सुशील जोशी

अरविन्द गुप्ते ने ‘संदर्भ’ के पिछले अंक में जीव-जगत में उभय-लिंगता पर एक रोचक लेख लिखा था। उसी को आगे बढ़ाते हुए मैं कुछ जानकारी जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। इसलिए बेहतर होगा कि आप पहले वह लेख पढ़ लें।
उस लेख में अरविन्द ने मूलत: पेड़-पौधों और जन्तुओं पर ध्यान केन्द्रित किया था और उसके आधार पर जैव-विकास में उभयलिंगता के पनपने पर अपने विचार रखे थे। यहाँ मैं कुछ अन्य जीव समूहों की चर्चा करके बताने की कोशिश करूँगा कि उभयलिंगता की चर्चा को लैंगिक प्रजनन के साथ जोड़कर देखना ही उचित है। अन्य जीव समूहों की चर्चा करने से हमें इस गुणधर्म का थोड़ा वैकासिक अवलोकन करने में मदद मिलेगी।

यहाँ एक-दो बातें स्पष्ट कर देना ठीक रहेगा। प्राय: जीव विकास के बारे में चर्चा करते हुए सजीवों को एक क्रम में देखने की प्रवृत्ति होती है। यहाँ मैंने कोशिश की है कि इस सन्दर्भ में बात की जाए कि कौन-से जीव समूह विकास के क्रम में पहले आए हैं और कौन-से बाद में। आगे-पीछे आने का सम्बन्ध उनके कम या ज़्यादा विकसित होने से न लगाएँ। दूसरी बात यह है कि जीवजगत में लैंगिक प्रजनन की उत्पत्ति व विकास एक अनसुलझी गुत्थी है और मैं फिलहाल उसे लेकर कुछ नहीं कह रहा हूँ। हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि यदि लैंगिक प्रजनन इस अफसाने में न होता, तो विकास की गति व विविधता बहुत कम होती।

केन्द्रक विहीन जीवों में प्रजनन
आइए कहानी शुरु करते हैं। सबसे पहले सरल जीवों को देखें जहाँ जन्तु-वनस्पति का विभाजन भी सम्भव नहीं है। बैक्टीरिया को आजकल जीव वैज्ञानिक ‘मोनेरा’ नामक वर्ग में रखते हैं। बैक्टीरिया संख्या वृद्धि का निहायत सरल तरीका अपनाते हैं - कोशिका विभाजन। इनमें केन्द्रक तो होता नहीं, एक लम्बा-सा गुणसूत्र होता है, जिसमें आनुवंशिक सामग्री यानी डी.एन.ए. होता है। विभाजन से पहले इस गुणसूत्र की प्रतिलिपि बनाई जाती है। दोनों प्रतिलिपियाँ कोशिका के दो अलग-अलग हिस्सों में पहुँच जाती हैं। अब बाद में कभी कोशिका विभाजन से दो कोशिकाएँ बनेंगी। यह क्रिया काफी तेज़ गति से हो सकती है।

यह खालिस अलैंगिक प्रजनन है (बल्कि इसे प्रजनन न कहकर द्विभाजन कहना ही बेहतर है)। मगर कभी-कभार ऐसा भी होता है कि आनुवंशिक सामग्री का थोड़ा-बहुत लेन-देन भी होता है। इसके लिए या तो दो बैक्टीरिया कोशिकाएँ आपस में संलयित हो जाती हैं (conjugation), या किसी बैक्टीरिया द्वारा आस-पास के माध्यम में छोड़ी गई आनुवंशिक सामग्री किसी अन्य बैक्टीरिया द्वारा ग्रहण कर ली जाती है, या किसी वायरस के ज़रिए ऐसी आनुवंशिक सामग्री को एक से दूसरे बैक्टीरिया तक पहुँचा दिया जाता है। अलबत्ता, ऐसा कभी-कभार ही होता है कि किसी बैक्टीरिया को पूरा-का-पूरा गुणसूत्र हासिल हो जाए; होता इतना ही है कि नई आनुवंशिक सामग्री बैक्टीरिया के गुणसूत्र में जुड़ सके, तो जुड़ जाती है।
यह लैंगिक प्रजनन तो नहीं है मगर आनुवंशिक सामग्री के आदान-प्रदान का ज़रिया ज़रूर है। इसमें नर-मादा का सवाल ही पैदा नहीं होता।

