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विनोद के. गौड़ से सुजाता वरदराजन की बातचीत

सुजाता वरदराजन: आप अपनी आरम्भिक शिक्षा एवं शोध के क्षेत्र में पहल के बारे में कुछ बताएँ।
विनोद गौड़: मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के एक छोटे-से गाँव में बड़ा हुआ। यह बनारस के नज़दीक है, जहाँ मेरी माँ मेरे दादा-दादी के साथ रहती थीं। मेरे पिता जी पास के एक कस्बे में मेरे चाचा के साथ रहते थे। वहाँ वे अपनी वकालत के लिए संघर्ष कर रहे थे। लगभग आठ साल तक मैंने किसी स्कूल में औपचारिक रूप से शिक्षा हासिल नहीं की। फिर यह निर्णय लिया गया कि मुझे अपनी पढ़ाई के लिए कस्बे में जाकर अपने पिता के साथ रहना चाहिए। मैं ऑस्टे्र्रलियाई मिशनरियों द्वारा संचालित प्रसिद्ध वेस्ले हाईस्कूल में पढ़ने लगा। मेरे ऊपर इस स्कूल में बिताए सात साल का कोई गहन असर नहीं है, सिवाय समय-समय पर होने वाली खौफनाक परीक्षाओं के, खास तौर से इतिहास, रसायनशास्त्र एवं क्राफ्ट की। शिक्षक हिंसक थे - अपने विचार में ऑस्टे्र्रलियाई और शारीरिक रूप से भारतीय शिक्षक। निश्चित रूप से मैं उनका नियमित शिकार था क्योंकि या तो मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहता था या फिर मैं बाइबिल की कक्षा या अन्य क्लास में उन कथनों पर सवाल उठाने का साहस करता था, जो मुझे निरर्थक लगते थे। अब मुझे लगता है कि हमें बहुत सारी चीज़ें बिना इस तरह से व्यवस्थित किए कि उत्सुकता जगे, पढ़ाई जाती थीं जिससे पढ़ाई थकाऊ और खौफनाक हो गई थी। शायद ये बहाने मेरे अवचेतन मन को समझाने का तरीका है कि इन सबके कारण मैं अँग्रेज़ी एवं गणित छोड़कर (जिसे मैं ‘सही तरीके’ की बजाय अपनी सहज-बुद्धि से सीख सकता था) अपनी क्लास में धीरे-धीरे पिछड़ता गया। इस तरह मैं, बहुत कम उपलब्धियों के साथ बड़ी मुश्किल से एक कक्षा से दूसरी कक्षा में गिरते-पड़ते हुए आगे बढ़ता रहा। मेरी सिर्फ उर्दू कविता और उसकी गहन संवेदनशीलता में रुचि बढ़ती गई, और बिना सचेतन प्रयास व अध्ययन मैंने अँग्रेज़ी कविता एवं भाषा को अवशोषित करना शुरू कर दिया।

हालाँकि, अपने स्कूल के अन्तिम दिनों में, दो उल्लेखनीय प्रभावों ने ज्ञान के प्रति मेरी रुचि को जगाया। उनमें से एक भौतिकविज्ञान के युवा शिक्षक थे, और दूसरे गाँव के एक गणित के शिक्षक थे जिनसे मैं गर्मियों की छुट्टी के दौरान एक रिश्तेदार के घर मिला था। एक महीने से कम समय में ही, बीजगणित मेरे लिए प्रीपोज़ीशन के सेट को तार्किक रूप से सजाते हुए, अंकगणित के बुनियादी चलन को इस्तेमाल करते हुए, इच्छित परिणाम निकालने का एक साधारण मसला बन गया। मैं यह नहीं समझ सका कि एक साल से अधिक समय तक मैं इस ओर अपना दिमाग क्यों बन्द किए रहा। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे यह एहसास होता है कि वे दोनों असाधारण रूप से उदार व्यक्ति थे, और वे चीज़ों को बहुत अच्छी तरह से समझाते थे। हालाँकि, उनकी ज़बानें अलग थीं। एक की नफीस उर्दू और दूसरे की संगीतमय भोजपुरी, जो सीधे दिमाग में उतर जाती थी। ज्ञान के प्रति मेरे नज़रिए पर उनका जादुई और सम्भवत: अन्तहीन प्रभाव पड़ा और उसके परिणामस्वरूप बोर्ड परीक्षा में भौतिकविज्ञान एवं बीजगणित में अच्छे अंक मिले।

परन्तु, यह संक्षिप्त-सी रोशनी, कॉलेज के दिनों में फॉर्मूलों एवं समीकरणों के ढेर में बुझ गई, यह गणित एवं रसायनविज्ञान दोनों के लिए सच था। रसायनविज्ञान की कक्षाएँ लगातार ताज्जुब का सबब रहीं क्योंकि शिक्षक यह नहीं समझा पाते थे कि क्यों रासायनिक प्रतिक्रियाएँ प्रकृति द्वारा अनूठे तरीके से चुनी जाती हैं जबकि अणु बिना ‘संरक्षण’ का उल्लंघन किए दूसरे सम्भावित तरीके से भी व्यवस्थित किए जा सकते हैं। लेकिन, मैं अपने घर से बहुत दूर आगरा कॉलेज पढ़ने आया था और खर्च कम करने के लिए अपने चाचा के परिवार के साथ रह रहा था। मेरी चेतना के सन्ताप ने मुझसे इन रूखी किताबों से यथासम्भव ज्ञान एकत्र करने के लिए बाध्य किया। भौतिक विज्ञान एवं गतिकी में मुझे आंशिक सफलता मिली और इनमें मिले क्रेडिट्स के माध्यम से मुझे लखनऊ विश्वविद्यालय में अंडरग्रेजुएट कोर्स करने का रास्ता मिल गया। इसमें पिताजी की सुधरी हुई परिस्थिति ने मेरी मदद की। इस बार भौतिक विज्ञान, गणित एवं भू-विज्ञान पढ़ना था और मुझे रसायन विज्ञान से संपूर्ण मुक्ति मिल गई। लेकिन मेरे लिए भौतिक विज्ञान पुन: एक रहस्य बन गया, तीन साल बाद तक, जब मैंने अपने एक मित्र की आधुनिक भौतिक विज्ञान की एक किताब पढ़ी और अचानक मुझे इस ब्रह्माण्ड की आकर्षक संरचना के जादू का अनुभव हुआ जो इन अवधारणाओं में सम्मिलित थीं।

