सुशील जोशी [Hindi PDF, 309 kB]
भाग: 1
ऑक्सीजन को समग्रता से समझने की यह एक कोशिश है। आगामी कुछ अंकों में ऑक्सीजन के विविध पहलुओं को समेटते हुए और लेख भी होंगे।
ऑक्सीजन एक जाना-माना तत्व है। यह हवा में मुक्त रूप में पाया जाता है। हवा में आयतन की दृष्टि से देखेंगे तो 20 प्रतिशत के आसपास ऑक्सीजन निकलेगी। वज़न के हिसाब से देखेंगे तो थोड़ी ज़्यादा आएगी। वैसे पृथ्वी पर ऑक्सीजन सिर्फ मुक्त रूप में नहीं पाई जाती। ऑक्सीजन बहुत क्रियाशील तत्व है और इसलिए विभिन्न तत्वों के साथ यौगिक बना लेती है। जैसे ऑक्सीजन का सबसे आम यौगिक पानी है। अब दुनिया में जितना पानी है उसका विश्लेषण करें तो जो हाइड्रोजन और ऑक्सीजन बनेगी उनमें आयतन के हिसाब से 2:1 का अनुपात होगा। वज़न का अनुपात लगभग 1:8 होगा। यानी 1 लीटर (1 कि.ग्रा.) पानी लिया जाए और उसे तोड़कर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन बनाई जाए तो करीब 1200 लीटर (करीब 110 ग्राम) हाइड्रोजन और 600 लीटर (करीब 890 ग्राम) ऑक्सीजन बनेगी। अब सोच लीजिए पानी के रूप में कितनी ऑक्सीजन धरती पर है। इसी प्रकार से लौहे, तांबे वगैरह के यौगिकों के रूप में भी ऑक्सीजन उपस्थित है। यदि कुल मात्रा (यानी मुक्त रूप में और यौगिकों के रूप में) देखें तो धरती की पर्पटी में सबसे ज़्यादा पाया जाने वाला तत्व ऑक्सीजन ही है।
ये ऐसे तथ्य हैं जो हमें पता नहीं किस कक्षा की पाठ्य पुस्तकों से मिलना शुरू हो गए थे। पर सवाल तो यह है कि हमें ये सब बातें पता कैसे चलती हैं। ‘संदर्भ’ के अगले कुछ अंकों में मेरा विचार ऑक्सीजन से जुड़े कुछ रोचक व बुनियादी पहलुओं पर बातचीत करने का है। ऑक्सीजन जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण पदार्थ होने के साथ-साथ आधुनिक रसायन शास्त्र की नींव भी है।
हमें यह भी तो पढ़ाया गया था कि ऑक्सीजन की खोज 1773-74 के आसपास जोसेफ प्रिस्टले ने की थी (या पता नहीं शायद कार्ल शीले ने की हो)। कई लोग तो ऑक्सीजन की खोज को ‘खोज’ नहीं बल्कि ‘आविष्कार’ मानते हैं। यह ‘आविष्कार’ शायद एन्तोन लेवॉज़िए ने 1775 में किया था। अब खोज और आविष्कार का अन्तर तो हम सब जानते हैं। फिर यह विवाद कैसा? लेखों की इस ाृंखला में विचार का यह एक प्रमुख विषय रहेगा।
इस सन्दर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि ऑक्सीजन एकमात्र ऐसा तत्व है जिसे लेकर आजकल के कुछ मशहूर वैज्ञानिकों ने एक नाटक लिखा है। इस नाटक की पृष्ठभूमि में यही सवाल है कि ऑक्सीजन का खोजकर्ता (या आविष्कारक) किसे माना जाए। दरअसल, नाटक इस बात पर केन्द्रित है कि यदि आज हमें अतीत (जब नोबेल पुरस्कार शुरू नहीं हुए थे) के लिए नोबेल पुरस्कार का फैसला करना हो, तो इसका सबसे प्रबल हकदार कौन होगा। इस निष्कर्ष से तो सब सहमत हो जाते हैं कि ऑक्सीजन की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए मगर मतभेद इस बात पर है कि यह पुरस्कार किसे दिया जाए। ऑक्सीजन और आधुनिक रसायन शास्त्र का यह अध्याय हमारी खोजबीन का विषय रहेगा।
