किशोर पंवार

जैव-विकास

टैनिंस पौधों में  पाए जाने  वाले पदार्थों के  एक समूह  का नाम है। टैनिंस पेड़ों की छाल में प्रमुखता से मिलता है। इसका उपयोग चमड़ा पकाने में किया जाता है।
चमड़ा पकाने में टैनिंस के उपयोग की प्रमुख वजह यह है कि पशुओं की त्वचा मूलत: कोलाजेन नामक प्रोटीन से बनी होती है। त्वचा को वैसे ही छोड़ दिया जाए तो सूक्ष्मजीव इस पर हमला कर इसे पचा डालते हैं। लेकिन टैनिंस इस प्रोटीन के साथ इतने मज़बूत रासायनिक बन्धन बनाते हैं कि सूक्ष्म जीवों के पाचक एंज़ाइम तक इस प्रोटीन को नहीं पचा पाते। चमड़े को पकाने की क्रिया में इस बन्धन को मज़बूत बनाया जाता है। टैनिंस के उपयोग के कारण ही इसे टैनिंग कहते हैं।

टैनिंस का स्वाद कसेला होता है। साथ ही, ये मुँह की लार और म्यूकस झिल्ली के साथ मिलकर मुँह को सुखा देता है। इस असर को ऐस्ट्रीजेंट प्रभाव कहते हैं। यही वजह है कि पशु ऐसे पौधों से दूर ही रहते हैं जिसमें टैनिंस ज़्यादा मात्रा में होता है।

यदि आपने कभी कच्ची सुपारी खाई हो, तो आपको याद आ रहा होगा कि पहली बार खाने पर गला बन्द होता-सा लगता है, लगभग रुँध जाता है और थूक भी हलक से नीचे नहीं उतरता। टैनिंस युक्त पत्तियाँ खाने पर पशुओं के साथ भी यही होता है। इसी कारण से पशु टैनिंस युक्त पत्तियाँ खाने से बचते हैं। इसके अतिरिक्त जब वे टैनिंस युक्त पत्तियाँ खाते हैं तब पेट में पहुँचकर पत्तियों में उपस्थित प्रोटीन टैनिंस से जुड़ जाता है और अपचनीय हो जाता है। और तो और, टैनिंस शाकाहारी जीवों के पेट और आँतों में उपस्थित एंज़ाइम्स से क्रिया करके उन्हें अपना काम करने से रोकते हैं।

चरने वाले पशुओं से पौधों को बचाने में टैनिंस बहुत प्रभावी होते हैं। इसका एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका के सवाना घास भूमि में रहने वाले हिरण, कुडु का है। यहाँ पाए जाने वाले एकेसिया (बबूल) की पत्तियाँ इनका प्रमुख भोजन हैं। इन पत्तियों में टैनिंस होते हैं। इसकी थोड़ी मात्रा से हिरण के पोषण की गुणवत्ता पर प्रभाव नहीं पड़ता। परन्तु जब हिरण पत्तियाँ कुतरता है तब एकेसिया की इन क्षतिग्रस्त पत्तियों से एथिलीन गैस निकलती है (एथिलीन एक हारमोन है जो तनाव के कारण पैदा होता है)। पौधा जब कुतरे जाने के तनाव में रहता है तो एथिलीन गैस छोड़ने लगता है। इस गैस के निकलने के लगभग 30 मिनिट के अन्दर, आसपास के एकेसिया पौधों में खूब टैनिन बनने लगता है। ज़्यादा पत्तियाँ खाई जाती हैं तो पौधा ज़्यादा टैनिंस बनाता है और कई बार अधिक मात्रा में ये पत्तियाँ खाने से हिरणों की मृत्यु भी हो जाती है।

इस तरह से बबूल के ये पेड़ पत्ती विहीन होने से बच जाते हैं। यह एकेसिया का चेतावनी तंत्र है। एक पौधे के चरना शुरू होते ही दूसरों को सावधान होने के संकेत छोड़े जाते हैं। इन कड़वे पेड़ों के पास वाणी नहीं है, लेकिन वाणी से ज़्यादा शक्तिशाली रासायनिक सन्देश भेजने का तरीका है।
टैनिंस पौधों को सूक्ष्मजीवों के आक्रमण से भी बचाते हैं। जैसे ही पौधों पर सूक्ष्मजीवों का आक्रमण होता है, पौधे टैनिंस बनाने लगते हैं। इससे सूक्ष्मजीवियों के एंज़ाइम निष्क्रिय हो जाते हैं।