लखनऊ से मैं यह उम्मीद करते हुए भू-भौतिकी शास्त्र पढ़ने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आ गया कि शायद एक अनजान विषय पढ़ने से कुछ राहत मिलेगी। मेरे पिता इससे खुश नहीं थे क्योंकि वे यह उम्मीद कर रहे थे कि मैं इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए कोशिश करूँगा लेकिन अज्ञानतावश, इंजीनियरिंग मेरे लिए प्रतीक था - सड़क, मशीन और बिजलीघरों के निर्माण का - जो ताकत एवं आश्वासनों के प्रतीक थे जिन्होंने मेरे गाँव के दिनों के संसार को आच्छादित कर रखा था। गाँव की मेरी ‘सरल व निर्मल’ छवि थी -- कभी-कभी रात्रि आकाश में उल्का की क्षणिक चमक, साल भर चलने वाला मौसम-चक्र और उससे सम्बन्धित पक्षी एवं फूल, सूर्य द्वारा नियंत्रित बादलों की रेखाकृतियाँ, बारिश, बिजली एवं उसकी कौंध। खेतों में लड़कियों द्वारा गाए जाने वाले मनोहर गीत और परियों की जादुई कहानियाँ आज भी मेरे कानों में गूँज रही हैं। परन्तु मेरे पिताजी मुझसे बहुत निराश थे, उन्होंने दुखी मन से मेरी ‘औसत योग्यता की राह’ को मौन सहमति दे दी।

धरती के भीतर से सतह के करीब पहुँचा तरल लावा धीरे-धीरे ठोस चट्टानों का रूप धारण करता है। जिस समय यह ठोस बन रहा होता है, लावा में मौजूद लौह-ऑक्साइड के कण खुद को धरती की चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा में व्यवस्थित कर लेते हैं। लावा के ठोस होने के बाद इन लौह-कणों के ओरिएंटेशन में कोई बदलाव सम्भव नहीं होता।
यदि कुछ हज़ार साल बाद धरती के चुम्बकीय ध्रुव पलट जाते हैं तो एक बार फिर इस पलट के बाद ठण्डाने वाले लावा में लौह-ऑक्साइड के कणों के ओरिएंटेशन में यह उलट-पलट दिखाई देती है।
ऊपर चित्र में लावा से अलग-अलग समय पर बनी चट्टानों में उपस्थित लौह कणों के चुम्बकत्व और आज के युग में धरती के चुम्बकीय क्षेत्र को दिखाया गया है। इससे चुम्बकीय ध्रुवों की उलट-पलट को साफतौर पर देखा जा सकता है।

इस तरह मैंने बनारस में भूगर्भ विज्ञान की पढ़ाई की। वहाँ पर यह विभाग हाल ही में नया खुला था और वहाँ केवल दो शिक्षक थे। वे अच्छे इन्सान थे। लेकिन क्लास में उनके अध्यापन के दौरान हम पाठ्यपुस्तकों की प्रतिलिपि कॉपी में उतार लेते। विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान का विभाग अच्छा था। वहाँ से मुझे अपने दोस्तों से भौतिक विज्ञान की पुस्तकें मिल जाती थीं। एक-दो भू-भौतिकी कोर्स की किताबों के अलावा, ये किताबें उन विस्तृत मोटी किताबों से ज़्यादा रुचिकर थीं। चमत्कारपूर्ण रूप से, मैंने अपनी परीक्षाएँ बहुत अच्छी तरह से दी थीं और मैं प्रथम आया। लेकिन तुरन्त दूसरा मुश्किल सवाल खड़ा हो गया कि अब आगे क्या करें।

मेरे रिज़ल्ट से कुछ उत्साहित होकर मेरे पिता ने मुझे सिविल सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षा देने के लिए उकसाया। मैं इतनी एकाग्रता माँगने वाली पढ़ाई करने के बारे में अपनी योग्यता पर ईमानदारी से सन्देह करता था। लेकिन उत्सुकतावश मैंने पिछले सालों का प्रश्नपत्र मँगा लिया। ‘सामान्य ज्ञान’ के विषय के प्रश्नों के सन्दर्भ को भी न समझ आने पर, अपनी अज्ञानता देखकर मैं भयभीत हो गया। स्वतंत्रता के एक दशक बाद भी इन प्रश्नपत्रों में लगभग सभी चीज़ें यूरोपीय संस्कृति के इर्द-गिर्द ही घूम रही थीं, जैसे ग्रीक वास्तुशिल्प के विषय में, इलियाड के लेखक, लोकेल्स ऑफ ला स्केला, द कोलेस्सियम, द एरोपोलिस आदि। ये सारे सवाल मुझे विश्वविद्यालय के ग्रन्थालय की मानवविज्ञान शाखा में ले गए। यहाँ पर क्लासिक एवं कला की किताबों का शानदार संग्रह था और प्रबलता के साथ मैं उसकी ओर आकर्षित हुआ।

लेकिन मेेरे अन्य भाई-बहन कॉलेज जाने के लिए तैयार थे। इससे मेरे लिए परिवार की सीमित आय में से, विश्वविद्यालय में इत्मिनान से पढ़ाई करने के लिए इस तरह के खर्चे की माँग रखते रहना सम्भव नहीं था। कुछ ही समय बाद मेरे समक्ष दो अवसर आए - पहला, अभी नए ही बने ओएनजीसी में एक नौकरी तथा दूसरा, बनारस में शोध के लिए छात्रवृत्ति। विश्वविद्यालय ग्रन्थालय की मुझ पर बढ़ती पकड़ के कारण मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि अपने रहने-खाने का खर्चा उठाते हुए मैं वहीं रहूँगा। हालाँकि, मैं दुखी था क्योंकि इससे मैं अपने परिवार की बढ़ती ज़रूरतों में कुछ भी योगदान नहीं कर सकता था।