ऑक्सीजन वह तत्व है जो जीवन के लिए ज़रूरी है। साँस लेने को ऑक्सीजन तो चाहिए। मगर इसके साथ ही यह तथ्य भी है कि कई सारे जीव ऑक्सीजन के बगैर भी जी लेते हैं, बल्कि कई जीव तो ऐसे भी हैं जो ऑक्सीजन मिलने पर मारे जाते हैं। तो ये जीव कैसे जी पाते हैं और क्यों ऑक्सीजन को झेल नहीं सकते? और इतनी भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन क्या हमेशा उपलब्ध थी? पुरा-मौसम वैज्ञानिक लोगों ने इस सवाल का खूब अध्ययन किया है और रोचक निष्कर्ष निकाले हैं।
सामान्य तापमान और वायुमण्डल के दाब पर ऑक्सीजन एक गैस है जो रंगहीन व गन्धहीन होती है। शून्य से 182.95 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर ऑक्सीजन द्रव बन जाती है और यदि तापमान को शून्य से 218.79 डिग्री तक कम करें तो ठोस बन जाती है। ठोस व द्रव ऑक्सीजन का रंग हल्का नीला होता है।
ऑक्सीजन पानी में बहुत कम घुलनशील है। साधारण तापमान (25 डिग्री सेल्सियस) पर 1 लीटर पानी में करीब 6 मि.ग्रा. ऑक्सीजन घुल जाती है। तापमान बढ़ने पर घुलनशीलता कम होती है। जैसे शून्य डिग्री सेल्सियस पर पानी में करीब 14 मि.ग्रा. ऑक्सीजन घुली होती है मगर 20 डिग्री पर मात्र 7 मि.ग्रा.। खारे पानी में घुलनशीलता और कम होती है। इसकी तुलना हवा में मौजूद ऑक्सीजन से कर सकते हैं - हवा में 1 लीटर में करीब 280 मि.ग्रा. ऑक्सीजन होती है। यानी हवा के मुकाबले सामान्यत: नदियों-तालाबों में ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य ही रहती है। यही ऑक्सीजन अधिकांश जलचर जीवों का सहारा है।
एन्तोन लेवॉज़िए अपनी पत्नी मैरी एनी के साथ प्रयोगशाला में। मैरी एनी प्रयोगशाला में अवलोकन लिखने, अनुवाद करने जैसे अनेक कार्यों में मदद करती थीं।
आम तौर पर प्रकृति में मुक्त ऑक्सीजन यानी तात्विक ऑक्सीजन ग्र्2 के रूप में पाई जाती है। यानी इसके अणु में दो परमाणु जुड़े रहते हैं। ऑक्सीजन का यही रूप जलने में और श्वसन वगैरह में उपयोगी है।
वैसे तात्विक ऑक्सीजन एक और रूप में भी पाई जाती है, जिसका पिछले 20 वर्षों में काफी हल्ला रहा है। वह रूप है ओज़ोन। ओज़ोन में ऑक्सीजन के तीन परमाणु जुड़े होते हैं - ग्र्3। वैसे 2001 में ऑक्सीजन का एक और रूप खोजा गया है। पहले माना गया था कि यह टेट्राऑक्सीजन ग्र्4 है मगर आगे चलकर पता चला कि यह तो ग्र्8 का एक पुंज है। यदि ग्र्2 को 20 गिगापास्कल के दबाव में रखा जाए, तो ग्र्8 बनता है। इसके अलावा 1990 में ऑक्सीजन का एक धात्विक रूप भी खोजा गया। जब ठोस ऑक्सीजन पर करीब 100 गिगापास्कल का दबाव आरोपित किया जाता है, तो वह धात्विक गुण दर्शाने लगती है।
किसी तत्व के ऐसे रूपों को अपररूप यानी एलोट्रॉप्स कहते हैं। जैसे कार्बन चार अपररूपों में पाया जाता है - काजल, ग्रेफाइट, हीरा और फुटबॉल कार्बन (फुलेरिन)। कई बार इन अपररूपों के भौतिक गुण बहुत अलग-अलग होते हैं। वैसे सामान्य तौर पर इनके रासायनिक गुण एक-से होते हैं।