केन्द्रक युक्त जीवों में प्रजनन
बैक्टीरिया के बाद बात कर सकते हैं केन्द्रक युक्त एक-कोशिकीय जीवों की। जीव विज्ञान वर्गीकरण में आजकल प्रोटिस्टा समूह में शामिल इन एक कोशिकीय जीवों में पहली बार ‘लैंगिक प्रजनन’ के दर्शन होते हैं। उदाहरण के लिए मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मो-डियम) को देख सकते हैं।
प्लाज़्मोडियम का जीवन चक्र दो प्राणियों में पूरा होता है - मनुष्य व मच्छर। मच्छर जब मनुष्य को काटती है तो उसकी लार के साथ प्लाज़्मोडियम भी खून में पहुँच सकते हैं। जिस अवस्था में प्लाज़्मोडियम मनुष्य के खून में पहुँचते हैं उसे स्पोरोज़ॉइट कहते हैं। ये स्पोरोज़ॉइट खून में कई बार विभाजित होकर बड़ी संख्या में मीरोज़ॉइट बना लेते हैं। ये मीरोज़ॉइट लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं और वहाँ भी विभाजित होना जारी रखते हैं। यह अलैंगिक किस्म का प्रजनन है। कुछ समय बाद ये लाल रक्त कोशिकाओं को फोड़कर बाहर निकलते हैं (इसी समय बुखार आता है)। ऐसा कई बार हो सकता है। अन्तत: ये मीरोज़ॉइट्स विशेष प्रजनन कोशिकाओं में विकसित हो जाते हैं। ये कोशिकाएँ नर युग्मक और मादा युग्मक बनाने की क्षमता रखती हैं। आगे की प्रक्रिया मनुष्य के शरीर में पूरी नहीं हो सकती। यदि ये लैंगिक कोशिकाएँ किसी मच्छर के शरीर में प्रवेश कर जाएँ, तो नर व मादा युग्मक बनाती हैं। नर युग्मक मादा युग्मक को निषेचित करते हैं और ज़ायगोट बनता है।

तो हम कह सकते हैं कि प्लाज़्मोडियम में लैंगिक प्रजनन होता है और यह इस मायने में उभयलिंगी है कि प्रत्येक मीरोज़ॉइट नर या मादा युग्मक में तब्दील होने की क्षमता रखता है। इससे तो लगता है कि उभयलिंगता की उत्पत्ति लैंगिक प्रजनन के साथ ही हुई है।
इसके बाद बात की जा सकती है पैरामीशियम सरीखे जीवों की जो ‘सिलिएटा’ वर्ग के सदस्य हैं। इन एक-कोशिकीय जीवों की पहचान यह है कि इनकी कोशिका की सतह पर रोम पाए जाते हैं। इनका एक अनूठा गुण यह है कि इनमें दो केन्द्रक होते हैं - एक छोटा और दूसरा बड़ा (माइक्रो-न्यूक्लियस तथा मेगान्यूक्लियस)। बड़ा केन्द्रक जीव की सामान्य क्रियाओं का नियंत्रण व संचालन करता है तथा छोटा केन्द्रक लैंगिक प्रजनन का कार्य करता है। वैसे इनमें भी अलैंगिक प्रजनन द्विभाजन के ज़रिए ही होता है।
लैंगिक प्रजनन के दौरान ऐसे दो जीव पास आकर मुखांग क्षेत्र पर एक-दूसरे से सट जाते हैं। अब दोनों के छोटे केन्द्रकों में अर्धसूत्री विभाजन होता है - यानी ऐसा विभाजन जिसमें बँटे हुए दोनों केन्द्रकों में गुणसूत्रों की संख्या आधी रह जाती है। इस प्रक्रिया के ज़रिए कई केन्द्रक बन जाते हैं। अन्तत: दोनों कोशिकाओं में दो-दो छोटे केन्द्रकों को छोड़कर बाकी सारे नष्ट हो जाते हैं। बड़ा वाला केन्द्रक भी नष्ट हो जाता है। दोनों कोशिकाओं में एक छोटा केन्द्रक तो अपनी जगह टिका रहता है जबकि दूसरा केन्द्रक दूसरी कोशिका में चला जाता है। वहाँ जाकर यह स्थिर केन्द्रक का निषेचन करता है। इसी प्रकार से दूसरी कोशिका का एक केन्द्रक आकर पहली कोशिका के स्थिर केन्द्रक का निषेचन कर देता है। यानी दोनों कोशिकाएँ एक केन्द्रक देती हैं और एक प्राप्त करती हैं। यानी दोनों ही; नर व मादा, दोनों भूमिकाएँ निभाती हैं।

