आइए सुनिए किस्सा, एक नए ढंग की परीक्षा का चाहे अनचाहे परीक्षा शिक्षा व्यवस्था का एक आधार-स्तंभ बन ही जाती है। इस विषय पर भी शिक्षा के अन्य पहलुओं की तरह असंख्य मत हैं। हम यहां पर खुली किताब की परीक्षा के एक अनुभव का हिस्सा दे रहे हैं।
नई किताबें, नई परीक्षा
सामाजिक अध्ययन विषय कक्षा छह, सात एवं आठ में पढ़ाया जाता है। यही वह विषय है जिसके बारे में यह बात बहुत प्रचलित है -
इतिहास, भूगोल बड़े बेवफा,
रात को रटे और सुबह तक सफा।
इस बदनाम विषय को रटन्तपन की मजबूरी से छुटकारा दिलाने की कोशिश हमने की। इस प्रयास में बहुत सी बातें भी हमने बदलीं। इसके लिए सबसे पहले तो जानकारी को रटने की बजाए समझने पर ज़ोर देने वाली पाठ्यपुस्तकें नए सिरे से तैयार कीं। ये
जब यह परीक्षा पद्धति शुरू हुई तो डर था कि लोग स्वीकार करेंगे या नहीं, लेकिन फिर लगा कि विषय को रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाना है तो यह कदम भी उठाना पड़ेगा। किस्सा खुली किताब परीक्षा का।
पाठ्यपुस्तकें मध्यप्रदेश सरकार की अनुमति से आठ स्कूलों में प्रयोग के तौर पर पढ़ाई जा रही हैं।
इसके बाद बच्चों का मूल्यांकन करने की प्रणाली को बदला गया। क्योंकि किताबें बदली जाएं और परीक्षा का तरीका न बदले तो सब किए कराए पर पानी फिर जाता है। इसलिए बच्चों की सोच-समझ और अभिव्यक्ति को जांचने वाले प्रश्न बनाने की कोशिश हुई और अहम् निर्णय लिया गया कि परीक्षा में छात्र पाठ्यपुस्तक का उपयोग कर सकते हैं, यानी परीक्षा खुली किताब वाली होगी।
यह निर्णय लिया तो बड़ी उधेड़बुन के बाद गया था। माध्यमिक शाला के स्तर पर खुली किताब वाली परीक्षा और वो भी फिर सामाजिक अध्ययन में - डर लग रहा था कि पता नहीं इस परीक्षा को लोग स्वीकार करेंगे या नहीं? अलग ढंग के नए-नए प्रश्न कैसे बनाएंगे, बच्चों के उत्तरों को अंक कैसे देंगे? आदि-आदि। पर दूसरी ओर मामला बिल्कुल साफ था। रटने, रटवाने की प्रवृत्ति पर रोक लगानी है तो पुस्तक तो देनी ही पड़ेगी। इस प्रयास को पूरा करने में कई अड़चनें आई, कई बातें सीखीं, कई बातें सोचनी पड़ीं। इन, सबके बारे में कभी बाद मैं। अभी इस खुली किताब वाली परीक्षा की कुछ झलकियां।
वे पन्ने पलटते रह गए
पहले तो बच्चों को लगा कि परीक्षा में पुस्तक होगी तो घर पर कुछ तैयारी करने की ज़रूरत ही नहीं है। सो वो बगैर पढ़े ही परीक्षा देने आ गए। पर जब प्रश्न-पत्र पढ़कर पुस्तक में से उत्तर निकालने की कोशिश शुरू की तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे पन्ने पलटते रहे, पलटते रहे और उन्हें उत्तर ढूंढने में बहुत दिक्कत हुई। बहुत समय लगा। वे प्रश्न-पत्र अधूरा ही छोड़ कर उठ गए।
तब, बच्चों को समझ में आया कि पास में पुस्तक खुली होने से समस्या हल नहीं हो जाती। पाठ पढ़ना, समझना, तैयारी की मेहनत करना अब भी ज़रूरी है।