टैनिन और ओक के पेड़
बांज यानी ओक, पश्चिमी यूरोप के पतझड़ी वनों का एक प्रमुख पेड़ है। हमारे यहाँ हिमालय एवं तराई के क्षेत्रों में भी ओक मिलता है। आम तौर पर ओक के पेड़ पर 200 से अधिक प्रकार के कीटों के लार्वा डेरा जमाते हैं और इसकी पत्तियाँ कुतरते हैं। ओक पर कीटों का प्रकोप वसन्त में ज़्यादा होता है। उसे प्रभावित करने वाला सबसे आम कीट है विंटर मॉथ। इसके लार्वा मई माह तक इसकी पत्तियों को खाते हैं और मई के अन्त तक ज़मीन पर गिरकर प्यूपा में बदल जाते हैं। इकोलॉजीविद पी.पी. फीनी ने देखा कि ये लार्वा ओक की पत्तियों को वसन्त में तो बड़े मज़े से खाते हैं परन्तु गर्मी में जून के मध्य तक इसे छोड़ दूसरे पेड़ों का रुख कर लेते हैं। पहले तो उन्हें यह समझ न आया कि वे ऐसा क्यों करते हैं। विंटर मॉथ के इस बदले व्यवहार को समझने के लिए उन्होंने पत्तियों का परीक्षण किया तो पता चला कि ओक में वसन्त और गर्मियों में लगने वाली पत्तियों के टैनिंस में बहुत अन्तर होते हैं। ये अन्तर टैनिंस की मात्रा में भी थे और टैनिंस के प्रकार में भी। एक तो टैनिंस के कसेले स्वाद के कारण ये लार्वा जून में इन पत्तियों को छोड़कर दूसरे पौधों पर चले जाते हैं। दूसरी बात यह है कि टैनिंस की अधिकता के कारण प्रोटीन अपाच्य हो जाता है और लार्वा के पेट में पचता नहीं। तो ऐसे भोजन को खाने से क्या फायदा जो पोषण न दे।

ओक की पत्तियों में बढ़े हुए टैनिंस की मात्रा उन्हें अखाद्य बना देती है। मगर लार्वा भी इन पत्तियों को खाने पर आमादा होता है।
टैनिंस, प्रोटीन को अपाच्य बनाने का काम अम्लीय माध्यम (पीएच 4.2) में भली-भाँति करते हैं। यदि किसी वजह से पीएच बढ़ जाए यानी माध्यम क्षारीय होने लगे तो टैनिंस की यह भूमिका कमज़ोर पड़ जाती है। इन अवलोकनों के दौरान विंटर मॉथ लार्वा की आँत की जाँच की गई तो आँतों में पीएच मान 9.2 पाया गया जो क्षारीय स्थिति का द्योतक है। इतने अधिक पीएच पर लार्वा प्रोटीन-टैनिन संकुल से अपने लिए नाइट्रोजन प्राप्त कर लेता है। लार्वा के आँत में इतने पीएच मान को अनुकूलन माना जा रहा है।

शिकारियों से खुद के बचाव के लिए ओक के पेड़ में कुछ खास रसायनों की मात्रा बढ़ाने की रणनीति कारगर साबित हुई है तो विंटर मॉथ की आँतों में क्षारीयता का बढ़ना इन पत्तियों को पचाने की एक कारगर रणनीति दिखाई देती है।
प्रकृति में शिकार और शिकारी के बीच अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दाँव-पेंच चलते रहते हैं। और इसका परिणाम होता है समान्तर सह विकास।

जो बात विंटर मॉथ लार्वा के लिए सही है वह ओक पर पलने वाले अन्य कीट लार्वा पर भी लागू होती है। शुरुआती जून माह में ओक के पेड़ पर कम-से-कम 110 कीट प्रजातियों के लार्वा होते हैं जबकि मध्य अगस्त तक यह संख्या घटकर केवल 65 रह जाती है। इसी तरह ओक पर मिलने वाले वयस्क कीटों की संख्या में भी उल्लेखनीय कमी आ जाती है। जहाँ लार्वा की संख्या एवं प्रकार घटने में टैनिंस की मात्रा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, वहीं उम्र बढ़ने से पत्तियों का कड़कपन भी ज़िम्मेदार होता है।
अत: यह स्पष्ट है कि पेड़ कीटों के आक्रमण से निपटने के लिए और अपने पेड़ों को पत्ती विहीन होने से बचाने के लिए अधिक मात्रा में टैनिंस बनाते हैं।

कुछ अन्य कीटों ने पत्तियों में उपस्थित टैनिंस की अधिकता से निपटने का एक तरीका यह अपनाया  कि उनकी वृद्धि धीमी होती है। यह कम प्रोटीन उपलब्धता के प्रति उनका  अनुकूलन है। कुछ अन्य कीट (जैसे लीफ माइनर) पत्ती के ऐसे ऊतकों को खाते हैं जिनमें टैनिंस की मात्रा कम होती है जैसे मीज़ोफिल कोशिकाएँ। ये कीट पत्तियों के अन्दर ही रहकर ऊतकों को कुतरते हैं और उन पर साँप जैसी आकृतियाँ बना देते हैं।

इस तरह हम पाते हैं कि एक तरफ, ओक के पेड़ में टैनिंस से युक्त पत्तियाँ शिकारियों को खुद से दूर रख पाती हैं तो वहीं कालान्तर में पत्तियों के सख्त होते जाने से भी ये शिकारियों का भोजन बनने से बच जाती हैं। दूसरी तरफ, ओक की पत्तियों पर पलने वाले कीटों के लार्वा वसन्त में ही नरम पत्तियों को खाकर अपना जीवन पूरा कर लेते हैं या अपने जीवन चक्र को परिवर्तित कर गर्मी में ही इसे पूरा करते हैं।


किशोर पंवार: होल्कर साइंस कालेज, इन्दौर में वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं।
यह लेख ‘स्रोत फीचर्स’ के मई 2010 अंक से साभार।