इसी समय मेरा ध्यान हाल की इस खोज पर गया कि पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुव आपस में जगह बदल लेते हैं। लेकिन यह निश्चित समय अन्तराल पर नहीं होता है। चूँकि बहुत-सी आग्नेय व अवसादी (igneous and sedimentary) चट्टानों में चुम्बकीय लौह-ऑक्साइड (Fe2O3) के कण पाए जाते हैं - आग्नेय चट्टानों में तरल से ठोस बनने की प्रक्रिया में और अवसादी चट्टानों में द्रव में कणों के नीचे बैठते वक्त लौह-ऑक्साइड के ये कण उस समय वहाँ मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के अनुसार जमते जाते हैं। दोनों तरह की चट्टानों में, चट्टानों के ठोस रूप धारण करने पर ये कण एक तरह से चुम्बकीय जीवाश्म बन जाते हैं, जिनमें न सिर्फ उस समय-काल की जानकारी होती है परन्तु उस अक्षांश की भी जहाँ वे चट्टान बनते हुए बने/जमे थे। यह इसलिए सम्भव हो पाता है क्योंकि पृथ्वी का द्विध्रुवीय चुम्बकीय क्षेत्र प्रत्येक अक्षांश-विशेष पर विशेष दिशा प्रदर्शित करता है जिसकी गणना दोनों चुम्बकीय ध्रुवों के सन्दर्भ में सुनिश्चित की जा सकती है। अत:, अगर हम पुरानी चट्टानों के इस जीवाश्म चुम्बकीकरण का परीक्षण करें और यह पता चले कि यह वर्तमान चुम्बकीय क्षेत्र के साथ असंगत है, तो हम कह सकते हैं कि उस चट्टान से जुड़ी ज़मीन अपने पुराने ‘जीवाश्म अक्षांश’ से दूर हट गई है। और तो और, बहुत-सी परत-दर-परत जमती चट्टानों में इन आदि-चुम्बकों की दिशाएँ 1800 बदली पाई गईं। इससे निष्कर्ष लगा सकते हैं कि पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों ने एक परत से दूसरी परत जमने के बीच अपनी जगह पलट ली होगी।

इस बात को पहचानते हुए कि पश्चिमी मध्य भारत में लगभग 650 लाख साल पहले बिखरा ज्वालामुखी का विशाल लावा इन निष्कर्षों के और आगे के परीक्षण के लिए आदर्श साइट है और उनसे यह निर्धारित कर सकते हैं कि क्या और किस दर से भारत खिसक रहा है, इम्पीरियल कॉलेज के प्रोफेसर ब्लैकेट ने च्र्क्ष्क़ङ (टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान) से अनुरोध किया कि वह भारत में चुम्बकीय चट्टानों का अध्ययन शुरू करें। इन रोचक सवालों की खोजबीन का अचानक अवसर मिलने पर मैं स्वाभाविक रूप से इस काम को करना चाहता था, लेकिन मैं साक्षात्कार में सफल नहीं हुआ। च्र्क्ष्क़ङ को दो प्रतिभाशाली वैज्ञानिक मिल गए। उन्होंने दक्कन के लावा बहाव के रहस्यों पर महत्वपूर्ण काम किया है। मैं यह निर्णय करके वापस बनारस लौट आया कि मैं पूर्वी भारत में राजमहल टै्र्रप में बिखरे महाद्वीप के दूसरे महत्वपूर्ण लावा बहाव क्षेत्र का परीक्षण करूँगा। लेकिन मेरे सामने चुनौती थी कि मुझे बिना आरम्भिक प्रायोगिक सुविधाओं के ही अपने सवालों का जवाब ढूँढ़ना था।

सुजाता: फील्ड में, इन चट्टानों में जीवाश्म चुम्बकीकरण की दिशा का आपने कैसे परीक्षण किया?
विनोद गौड़: मैंने प्रोफेसर ब्लैकेट द्वारा कुछ साल पहले डिज़ाइन किए गए संवेदनशील मैग्नेटोमीटर की एक अपरिष्कृत कॉपी बनाने का निर्णय लिया। अपनी कॉपी के लिए मैंने एक ब्लेड लिया (लोहे का होने के कारण गर्म करके धीरे-धीरे ठण्डा करने की प्रक्रिया में उसमें चुम्बकत्व आ जाता है)। मैंने उसे लम्बाई में दो भागों में बाँट लिया। फिर उसे एक सीधी टहनी के सिरों पर इस तरह चिपका दिया कि एक भाग का उत्तरी ध्रुव दूसरे भाग के दक्षिणी ध्रुव की दिशा में, एक-दूसरे के विपरीत रहे (anti-parallel)। तब, मैंने इस छड़ी को घोड़े की पूँछ के एक लम्बे बाल के साथ जोड़ दिया और उसे काँच की बोतल के ढक्कन से लटका दिया, उसमें एक महीन छेद बनाकर। बोतल के तले पर एक लाइन खिंची थी, जो उसके नीचे रखे चट्टान के टुकड़े के ऊपर ले जाने पर बाल में पड़ रहे बल/घुमाव की दिशा को बताती थी। उस कठिन भूभाग पर चढ़ते हुए मैंने अपने शरीर से भी ज़्यादा इस यंत्र का ध्यान रखा। इसने बहुत ही अच्छे तरीके से सामान्य चुम्बकीय चट्टानों, जो हाल ही में चुम्बकित हुई थीं, को उन चट्टानों से अलग करने में मेरी मदद की जो विपरीत दिशा में चुम्बकित हुईं थीं। और मैं एक गाड़ी भरकर राजमहल की चट्टानों के सैम्पल लेकर बनारस लौट सका। अपनी मूल जगह से उन्हें उठाने से पहले ये कम्पास और स्पिरिट लेवल द्वारा बहुत ही सावधानी से चिन्हित थे, जिससे प्रयोगशाला में पुरा-चुम्बकीकरण को नापते समय उनकी मूल स्थिति को पुनर्सृजित किया जा सके।