हमें भी कुछ महत्वपूर्ण बातों का अहसास हुआ। बच्चों को कई उत्तर पता थे फिर भी वे पन्ने पलट रहे थे कि किताब में देख कर ही लिखेंगे। उन्हें यह समझाने का तरीका ढूंढना ज़रूरी था कि पुस्तक का उपयोग तभी करें, जब कुछ पता न हो, या किसी चीज़ के बारे में संशय हो। पहली कोशिश अपनी समझ से, अपने शब्दों में उत्तर देने की ही होनी चाहिए। हर प्रश्न को पुस्तक में देखकर उत्तर देने से फिजूल समय ही खराब होता है। तब हमने यह नीति बनाई व बच्चों के बीच इसका प्रचार भी किया कि अपने शब्दों में लिखे उत्तरों को एक अंक ज्यादा दिया जाएगा।
उपशीर्षकों की भूमिका
दूसरी बात जिसका हमें तीव्रता से अहसास हुआ वह यह थी कि पुस्तक में जानकारी ढूंढने के तरीके बच्चों को स्पष्ट रूप से सिखाने पड़ेंगे। तब हमने कोशिश की कि हर पाठ में अधिक संख्या में सटीक उपशीर्षक डाले जाएं। साथ ही पाठ के अंत में दिए जाने वाले अभ्यास के प्रश्नों में उपशीर्षकों के उपयोग से संबंधित प्रश्न खासतौर से डाले गए। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शिक्षकों को भी उपशीर्षकों के उपयोग के प्रति सचेत किया गया।
सवाल पाठों की हैसियत का भी
इस पूरे अनुभव से सीखने का सिलसिला और बहुत आगे तक गया। जब हमने बच्चों के उत्तर जांचे और उनका विश्लेषण किया तो विभिन्न प्रश्नों का बड़ा ही अलग-अलग हश्र सामने आया। ऐसा कि जो हमारी सोच तक से बाहर था| उदाहरण के लिए यहां दो प्रश्नों के उत्तरों को देखते हैं।
एक प्रश्न था 'मुगल काल के गांव नामक पाठ से कि 'गांवों के ज़मींदार मुगल अमीरों की क्या मदद करते थे?” इस प्रश्न का सीधा उत्तर पाठ में कहीं एक जगह लिखा हुआ नहीं है। पाठ में एक मुगल गांव की कहानी है। जिसकी घटनाओं और पात्रों के द्वारा मुगलकालीन व्यवस्था का चित्रण किया गया है।
इसका मतलब यह था कि छात्र पाठ के किसी एक अंश की नकल उतार कर नहीं लिख सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी नहीं। फिर भी यह प्रश्न बच्चों के लिए मुश्किल साबित नहीं हुआ। 50 में से 35 बच्चों ने संतोषजनक जवाब लिखे। उत्तर बिल्कुल न लिखने वाले सिर्फ सात बच्चे थे।
जब हमने मिलकर इन बातों का विश्लेषण किया तो यह बात समझ में आई कि ज़मींदार की गांव में जो भूमिका थी वह पाठ में कई घटनाओं के द्वारा बार-बार सजीव, रोचक व ठोस रूप से उभर कर आई थी। अतः बच्चों के मन में ज़मींदार की भूमिका की एक स्पष्ट व ठोस छवि बन गई थी और वे अपने मन में उतरी छवि और समझ के आधार पर प्रश्न का उत्तर दे पाए। इस प्रश्न के माध्यम से हम यह मूल्यांकन कर पाए कि बच्चों ने पाठ में बिखरी हुई जानकारी कैसे अपनी समझ के सहारे निकाली और अपने शब्दों में लिखी।
प्रश्नः गांव का ज़मींदार मुगल अमीरों की क्या मदद करता था?
विद्यार्थियों के उत्तरों के कुछ उदाहरण....