उभयलिंगता: जैव विकास के साथ
दरअसल, विकास के शुरुआती दौर में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं जिनमें अधिकतर जीव नर और मादा, दोनों की भूमिकाएँ निभाते हैं। यहाँ तक कि जो नर युग्मक और मादा युग्मक (gamates) बनते हैं उनके बीच भी कोई फर्क नहीं होता। इस स्थिति को समयुग्मकता या आइसोगेमी कहते हैं। ऐसा एक उदाहरण ‘क्लेमाय-डोमोनास’ का है। यह एक-कोशिकीय शैवाल है जिसमें सामान्यत: तो आइसोगेमी पाई जाती है मगर चन्द प्रजातियों में युग्मकों में असमानता नज़र आती है, जिसे विषमयुग्मकता कहते हैं। वैसे तो क्लेमायडोमोनास भी आम तौर पर अलैंगिक प्रजनन करता है मगर कुछ विशेष परिस्थितियों में लैंगिक प्रजनन को प्रवृत्त होता है।
सामान्यत: इसकी कोशिकाएँ अगुणित (haploid) होती हैं। ऐसी कोई कोशिका समसूत्री विभाजन के द्वारा कई सारी युग्मक कोशिकाएँ बना लेती है। इन युग्मकों में फ्लेजेला होते हैं, जिनकी मदद से ये गति करते हैं। इनकी खास बात यह है कि युग्मक दो मेटिंग टाइप (समागम किस्म) के होते हैं जो एक-दूसरे से आकर्षित होते हैं। ऐसे दो अलग-अलग टाइप के युग्मक संलयित होकर एक द्विगुणित युग्मनज (ज़ायगोट) बनाते हैं। इस ज़ायगोट की विशेषता यह है कि यह लम्बे समय तक प्रतिकूल परिस्थिति में पड़ा रह सकता है। परिस्थिति अनुकूल होने पर यह अंकुरित होता है और अर्धसूत्री विभाजन द्वारा नए जीव तैयार करता है।

क्लेमायडोमोनास में नर या मादा जीव नहीं होते मगर युग्मकों में दो अलग-अलग किस्में होती हैं। इन दो किस्मों के बीच शारीरिकी लिहाज़ से भेद करना सम्भव नहीं होता; अन्तर सिर्फ इतना होता है कि एक किस्म दूसरे के प्रति आकर्षित होती है।
क्लेमायडोमोनास की अधिकांश प्रजातियों में लैंगिक प्रजनन अत्यन्त सरल स्तर पर है, इसलिए इससे हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि लैंगिकता कैसे प्रकट हुई होगी। हमने देखा कि इसमें अलग-अलग नर व मादा जीव नहीं होते और युग्मकों में आकर्षण के अलावा और कोई अन्तर भी नहीं होता। इसके अलावा क्लेमाय-डोमोनास में युग्मक कोशिकाएँ अन्य कोशिकाओं से अलग नहीं होतीं; अन्तर इतना ही होता है कि इनमें संलयन की प्रवृत्ति पाई जाती है। वैसे क्लेमायडोमोनास की कुछ प्रजातियों में विषमयुग्मकता पाई जाती है - इनमें एक युग्मक दूसरे से बड़ा होता है। और-तो-और, क्लेमायडोमोनास की कुछ प्रजातियों में तो विषमयुग्मकता की अगली अवस्था भी देखी गई है, जिसे ऊगेमी कहते हैं (अर्थात् इनमें मादा युग्मक न सिर्फ बड़ा होता है बल्कि अचल भी होता है)।
इससे तो लगता है कि लैंगिकता और उभयलिंगता, एक साथ ही अस्तित्व में आए होंगे। नर/मादा भेद न होना, किसी भी जीव द्वारा नर/मादा, दोनों तरह के युग्मक बनाया जाना, युग्मकों में भेद न होना वगैरह बातें विकास के प्रारम्भिक दौर के जीवों में आम बात है। लिंगों का पृथक्करण निश्चित रूप से बाद के दौर में क्रमिक रूप से विकसित हुआ लगता है।

