती है। आम तौर पर, जब हम जीन आवृत्तियों की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य एक जीन, या एक विशेषता, की आवृत्ति से है।

हज़ारों साल पहले की मनुष्यों की एक ऐसी आबादी पर विचार करें जो दूसरों से अलग-थलग हो (यह एक काल्पनिक उदाहरण है)। मान लीजिए कि किसी जीन में, जो अभी तक मादा शरीर को मासिक-धर्म के प्रत्येक चक्र में एक अण्डा उत्पादित करने का निर्देश देता था, आए विकार व उत्परिवर्तन  के कारण प्रति चक्र दो अण्डों का उत्पादन होने लगता है। इसका मतलब है कि जीन के इस रूप वाली मादा अब प्रत्येक गर्भाधान में दो भ्रूण विकसित कर सकती है। इस तरीके से इस जीन के जुड़वाँ सन्तानों वाले वैकल्पिक रूप (एलील) का आबादी में प्रवेश हो गया है। इसे हम जुड़वाँ की जीन का नाम दे देते हैं। हम यह भी मान लेते हैं कि ऐसी कोई भी मादा, जिसके पास इस जीन की केवल एक प्रति ही है, प्रति गर्भधारण दो बच्चे पैदा करेगी। उसके बच्चे यह जीन उससे विरासत में पाएँगे। कई पीढ़ियाँ गुज़रने पर, उस आबादी के अनेक सदस्यों में यह जीन पाया जाएगा। यदि उस आबादी की अधिकांश मादाएँ अपने जीवनकाल में लगभग समान संख्या में गर्भधारण करती हैं तो इस जीन से सम्पन्न मादाएँ इससे वंचित मादाओं की तुलना में दुगने बच्चे पैदा करेंगी। और इस वजह से वे अगली पीढ़ी को ज़्यादा लोगों का योगदान देंगी। जुड़वाँ लोगों के फिर जुड़वाँ सन्तानें होंगी, और इस तरह यह जीन उस आबादी में फैल जाएगा। इसमें हम एक और बात मान रहे हैं कि ऐसे अन्य सभी कारक जो जीवनरक्षा और प्रजनन को प्रभावित करते हैं, सबके लिए समान हैं।

अत:, एक उत्परिवर्तन के बाद, कई पीढ़ियाँ बीतते-बीतते उस आबादी में जुड़वाँ लोगों की जीन की आवृत्ति बहुत कम से बढ़कर अधिक हो जाती है। दूसरी ओर, प्रति गर्भधारण एक बच्चे वाली जीन की आवृत्ति घट जाती है। इस तरह उस आबादी में विकास, जैव-विकास घटित हुआ है।

नई प्रजातियों का विकास
किसी आबादी में जीन आवृत्तियों में परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप नई प्रजातियाँ भी निर्मित हो सकती हैं। ऊपर के उदाहरण को लें और एक वैकल्पिक घटनाक्रम की कल्पना करें।

किसी आबादी में जुड़वाँ जीन के प्रवेश के बाद जिस कुल (clan) में जुड़वाँ पैदा हुए उन्हें अपने घर छोड़कर निर्वासित होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। ऐसा अनेक कारणों से हो सकता है, जैसे कि संसाधनों की कमी के कारण या दूसरों के द्वारा तंग किए जाने के कारण। इसका मतलब यह है कि जुड़वाँ जीन वाली माताओं को उनके सम्बन्धियों के साथ किसी दूसरी जगह जाकर बसना पड़ता है। अब दो भिन्न स्थानों पर दो समूह रहते हैं। इन दो समूहों के नरों और मादाओं के बीच कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं होते। इसका मतलब है कि दोनों समूहों के बीच जीन्स का कोई आदान-प्रदान नहीं होता - उनके बीच कोई जीन प्रवाह नहीं होता।