- गांव के ज़मींदार मुगल अमीरों की लगान वसूल करने में मदद करते थे। और किसी किसान को गांव से भागने नहीं देते थे। उन्हें रोका जाता था। गांव में नए किसानों को बसाने के लिए पूरी छूट देते थे। ताकि वह ज़मीन जोतें। और लगान पूरा भरा जा सके।
- गांव के ज़मींदार मुगल अमीरों की लगान वसूल करने में मदद करते थे। तथा किसानों को दबा धमका कर लगान इकट्ठा करते थे।
- गांव के ज़मींदार मुगल अमीरों की मदद कर में करते थे। गांव गांव से कर इकट्ठा करते थे और सब हिसाब अपने पास रखते थे और बाद में कर का पूरा पैसा मुगल अमीरों को दे देते थे।
- गांव के ज़मींदार मुगल अमीलों को किसानों से लगान इकट्ठी कर के देते थे। और आमिल वह लगान मुगल अमीरों को देता था। इस प्रकार गांव के ज़मींदार मुगल अमीरों की मदद करते थे।
यह पाठ छोटा-सा
अब आइए एक दूसरे प्रश्न के उदाहरण पर यह ज़मींदार वाले प्रश्न से एक बिल्कुल अलग स्थिति प्रस्तुत करता है। प्रश्न था इतिहास के ही एक-दूसरे पाठ 'अंग्रजों के शासन में जंगल और आदिवासी' से।
प्रश्नः बाहर के लोग वन की ज़मीन पर लगान आसानी से क्यों चुका पाते थे?
पाठ के एक अंश में यह बताया गया है कि आदिवासी लोग अपनी ज़मीनों पर अंग्रेजों द्वारा मांगा लगान कई बार नहीं चुका पाते थे, जबकि बाहर के लोग(सेठ, साहूकार, ज़मींदार) वन की ज़मीन पर अधिकार करके लगान चुका पाते थे क्योंकि वे लकड़ी काट कर उसका व्यापार करते थे। उन दिनों लकड़ी की मांग बहुत बढ़ गई थी।
अचरज की बात यह है कि इस प्रश्न का उत्तर एक सटीक पैराग्राफ में इस छोटे से पाठ में लगभग शुरू में ही लिखा हुआ है। उम्मीद तो यह की जानी चाहिए थी कि अधिकांश बच्चे इस पैराग्राफ की नकल उतार कर लिख देंगे और प्रश्न को सही-सही हल कर देंगे। पर 50 में से 32 बच्चे इस सटीक पैराग्राफ को नहीं ढूंढ पाए। पैराग्राफ की नकल उतारी 11 बच्चों ने, 7 बच्चों ने इस अंश की बातें अपने शब्दों में लिखीं। यानी कुल 18 उत्तर ठीक थे। अब बताइए हम क्या सोचें?
प्रश्नः बाहर के लोग बन की ज़मीन पर लगान, आसानी से क्यों चुका पाते थे? विद्यार्थियों के उत्तरों के कुछ उदाहरण...
(यह अंश पाठ में सही अंश के ठीक बाद आता है)।
(पहली सात पंक्तियां पाठ के अंत से ली गई हैं। फिर कुछ अपने आप जोड़ा गया है।)
(अपना अनुमान लगाते हुए लिखा गया है) |
पाठों की तुलना
50 में से 32 छात्र क्यों नहीं ढूंढ पाए इस प्रश्न का उत्तर? पुस्तक सामने होते हुए भी।
चलिए ज़रा पाठ के स्वरूप को जानें। यह पाठ 'मुगल काल के गांव' से बिल्कुल अलग था। इसमें न कहानी थी, न किस्से, न पात्र, न घटनाएं। पाठ में कई जटिल प्रक्रियाएं संक्षेप में, तेजी से व एक बार में ही बताई गई थीं।
ठोस, सजीव कहानीनुमा वर्णन जिसमें मुख्य बातों की कई बार पुनरावृत्ति हो जाती है- यह तकनीक इस पाठ के लिखने में नहीं अज़माई गई थी।
इसीलिए शायद बाहर के लोगों की गतिविधियों की छवि बच्चों के मन में नहीं बन पाई थी और वे इस प्रश्न का उत्तर ठीक से नहीं दे पाए। इस तरह मजेदार बात यह रही कि बच्चों की
मुगल काल के गांव...एक अंश
ज़मींदार सूरजदेव जाट ने पटवारी और पटेल को बुलाया और उनसे लगान इकट्वा करने को कहा।
पटवारी बोला, “अगर कोई देने से इंकार कर दे तो?"