सुजाता: क्या ब्लेड का चुम्बकीकरण मापक यंत्र बहुत कमज़ोर नहीं था?
विनोद गौड़: सचमुच यह बहुत ही कमज़ोर था। लेकिन लम्बवत रूप से एक-दूसरे के विपरीत समानान्तर (anti-parallel) रूप से लगाए गए दो कमज़ोर चुम्बक एक अत्यन्त संवेदनशील डिटेक्टर में बदल गए। इस उपकरण का प्रयोग मैं चट्टान के चुम्बकीकरण का संख्यात्मक मूल्य जानने के लिए नहीं कर पाया, क्योंकि इसके लिए प्रयोगशाला में स्थित सटीक एवं केलिब्रेट्ड उपकरणों की ज़रूरत थी। लेकिन उससे फील्ड में चट्टानों का परीक्षण करने में मदद मिली कि वे सामान्य दिशा में चुम्बकित हैं या विपरीत दिशा में। इससे मैं विस्तृत अध्ययन करने के लिए उचित नमूने एकत्रित करके ला सका।

सुजाता: क्या पृथ्वी का यह चुम्बकीय व्युुत्क्रमण (reversal) धीरे-धीरे हुआ?
विनोद गौड़: पृथ्वी का चुम्बकत्व धीरे-धीरे खत्म होने लगता है। व्युत्क्रमण होने से पहले कुछ हज़ार साल मेंे यह बहुत कम हो जाता है। पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र 1830 से मापा जा रहा है और तबसे यह लगभग 10 प्रतिशत कम हुआ है। हमें लगता है यह अगले व्युत्क्रमण का पूर्वलक्षण है।

सुजाता: इन नमूनों के साथ आप क्या कर सकते हैं?
विनोद गौड़: यह मानते हुए कि ध्रुव अपनी जगह से नहीं खिसकते, केवल आपस में जगह बदल लेते हैं, चट्टानों में जमे हुए जीवाश्म की चुम्बकीय दिशा एक निश्चित अक्षांश पर विशिष्ट होती है। यानी कि कई सारी चट्टानों का परीक्षण करने पर पाए गए सुसंगत चुम्बकीय दिशाओं के आँकड़ों से उस जगह के (जहाँ से ये चट्टानें उठाई गईं) पुरा-अक्षांश (paleo-latitude) की गणना की जा सकती है। अथवा, चट्टानों के निर्माण के समय ज़मीन के पुरा-अक्षांश की गणना की जा सकती है। जबकि उनके निर्माण के समय का आकलन एक स्वतंत्र तरीके से, अस्थिर आइसोटोप जैसे रूबीडियम (ङड) और स्ट्रॉन्शियम (च्द्ध) की विकिरणीय क्षय की दरों का इस्तेमाल करते हुए किया जा सकता है। इस तरह समय के सापेक्ष ज़मीन के इधर-उधर धूमने के मार्ग का चार्ट बना सकते हैं। इस तरीके (जिसे 50 के दशक के दौरान परिष्कृत कर लिया गया था) का इस्तेमाल, वैज्ञानिकों द्वारा 1950 के दशक के दौरान विभिन्न महाद्वीपों के ज़मीन के भूगोल के अतीत को पुनर्सृजित करने के लिए व्यापक तौर पर किया गया। इन परिणामों ने, पुराने और ज़ोरों से रद्द कर दिए गए इस सिद्धान्त के लिए बहुत सारे साक्ष्य उपलब्ध कराए कि लगभग 25 करोड़ साल पहले पृथ्वी के सभी महाद्वीप, दक्षिणी ध्रुव के इर्द-गिर्द आपस में एक विशाल भूखण्ड के रूप में जुड़े हुए थे। इस परिकल्पना की शुरुआत इस अवलोकन से हुई थी कि अफ्रीका का पश्चिमी तट, दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी तट में एकदम खाँचे की तरह फिट बैठ सकता है। और यह विचार और विकसित हुआ कि वे कभी जुड़े हुए थे और कालान्तर में टूट कर इधर-उधर सरकते हुए अलग हो गए। लेकिन भू-भौतिकी वैज्ञानिकों ने इसे नकार दिया था, यह माँग करते हुए कि विशाल भूखण्डों की इतने बड़े पैमाने पर क्षैतिज गतियाँ संचालित हो सकें, ऐसी सम्भव कार्यप्रणाली प्रस्तुत की जाए। अब चट्टानों में पुरा-चुम्बक के साक्ष्य ने पासा पलट दिया है, जो अब वैज्ञानिकों को उस कार्यप्रणाली को ढूंढ निकालने की चुनौती दे रहा है।

सुजाता: आपने उन चट्टानों के नमूनों का क्या किया?
विनोद गौड़: पहाड़ों से राजमहल की चट्टानों के सैम्पल का ढेर लेकर लौटने के कुछ दिनों बाद, मैं अभी भी अनिश्चय में था कि बिना अच्छे उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशाला के मैं इनका क्या करूँगा। तभी मेरे एक कज़िन ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने क्च्क्ष्ङ (काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च) के द्वारा विज्ञान, इंजीनियरिंग एवं चिकित्सा के लिए विदेश में जाकर अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति का विज्ञापन देखा है। मेरे इस त्वरित उत्तर के बाद कि मैं विज्ञापन आदि यदा-कदा ही देखता हूँ, उसने कहा, “तुम क्यों आवेदन नहीं करते? केवल तुम्हें पाँच रुपए का पोस्टल ऑर्डर ही तो भेजना है।” आवेदन के लिए शैक्षिक अहर्ता मेरे पास थी - प्रथम श्रेणी में एमएससी, जो मैंने किसी तरह हासिल कर ली थी। “लेकिन मेरे पास यह शाही रकम भी नहीं है,” मैंने उससे कहा।