अगली अनेक पीढ़ियाँ गुज़रने के दौरान, इनमें से प्रत्येक आबादी के जीन्स में नए विकार और उत्परिवर्तन होते हैं। विरासत के द्वारा संप्रेषित किए जा सकने वाले बदलावों में से कुछ आबादियों में बने रहते हैं और कुछ निकल जाते हैं। एक आबादी में होने वाले उत्परिवर्तनों के दूसरी आबादी के उत्परिवर्तनों से भिन्न होने की सम्भावना रहती है, खास कर यदि दोनों के पर्यावरण बहुत अलग-अलग हों। प्रत्येक वातावरण में वे जीन्स ही बचे रहेंगे और अगली पीढ़ी को सौंप दिए जाएँगे जो सदस्यों के जीवित रहने और ज़्यादा प्रजनन करने में सहायक होते हैं। सम्भव है कि एक समय ऐसा आए (अनेक, अनेक, अनेक पीढ़ियों के बाद) जब नए स्थान की आबादी की जीन संरचना इतनी बदल चुकी हो कि यदि दोनों समूहों के सदस्यों को मिलवाया जाए, तो वे या तो आपस में शारीरिक सम्बन्ध बनाने में असमर्थ हों या, यदि वे किसी तरह शारीरिक सम्बन्ध बना भी लें तो उससे प्रजनन-क्षम सन्तान न पैदा कर पाएँ। ये दो आबादियाँ अब दो अलग प्रजातियों को निरूपित करती हैं। दूसरे शब्दों में, दोनों आबादियों की जीन्स और उनकी आवृत्तियाँ इतनी भिन्न हैं कि उन्हें भिन्न प्रजातियाँ माना जाएगा1

जैव-विकास के दूसरे परिणाम भी सम्भव हैं। यह सम्भव है कि इनमें से एक ही आबादी बदलती है और विकसित होकर एक नई प्रजाति बन जाती है। फिर दोनों प्रजातियों में से एक या दोनों ही विलुप्त हो जाती हैं। विकास तो तब भी हुआ होता है, लेकिन हमें केवल जीवित बची प्रजाति ही दिखती है।
आलेख के शेष भाग में, मैं विकास का उल्लेख इसी पैमाने पर करूँगी - प्राचीन प्रजातियों से नई प्रजातियों का विकास।

एप जैसे पूर्वजों से मनुष्य
अब मानवीय जैव-विकास की अपनी कहानी पर वापस लौटें - तो फिर क्या हुआ, मनुष्यों के पूर्वज मनुष्य (होमो सेपियन्स) कैसे बन गए? चलिए हम 50 लाख वर्ष पीछे लौटें और कुछ ऐसी घटनाओं को देखें जो हमें मानवीय विकास की प्रकृति को समझने में मदद कर सकती हैं। पर मैं आपको सावधान कर दूँ, आगे का विवरण कई सम्भावित परिदृश्यों में से एक है, मानवीय विकास का जीवाश्मों पर आधारित एक प्रतिरूप। जैसा पहले उल्लेख किया गया है, जीवाश्मों से तर्क के आधार पर अनुमानित रिश्ते अक्सर व्यक्तिपरक होते हैं। अत: इस पर निर्भर करते हुए कि आप किससे पूछते हैं, वही जीवाश्म कोई दूसरी कहानी भी बयान कर सकते हैं। कई घटनाओं के बारे में व्यापक सहमति है, पर मनुष्यों के पूर्वजों से उनके विकास के मार्ग को साफ-साफ चित्रित करना कठिन रहा है। खैर, हम आगे बढ़ें और पूर्वजों की कुछ प्रजातियों तथा उनके सम्बन्धों पर गौर करें।

जीवाश्म रिकॉर्डों से हम जानते हैं कि शुरुआती मनुष्यों, जिन्हें हम ऑस्ट्रेलोपिथेसिन्स कहते हैं, का एक समूह एक ऐसी वंशावली में विकसित हुआ जिसमें से चिम्पांज़ियों की भी उत्पत्ति हुई थी। यह अफ्रीका में लगभग 50 लाख वर्ष पहले हुआ। अन्य एप्स की तरह, इस समूह के सदस्य छोटे कद के थे। लेकिन, दूसरों के विपरीत वे सीधे खड़े होकर चल पाते थे - वे दोपाए थे। यह हम अनेक जीवाश्मों से जानते हैं जिन्हें खोद निकाल कर और काल निर्धारित कर उनका अध्ययन किया गया है।

इस समय, अन्य परिवर्तन भी हो रहे थे। वैश्विक जलवायु अधिक ऋतु-आधारित हो गई, अनेक जंगलों की जगह घास के मैदानों ने ले ली, और अन्य प्रजातियों की ज़्यादा विविध किस्में विकसित हुईं।
ऑॅस्ट्रेलोपिथेसिन्स से उत्पन्न वंशावलियों में से एक होमो थी। इस प्रजाति में रखे गए जीवाश्मों का काल 20 लाख वर्ष से थोड़ा-सा अधिक पहले निर्धारित किया गया है। इस वंशावली की शुरुआती प्रजातियों में से एक, होमो हैबिलिस, के मस्तिष्क उसके पूर्वजों के मस्तिष्कों से बड़े थे। एक और प्रारम्भिक मनुष्य, होमो अरगास्टर, के जीवाश्मों का भी यही काल निर्धारित किया गया है। यह पूरी तरह से साफ नहीं है कि होमो अरगास्टर, होमो हैबिलिस से विकसित हुआ या दोनों के किसी साझे होमो पूर्वज से, पर वे कुछ लाख वर्षों तक साथ-साथ अस्तित्व में रहे।