ज़मींदार बोला, "मेरे दो घुड़सवार और चार सिपाही आपके साथ चलेंगे - देखते हैं किस की हिम्मत है मना करने की।”
लगान इकट्ठा करने में तीन-चार दिन लग गए। कुछ किसानों के खेत में ओले पड़े थे तो उनसे लगान नहीं मिल सका।
जब जागीरदार का आमिल लौट कर आया तो जमींदार सूरजदेव ने उसे हिसाब समेत इकट्ठी लगान की रकम थमा दी। आमिल ने पूछा कि पैसे पूरे क्यों नहीं हैं।...
अंग्रेजी शासन में वनों का उपयोग...एक अंश
...अब बाहर के सेठ, साहूकार व जमींदार आकर जंगल की ज़मीन अपने नाम से दर्ज कराने लगे। जंगल पर उनका हक होने लगा। मगर उन्हें जंगल से क्या लाभ मिला?
उन दिनों लकड़ी की खूब मांग बढ़ रही थी। रेल के स्लीपरों के लिए, जहाज़ों के लिए, शहर में बन रही कोठियों, दफ्तरों, घरों के लिए। सेठ, साहूकारों ने जंगल की ज़मीन लेकर लकड़ी दनादन काटी व बेच कर मालामाल हो गए। इस धन से वे सरकार का लगान आसानी से चुका पाए।
मगर खेती करने वाले आदिवासी, किसान इस तरह लकड़ी नहीं बेचते थे। वे सरकार का लगान समय पर नहीं चुका पाते थे। लगान नहीं चुकाई तो ज़मीन नीलाम हो जाती। नीलामी से बचने के लिए आदिवासी सेठ, साहूकारों से कर्ज़ा लेने लगे।....
(यह पाठ नए संस्करण में बदला जा चुका है)
क्षमता के साथ-साथ हम पाठों की क्षमता का मूल्यांकन भी करने लगे।
नकल और अम्ल
दूसरी बात जो स्पष्टतः कही जा सकती है वह यह कि किताब से उत्तर निकाल पाना (वो भी परीक्षा के एक निश्चित समय के अंदर एक अच्छी खासी कुशलता जान पड़ती है। इसमें कई छोटी-छोटी कुशलताएं शामिल हैं। - जैसे ध्यान से पढ़ना, विषय व प्रश्न के संदर्भ को समझना, पाठ के शीर्षक व उपशीर्षकों को उपयोग में लाना और सबसे बढ़कर तो धीरज रखना। पुस्तक हाथ में होने से परीक्षा में बच्चों के लिए करने को कुछ नहीं रहता - यह कहने से पहले लोगों को दुबारा सोच लेना चाहिए।
उपरोक्त दोनो प्रश्नों में ही देखें तो कई बच्चों ने पुस्तक के अंश को नकल करके लिखा था। इससे सहज ही हमारे मन में बड़ी दुविधा पैदा होती है। नकल को क्यों अच्छे नंबर दिए जाएं? हम सोचने लगते हैं उसने कुछ भी तो नहीं किया। सिर्फ नकल करके लिखा है - फिर अंक क्यों?