उसने मुझे पैसे उधार दिए और कुछ हफ्ते के बाद मैं सर के.एस. कृष्णन की अध्यक्षता वाले साक्षात्कार मण्डल के सामने बैठा हुआ था। शुरुआती कुछ मिनटों तक मैं पूछे जाने वाले सवालों का सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे पाया - बनारस के चुम्बकीय क्षेत्र के बारे में, पृथ्वी के केन्द्र में दबाव और इसी तरह के अन्य सवालों के भी - तब तक, जब तक किसी ने पढ़ने में मेरी रुचि के बारे में नहीं पूछा। मुझे अपनी पसन्दीदा पुस्तकों की सूची बताने में कोई दिक्कत नहीं हुई जैसे जेन ऑस्टेन। की किताबें। फिर उनकी लिखने की शैली पर कुछ विमर्श हुआ। इस पर मैंने बहुत अच्छी तरह बहस की। मैंने उनके अतिसूक्ष्मवाद (minimalism।।) पर ज़ोर दिया और ‘प्राइड एण्ड प्रेजुडिस’ के पहले पैराग्राफ की अन्तिम पंक्ति उन्हें सुना दी। तब सर कृष्णन ने मुझसे पूछा कि क्या मैं सचमुच धरती के केन्द्र के दबाव की गणना नहीं कर सकता। मैंने जवाब दिया, “कर सकता हूँ - एक पेंसिल और पेपर पर, पृथ्वी के अन्दर घनत्व की विभिन्नता, इसकी औसत त्रिज्या और गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक के अपने ज्ञान का इस्तेमाल करके। लेकिन मैं इसके वास्तविक परिमाण को नहीं जानता।”

मेरा उस दिन का काम खत्म हो गया था। बाकी समय मैंने शहर में घूमते हुए बिता दिया, इस विश्वास के साथ कि मुझे तो अवसर मिल ही नहीं सकता। मैंने खूब लुत्फ उठाया। शाम को मैं यात्रा का किराया लेने के लिए पुन: सी.एस.आई.आर. मुख्यालय पहुँचा। अचानक, एक बड़े लाउडस्पीकर पर मैंने घोषणा सुनी जिसमें सात सफल लोगों के नाम थे। मेरी आशा के अनुरूप उसमें मेरा नाम नहीं था। मेरे लिए यह न तो कोई आश्चर्य की बात थी, न ही मुझे कोई निराशा हुई। लेकिन मैं जैसे ही वापस जाने के लिए निकला, तो मेरा नाम पुकारा गया कि मैं ऑफिस में आकर मिलूँ।
प्रभारी ने मुझसे पूछा, “आप कहाँ से आए हैं?”
“बनारस से।”
“आप कब वापस जा रहे हैं?”
“आज रात।”
उन्होंने कहा, “नहीं, वापस मत जाओ। हम तुम्हारा नाम मौलाना आज़ाद अस्पताल भेज रहे हैं। तुम सुबह वहाँ जाकर अपना मेडिकल परीक्षण करा लेना।”
“क्यों?”
“शायद हम इस साल 8वीं छात्रवृत्ति शु डिग्री कर दें और ऐसी स्थिति में वह तुम्हें दी जाएगी।”
“मुझे नहीं लगता इसकी सम्भावना है। इसलिए मुझे वापस चले जाना चाहिए।”

वह आदमी बहुत चिढ़ गया, “तुम बच्चों की तरह व्यवहार कर रहे हो। हालाँकि, मुझे तुम्हें यह बात अभी नहीं बतानी चाहिए कि प्रोफेसर कृष्णन एवं पूरी कमेटी 8वीं छात्रवृत्ति पर विचार कर रहे हैं क्योंकि सात लोगों में तुम्हारा नाम न पाकर वे आश्चर्यचकित थे। और जब सर कृष्णन कोई प्रस्ताव रखते हैं तो कोई उस पर सवाल नहीं उठाता।”

इस तरह...एक नई कहानी शुरू हुई। इंग्लैंड जाने के विचार से मैं बहुत खुश था। उस भूमि पर जाना जहाँ लोग जेन ऑस्टेन की अँग्रेज़ी बोलते थे (जो एक मरीचिका साबित हुई)। मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा, यह अभी स्पष्ट नहीं था, केवल एक नई दुनिया, नए दृश्य, नई आवाज़ें, शायद थिएटर (मैं बन्द कमरे में हेमलेट के रोल करना पसन्द करता था) का अनुभव लेने का रोमांच था। शायद, कुछ रोमांचक नया विज्ञान भी हो।

मैं इंग्लैंड पहुँच गया, बम्बई से जहाज़ में चलने के बाद चार हफ्ते लगे। जहाज़ बहुत अच्छी स्थिति में नहीं था। यह उसकी अन्तिम यात्रा थी क्योंकि मंज़िल पर पहुँचने के बाद उसे नष्ट कर दिया जाना था। लेकिन एक लम्बी और विशेष यात्रा उसकी नियति थी। बम्बई बन्दरगाह छोड़ने के छ: घण्टे के बाद, मिस्र के स्वतंत्र विचारों वाले नेता नासिर को परास्त करने के लिए ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सेना ने बमवर्षा करके स्वेज़ नहर को बन्द कर दिया था। वास्कोडिगामा के रास्ते पर उल्टा जाते हमारे जहाज़ ने दक्षिण की ओर अपना रुख लिया। मैं बिलकुल सम्मोहित था - शान्त भूमध्यरेखीय जल में रात के आकाश का अक्स, दहाड़ते चालीसा। (roaring forties) में समुन्दर के पानी के पर्वत, सूर्यास्त की आलौकिक आभा, हर मोड़ के साथ सूर्यास्त का एक अलग व अद्भुत नज़ारा तथा केप ऑफ गुड होप का परिभ्रमण करते हुए मोहक नए चेहरे और जगहें। बनारस के एक दोस्त ने लन्दन के टिलबरी डॉक्स पर मेरी आमद को सुगम बनाया और अस्थायी रूप से वहाँ बसने में मेरी मदद की।