दोनों होमो प्रजातियाँ औज़ार बनाती और इस्तेमाल करती थीं, हालाँकि उनके बनाए औज़ार भी भिन्न थे और उनके बनाने के तरीकों में भी अन्तर था। जहाँ तक हम जानते हैं, यह सब अफ्रीका में घटित हुआ।
लगभग इसी समय पहली बार मानवीय पूर्वज अफ्रीका से बाहर निकल कर दूसरी जगहों पर बसने लगे। एक अन्य प्रारम्भिक मनुष्य, होमो इरेक्टस, के अफ्रीका और एशिया के विभिन्न स्थानों से मिले जीवाश्म इस स्थानान्तरण का प्रमाण हैं। प्रारम्भिक मनुष्यों ने आगे बढ़ते हुए एशिया और यूरोप के अपेक्षाकृत ज़्यादा ठण्डे शीतोष्ण इलाकों में प्रवेश करने के समय तक आग हासिल कर ली थी। इसके बाद आने वाले समय में अफ्रीका के भीतर और बाहर, एशिया में और फिर वापस अफ्रीका में स्थानान्तरण के कई दौर आए।

चित्र 4 - मनुष्य और उनके पूर्वजों का विकास। इसे आदिमानव द्वारा बनाए गए पत्थर के औज़ारों से जोड़ने का प्रयास भी किया गया है।

आधुनिक मनुष्य, होमो सेपियन्स, लगभग 2,00,000 वर्ष पहले अफ्रीका में विकसित हुए और लगभग 1,60,000 वर्ष पहले वहाँ से बाहर स्थानान्तरित हुए। इस बात को दर्शाने वाले जीवाश्म प्रमाण हैं कि उस समय कम-से-कम दो और मानव प्रजातियाँ भी अस्तित्व में थीं - यूरोप में होमो निएनडर-थालैन्सिस तथा एशिया के इंडोनेशिया में होमो फ्लोरिएनसिस। हो सकता है कि अफ्रीका से बाहर स्थानान्तरण करने के बाद, होमो सेपियन्स न केवल यूरोप में होमो निएनडरथालैन्सिस के साथ रहे हों, बल्कि एशिया में होमो इरेक्टस के साथ भी रहे हों।

जब जलवायु लगभग 52,000 वर्ष पहले गर्म होने लगी तो होमो सेपियन्स ने यूरोप में प्रवेश किया। उसके 10,000 साल बाद उन्होंने एशिया और यूरोप के आर्कटिक क्षेत्रों में, और आज से लगभग 25,000 साल पहले उत्तरी अमेरिका में प्रवेश किया।
होमो इरेक्टस लगभग 70,000 वर्ष पहले विलुप्त हो गए। होमो निएनडरथालैन्सिस लगभग 40,000 वर्ष पहले और होमो फ्लोरिएनसिस लगभग 10,000 वर्ष पहले विलुप्त हो गए। उनकी वंशावली में से वर्तमान में जीवित बची अकेली प्रजाति होमो सेपियन्स ही है।

बॉक्स 2: आधुनिक मनुष्यों के आनुवांशिक अध्ययन हमारे पूर्वजों के बारे में कैसे कुछ बता सकते हैं?

यह कैसे किया जा सकता है, उसका एक तरीका मैं इस खण्ड में बयान करती हूँ।
जैसा कि हम जानते हैं डीएनए केवल मनुष्यों की कोशिकाओं के केन्द्रकों में ही मौजूद नहीं रहता, बल्कि अपेक्षाकृत कम मात्राओं में यह - एमटीडीएनए - मायटोकॉण्ड्रिया में भी होता है। प्रत्येक मायटोकॉण्ड्रिया में एमटीडीएनए की कई प्रतियाँ होती हैं। हर मानवीय कोशिका में सैकड़ों मायटोकॉण्ड्रिया पाए जाते हैं। एमटीडीएनए की उत्परिवर्तन दर बहुत अधिक होती है, इसलिए एक मायटोकॉण्ड्रिया के भीतर और एक कोशिका के मायटोकॉण्ड्रिया के बीच, दोनों में एमटीडीएनए की प्रत्येक प्रति दूसरी से काफी भिन्न होती है।