हमने इस मुद्दे पर बहुत मन टटोला। सोचा कि जब हम पुस्तक उपलब्ध करवा रहे हैं तो बच्चों द्वारा पुस्तक के अंश उतारकर लिखने की कोशिश स्वाभाविक है। इसे गौण क्यों मानें? अगर यह क्षमता इतनी सरल
है तो सारे विद्यार्थी नकल क्यों नहीं कर पाए? फिर नकल' में भी बच्चों की क्षमता के विभिन्न स्तर दिखाई पड़ते हैं। कुछ बच्चों ने सटीक, स्पष्ट अंश पाठ में से उतारे हैं। कुछ ने उचित पाठ्यांश में से अधूरी व अस्पष्ट बात ही उतारी है। कुछ ने उचित अंश उतारने के साथ-साथ आगे या पीछे के असंगत वाक्य भी उतार डाले हैं।
हम तो यही निष्कर्ष पर पहुंचे कि नकल वाले उत्तरों में भी बच्चों की क्षमता का मूल्यांकन करने की बहुत गुंजाइश है। समझदारी के साथ पढ़ने व लिखने की क्षमता एकदम आधारभूत क्षमता है। अगर हमने अपने विद्यार्थियों को इसमें दक्ष नहीं किया और मूल्यांकन करके यह सुनिश्चित नहीं किया कि हमारे माध्यमिक शाला से उत्तीर्ण छात्र समझदारी के साथ पढ़ व लिख पाते हैं तो फिर हमने स्कूल लगाकर आखिर क्या किया?
आपको सामाजिक अध्ययन शिक्षा में खुली किताब परीक्षा के बारे में क्या लगता है? अपने विचार हमें लिखें। वैसे सामान्य सामाजिक अध्ययन की परीक्षा के बारे में आपका क्या कहना है? हम चाहेंगे कि परीक्षा पर इस बातचीत को जारी रखें ताकि मूल्यांकन के शैक्षिक उद्देश्यों को उभारा जा सके।
सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम, एकलव्य
'ह' में 'आ' की मात्रा 'हा'
शिक्षक ने कहा दहाई का 1, इसके पीछे लिखा 5 - क्या बना? बच्चों ने कहा '15', ऐसे ही बात आगे बढ़ी... लेकिन नहीं, शिक्षक को लगा उसके प्रयास में कुछ गड़बड़ है - बच्चे ऊब रहे हैं, उसने यह बात अपनी डायरी में दर्ज की।
एक शिक्षक की डायरी यानी एक ऐसा रोज़नामचा जिसमें हर उस प्रयास का अवलोकन दर्ज है जो उसने बच्चों को कुछ सिखाने के लिए किया है - ताकि वह कक्षा में उठाए गए अपने हर कदम पर बारीकी से टीका-टिप्पणी कर सके और उसके आधार पर फिर कुछ नया प्रयास कर सके - इसलिए कि बच्चे कुछ सीख सके।
ऐसी ही एक डायरी के चंद पन्ने जो गंगा गुप्ता ने पाठई, ज़िला बैतूल की प्राथमिक शाला में बच्चों को पढ़ाने के दौरान हुए रोज़मर्रा के अनुभवों को लेकर लिखी थी।
28 जनवरी 1988
बोर्ड पर अक्षर लिखती गई और बच्चों से पूछती भी गई- “अब ये 'आ' की मात्रा 'हा' और ये 'र' - अब पढ़ो क्या लिखा है?”
"हार” मंगलेश ने झट से जोड़कर पढ़ा। मैंने कहा, "अच्छा अब तुम नहीं बता सकते।” मैंने लिखा 'हाथ' मुकेश ने पढ़ा “हाथी”- ललिता बोली, "नई 'हाथ' बहनजी हाथ!”
“अच्छा अब बताओ” मैंने लिखा ‘काना' - मंगलेश बोला, “बहनजी आप तो 'आ' की मात्रा खूब लगा देती हैं” मैने कहा, "तो क्या हुआ - पढ़ो.'क' में 'आ' की मात्रा 'का', 'न' में 'आ' की मात्रा ना” ललिता बोली, “बहनजी - काना” ममता एक हाथ से आंख दबाकर, "ऐसा होता है काना!”