अगली सुबह मैं प्रोफेसर ब्रुकशॉ से मिलने गया। उन्होंने मेरे काम के बारे में पूछा और मैंने उन्हें अपने राजमहल के काम के बारे में बताया। उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा। उस क्षेत्र के चुम्बकीय जीवश्मों का फील्ड परीक्षण करने के लिए कोई हो तो अच्छा रहेगा। अंटार्कटिका से दूर हटने में भारत को लम्बा रास्ता तय करना पड़ा और राजमहल के चुम्बकीय रॉक टेप (‘rock magnetic tapes’) के पास इसके बारे में बहुत-सी रोचक कहानियाँ हो सकती हैं।”

“हाँ, मैं समझता हूँ।” मैंने कहा, “लेकिन अब मेरी रुचि उसमें नहीं है।”
उन्होंने मुझे असमंजस से देखा, पर अपनी बात जारी रखी, “तो तुम किस विषय पर काम करना चाहोगे?”
“मैं ऐसी समस्या पर काम करना चाहूँगा जो विद्युतचुम्बकीय सिद्धान्त के बारे में हो।”
“ठीक है, एक अन्वेषण कम्पनी एयरक्राफ्ट में ट्रांसमीटर लगा कर धरती में गड़े खनिज भण्डारों का पता लगाने का प्रयास कर रही है। उस एयरक्राफ्ट में एक डिटेक्टर भी लगाया गया है, जो संकेतों को ग्रहण करता है। ऐसी अपेक्षा की जाती है कि जहाँ भी सुचालक खनिज दबे होंगे वहाँ इन संकेतों के ग्रहण में बाधा आएगी। हमें अभी नहीं पता कि इन संकेतों की व्याख्या कैसे करें। क्या तुम इस चुनौती को स्वीकार करना चाहोगे?”

“यह काम काफी रुचिकर होगा,” मैंने कहा। इस तरह वह साक्षात्कार समाप्त हुआ।
अत: मैंने इस समस्या पर और उस तरीके के बारे में सोचना शुरू कर दिया जिस तरह से लोग इस समस्या को देख व समझ रहे थे - पृथ्वी में दबी हुई सुचालक धातुओं की प्रतिक्रियाएँ मानो वे हवा में डूबी हों। ऐसा इसलिए क्योंकि यह तर्क दिया जा रहा था कि समृद्ध अयस्क भण्डारों के आसपास की धरती की चालकता उनकी तुलना में हज़ार गुना कम होती है और इसलिए ऐसा मानना उचित होगा कि वो नदारद है या यह कि चारों ओर हवा मौजूद है। मैं इस अनुमान के बारे में असहज महसूस कर रहा था। मैंने यह कल्पना की कि पृथ्वी में दबे अयस्क अपने पर्यावरण के साथ विद्युतीय रूप से जुड़े हुए हैं, अत: यह एक सरल रैखिक (linear system)व्यवस्था के रूप में व्यवहार नहीं करेगा। अत:, मैंने इसका प्रयोग करने का निर्णय किया। इसके लिए मैंने ‘रियल अर्थ-एयरबॉर्न ट्र्रांसमीटर सिस्टम’ का एक इलेक्ट्रोडाइनेमिकली स्केल्ड मॉडल डिज़ाइन किया। अगर इसे ठीक से डिज़ाइन किया जाए तो वह ज़मीन के ऊपर उड़ते एक असली एयरक्राफ्ट द्वारा खोजे गए संकेतों की मात्रात्मक नकल कर लेगा। इस तरह के मॉडल के सिद्धान्त विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र समीकरणों द्वारा सफाई से सारभूत हो सकते हैं। चुनौती यह थी कि इसे एक प्रायोगिक नमूने में बदला जाए जो उपलब्ध सामग्री का प्रयोग करते हुए मूर्त हो सके। व्यवसायिक रूप से उपलब्ध उन सामग्रियों की लम्बी तलाश के बाद जो खनिज अयस्क भण्डार की वास्तविक नकल मेेरे ठींगने मॉडल में कर सकेगा और उपयुक्त साइज़ के लिए बहुत-सी गणनाएँ करने के बाद मैंने कुछ विशेषीकृत एजेंसियों के पास उपलब्ध ग्रेफाइट शीट का इस्तेमाल करने का फैसला किया जो उदाहरण के लिए, ताँबे के अयस्क के भण्डार का प्रतिनिधित्व कर सकें।

इस सारी समस्या को एक कम्प्यूटर पर प्रतिरूपित करने की सम्भावना भी थी। लेकिन इसके बावजूद कि कम्प्यूटर का प्रचलन शुरू हो गया था, उसे प्राप्त करना मेरे लिए काफी कठिन था। अगले कदम के रूप में, मैंने एक उपयुक्त मापक सिस्टम डिज़ाइन करने और उसे बनाने का काम शुरू कर दिया।
अन्तत:, जब यह तैयार हो गया तो मैंने उस अयस्क के मॉडल को एक खाली टैंक में लटका दिया, बिना उसके आसपास कोई आवरण या घेरा रखे जो वास्तव में तो धरती होती है। ऐसे में मिले परिणामों ने एक विश्लेषी मॉडल के सभी वांछित अनुमानों को पुनर्सृजित किया। लेकिन जैसे ही मैंने लवणयुक्त सामग्री से टैंक को भरा, जो पृथ्वी के घेरे का प्रतिरूप ही था, तो फील्ड में पाए जाने वाले विचलन (perturbations) एकदम से बदल गए। इस रूपान्तरण की प्रकृति एवं परिमाण इतने अधिक दुरूह थे कि वे संकेतों में खोट (signal contamination) की सारी सम्भावनाओं को एक-एक करके समाप्त करने की माँग करने लगे। यह बहुत ही श्रमसाध्य और थका देने वाला काम था जिसमें महीनों लगे। लेकिन जैसे-जैसे संकेतों को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों के परीक्षण एक-एक करके नकारात्मक मिलते गए, मैं अधिकाधिक सुनिश्चित होता जा रहा था कि यह सही परिणाम है और कुछ व्याख्यात्मक तर्क पहले से ही मेरे दिमाग में आकार लेने लगे थे।
अत: मैं प्रोफेसर के पास गया और उनसे बात की। उन्होंने कहा, “तुम्हें क्या लगता है, इसका क्या कारण हो सकता है?” मैंने कहा, “मेरे पास एक सम्भावित व्याख्या है जो मात्रात्मक नहीं, गुणात्मक है और इसका विश्लेषण अत्यन्त कठिन है इसलिए मैं इसे अभी पूरा नहीं कर सकता।”