प्राकृतिक रूप से जो ऑक्सीजन पाई जाती है उसमें तीन समस्थानिक होते हैं। समस्थानिक का मतलब है कि परमाणु संख्या के हिसाब से तो सभी ऑक्सीजन हैं मगर इनके परमाणु भार अलग-अलग होते हैं। सबसे ज़्यादा मात्रा (99.76 प्रतिशत) में पाया जाने वाला समस्थानिक 16ग्र् है यानी वह ऑक्सीजन परमाणु जिसका परमाणु भार 16 है। 17ग्र् (0.039 प्रतिशत) और 18ग्र् (0.201 प्रतिशत) बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं। इनके अलावा ऑक्सीजन के 14 अन्य समस्थानिक हैं जो अत्यन्त अस्थिर व रेडियोसक्रिय हैं। इनमें से 15ग्र् की अर्द्धायु 122 सेकण्ड और 14ग्र् की अर्द्धायु 70 सेकण्ड है। शेष सारे रेडियोसक्रिय समस्थानिकों की अर्द्धायु बहुत कम है। कहने का मतलब ये अत्यन्त अस्थिर हैं। अधिकांश की अर्द्धायु तो मिलीसेकण्ड में हैं। अर्द्धायु का मतलब है कि यदि उस समस्थानिक की एक निश्चित मात्रा को उतने समय के लिए रखा जाएगा तो उनमें से आधे परमाणुओं का विखण्डन हो जाएगा। यानी 14ग्र् के एक मोल मात्रा में से 70 सेकण्ड बाद आधा मोल का विखण्डन हो चुका होगा और विखण्डन के फलस्वरूप अन्य परमाणु बन जाएँगे।
गौरतलब है कि ऑक्सीजन के सारे समस्थानिकों की परमाणु संख्या अर्थात् उनके परमाणुओं में प्रोटॉन की संख्या 8 होती है। इनके परमाणु भार में अन्तर पैदा होता है न्यूट्रॉन की अलग-अलग संख्या के कारण।
खोज की लम्बी कहानी
ऑक्सीजन की खोज की कहानी का प्रमुख पात्र आग है। आग क्यों लगती है, आग के साथ गर्मी और प्रकाश क्यों उत्पन्न होते हैं, गर्मी और प्रकाश के अलावा और क्या उत्पन्न होता है, वस्तु के जल जाने के बाद क्या बचा रहता है जैसे सवालों ने प्राचीन काल से ही मनुष्यों का ध्यान आकर्षित किया था और लगभग 2000 सालों तक करती रही थी। इस खोजबीन के पड़ावों को समझने की शुरुआत भारत के साथ-साथ यूनान में भी हुई थी। यहाँ ज़्यादातर प्राचीन विचारों की चर्चा यूनान के सन्दर्भ में की गई है। मैं नहीं समझता कि भारत में इससे बहुत अलग विचार रहे होंगे। सम्भव हुआ तो समय निकालकर उन पर अलग से बात कर सकते हैं।
प्राचीन विचार: अग्नि एक तत्व
जलना यानी दहन से तो सब परिचित हैं। मनुष्य ने आग पर काबू जब भी किया होगा मगर प्रकृति में आग से सामना तो उसका शुरू से ही होता रहा है। प्रकृति में होने वाली सम्भवत: सबसे उग्र क्रिया दहन की ही है। कोई चीज़ जले तो खूब गर्मी निकलती है, रोशनी पैदा होती है और आम तौर पर चीज़ ‘नष्ट’ हो जाती है। लिहाज़ा, काफी प्राचीन समय से ही लोग सोचने लगे थे कि चीज़ें जलती क्यों हैं।
भारतीय पंचतत्व में एक तत्व अग्नि भी है। यूनान के चार तत्वों में भी फायर एक तत्व है। ऐसा माना जाता था कि कुछ चीज़ों में यह तत्व बहुत अधिक मात्रा में होता है और थोड़ा-सा उकसाने पर ही निकलने लगता है। अग्नि तत्व के गुणों में ऊष्मा और प्रकाश शामिल थे। इस सिद्धान्त में स्पष्ट है कि किसी चीज़ के जलने में अन्य किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। बस, किसी वस्तु में से अग्नि तत्व निकलने लगा और आग लगी।
यह विचार करीब 2000 सालों तक चलता रहा।
लकड़ी जलती है तो गर्मी, रोशनी और धुआँ पैदा होता है। यानी लकड़ी में अग्नि तत्व काफी मात्रा में होता है। फिर भी कई बार चूल्हा ठीक से जलते रहने के लिए ज़रूरी होता है कि उसे फूँका जाए। क्या आप सोच सकते हैं कि अग्नि तत्व के विचार के मुताबिक चूल्हा फूँकना क्यों ज़रूरी है?