फिर मैंने 'तल' लिखा, मुकेश बोला “त’ ‘ल' 'तल’ बहनजी 'तल।” मैंने कहा, "हां भइया जे तो पूड़ी तल, भजिया तल वाला तल लिखा है।” सभी बच्चे खूब हंसे।
इस गतिविधि में काफी मज़ा आ रहा था। पहले मैंने जोड़कर ही पढ़ाया परन्तु अब अक्षर तोड़कर नहीं लिख रही थी - अक्षर शब्द से ही जुड़े थे।
नोट: कुछ शब्द जानबूझकर चित्र-कार्ड* वाले लिखे थे। यह जानने के लिए कि पहले जो अभ्यास कराया था वो इन्हें याद है या नहीं, परन्तु उन शब्दों को लगभग सभी ने पहचान लिया। उनमें अधिक उत्साह लाने के लिए ही मैं उनसे कहती ‘अब तो तुम बता ही नहीं सकते तो बच्चे जल्दी बताने की कोशिश करते। इस गतिविधि में मुझे और बच्चों को काफी मज़ा आया। मुझे कुछ आशा बंधी कि शायद ऐसे ही बच्चे पढ़ना सीख जाएं।
*बच्चों को भाषा सिखाने की एक महत्वपूर्ण सामग्री - कार्ड के एक तरफ किसी चीज़ का चित्र बना देता है और दूसरी तरफ अक्षरों में उस वस्तु का नाम, इनसे बच्चों के साथ सामूहिक तौर पर या टोलियों में भाषा की तरह की गतिविधियां की जा सकती है। इसके अलावा और भी को तरह के चित्र-कार्ड बनाए जा सकते हैं।
20 सितम्बर 1988
आज स्कूल में उपस्थिति बहुत कम थी। अतः सोचा घर-घर जाकर बच्चों के पालकों से संपर्क कर उन्हें अपने बच्चे स्कूल में
भेजने के लिए प्रेरित किया जाए। प्रत्येक घर जाकर पालकों से संपर्क किया। पालकों ने जो जवाब दिए वो इस प्रकार हैं
पुनिया : “बहनजी लड़की 10 साल की हो गई है। अब तो लड़की कूं जाए है, पहली पढ़ा के का आ जाएगो”
इमला : “हम तो भेजने कूं तैयार हैं पर स्कूल बड़ी दूर है, तुम जेई ढाना में पढ़ाओ तो भेजेंगे।”
छोटीबाई : “नई भेजें। बड़ी दूर है, तुम घेर के रोज़ लिजाओ, उते के ढाने के मोड़ा-मोड़ी मारे हैं।”
राजेश : "कल से भेजेंगे, अबे बुखार से उठो है।”
महेश : “बकरी कौन चराएगा बहनजी ......... पूछ भई ओसे जाएगो तो”
चिरोंजी : “बेहनजी, स्कूल दूर है।”
अशोक : “हम तो कहे हैं, वो जात नई है, तो हम बकरी चराए कें भेज दे हैं।”
कैलाश: “आऊंगा बहनजी कल से।” (कैलाश के पालक घर पर नहीं थे)।
मनोरी: “बहनजी, बकरी चराता है..... बहनजी का पढ़ाएगी ..... गुरुजी होता तो पढ़ाता।”
किसन : "ले जाना बहनजी, वो नई जाता तो का करें।
पप्पू: "बकरी कौन चराएगा बहनजी”
अशोक बिरजू : "बैल चराता है, बड़ा भाई पढ़ने जाता है।
सुवा : “का बहनजी, हम सब देखा है, तुम का पढ़ाते हो - घड़ी भर आए ... और चले का करें। मोड़ा-मड़ी घर के काम करेगो। वहां तो 100 तक गिनती भी नहीं आए है ..... खेल खेलवे नई भेजें हमा”
विस्सू : "कुछ नहीं पढ़ाती हो तुम। मास्साब रहे तो पढ़ाए। दो साल से फेल हो रहा है। नाम लिखना नहीं आता - का करेंगे भेजके। कम-से-कम कृषानी सीखेगा, नई तो स्कूल से भी जाएगा और कृषानी भी नहीं आएगी।”