“कोई बात नहीं”, उन्होंने कहा। “तुमने एक नया परिणाम खोजा है।”
अब इसे ‘होस्ट रॉक इफेक्ट’ के नाम से जाना जाता है।
कुछ दिनों बाद, जब मैं अपनी थीसिस लिख रहा था, प्रोफेसर ब्रुकशॉ ने कहा, “एयरक्राफ्ट कम्पनी तुम्हें यहाँ रोकना चाहती है।”
मैंने कहा, “मैं तो अभी परीक्षा पूरी करना चाहता हूँ। उसके बाद मैं सॉरबॉन जाऊँगा। वहाँ मुझे पोस्टडॉक्टरल छात्रवृत्ति मिली है।”
अत:, अपने वाइवा के बाद मैं पेरिस चला गया। वहाँ एक अन्य प्रोफेसर ने मेरी थीसिस पर सरसरी नज़र डाली और कहा, “यह तो बहुत रोचक काम है, तुम इसे आगेे बढ़ाओ।”
मैंने कहा, “नहीं, मैं इससे ऊब गया हूँ। मैं ‘पोटेंशियल थ्योरी’ यानी विभव सिद्धान्त पर काम करना चाहता हूँ।”

इस तरह एक नए जोश की शुरुआत हुई, और यह एक अलग कहानी है। लेकिन पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो यह समझना मुश्किल होता है कि मेरी इस असमय ऊब जाने की अपनी प्रवृत्ति का क्या परिणाम होगा, इस बात से इतना बेपरवाह मैं कैसे रह सकता था। मतलब, मैं हर प्रयास के आन्तरित विवरण पर केन्द्रित करते हुए आधा दर्ज़न पर्चे लिख सकता था, पर मैं डटा न रहा। जैसे ही मैंने एक पर्चा तैयार किया, उस सवाल में मेरी रुचि खत्म हो गई। किसी थ्योरी को समझते ही उसमें मेरी रुचि बिलकुल खत्म हो जाती। और तब तक यह बार-बार हुआ जब तक मेरे छात्रों की ज़िम्मेदारी मुझ पर न आई और उस कारण से मैं लिखने को बाध्य हुआ।

सुजाता: सॉरबॉन में आपके क्या अनुभव रहे?
विनोद गौड़: सारबॉन में, भू-भौतिकी क्षेत्रों को मैंने एक नए तरीके से देखना सीखा जो बहुत ही ताज़गी भरा अनुभव था। और पेरिस बहुत ही खूबसूरत और सौन्दर्य से भरा था। खास तौर से मैं लूव्र संग्रहालय के अन्तहीन गलियारों के प्रति आकर्षित हुआ। उतना ही मैं आधुनिक संस्कारवादियों (impressionist) से तथा प्राचीन कलात्मक वस्तुओं तथा मिस्र एवं मेसोपोटामिया के अवशेषों से संग्रहित मूर्तियों से प्रभावित हुआ।

उस समय तक मेरा सम्बन्ध इरिल से हो गया था और मुझे कोई स्पष्ट दिशा नहीं दिखाई दे रही थी। नेशनल फिज़िकल लेबोरेटरी इंग्लैंड में किसी ने प्रोफेसर ब्रुकशॉ से एक ऐसे वैज्ञानिक के बारे में बताने को कहा जो विद्युतचुम्बकीय समस्याओं को समझता हो। उनके पास परमाणु चुम्बकीय अनुनाद (arthquake engineering) और डिसेलेरेटिंग साइक्लोट्रॉन का इस्तेमाल करते हुए इलेक्ट्रॉन के आवेश व द्रव्यमान के अनुपात को और बारीकी से पता करने का प्रोजेक्ट था। कुछ महीनों के बाद मैं लन्दन लौट आया और ग़्घ्ख्र् के साथ जुड़ गया और पूरी तरह से इस साइक्लोट्रॉन की डिज़ाइन एवं सिद्धान्त से जुड़ गया। जल्दी ही वह रोमांच एक-सरीखे यांत्रिक काम की नीरसता से खत्म हो गया। हालाँकि, जीवन अब थोड़ा अधिक स्थिर हो गया था। इरिल और मेरी शादी हो गई थी और हमें ढेर सारे दोस्तों, सहयोगियों एवं अन्य लोगों की ढेर सारी गर्मजोशी और शुभकामनाएँ मिलीं। हालाँकि, इसमें हम दोनों के परिवार से कोई शामिल नहीं हुआ। हमें बेडफोर्ड गार्डन्स में एक छोटा-सा, प्यारा-सा फ्लैट मिल गया था जहाँ हमारे कमरे से बहुत-से पेड़ और पक्षी दिखते थे। इनमें एक उल्लू था जो अक्सर रात में सोते वक्त खिड़की से हमारा अभिनन्दन करता देखता।

तभी, एक दिन मुझे रूड़की विश्वविद्यालय के कुलपति का एक पत्र मिला। उन्होंने मुझे विश्वविद्यालय में भू-भौतिकी विज्ञान के विकास की ज़िम्मेदारी सहित रीडर पद के लिए आमंत्रित किया। मैं 25 वर्ष का हो चुका था और एक अकादमिक वातावरण में छात्रों के साथ काम करने की सम्भावना ने मुझे आकर्षित किया। साथ ही, हम इस बात से भी निश्चिन्त हो गए क्योंकि मेरी पत्नी अपने परिवार को इंग्लैंड में नहीं पालना चाहती थीं, जहाँ नस्लवाद औपचारिक रूप से कम हो चुका था पर बहुनस्लीय (ethnic) कॉलोनियों को छोड़कर, सतह के नीचे वह अभी भी मौजूद था।