जब मिओसिस के दौरान प्रजनन कोशिकाएँ, जैसे कि अण्डे और शुक्राणु, निर्मित होते हैं तो पुत्री कोशिका में एमटीडीएनए बँट जाते हैं। एक अण्डे और शुक्राणु के निषेचन के दौरान, अण्डे से एमटीडीएनए भ्रूण में स्थानान्तरित हो जाता है, जबकि शुक्राणु से ऐसा नहीं होता। इसलिए, मानव भ्रूण में केन्द्रक डीएनए माता-पिता, दोनों से मिला होता है पर एमटीडीएनए केवल माता से मिलता है।

इसका मतलब है कि ऐसी माता जिसके केवल बेटे हैं, अपने बेटे को तो अपने एमटीडीएनए देगी, पर ये उसकी पोतियों और पोतों को विरासत में नहीं मिल पाएँगे। दूसरी ओर, एक बेटी अपनी माँ से मिले एमटीडीएनए अपनी बेटियों को सौंप देगी।
अब, शोधकर्ता दुनिया भर के आधुनिक मनुष्यों से प्राप्त एमटीडीएनए अनुक्रमों का उपयोग करके मनुष्यों के वंशवृक्ष निर्मित करते हैं - इसमें पहले सबसे अधिक समान एमटीडीएनए वाले मनुष्यों के समूह बनाए जाते हैं। फिर सबसे समान गुणों वाले समूहों का एक समूह बनाया जाता है, और इसी तरह आगे बढ़ते हैं। इस तरीके से वे बता पाते हैं कि कौन-से सदस्यों और समूहों के साझा पूर्वज थे।

चूँकि एमटीडीएनए में भी उत्परिवर्तन होते हैं, इसलिए शोधकर्ता यह भी गिन सकते हैं कि विभिन्न सदस्यों और समूहों के बीच कितने उत्परिवर्तनों का अन्तर है। फिर प्रति पीढ़ी परिवर्तनों की संख्या का अनुमान लगाकर वे वास्तव में इसका आकलन कर सकते हैं कि कितने समय पहले (या कितने परिवर्तन पहले) भिन्न-भिन्न सदस्यों और समूहों का कोई साझा पूर्वज था।
यदि जीवाश्मों के डीएनए उपलब्ध हों तो शोधकर्ता आधुनिक मनुष्यों से सीधे उनकी तुलना करके दोनों में सम्बन्ध देख सकते हैं।
वास्तव में, इन तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए भारत में अभी रह रहे लोगों के एमटीडीएनए का अध्ययन करके और उनकी सारी दुनिया से प्राप्त नमूनों से तुलना करके हम कह सकते हैं कि होमो सेपियन्स अफ्रीका से बाहर निकल कर भारत होते हुए दक्षिण-पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया में पहुँचे।

चित्र-5: होमो सेपियन्स अफ्रीका से पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया तक भारत से होते हुए पहुँचे।

एप जैसे पूर्वजों से होमो सेपियन्स की इस लम्बी जैव-विकास प्रक्रिया को अनेक कारकों ने संचालित किया। पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन - जैसे जलवायु में, वनस्पति में, अन्य प्रजातियों में जैसे प्रतिस्पर्धी, शिकार, परजीवी और भक्षकों में - शायद विकास को संचालित करने वाले कुछ कारक थे। इसका मतलब है कि जो सदस्य अपने पर्यावरण और अपने आसपास की प्रजातियों (यहाँ तक कि स्वयं की प्रजातियों) में हुए परिवर्तनों की वजह से नए पर्यावरणों में जीवित बचे रहे और इनमें बेहतर प्रजनन कर सके, उन्होंने अगली पीढ़ी को ज़्यादा सदस्य प्रदान किए। इस ढंग से, समय बीतने के साथ मनुष्यों तथा अन्य प्रजातियों की जीन संरचना धीरे-धीरे बदलती गई।
मनुष्यों और उनके पूर्वजों (तथा एप्स) के सम्बन्धों को वर्णित करने का शायद सबसे अच्छा तरीका उन्हें एक ‘झाड़ी’ (चित्र-4) के रूप में दर्शाना है। पर, इसके भीतर होमो सेपियन्स तक पहुँचने वाली कालक्रम के अनुसार प्रजातियों की ऐसी एक पूरी  ाृंखला जोड़ पाना असम्भव है जिस पर सारे विशेषज्ञ सहमत हो सकें।