वनस्पतियों में लैंगिक जीवन
दरअसल, एकलिंगता (यानी लिंगों का पृथक्करण) का विकास तभी सम्भव है जब विषमयुग्मता पैदा हो जाए और अलग-अलग किस्म के युग्मक बनाने की क्षमता का विभाजन हो जाए। यह स्थिति पहली बार स्पष्ट रूप में वॉलवॉक्स में देखने को मिलती है।

वॉलवॉक्स एक बहु-कोशिकीय शैवाल है। वैसे तो सही मायने में इसे बहु-कोशिकीय कहना उचित नहीं है मगर इसमें कॉलोनियाँ होती हैं और एक कॉलोनी की कोशिकाओं के बीच कार्यों का कुछ विभाजन होता है। प्रजनन का काम कुछ विशेष कोशिकाएँ करती हैं। ये कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं: एक नर युग्मक बनाती हैं जबकि दूसरी मादा युग्मक। नर युग्मक गतिशील होता है जबकि मादा युग्मक उसी कोशिका में टिका रहता है जिसमें उसका निर्माण हुआ था। नर युग्मक बड़ी संख्या में बनते हैं जबकि मादा युग्मक प्रत्येक कोशिका में एक ही बनता है। नर युग्मक मादा युग्मक वाली कोशिका में पहुँचकर मादा युग्मक का निषेचन करता है और यहाँ से एक नई कॉलोनी की शुरुआत होती है। यदि वॉलवॉक्स कॉलोनी को एक जीव माना जाए तो यह उभयलिंगी है। वैसे ध्यान देने योग्य प्रमुख बात यह है कि अब लिंगों का विभाजन दिखने लगा है। यह भी स्पष्ट होता है कि लिंगों के पृथक्करण में मादा युग्मकों की संख्या कम तथा नर युग्मकों की संख्या अधिक होनी चाहिए।
यदि हम ब्रायोफाइट्स (मॉस, लिवरवर्ट्स) की बात करें तो उनमें भी दो तरह के युग्मक एक ही पौधे पर बनते हैं। मगर थोड़ा आगे बढ़ें और लायकोपोडियम और सिलेजिनेला की चर्चा करें। दोनों लिंगों के विभाजन पर और रोशनी डालेंगे।

लायकोपोडियम में कुछ पत्तियाँ प्रजनन कार्य के लिए विभेदित हो जाती हैं। इनमें बनने वाले सारे बीजाण्ड (spores) एक जैसे होते हैं। इन बीजाण्डों से जो पौधे बनते हैं, उन सबमें मादा प्रजनन अंग (आर्किगोनिया) और नर प्रजनन अंग (एंथेरीडिया), दोनों पाए जाते हैं। मगर सिलेजिनेला में दो तरह के स्पोर्स बनते हैं - मेगास्पोर्स और माइक्रोस्पोर्स। जहाँ मेगास्पोर से मादा पौधा बनता है वहीं माइक्रोस्पोर्स से नर पौधे का निर्माण होता है। यानी सिलेजिनेला का गेमेटोफाइट सही मायने में एकलिंगी होता है।