रूड़की विश्वविद्यालय मुझे पसन्द आया। फैले हुए हरे-भरे लॉनों वाली पुनर्जागरण यानी रैनेसां शैली की इसकी गरिमामयी बिल्डिंग, जहाँ से न केवल बाहरी हिमालय की एक के बाद एक नीली पंक्तियाँ नज़र आती हैं बल्कि उनके भी ऊपर हिमालय की जगमगाती 400 कि.मी. लम्बी पर्वत  ाृंखला भी दिखती है जो धूप में चमचमाती है। मैं सीधे भू-भौतिकी विज्ञान के कोर्स को तैयार करके उसे अकादमिक काउंसिल की अनुमति के लिए भेजने की तैयारी में जुट गया। भू-भौतिकी विज्ञान का एक सम्पूर्ण कार्यक्रम शुरू होने में अभी भी दो साल थे। इस बीच मैंने भौतिक विज्ञान एवं भू-भौतिकी के छात्रों को पृथ्वी की खोज के विषय में पढ़ाया। वह एक छोटा-सा जीवन्त समूह था जो प्रकृति एवं नैतिक मुद्दों में बहुत रुचि रखता था। चूँकि मेरी पत्नी अभी तक नहीं आई थीं, अत: वे आसपास के पेड़-पौधों की खोज में एवं रंगमंच में मेरे साथ जुड़ गए। इस तरह मेरे लिए मन एवं आध्यात्म के नए आयाम खुल गए जो अगले दो दशकों के मेरे वहाँ रहने के दौरान कभी फीके नहीं पड़े।

वहाँ पर जो शुरुआती शोधार्थी आए उन्होंने उसी काम को आगे बढ़ाने में रुचि दिखाई जो मैंने इम्पीरियल कॉलेज में किया था। युद्ध के माहौल की वजह से हमारे पास उपकरण खरीदने के लिए बहुत कम पैसे थे। मैंने एक स्थानीय उद्यमी की मदद से कुछ आरम्भिक भू-भौतिकीय प्रयोगों को स्थापित करने का निर्णय लिया। वह मेरे द्वारा डिज़ाइन किए गए सिस्टम को बहुत कम दाम पर निर्मित करने को उत्तेजित था। अत: मैंने इम्पीरियल कॉलेज के एक प्रोफेसर मैसन जिन्हें मैं जानता था, को पत्र लिखा, “वे सारी चीज़ें जो मैंने डिज़ाइन की थीं और तैयार की थीं, शायद वे अभी भी आपके स्टोर में होंगी। क्या आप उन्हें रूड़की भेज देंगे जिससे हम अपना काम जारी रख सकें? लेकिन इसके लिए मेरे पास पैसा नहीं है।” काम हो गया। यहाँ के छात्रों ने उस उपकरण को पुन: जोड़ा और पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। अमेरिका में इसी क्षेत्र में काम कर रहे एक विद्वान ने उसकी बहुत ही अच्छी रिपोर्ट भेजी। उसने लिखा, “मैं इस विषय पर एक व्याख्यान देने ऑस्टे्रलिया जा रहा हूँ। क्या मैं आपके आँकड़ों का इस्तेमाल कर सकता हूँ?”

हाल ही में, रूड़की में भूकम्प अभियांत्रिकी (arthquake engineering) का एक नया विभाग खुला था। यह सिविल इंजीनियरिंग एवं भू-भौतिकी विज्ञान के बीच एक अन्तरअनुशासनीय क्षेत्र है। इसने भूकम्प विज्ञान को विकसित करने के लिए एक बहुत अच्छा अवसर प्रदान किया। यह वैश्विक स्तर पर बहुत तेज़ी से विकसित हो रहा है, अपने नव-स्थापित ‘प्लेट टेक्टॉनिक्स थ्योरी’ के विभिन्न निहितार्थों के परीक्षण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण तथा इस दमदार सुझाव के कारण कि देहरादून से मुश्किल से 70 किमी उत्तर में हिमालय की तराई, एक प्लेट बाउन्ड्री बनाती है। अत: सीस्मोलॉजी की, जिसके बारे में मुझे बहुत ही आरम्भिक जानकारी थी, मैंने बिलकुल शून्य से शुरुआत की यानी बिलकुल इसके बुनियादी सिद्धान्त तक जाकर। और आप जब ऐसे छात्रों को पढ़ाते हैं जिन्हें हमेशा प्रश्न पूछने के लिए उत्साहित किया जाता हो, तो आपके लिए सीखने के बहुत अवसर होते हैं। मेरे साथ ऐसा ही हुआ। तब से मेरे जितने भी प्रमुख शोध हुए, उन पर इनकी महत्वपूर्ण छाप है।

अन्तत:, मुझे यूजीसी से उपकरणों एवं खास तौर से शिक्षकों के लिए उत्साहजनक समर्थन मिला। अत: उस समय मेरा सबसे प्रशंसनीय ईनाम रहा, देश के तीन सर्वोत्तम भू-भौतिकी वैज्ञानिकों को इस काम में शामिल होने के लिए मनाना। उन्होंने विभाग की दुनिया के नक्शे पर पहचान दिलाई और उच्च अकादमिक मूल्यों की जड़ें जमाईं जो किसी-न-किसी रूप में अभी भी मौजूद हैं।

...... अगले अंक में जारी


विनोद के. गौड़: संवेदनशील प्रशासक, रचनात्मक एवं मदद को तत्पर वैज्ञानिक हैं। उन्हें भारत शासन का ‘एस.एस. भटनागर’ पुरस्कार एवं अमेरिकन जियोफिज़िकल यूनियन का ‘फ्लिन अवार्ड’ मिल चुका है।
सुजाता वरदराजन: येल युनिवर्सिटी, कनेक्टिकट, अमरीका से मॉलिक्युलर बायोफिज़िक्स एंड बायोकेमेस्ट्री में पढ़ाई की है। स्वतंत्र लेखक हैं। योग और कविताओं सहित विविध अभिरुचियों की धनी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: वर्षा: स्वतंत्र अनुवादक हैं।
मूल लेख ‘रेज़ोनेंस’ पत्रिका के अंक, नवम्बर 2010, खण्ड 15 में प्रकाशित हुआ था।