क्या इतिहास खुद को दोहराता है?
अब, जब हमें इस बात की कुछ समझ हासिल हो गई है कि कैसे मनुष्य अपने पूर्वजों से विकसित हुए है, हम उस प्रश्न पर विचार कर सकते हैं जो प्रशिक्षण सत्र में पूछा गया था। क्या मनुष्य अपने (एप जैसे) पूर्वजों से एक बार फिर विकसित हो सकते हैं?
इस घटना के घटित होने की सम्भावना बहुत ही कम है। हालाँकि मैं इस घटना की कोई प्रायिकता (प्रोबेबिलिटी) निर्धारित नहीं कर सकती, हम निश्चित होकर मान सकते हैं कि यह बहुत, बहुत कम (न के बराबर) होगी। इसके दो कारण हैं - एक तो यह कि जिस पूर्वज से आधुनिक मनुष्य विकसित हुए, वह अब अस्तित्व में नहीं है। वह पूर्वज विलुप्त हो चुका है इसलिए उस पूर्वज से विकसित होने की सम्भावना अब शून्य है।

पर यदि यह पूर्वज अभी जीवित भी होता तब भी उससे आधुनिक मनुष्य का दोबारा विकसित होना एक बहुत ही असम्भावित घटना होती। सबसे पहले तो इस पूर्वज प्रजाति की आबादी में उन्हीं नर-मादा जोड़ों को मिलना और शारीरिक सम्बन्ध बनाना होगा जैसा कि उन्होंने उन बीते हुए लाखों-लाख वर्ष पहले किया था। प्रत्येक पीढ़ी में, प्रत्येक जोड़े के लिए प्रत्येक गर्भाधान में उसी अण्डे का उसी शुक्राणु से निषेचन होकर उन्हीं भ्रूणों का निर्माण होना पड़ेगा। फिर, लाखों साल पहले की जैविक तथा अजैविक प्रकार की पर्यावरण स्थितियों की  ाृंखला को, और साथ ही हर पीढ़ी में हुए आकस्मिक परिवर्तनों को एक बार फिर से ठीक-ठीक उसी क्रम में घटित होना होगा ताकि उनका परिणाम वही निकले जो पहली बार निकला - आधुनिक मनुष्य।

आधुनिक मनुष्यों के विकास के लिए फिर से उन्हीं अनन्त चरणों (जिनके सिर्फ एक अंश का ही पिछले खण्ड में वर्णन किया गया है) को दोहराया जाना पड़ेगा।

मनुष्य विकास जारी है क्या?
जब होमो सेपियन्स की प्रजाति निर्मित हुई तभी से उसका निरन्तर जैव-विकास होता रहा है। वास्तव में, खेती के चलन और शहरों के निर्माण के साथ मानवीय विकास की दर तेज़ हो गई। इसका पता हमें आधुनिक मनुष्यों के डीएनए तथा हमारे पूर्वजों के जीवाश्मों के डीएनए, दोनों के अध्ययन से चलता है (बॉक्स 2)। एक आबादी के स्तर पर हमारा आनुवांशिक परिवर्तन जारी है। हालाँकि यह हमारी आँखों के सामने घट रहा है फिर भी हम इसे होता हुआ देख नहीं पाते।
हमारे लिए इस बात की भविष्यवाणी करना कठिन है कि हम विकसित होकर क्या बनेंगे। हम अपनी भविष्य की आबादियों में होने वाले आनुवांशिक परिवर्तनों के बारे में निश्चित नहीं हो सकते, और न ही हम अगली सदी के बाद होने वाले पर्यावरण परिवर्तनों की सटीक भविष्यवाणी कर सकते हैं। इस अनिश्चतता के बावजूद, हमारी किसी अन्य प्रजाति में विकसित होने की सम्भावना नहीं है। क्योंकि, किसी बिन्दु पर पहुँच कर, इसके लिए शारीरिक सम्बन्धों का बहुत हद तक होमो सेपियन्स के ऐसे समूहों तक सीमित रहना आवश्यक हो जाएगा जिनमें आनुवांशिक विचलन हो चुका हो।

इन सवालों को लेकर काफी उत्तेजित बहसें चलती हैं कि कब प्रारम्भिक मनुष्यों ने अफ्रीका से बाहर स्थानान्तरण किया, किन मार्गों से चलकर वे संसार के विभिन्न भागों में जा बसे, किन अन्य मानवीय प्रजातियों से उन्होंने प्रतिस्पर्धा की या फिर अन्तर-प्रजातीय सम्बन्ध बनाए।
पर कुछ बातें समुचित रूप से स्पष्ट हैं - आधुनिक मनुष्य उन बन्दरों से विकसित नहीं हुए जो हमें आज दिखाई देते हैं, और न ही इस बात की कोई सम्भावना है कि मनुष्यों और अन्य एप्स के साझा पूर्वजों से फिर से आधुनिक मनुष्य विकसित होंगे।


विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब होशंगाबाद में अँग्रेज़ी भाषा पढ़ा रहे हैं।
चित्र: विविध वेबसाइट से साभार।