आग और हवा
दहन एक महत्वपूर्ण क्रिया है। भोजन पकाना, आग तापना, रातों को रोशन करना जैसे उपयोगों के अलावा कई पदार्थों के निर्माण में भी आग का उपयोग होता है। इसके अलावा यह भी माना जाता था कि अग्नि पदार्थों को शुद्ध कर देती है। तो इसे समझने के प्रयास जारी रहे। मगर लोग अग्नि तत्व पर रुके नहीं। न रुकने का एक कारण था कुछ प्रयोग।
शायद आग लगने में हवा की भूमिका पर पहला प्रयोग बायजेंटियम के फाइलो (दूसरी सदी ईसा पूर्व) ने किया था। अपने ग्रन्थ न्यूमेटिका में उन्होंने बताया है कि यदि एक जलती मोमबत्ती के ऊपर एक बर्तन ढक दिया जाए और बर्तन की गर्दन के आसपास पानी भर दिया जाए, तो थोड़ी देर में मोमबत्ती बुझ जाती है और कुछ पानी बर्तन में चढ़ जाता है। फाइलो का निष्कर्ष था कि, हो न हो, बर्तन का कुछ वायु तत्व अग्नि तत्व में तबदील हो जाता है और काँच के रन्ध्रों में से निकल भागता है। इसके फलस्वरूप बर्तन में जो जगह खाली होती है, उसे भरने के लिए पानी चढ़ जाता है।
पंचतत्व: उनका परस्पर परिवर्तन
1746 में जर्मन रसायनज्ञ जोहान एलर ने भी तर्क दिया था कि अग्नि के प्रभाव से जल तत्व को पृथ्वी या वायु तत्व में बदला जा सकता है। जब पानी को अग्नि तत्व मिलता है तो वह वाष्प (यानी वायु) में बदल जाता है और ठण्डा करने (यानी अग्नि तत्व निकल जाने पर) पर वह बर्फ (यानी पृथ्वी) में बदल जाता है। एलर के मुताबिक यह इस बात का प्रमाण था कि वास्तव में तत्व दो ही हैं - जल और अग्नि। इस तरह से देखें तो साधारण पानी अग्नि और वायु तत्वों का मिश्रण होना चाहिए। अग्नि तत्व और वायु तत्व की तुलनात्मक मात्राओं से निर्धारित होगा कि वह पानी भाप बनेगा या उसकी कुल्फी जम जाएगी।
एन्तोन लेवॉज़िए ने एक प्रयोग के दौरान पानी को एक बन्द बर्तन में पूरे तीन महीने उबालकर कुछ निष्कर्ष निकाले थे। उस प्रयोग की जमावट का एक रेखाचित्र।
इन मान्यताओं के मूल में मान्यता यह है कि सारे पदार्थ पाँच तत्वों से मिलकर बने हैं और इन्हें (पदार्थों को) एक-दूसरे में बदला जा सकता है; करना बस इतना होगा कि विभिन्न तत्वों के अनुपात को बदल दिया जाए। अन्य पदार्थों को स्वर्ण में बदलने की कोशिशों के सफल होने की उम्मीदें इसी मान्यता पर टिकी थीं। और प्राचीन काल के रसायनकर्मियों (जिन्हें किमियागर या अल्केमिस्ट कहते हैं) का मूल मकसद यही था - सामान्य धातुओं को स्वर्ण में बदलना। उनका दूसरा मकसद अमृत की प्राप्ति भी था।
इस सिद्धान्त के मुताबिक जब पानी को उबाला जाता है (अर्थात् उसे अग्नि तत्व प्रदान किया जाता है) तो कुछ पानी पृथ्वी तत्व में तबदील होने लगता है। यही पृथ्वी तत्व बर्तन में मटमैले अवशेष के रूप में बचा रहता है। यह अवलोकन तो आपने भी किया होगा।