जहां तक मुझसे बना उन्हें समझाकर संतुष्ट किया। और शिक्षा का महत्व बताते हुए बच्चों को स्कूल भेजने को कहा। कुछ ने कहा कि भेजेंगे। इस प्रकार चार बज गए। और मैं वापस शाला आ गई। बच्चों से कुछ नहीं करा पाई। उन्हीं ने बैठके चित्र बनाए। किसी ने गिनती लिखी। छुट्टी हो गई।
21 सितम्बर 1988
सभी बच्चों को भाई बहनों के नाम लिखना सिखाया। बहुत उत्साह से बच्चे अपने भाई बहनों के नाम बताकर लिखने की कोशिश कर रहे थे। नाम लिख लेते तो बहुत खुश होते। बड़े मनोयोग से वे इस गतिविधि में जुटे थे। सबने पहले नकल की। तीन चार बार नकल करने के बाद बिना देखे नाम लिखकर बताया। मैं कहती लिखो ‘स’ में छोटे ‘उ’ की मात्रा 'सु','न' में छोटी 'इ' की मात्रा 'नि' ,'त' में बड़े 'आ' की मात्रा 'ता', तो मंगलेश ने “सुनिता” लिखा। इसी प्रकार सभी बच्चों को अक्षर और मात्रा शायद समझ में आ रही थी।
एक कहानी पढ़कर सुनाई, ‘शोर मचा जंगल में। प्रत्येक पन्ने पर जानवरों के जो नाम आते गए मैं उन्हें बोर्ड पर लिखती जाती। दूसरा पन्ना पढ़ने से पहले बच्चों से बोर्ड पर लिखे नाम दोहराने को कहती कि ...... किसने जंगल में खेलकूद कर शोर मचाया? मैंने बोर्ड पर
लिखे हाथी पर उंगली रखी तो बच्चों ने पहचान कर पढ़ा - हाथी ने।
अब बहनजी हिरण....
इसी प्रकार बार-बार दोहराने से बच्चे पहचान गए कि हाथी कहां लिखा है तो हिरण, बंदर आदि कहां।
बच्चों को बार-बार बोर्ड पर लिखे शब्दों की ओर देखने के लिए कहा, "भैया देखते जाओ, अपन नाम लिखते जा रहे हैं कि कौन शोर मचा रहा है। बाद में इनको पकड़ कर पिटाई करेंगे।”
"बहनजी खरगोश लिखो" - बच्चे मुझे बताते भी जाते - वो हल्ला मचा रहा था। ..... कहानी समाप्त हुई।
बच्चे बोले, “बहनजी अब इनको पीटो।” मैंने कहा अच्छा चलो .... बच्चों की दो-दो की टोली बनाकर हाथी, हिरण, खरगोश और बंदर बनाए। एक बच्चा बना शेर। शेर ज़ोर से दहाड़ा --- सभी हाथी, हिरण, खरगोश भागे। खूब भगदड़ मची कमरे में। बच्चों को काफी मज़ा आया। फिर सबसे पूछा, “तुम क्या बने थे तख्ता पर लिखा है, उंगली रखकर बताओ” जिस-जिस ने बता दिया वे छूट गए और जो नहीं बता पाए वे अलग हो गए। मैंने कहा “अब इनकी पिटाई होगी, यही शोर मचा रहे थे जंगल में उन्हें गोल-गोल घुमाया। सभी बहुत खुश हुए। खूब मज़ा आया। बच्चों ने तख्ते पर लिखे शब्द काफी हद तक ध्यान में रखे।
नोट : मैंने अनुभव किया कि दो दिन पहले जो शब्द कार्ड से दस बार लिखवाने के बाद भी बच्चे नहीं पहचान पाए थे, वे सब कहानी में शब्दों को बोर्ड पर लिखकर दोहराते जाने से आसानी से बताने लगे। बहुत देर बाद भी बीच में से पूछने पर कि बंदर कहां लिखा है ममता ने झट से बता दिया।
27 सितम्बर 1991