यदि वनस्पतियों के फर्न समूह को देखें तो उनमें भी उभयलिंगता ही देखने को मिलती है। इनमें सारे स्पोर्स एक जैसे होते हैं और उनसे बनने वाले पौधे उभयलिंगी होते हैं।

कम-से-कम एक-कोशिकीय जीवों और वनस्पतियों के विवरण से तो लगता है कि उभय-लिंगता एक नियम है, अपवाद नहीं। ज़रा जन्तुओं पर नज़र डालें।

जन्तुओं में उभयलिंगता
जन्तुओं के कई वर्गों में भी उभय-लिंगता काफी सामान्य है। जैसे हायड्रोज़ोआ वर्ग के एक प्राणी ओबेलिया को देखें। इसमें दो अवस्थाएँ होती हैं - पॉलिप और मेड्यूसा। जहाँ पॉलिप अचर होता है, वहीं मेड्यूसा मुक्त रूप से तैर सकता है। परिपक्व मेड्यूसा की कुछ कोशिकाओं में अर्धसूत्री विभाजन होता है और शुक्राणु व अण्डाणु बनते हैं। गौरतलब है कि एक ही मेड्यूसा में दोनों बन सकते हैं और बनते हैं। ये दोनों ही पानी में मुक्त कर दिए जाते हैं और निषेचन पानी में ही होता है।
जब हम चपटे कृमियों पर आते हैं तो भी स्थिति बदलती नहीं। जैसे लिवर फ्लूक को लें। इनमें शरीर का अधिकांश भाग प्रजनन अंगों से घिरा होता है और प्रत्येक जीव में वृषण व अण्डाशय, दोनों पाए जाते हैं। इनमें स्व-निषेचन ही होता है।
फीता कृमि की स्थिति थोड़ी अलग है। इसका शरीर कई खण्डों में बँटा होता है। प्रत्येक खण्ड में नर व मादा प्रजनन अंग पाए जाते हैं। आम तौर पर ऐसा होता है कि वृषण द्वारा बनाए गए शुक्राणु आस-पास के माध्यम में छोड़ दिए जाते हैं। ये जैसे-तैसे उसी जन्तु के किसी पिछले खण्ड में प्रवेश करके वहाँ अण्डों को निषेचित कर देते हैं।

कुल मिलाकर कहानी यह बनती है कि बात उभयलिंगता से शुरु  होती है और क्रमिक रूप से लिंगों के पृथक्करण तथा एकलिंगता की ओर बढ़ती है।
विकास के क्रम में जिस भी वजह से हुआ है मगर प्रजनन में एकलिंगता को भी अपनाया गया है। यहाँ तक कि उभयलिंगी जीवों में ऐसी व्यवस्था अपनाई जाती है कि स्व-निषेचन न हो पाए। लगता तो यही है कि पहले उभयलिंगता अस्तित्व में आई और फिर धीरे-धीरे स्व-निषेचन को रोकने की तरकीबें उभरीं और अन्तत: इसकी अन्तिम तरकीब (यानी एकलिंगता) सामने आई।
जीव वैज्ञानिकों के सामने सवाल यह है कि लैंगिक प्रजनन अस्तित्व में आया ही क्यों। कोशिका विभाजन के ज़रिए संख्या वृद्धि तो हो ही रही थी। तब कोई जीव लैंगिक प्रजनन जैसी जटिल प्रक्रिया में अपने संसाधनों का निवेश क्यों करे? और यदि करे तो इससे उसकी उत्तरजीविता में या फिटनेस में क्या इज़ाफा होता है? फिर यह सवाल भी है कि क्या लैंगिक प्रजनन में किए गए निवेश (यानी लैंगिक प्रजनन की लागत) और उससे मिलने वाले लाभ के सन्तुलन इस निवेश को सम्भव बनाते हैं? और इन्हीं से जुड़ा सवाल यह भी है कि उभयलिंगता से विषमयुग्मकता और फिर एकलिंगता यानी लिंगों के पृथक्करण तक पहुँचने के रास्ते कौन-से हैं? इन सवालों पर शायद अगले अंक में चर्चा करेंगे।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।