1768 में एन्तोन लेवॉज़िए ने वह सुन्दर प्रयोग किया था जिसमें पानी को एक बन्द बर्तन में पूरे तीन महीने उबाला गया। बर्तन और पानी को प्रयोग के पहले व बाद में तौलकर लेवॉज़िए यह दर्शाने में सफल रहे थे कि अन्त में जो थोड़ा-सा ठोस पदार्थ बना था, वह काँच के बर्तन में से घिसकर निकला था।
ऐसे कई प्रयोगों के परिणामों से लेवॉज़िए ने निष्कर्ष निकाला था कि पानी के वाष्प बनने की क्रिया की ज़्यादा उपयुक्त व्याख्या यह है कि गर्मी पाकर पानी (व अन्य तरल पदार्थों) के अंश फैल जाते हैं (अर्थात् दूर-दूर हो जाते हैं) और वायु रूप धारण कर लेते हैं। जब यह गर्मी हटाई जाती है, तो वापिस तरल अवस्था प्राप्त होती है। इस आधार पर सामान्यीकरण करके वे यह दर्शा पाए कि प्रकृति में सारे पदार्थ तीनों अवस्थाओं में रह सकते हैं।
फाइलो का उक्त प्रयोग बहुत रोचक व सम्भावनाओं से भरा प्रयोग है। यदि आप एक प्लेट में पानी भरकर उसमें एक मोमबत्ती जलाकर रख दें और ऊपर से एक बीकर ढक दें, तो... करके देखिए। यह प्रयोग आधुनिक रसायन शास्त्र का प्रवेश द्वार है। इस प्रयोग को लेकर आज भी कई लोग विचार करते रहते हैं। इस विचार प्रक्रिया की कुछ झलकियाँ हम आगे देखेंगे। वैसे इस प्रयोग को लेकर ‘शैक्षणिक संदर्भ’ में कुछ लेख प्रकाशित हुए थे (‘संदर्भ’ के मूल अंक 4, 10 और 19 में प्रकाशित लेख अवश्य पढ़ लीजिए)।
कुल मिलाकर फाइलो के प्रयोग का निष्कर्ष यह है कि चीज़ें जलने पर उनमें से अग्नि तत्व निकलता है और बर्तन में मौजूद वायु तत्व का कुछ हिस्सा अग्नि तत्व में परिवर्तित हो जाता है। अग्नि तत्व बर्तन में से निकल जाता है और वहाँ खाली स्थान बन जाता है जिसे भरने के लिए पानी ऊपर चढ़ता है। यानी आग को समझाने के साथ-साथ फाइलो यह भी कह रहे हैं कि तत्वों का एक-दूसरे में परिवर्तन सम्भव है।
यहाँ एक बात गौरतलब है। एक ओर तो जलने की व्याख्या अग्नि तत्व के आधार पर करने की कोशिशें हो रही हैं वहीं दूसरी ओर, लगभग उसी समय अन्य कई वैज्ञानिक अग्नि तत्व पर सवाल उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये एक के बाद एक आ रहे हैं। ये दो धारणाएँ काफी लम्बे समय तक साथ-साथ चली हैं।
इसके कई सदियों बाद लियोनार्दो दा विंची (1452-1519) ने फाइलो के काम को आगे बढ़ाया और स्पष्ट किया कि दहन और श्वसन की क्रियाओं में हवा का कुछ भाग खर्च हो जाता है। मगर इस कहानी को अभी यहीं छोड़ते हैं, अगले अंक के लिए।
-- अगले अंक में भी जारी
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।