आज सभी के लिए पोस्टकार्ड ले गई थी। ये पोस्टकार्ड फाइन के पैसों से खरीदे थे। मैंने स्कूल में यह नियम बना दिया है कि यदि स्कूल नहीं आते हो तो आवेदन पत्र भेजो अन्यथा 50 पैसे फाइन दो या फिर कक्षा के आसपास की सफाई करो। इसी फाइन का एक रुपया जमा हुआ था। आठ पोस्टकार्ड एक रुपए बीस पैसे के आए। उन पर बच्चों ने मास्साब को चिट्ठी लिखी। उनसे कहा, "तुम्हें जैसा लगे लिखो।” बच्चों ने चिट्ठी, वो भी पोस्टकार्ड पर, पहली बार लिखी। बहुत खुश हैं, सभी ने अच्छी चिट्ठी लिखी।
एक अक्टूबर 1991
दीर्घ अवकाश के बाद मोतियों से बच्चों को इकाई-दहाई सिखाने की गतिविधि कराई - दस मोती की कितनी माला है? ...बहनजी एक ...अच्छा अब पट्टी पर एक लिख लो। अब देखो खुले मोती कितने हैं ....बहनजी पांच। अब एक दहाई के पीछे पांच लिख लो। ये हो गए 15 - दस और पांच ...पंद्रह। अब दो माला यानी कितने मोती हो गए ....बहनजी 20 .... अब कितनी माला है....बहनजी दो - हां ये हो गए 20 - अब दो माला और दो मोती को लिखेंगे 22 यानी दो दहाई और दो इकाई।
नोट : पता नहीं गलती कहां हुई बताने में मेरा उद्देश्य था कि उन्हें 15, 22, 32 या इसी प्रकार के 10 से 30 तक के बीच के अंक लिखना आ जाएं। कुछ खास जमा नहीं, बच्चे शीघ्र ही ऊब गए थे। मुझे भी लगा कि इस प्रकार बताने में कहीं गड़बड़ है।
कक्षा दो में बच्चों को इकाई और दहाई समझाने के लिए किताब में एक गतिविधि इस प्रकार की है जिसमें वे अपने आप मिट्टी के मोती बनाते है और फिर एक-एक गिनकर दस-दस मौतियों को धागे में पिरोकर माला बनाते हैं। दस मोतियों की एक माला को एक दहाई और बचे हुए खुले मोतियों को इकाई मानते हैं- इस तरह इकाई-दहाई की समझ को वनों में उभारने का प्रयास इस प्रकार की गतिविधि में किया जाता है।
शनिवार को मैंने कहानी सुनाई थी। जिन बच्चों से पूछा उन्होंने पूरी कहानी बताई। बीच-बीच में यदि वे भूलते तो अन्य बच्चे बताने लगते कि पहले "ये और हे बे”
मोहन ने कहा, "बहनजी मैं चुनमुन चूहा की कहानी गोंडी में बताऊंगा” उसने गोंडी में कहानी शुरू की। सभी बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था। सब खूब हंस रहे थे। जब मोहन बीच में कुछ भूल जाता तो कक्षा दो की ममता उसे गोंडी में ही आगे की कहानी बताती। मुझे भी बहुत अच्छा लगा - जैसे "चल मेरी ढोलक ढम्मक ढुम, नानी के घर चलें हम और तुम" - इसका गोंडी में अनुवाद है “दा नवा डोलक उम्मक डुम, नानी ना रोन चले इम्मा न नीवा”
नोट : इस प्रकार ये पुरानी कहानी आज बिल्कुल नई ही बन गई। मुझे नहीं पता था कि प्रत्येक बच्चा पूरी कहानी हिंदी से गोंडी में परिवर्तित करके क्रम से लगातार बता सकता था। यह मेरा पहला नया अनुभव था, पर काफी बढ़िया रहा।
* गंगा गुप्ता वर्तमान में सिवनी ज़िले की घंसौर तहसील की प्राथमिक शाला में कार्यरत हैं।